हिंदू आईटी सेल: वह व्यक्ति जो भगवानों की रक्षा के लिए ऑनलाइन आए

'हम अच्छे लोगों को निशाना नहीं बनाते. हम उन्हें निशाना बनाते हैं जो हिंदुओं को, हिंदुत्व को, भारत को निशाना बना रहे हैं. गलती उन्हीं की है.'

हिंदू आईटी सेल: वह व्यक्ति जो भगवानों की रक्षा के लिए ऑनलाइन आए
Shambhavi Thakur
  • whatsapp
  • copy

कानूनी असफलता

बोलने की आजादी की इच्छा और उस पर धार्मिक भावनाओं को आहत ना करने से बचाने के लिए लगाई गईं तरह तरह की पाबंदियों के बीच की खींचतान देश में दशकों से चली आ रही है. कई लोग या समूह किसी न किसी धर्म के रक्षक बनकर सार्वजनिक मंचों और अदालतों दोनों को ही बोलने की आजादी पर पाबंदियां लगाने के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं.

भारत का संविधान बोलने की आजादी नागरिकों को प्रदान करता है लेकिन वह सरकार को भी यह हक देता है कि वह उस पर "तर्कसंगत पाबंदियां" लगा सके. यह पाबंदियां भारतीय कानून संहिता में दो खास कानूनों में परिभाषित होती हैं जो किसी भी धर्म जाति भाषा के बिना पर नफरत फैलाने वाले को रोकने और सजा देने के लिए बनाई गई हैं.

हिंदू आईटी सेल के द्वारा कानूनी तौर पर लोगों को निशाना बनाने की प्रक्रिया मुख्यतः भारतीय कानून संहिता की धारा 153a और 295a पर टिकी है. आईटी सेल के स्वयंसेवी अक्सर इन धाराओं कि बिना पर ही अपनी शिकायतें दर्ज कराते हैं.

गौतम भाटिया जो एक अधिवक्ता हैं यह समझाते हैं कि भारतीय कानून संहिता की धारा 295a "ब्लॉस्फेमी कानून का ही एक प्रारूप है", ब्लास्फेमी का अर्थ ईश-निंदा होता है. धारा 295ए किसी भी नागरिक के धर्म या धार्मिक भावनाओं के अपमान की सजा देने के लिए है, अगर वह अपमान जानबूझकर और उस समूह विशेष की धार्मिक भावनाएं आहत करने की बुरी मंशा से किया गया है.

यह एक ऐसा अपराध है जिसका संज्ञान पुलिस स्वयं ले सकती है जिसका मतलब कि पुलिस आरोपी को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है.

धारा 153ए ऐसे व्यक्ति को सजा देने के लिए बनी है "जो धर्म, जाति, जन्म स्थान, घर, भाषा आदि चीजों का इस्तेमाल अलग-अलग समूहों में नफरत पैदा करने और शांति भंग करने वाले कामों को करने के लिए करता है." यही धारा सार्वजनिक तौर पर नफरत फैलाने वाली भाषा के लिए भी इस्तेमाल की जाती है.

धारा 295ए का सत्यापन उच्चतम न्यायालय की पांच जजों की बेंच ने भी किया है. इसका मतलब है कि उसे संवैधानिक मान्यता प्राप्त है और भाटिया की नजर में अब उसकी समीक्षा 7 जज वाली बेंच ही कर सकती है, जो एक दुर्लभ संभावना है.

हालांकि 1957 की 5 जजों की बेंच के निर्णय के बाद अदालतों ने ब्लॉस्फेमी कानून के इस भारतीय प्रारूप पर निर्णय लेने में नियमितता नहीं दिखाई है.

उच्चतम न्यायालय के कुछ आदेश आए हैं जिन्होंने इन धाराओं के इस्तेमाल पर कुछ बंदिशें लगाई है.

