अगर आपको भी लगता है कि ओवैसी की वजह से महागठबंधन हारा तो ठहरिए, दो बार सोचिए, यह लेख पढ़िए फिर निर्णय लीजिए.
अब बाकी बचीं 15 सीट जहां पर ओवैसी की पार्टी लड़ी और चुनाव हार गयी है. इनमें से एनडीए को छह सीट पर जीत हासिल हुई जिसमें भाजपा को तीन, जनता दल (यूनाइटेड) को दो और वीआईपी को एक सीट मिली है.
अब इन छह सीटों को फिर से देखिये. इनमें से कोई भी सीट ऐसी नहीं हैं जहां पर महागठबंधन सिर्फ इस वजह से हार गया हो कि ओवैसी की पार्टी ने वोट काट दिया. साहेबगंज सीट वीआईपी ने जीती और दूसरे नंबर पर राजद है. यहां पर जीत का अंतर 15,333 वोट हैं जबकि ओवैसी की पार्टी ने मात्र 4,055 वोट प्राप्त किये.
दूसरी सीट छातापुर है, जहां भाजपा जीती और दूसरे नंबर पर राजद है. जीत का अंतर हैं 20,635 वोट और ओवैसी को मिले मात्र 1,990 वोट. तीसरी सीट नरपतगंज है. भाजपा ने राजद को 28,610 के अंतर से हराया और ओवैसी के कैंडिडेट को मिले सिर्फ 5,495 वोट.
चौथी सीट है प्राणपुर, जहां भाजपा ने कांग्रेस को हराया और ओवैसी के कैंडिडेट को मिले सिर्फ 508 वोट. पांचवीं सीट है बरारी सीट जो जनता दल (यूनाइटेड) ने जीती और राजद दूसरे स्थान पर रहा. यहां पर अंतर 10,438 का रहा लेकिन ओवैसी के उम्मीदवार को मात्र 6,598 वोट मिले. और अंत में है, रानीगंज सीट, जहां पर जनता दल (यूनाइटेड) ने राजद को 2,304 वोट से हराया और ओवैसी को मिले 2,412 वोट. यही एक ऐसी सीट हैं जहां पर जीत का अंतर ओवैसी के उम्मीदवार को मिले वोट से कम है.
तो आंकड़ों की रोशनी में आप दावे से कह सकते हैं कि सिर्फ एक इसी सीट का नुकसान महागठबंधन को ओवैसी की वजह से हुआ है. लेकिन इसी सीट पर पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी (लोकतान्त्रिक), चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और एक निर्दलीय को भी ओवैसी की पार्टी से ज़्यादा वोट मिले. यहां तक नोटा में भी इन सबसे ज़्यादा वोट हैं. लेकिन इन सबको किसी ने वोटकटवा नहीं कहा.
अब बचती हैं नौ सीट जहां पर ओवैसी के कैंडिडेट रहने के बावजूद महागठबंधन के उम्मीदवार जीत गए. इसमें कांग्रेस ने चार, राजद ने तीन और सीपीआई (माले) ने दो सीट जीती हैं. इन नौ सीटों पर ओवैसी को वोट कटवा कहा ही नहीं जा सकता है.
पिक्चर साफ़ है. सिर्फ एक सीट रानीगंज ऐसी है जहां पर ओवैसी के कैंडिडेट को जीत के अंतर से अधिक वोट मिले और वो एनडीए ने जीती. इसीलिए सिर्फ ओवैसी और उनकी पार्टी को दोष देना, मुसलमानों ने वोट नहीं दिया, ये सोचना तथ्यों से परे है. आंकड़े साफ़ बताते हैं कि बहुत सी सीटों पर मुसलमानों ने महागठबंधन को ज़्यादा वोट दिया है जबकि वहां पर ओवैसी का मुस्लिम कैंडिडेट मौजूद था. जैसे शेरघाटी सीट राजद की मंजू अग्रवाल ने जीती और एमआईएम के मसरूर आलम मात्र 14,951 वोट पाए. वो लड़ाई में कहीं नहीं थे.
अररिया में कांग्रेस के मुस्लिम कैंडिडेट को एक लाख से ज़्यादा वोट मिले और ओवैसी के कैंडिडेट को मात्र 8,924 वोट. ये सीट कांग्रेस ने जीती. क़स्बा सीट से कांग्रेस के मुस्लिम कैंडिडेट मोहम्मद आफ़ाक़ आलम ने 77,410 वोट पाकर जीत दर्ज की और एमआईएम के शाहबाज़ को मात्र 5,316 वोट मिले.
यहां तक कि किशनगंज में एमआईएम के सिटिंग विधायक कमरुल हुदा थे, जिनको 41,904 वोट मिले. यहां पर कांग्रेस के इजहारुल हुसैन ने 61,078 वोट पाकर जीत दर्ज की. मतलब मुसलमानों ने कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार को ज़्यादा पसंद किया. सिकता सीट पर लेफ्ट के बीरेंद्र प्रसाद गुप्ता को 49,075 वोट मिले और वो जीत गए जबकि ओवैसी के मुस्लिम कैंडिडेट रिज़वान रियाजी को मात्र 8,519 वोट मिले. इसी तरह ठाकुरगंज में भी राजद के मुस्लिम कैंडिडेट सऊद आलम जीते और एमआईएम के महबूब आलम चुनाव हार गए.
इससे साफ़ हैं की ओवैसी के मुस्लिम उम्मीदवारों को हर जगह वोट नहीं मिला हैं. और यह कहना पूरी तरह से गलत है कि महागठबंधन सिर्फ ओवैसी के वोट काटने की वजह से हार गया. असलियत इससे परे है और वो चुनावी हार जीत की गहमा-गहमी में खो जाती है.