धारा 370 के खात्मे के 22 महीनों बाद राज्य के तमाम राजनैतिक दलों के साथ केंद्र सरकार 24 जून को एक बैठक आयोजित करने जा रही है.
धारा 370 और 35 ए को जिस तरह से खत्म किया गया उसकी आलोचना पूरी दुनिया में हुई है और देश की सर्वोच्च अदालत के संज्ञान में भी इस मामले को लाया गया है जिसमें हालांकि 22 महीनों बाद भी कोई प्रगति नहीं हुई है लेकिन केंद्र सरकार के इस फैसले और तमाम नागरिक विरोधी कार्यवाहियों को लेकर सवाल तो बने हुए हैं. इसके अलावा जो वादे और दावे केंद्र सरकार ने संसद में इस कार्यवाही के समर्थन में किए थे उनका भी दम इन 22 महीनों में निकल गया है.
भाजपा और केंद्र सरकार ज़रूर इसमें कामयाब रही है कि एक विधायिका या प्रशासनिक इकाई के तौर पर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में चल रहे अंतर समुदाय द्वन्द्वों का राजनैतिक लाभ या माइलेज लिया और सालों से जम्मू-कश्मीर की मुख्य धारा से कटे कई समुदायों को यह उम्मीद दिखलाई कि उन्हें भी निर्णायक और सम्मानजनक प्रतिनिधित्व इस भूगोल की राजनीति में हासिल होगा.
उम्मीद, जैसा हर मोर्चे पर इस सरकार ने साबित किया है कि यह महज़ एक शब्द है यहां भी 22 महीनों में यही साबित हुआ. राजनैतिक नेतृत्व और प्रतिनिधित्व का नए सिरे से निर्माण करने की उत्कट अभिलाषा और उसके अनुरूप एकतरफा कार्यवाहियों का हासिल हालांकि भाजपा के पक्ष मे सीमित अर्थों में रहा लेकिन इन समुदायों को वाकई कुछ हासिल नहीं हुआ.
ऐसे समुदायों में गुज्जर, बकरबाल या चौपन जैसे जंगलों पर आश्रित पशुपालक समुदायों को धारा 370 हटने से होने वाले फायदों को लेकर केंद्र सरकार ने अपनी तरफ लिया था. इन 22 महीनों में ये समुदाय खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं. जिस गवर्नेंस, नागरिक सहभागिता और आर्थिक लाभ व नागरिक सेवाओं को इन तक पहुंचना था और जिसका तसब्बुर इन समुदायों को था वो पूरी तरह विफल रहा है. एक अन्य रिपोर्ट में इसका तबसिरा तफसील से किया गया था कि कश्मीर के इन समुदायों को धारा 370 के खात्मे के बाद क्या हासिल हुआ. इस रिपोर्ट में यह बात ज़ाहिर हुई थी कि इन्हें नयी व्यवस्था में लाभ के वजाय नुकसान ही ज़्यादा हुए हैं. एक अस्मिता या पहचान की राजनीति और उसके बूते उभर रहे नेतृत्व को लेकर ज़रूर एक आश्वस्ति मिलती है लेकिन इस नेतृत्व के लक्ष्य बहुत सीमित हैं और नज़र संकीर्ण इसलिए इसके उभार से भी व्यापक भूगोल में कोई स्थायी या सकारात्मक बदलाव होंगे यह मानना हालांकि जल्दबाज़ी है लेकिन उद्देश्यों में सीमित किसी भी नेतृत्व का यही हश्र हमने इतिहास में देखा है.
अब सवाल है कि क्या केंद्र सरकार अपनी विफलताओं और अहंकार से भरे फैसले पर पुनर्विचार करेगी और जम्मू-कश्मीर को पुन: राज्य के रूप में पुनर्गठित करेगी? क्या जम्मू -कश्मीर (और लद्दाख) को पुन: इसका पुराना विशेष दर्जा दिया जाएगा? कश्मीर में छोटे और बड़े तमाम समुदाय एक मजबूत इतिहास बोध के वारिस हैं और उसके प्रति बेहद संवेदनशील हैं. इस इतिहास बोध में उनकी अपनी सांस्कृतिक विरासत और जीवन मूल्यों को लेकर चेतना का व्यापक असर है. और यही वजह रही कि न केवल कश्मीर घाटी के कश्मीरी मुस्लिम समुदायों ने इस भूगोल में बाहरियों को लेकर संकोच किया बल्कि जम्मू क्षेत्र के हिन्दू और डोंगरा समुदाय ने भी यही रुख अपनाया और लद्दाख में बसे बौद्धों ने भी. यही वजह रही कि आपस में शायद इनके अंतर्द्वंद्व कितने भी गहरे हों, धारा 370 और 35 ए को सभी समुदायों ने एक बड़े सुरक्षा कवच के तौर पर देखा है. 35 ए के न होने से इन सभी समुदायों ने एक तरह से यह सुरक्षा कवच खोया है जिसे लेकर आंतरिक असंतोष व्याप्त है.
हाल ही में केंद्र सरकार ने केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में 100 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित की हैं जिसे भी इसी विशेष दर्जे की विशेष मांग की दिशा में देखा जा रहा है. संभव है यही मांग अन्य दो क्षेत्रों जम्मू व कश्मीर की तरफ से भी आए.
हालांकि राज्य का दर्जा वापिस देने का वचन देश के गृहमंत्री ने बार बार दोहराया है लेकिन इसमें धारा 370 के तहत आरक्षित विशेष दर्जे की बात नहीं है बल्कि इसका आशय एक अन्य पूर्ण राज्य के गठन तक ही सीमित है. यह अटकलें हालांकि लगाईं जा रहीं हैं कि धारा 370 के वजाय धारा 371 के प्रावधान वहां लागू किए जा सकते हैं. जिसके तहत पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह सांस्कृतिक और विशेष जरूरतों के लिए विशेष प्रावधान किए जा सकते हैं.
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि जम्मू कश्मीर के राजनैतिक दल जो इस बैठक में शामिल होंगे क्या वाकई वहां की आवाम की ख़्वाहिशों का प्रतिनिधित्व करेंगे? खुद गृहमंत्री और प्रधानमंत्री इस बैठक में उन दलों के समूह के साथ किस उदारता से बात कर पाएंगे जिसे पार्टियों के एलायंस के बदले ‘गैंग’ के नाम से बदनाम किया जाता रहा और खुद इस समूह यानी ‘गुपकर एलायंस’ के नेता कितनी सहजता से इस बैठक में अपने अवाम की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करेंगे?
अंतरराष्ट्रीय दबाव और व्यावहारिक समाधान तलाशने की जद्दोजहद केंद्र सरकार के इस कदम की पूर्वपीठिका भले हो लेकिन अनुमान यही हैं कि इन 22 महीनों में कश्मीर के राजनैतिक दलों और उनके नेताओं के तेवर कमजोर पड़े हैं जिसका वास्तविक आंकलन केंद्र सरकार के अधीन तमाम ‘स्वायत्त संस्थाओं’ ने कर लिए हैं।
(यह लेख कश्मीर के स्थानीय पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के इनपुट्स के आधार पर लिखा गया है.)