संविधान में दी गई बोलने की आजादी जो संविधान के अनुच्छेद 19ए में सबको मिलती है उसे दोहराते हुए उच्चतम न्यायालय ने कई बार इन दो धाराओं के दुरुपयोग को रेखांकित किया है. क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी के द्वारा उन पर धारा 295ए के तहत धार्मिक भावनाओं को आहत करने के मामले में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनजाने में और गलती से हुई धर्म की इन "बेज्जतियों" पर कानूनी कार्यवाही नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह कानून के दुरुपयोग से कम नहीं होगा. धोनी के ऊपर मामला इसलिए दर्ज हुआ था क्योंकि सन 2013 में एक बिजनेस मैगजीन के कवर पर उन्हें भगवान विष्णु की तरह दिखाया गया था.

धारा 153ए को लेकर न्यायालय ने पिछले साल दिसंबर में यह निर्णय दिया था कि इस धारा के अंदर मामला दर्ज करने के लिए आरोपी की ओर से बुरा फैलाने की नियत और हरकत के पीछे सोचे समझे निर्णय का होना जरूरी है.

लेकिन हिंदू आईटी सेल के भुक्तभोगियों को कानून की न्यायिक व्याख्या ही परेशान नहीं करती, बल्कि भारत की न्याय व्यवस्था की मंद गति और ट्रोलिंग ही कभी-कभी बड़े खतरे में बदल जाती हैं.

अभिनव सेखरी, एक अधिवक्ता जो इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के साथ बोलने की आजादी के मामलों पर काम कर रहे हैं, समझाते हैं, "इन नफरत के अपराधों में यह आरोप लगाया जाता है कि किसी कार्य से धार्मिक भावनाएं आहत हुई है. केवल इसे जांच रहे थे और साक्ष्य रहित आरोप पर ही किसी व्यक्ति को जमानत के हक के बिना गिरफ्तार किया जा सकता है क्योंकि इन अपराधियों का संज्ञान पुलिस खुद ले सकती है और यह गैर जमानती है. यहीं पर से गड़बड़ और प्रताड़ना शुरू हो जाती है. इसीलिए महेंद्र सिंह धोनी जैसे लोग भी सुरक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय की ओर दौड़ते हैं, क्योंकि हमारी न्यायिक व्यवस्था किसी को केवल आरोपों के बिना पर ही जेल भेजने देती है, और कानूनी प्रक्रिया की धीमी गति अनावश्यक और अनुच्छेद कारावास सुनिश्चित कर देती है. इन शुरुआती परिस्थितियों में, पुलिस किसी अपराध की मानसिक पृष्ठभूमि को कैसे जांचेगी या वह साबित होगा भी या नहीं, यह बात बाद के लिए रहती है."

प्रदीप कुमार के मामले में हिंदू आईटी सेल ने कम से कम 6 शिकायतें की हालांकि उनमें से एक भी एफआईआर में नहीं बदली. और भी कई मामलों में शिकायतें कानूनी मापदंडों पर खरी नहीं उतरीं.

दिल्ली उच्च न्यायालय के वकील मुकेश शर्मा जो आईटी सेल के कानूनी सलाहकार की भूमिका भी अदा करते हैं, ने भी इस बात की पुष्टि की. उन्होंने कहा, "पुलिस स्टेशनों में करीब 50-60 शिकायतें ऐसी लंबित हैं जिन्हें वह एफआईआर में नहीं बदल रहे. ऐसे मामले में हम उनके वरिष्ठ अधिकारियों से सलाह करते हैं, या तो एसएचओ या डीसीपी, और उन्हें संज्ञान लेने के लिए प्रेरित करते हैं. अगर वह भी ऐसे ही करते तो हम स्थानीय अदालत में धारा 156(3) के अंतर्गत अपील दायर करते हैं."

सीआरपीसी की धारा 156(3) एक मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देती है कि वह पुलिस को किसी शिकायत की जांच करने का आदेश दे सके.

वे समझाते हैं, "सुष्मिता सिन्हा के मामले में भी ऐसा ही हुआ. दिल्ली पुलिस ने संज्ञान नहीं लिया जिसके बाद मैंने साकेत न्यायालय में अर्जी दाखिल की थी."

