मुक्तिबोध की जाति पर दिलीप मंडल और प्रियदर्शन को उनके एक मुरीद का संदेश

एक पत्रकार क्या करता है? आधार और तथ्य की खोज. विश्वदीपक या अभिषेक श्रीवास्तव ने वही किया. इसके लिए सामूहिक हमला क्यों?

WrittenBy:नवीन कुमार
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पॉलिटिकल लोकेशन को समझिए. जो समस्या कन्हैया के भक्तों की है वही दिलीप मंडल के अनुयायियों की भी है. कन्हैया के भक्त क्या कहते हैं? कि जहां-जहां वह जाते हैं उसी को प्रगतिशीलता माना जाए. मतलब कन्हैया प्रगतिशीलता के सर्टिफिकेट हैं. आप लिखकर ले लीजिए कल को वह बीजेपी या जेडीयू में भी चले गए तो उसको भी भाई लोग कम्युनिस्ट पार्टी से ज्यादा क्रांतिकारी कहने लगेंगे.

दिलीप मंडल के साथ भी यही है. वह जातिवादी विमर्श के शाही इमाम बनकर रहना चाहते हैं. एक जमाना था जब शाही इमाम के फतवे पर मुसलमान पागल हो जाते थे. फिर वो भी भी दिन आया जब इमाम साहब जामा मस्जिद की राजनीति में भी अप्रासंगिक हो गए. पंडीजी लोग भी यही करते रहे हैं. वो विमर्श को सत्यनारायण की कथा समझते हैं. कि अगर ब्राह्मण नाराज हो गया तो घरबार लुट जाएगा, व्यापार में नुकसान हो जाएगा, पति मर जाएगा यहां तक कि अगला जन्म भी खराब हो जाएगा. सबको पता है कि इस देश में न सत्यनारायण की कथा बंद होने वाली है और ना ही फतवेबाजी. लेकिन पढ़े लिखे लोगों को दोनों ही से बाज आना चाहिए.

आपका समाधान क्या है? वही जो भारतीय जनता पार्टी और संघ की वैचारिकी का है? कि मुसलमानों को अरब सागर में फेंक देना चाहिए क्योंकि उनके पुरखों ने भारत के लोगों पर अत्याचार किए थे? दिलीप मंडल तो पोल के मास्टर हैं. वो पोल कर लें कि क्या ब्राह्मणों को दलित उत्पीड़न के अपराध के लिए इस देश से बाहर कर देना चाहिए. उनके अनुयायी टूटकर कहेंगे हां. तो क्या इसको मान लिया जाए? यह वैसा ही है जैसे आप पोल करें कि क्या किसी बलात्कार के आरोपी को चौराहे पर फांसी दे देनी चाहिए. लोग कहेंगे हां. दरअसल ये भावनाओं के साथ खेलना है. आप जवाब सोचकर सवाल पूछते हैं. और अपनी चालाकी को जनता के माथे पर डालकर लोकतांत्रिक बने रहते हैं. यही तो संघ और बीजेपी कर रही है. फिर दिक्कत क्या है? कहां है?

दिलीप मंडल तो तमिलनाडु में दलितों को पुजारी बनाए जाने पर भी लट्टू हो जाते हैं. यह बाबा साहब की शिक्षाओं में आग लगा देने जैसा है. आप ऐसी व्यवस्था को जातिभेद विमुक्ति का रास्ता तभी मान सकते हैं जब अपने आपको चेतना और बौद्धिकता के स्तर पर बाबा साहेब से ऊपर मान लें. कल को ये लोग साबित कर देंगे कि देश में दलितों का राज आ चुका है. 131 में से 77 दलित-आदिवासी लोकसभा सांसद बीजेपी के है. एक पिछड़ा चाय वाला गरीब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा हुआ है. एक दलित राष्ट्रपति की कुर्सी पर है. बाबा साहेब की सबसे बड़ी फोटो मायावती नहीं, संघ अपने मंचों पर लगा रहा है. पांचजन्य आंबेडकर विशेषांक निकाल रहा है. एक दिन ऐसे लोग पूछ देंगे दलित राज और कैसा होता है? आप कहेंगे ऐसा नहीं होता है तो उनके अनुयायी आप पर हमला कर देंगे. प्रियदर्शन आपको “बेचैन और अशांत” कहकर नॉन एंटिटी साबित कर देंगे.