सुष्मिता याद करते हुए कहती हैं, "हिंदू आईटी सेल ने मेरे खिलाफ गोविंदपुरी थाने में शिकायत दर्ज की लेकिन एसएचओ ने एफआईआर लिखने से मना कर दिया. बाद में मेरे खिलाफ शिकायत की. अदालत ने पुलिस को इस मामले में अपनी कार्यवाही की रिपोर्ट दाखिल करने के लिए कहा. पुलिस ने बताया कि मेरे खिलाफ कोई मामला नहीं बनता. उसके बाद हिंदू आईटी सेल ने उसको भी चुनौती दी लेकिन अक्टूबर में इस मामले की सुनवाई की तारीख को वह अदालत में उपस्थित नहीं हुए."

'धर्म के लिए'

हिंदू आईटी सेल शुरू करने वालों ने अपना किसी भी राजनीतिक दल से संबंध होने से इनकार यह कहकर किया कि वह केवल "राष्ट्रवाद और हिंदू धर्म" के लिए ही हैं. लेकिन फिर भी वह अक्सर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से मिलते रहते हैं. पिछले साल वह भाजपा नेता कपिल मिश्रा के साथ दीपावली मनाने के एक अभियान की शुरुआत कर रहे थे जो नए नागरिकता कानून के अंतर्गत इंतजार कर रहे हिंदू शरणार्थियों के साथ मनाया जा रहा था. कपिल मिश्रा पर 2020 के दिल्ली दंगों को भड़काने का आरोप लगाया जाता है.

अगस्त 2019 में गृह मंत्रालय ने आईटी सेल के सदस्यों जैसे "साइबर क्राइम स्वयंसेवी, जो गैरकानूनी कंटेंट को चिन्हित करते हैं" को ऑनलाइन "आतंकवाद, कट्टरवाद और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों" को चिन्हित करने और उन्हें राष्ट्रीय साइबर क्राइम रिर्पोटिंग पोर्टल पर रिपोर्ट करने के लिए आमंत्रित किया था.

रमेश गृह मंत्रालय के कदम को सही बताते हुए यह सवाल पूछते हैं, "सरकार अकेली कितना कर सकती है. जागरूक नागरिक होने के नाते हमारी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं. हालांकि हमारा गृह मंत्रालय से कोई संबंध नहीं, लेकिन हम उन्हें शिकायत करते हैं." उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि आईटी सेल शिकायतें दर्ज करने के लिए राष्ट्रीय साइबर क्राईम रिर्पोटिंग पोर्टल का इस्तेमाल करती रही है.

नवंबर 2020 में मंत्रालय ने राज्यों को नेशनल साइबर क्राईम रिर्पोटिंग पोर्टल पर आई शिकायतों की समीक्षा करने और उन पर आधारित एफआईआर दर्ज करने के लिए लिखा. मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार पोर्टल पर दर्ज की गई शिकायतों में से केवल 2.5 प्रतिशत ही एफआईआर में परिवर्तित की गई हैं.

अपने कार्यों को सही ठहराते हुए रमेश ने कहा, "यह किसी के बाप का बगीचा थोड़ी ना है जो आप घूम के चले जाओ. अगर आप अपमान करोगे, किसी को उंगली करोगे, तो देन यू हेव टु फेस इट."

उन्होंने यह भी कहा, "हमारे देश में बोलने की आजादी है, ऐसा संविधान में लिखा है, लेकिन उसकी भी सीमा है. अगर मैं आपको थप्पड़ मारूं तो क्या वह बोलने की आजादी है?"

"बहुत ही महीन रेखा है. एक बार आप उसे लांघें हैं तो वह अपराध है."

"वैसे भी हम यह सब कानूनी तौर पर कर रहे हैं."

सृष्टि जसवाल और श्रीगिरीश जालिहाल द रिपोर्टर्स कलेक्टिव से जुड़े हुए हैं.

Also see
राज्य सरकारें नए सोशल मीडिया कानून के तहत नोटिस जारी नहीं कर सकती हैं- केंद्र सरकार
बिहार में सरकार या सरकारी कर्मचारियों पर सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक कमेंट करने पर होगी जेल
राज्य सरकारें नए सोशल मीडिया कानून के तहत नोटिस जारी नहीं कर सकती हैं- केंद्र सरकार
बिहार में सरकार या सरकारी कर्मचारियों पर सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक कमेंट करने पर होगी जेल

कानूनी असफलता

बोलने की आजादी की इच्छा और उस पर धार्मिक भावनाओं को आहत ना करने से बचाने के लिए लगाई गईं तरह तरह की पाबंदियों के बीच की खींचतान देश में दशकों से चली आ रही है. कई लोग या समूह किसी न किसी धर्म के रक्षक बनकर सार्वजनिक मंचों और अदालतों दोनों को ही बोलने की आजादी पर पाबंदियां लगाने के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं.

भारत का संविधान बोलने की आजादी नागरिकों को प्रदान करता है लेकिन वह सरकार को भी यह हक देता है कि वह उस पर "तर्कसंगत पाबंदियां" लगा सके. यह पाबंदियां भारतीय कानून संहिता में दो खास कानूनों में परिभाषित होती हैं जो किसी भी धर्म जाति भाषा के बिना पर नफरत फैलाने वाले को रोकने और सजा देने के लिए बनाई गई हैं.

हिंदू आईटी सेल के द्वारा कानूनी तौर पर लोगों को निशाना बनाने की प्रक्रिया मुख्यतः भारतीय कानून संहिता की धारा 153a और 295a पर टिकी है. आईटी सेल के स्वयंसेवी अक्सर इन धाराओं कि बिना पर ही अपनी शिकायतें दर्ज कराते हैं.

गौतम भाटिया जो एक अधिवक्ता हैं यह समझाते हैं कि भारतीय कानून संहिता की धारा 295a "ब्लॉस्फेमी कानून का ही एक प्रारूप है", ब्लास्फेमी का अर्थ ईश-निंदा होता है. धारा 295ए किसी भी नागरिक के धर्म या धार्मिक भावनाओं के अपमान की सजा देने के लिए है, अगर वह अपमान जानबूझकर और उस समूह विशेष की धार्मिक भावनाएं आहत करने की बुरी मंशा से किया गया है.

यह एक ऐसा अपराध है जिसका संज्ञान पुलिस स्वयं ले सकती है जिसका मतलब कि पुलिस आरोपी को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है.

धारा 153ए ऐसे व्यक्ति को सजा देने के लिए बनी है "जो धर्म, जाति, जन्म स्थान, घर, भाषा आदि चीजों का इस्तेमाल अलग-अलग समूहों में नफरत पैदा करने और शांति भंग करने वाले कामों को करने के लिए करता है." यही धारा सार्वजनिक तौर पर नफरत फैलाने वाली भाषा के लिए भी इस्तेमाल की जाती है.

धारा 295ए का सत्यापन उच्चतम न्यायालय की पांच जजों की बेंच ने भी किया है. इसका मतलब है कि उसे संवैधानिक मान्यता प्राप्त है और भाटिया की नजर में अब उसकी समीक्षा 7 जज वाली बेंच ही कर सकती है, जो एक दुर्लभ संभावना है.

हालांकि 1957 की 5 जजों की बेंच के निर्णय के बाद अदालतों ने ब्लॉस्फेमी कानून के इस भारतीय प्रारूप पर निर्णय लेने में नियमितता नहीं दिखाई है.

उच्चतम न्यायालय के कुछ आदेश आए हैं जिन्होंने इन धाराओं के इस्तेमाल पर कुछ बंदिशें लगाई है.

संविधान में दी गई बोलने की आजादी जो संविधान के अनुच्छेद 19ए में सबको मिलती है उसे दोहराते हुए उच्चतम न्यायालय ने कई बार इन दो धाराओं के दुरुपयोग को रेखांकित किया है. क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी के द्वारा उन पर धारा 295ए के तहत धार्मिक भावनाओं को आहत करने के मामले में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनजाने में और गलती से हुई धर्म की इन "बेज्जतियों" पर कानूनी कार्यवाही नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह कानून के दुरुपयोग से कम नहीं होगा. धोनी के ऊपर मामला इसलिए दर्ज हुआ था क्योंकि सन 2013 में एक बिजनेस मैगजीन के कवर पर उन्हें भगवान विष्णु की तरह दिखाया गया था.