मायावती के मंचों पर बजता हुआ शंख किसके अनुयायियों को जातिभेद मुक्ति का प्रस्थान बिंदु नजर आ रहा है? बीएसपी के मंच पर देशस्थ ब्राह्मण शंख बजा रहे थे. जिनसे इतने चिढ़ गए दिलीपजी. मंत्रोच्चार से मायावती का स्वागत किया गया. उन्होंने पंडितों की थमाई हुई तलवार भी उठाई और गणेश की मूर्ति का अनुष्ठान भी किया. उन्होंने एलान किया कि कांशीराम की बीएसपी ब्राह्मणों को न्याय दिलाने के लिए मैदान में उतरेगी. हम रिकॉर्ड संख्या में ब्राह्मणों को विधानसभा और संसद में पहुंचाएंगे. उन्होंने एक बार भी दलित उत्पीड़न का जिक्र नहीं किया. पूना पैक्ट में बाबा साहेब के साथ हुए धोखे को मायावती ने अंजाम तक पहुंचा दिया है. कांशीराम की बनाई हुई पार्टी के लिए तीन दशक में दलित शोषित से शोषक हो गए. क्या हम पूछ नहीं सकते कि दलितों ने किसका शोषण किया है? और आप इसे दलित चेतना साबित करने पर आमादा हैं.

दिलीपजी हम सब आपके मुरीद हैं. लेकिन कई बार उसी स्पेस में हम असहमत भी हो सकते हैं. लेकिन आप असहमति को आक्रमण मान लेते हैं. आप अनुयायियों से घिरे रहते हैं. और उन्होंने आपको यकीन दिला दिया है कि आपको साथियों की नहीं भक्तों की जरूरत है. जबकि सचेतन बदलाव केवल साथियों के दम पर आते हैं. विश्वदीपक और अभिषेक ने इससे इंकार किया तो आपने उनपर हमला बोल दिया. यह ठीक नहीं था. इसे सदाशयता के साथ स्वीकार करके आगे बढ़ जाते. जब बाबा साहब और गांधी वृहतर सवालों के परिप्रेक्ष्य में किसी बिंदु पर साथ आ सकते हैं तो हम सब क्यों नहीं.

गुस्सा छोड़ दीजिए. इस प्रसंग को यहीं स्थगित कीजिए. आप पर आरोप है कि आप खर्च नहीं करते. आप एक अच्छा आयोजन कीजिए. अभिषेक और विश्वदीपक को बुलाइए. उन्हें जी-भरके गालियां दीजिए, और गले से लगाइए. प्रियदर्शनजी को भी बुलाइए. वह हम सबसे बड़े हैं. या कहें हम सब उनके सामने बच्चे हैं. लड़ने-झगड़ने का अधिकार हमारा है, उनका नहीं. उन्हें इस बात के लिए चिंतित होना चाहिए कि हमने लड़ना छोड़ क्यों दिया. सवाल उठाना क्यों छोड़ दिया. हमारी खबर आनी क्यों बंद हो गई. मेरा अनुरोध है कि पर्यवेक्षक के तौर पर मुझे और समरेंद्र सिंह को भी बुलाया जाए. इस दुनिया में बहसों की गुंजाइश वैसे भी कम होती जा रही है. इसको और कम न किया जाए. अगर हम आपस में लड़ते रहे तो किसी दिन संघ आंबेडकर की पटेल से भी ऊंची मूर्ति नागपुर मुख्यालय में लगवा देगा और हम सब आपके नेतृत्व में वहां उनकी आरती उतारने जाया करेंगे.

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