धारा 153ए को लेकर न्यायालय ने पिछले साल दिसंबर में यह निर्णय दिया था कि इस धारा के अंदर मामला दर्ज करने के लिए आरोपी की ओर से बुरा फैलाने की नियत और हरकत के पीछे सोचे समझे निर्णय का होना जरूरी है.

लेकिन हिंदू आईटी सेल के भुक्तभोगियों को कानून की न्यायिक व्याख्या ही परेशान नहीं करती, बल्कि भारत की न्याय व्यवस्था की मंद गति और ट्रोलिंग ही कभी-कभी बड़े खतरे में बदल जाती हैं.

अभिनव सेखरी, एक अधिवक्ता जो इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के साथ बोलने की आजादी के मामलों पर काम कर रहे हैं, समझाते हैं, "इन नफरत के अपराधों में यह आरोप लगाया जाता है कि किसी कार्य से धार्मिक भावनाएं आहत हुई है. केवल इसे जांच रहे थे और साक्ष्य रहित आरोप पर ही किसी व्यक्ति को जमानत के हक के बिना गिरफ्तार किया जा सकता है क्योंकि इन अपराधियों का संज्ञान पुलिस खुद ले सकती है और यह गैर जमानती है. यहीं पर से गड़बड़ और प्रताड़ना शुरू हो जाती है. इसीलिए महेंद्र सिंह धोनी जैसे लोग भी सुरक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय की ओर दौड़ते हैं, क्योंकि हमारी न्यायिक व्यवस्था किसी को केवल आरोपों के बिना पर ही जेल भेजने देती है, और कानूनी प्रक्रिया की धीमी गति अनावश्यक और अनुच्छेद कारावास सुनिश्चित कर देती है. इन शुरुआती परिस्थितियों में, पुलिस किसी अपराध की मानसिक पृष्ठभूमि को कैसे जांचेगी या वह साबित होगा भी या नहीं, यह बात बाद के लिए रहती है."

प्रदीप कुमार के मामले में हिंदू आईटी सेल ने कम से कम 6 शिकायतें की हालांकि उनमें से एक भी एफआईआर में नहीं बदली. और भी कई मामलों में शिकायतें कानूनी मापदंडों पर खरी नहीं उतरीं.

दिल्ली उच्च न्यायालय के वकील मुकेश शर्मा जो आईटी सेल के कानूनी सलाहकार की भूमिका भी अदा करते हैं, ने भी इस बात की पुष्टि की. उन्होंने कहा, "पुलिस स्टेशनों में करीब 50-60 शिकायतें ऐसी लंबित हैं जिन्हें वह एफआईआर में नहीं बदल रहे. ऐसे मामले में हम उनके वरिष्ठ अधिकारियों से सलाह करते हैं, या तो एसएचओ या डीसीपी, और उन्हें संज्ञान लेने के लिए प्रेरित करते हैं. अगर वह भी ऐसे ही करते तो हम स्थानीय अदालत में धारा 156(3) के अंतर्गत अपील दायर करते हैं."

सीआरपीसी की धारा 156(3) एक मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देती है कि वह पुलिस को किसी शिकायत की जांच करने का आदेश दे सके.

वे समझाते हैं, "सुष्मिता सिन्हा के मामले में भी ऐसा ही हुआ. दिल्ली पुलिस ने संज्ञान नहीं लिया जिसके बाद मैंने साकेत न्यायालय में अर्जी दाखिल की थी."

सुष्मिता याद करते हुए कहती हैं, "हिंदू आईटी सेल ने मेरे खिलाफ गोविंदपुरी थाने में शिकायत दर्ज की लेकिन एसएचओ ने एफआईआर लिखने से मना कर दिया. बाद में मेरे खिलाफ शिकायत की. अदालत ने पुलिस को इस मामले में अपनी कार्यवाही की रिपोर्ट दाखिल करने के लिए कहा. पुलिस ने बताया कि मेरे खिलाफ कोई मामला नहीं बनता. उसके बाद हिंदू आईटी सेल ने उसको भी चुनौती दी लेकिन अक्टूबर में इस मामले की सुनवाई की तारीख को वह अदालत में उपस्थित नहीं हुए."

'धर्म के लिए'

हिंदू आईटी सेल शुरू करने वालों ने अपना किसी भी राजनीतिक दल से संबंध होने से इनकार यह कहकर किया कि वह केवल "राष्ट्रवाद और हिंदू धर्म" के लिए ही हैं. लेकिन फिर भी वह अक्सर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से मिलते रहते हैं. पिछले साल वह भाजपा नेता कपिल मिश्रा के साथ दीपावली मनाने के एक अभियान की शुरुआत कर रहे थे जो नए नागरिकता कानून के अंतर्गत इंतजार कर रहे हिंदू शरणार्थियों के साथ मनाया जा रहा था. कपिल मिश्रा पर 2020 के दिल्ली दंगों को भड़काने का आरोप लगाया जाता है.

अगस्त 2019 में गृह मंत्रालय ने आईटी सेल के सदस्यों जैसे "साइबर क्राइम स्वयंसेवी, जो गैरकानूनी कंटेंट को चिन्हित करते हैं" को ऑनलाइन "आतंकवाद, कट्टरवाद और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों" को चिन्हित करने और उन्हें राष्ट्रीय साइबर क्राइम रिर्पोटिंग पोर्टल पर रिपोर्ट करने के लिए आमंत्रित किया था.

रमेश गृह मंत्रालय के कदम को सही बताते हुए यह सवाल पूछते हैं, "सरकार अकेली कितना कर सकती है. जागरूक नागरिक होने के नाते हमारी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं. हालांकि हमारा गृह मंत्रालय से कोई संबंध नहीं, लेकिन हम उन्हें शिकायत करते हैं." उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि आईटी सेल शिकायतें दर्ज करने के लिए राष्ट्रीय साइबर क्राईम रिर्पोटिंग पोर्टल का इस्तेमाल करती रही है.

नवंबर 2020 में मंत्रालय ने राज्यों को नेशनल साइबर क्राईम रिर्पोटिंग पोर्टल पर आई शिकायतों की समीक्षा करने और उन पर आधारित एफआईआर दर्ज करने के लिए लिखा. मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार पोर्टल पर दर्ज की गई शिकायतों में से केवल 2.5 प्रतिशत ही एफआईआर में परिवर्तित की गई हैं.

अपने कार्यों को सही ठहराते हुए रमेश ने कहा, "यह किसी के बाप का बगीचा थोड़ी ना है जो आप घूम के चले जाओ. अगर आप अपमान करोगे, किसी को उंगली करोगे, तो देन यू हेव टु फेस इट."

उन्होंने यह भी कहा, "हमारे देश में बोलने की आजादी है, ऐसा संविधान में लिखा है, लेकिन उसकी भी सीमा है. अगर मैं आपको थप्पड़ मारूं तो क्या वह बोलने की आजादी है?"

"बहुत ही महीन रेखा है. एक बार आप उसे लांघें हैं तो वह अपराध है."

"वैसे भी हम यह सब कानूनी तौर पर कर रहे हैं."

सृष्टि जसवाल और श्रीगिरीश जालिहाल द रिपोर्टर्स कलेक्टिव से जुड़े हुए हैं.

Also see
राज्य सरकारें नए सोशल मीडिया कानून के तहत नोटिस जारी नहीं कर सकती हैं- केंद्र सरकार
बिहार में सरकार या सरकारी कर्मचारियों पर सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक कमेंट करने पर होगी जेल
राज्य सरकारें नए सोशल मीडिया कानून के तहत नोटिस जारी नहीं कर सकती हैं- केंद्र सरकार
बिहार में सरकार या सरकारी कर्मचारियों पर सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक कमेंट करने पर होगी जेल
subscription-appeal-image

Press Freedom Fund

Democracy isn't possible without a free press. And the press is unlikely to be free without reportage on the media.As India slides down democratic indicators, we have set up a Press Freedom Fund to examine the media's health and its challenges.
Contribute now

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like