अपने-अपने तालिबान

जैसे आज अफगानी नागरिक कहीं भी भाग जाने को आतुर हैं क्या यही स्थिति हमारे हिन्दुस्तानी नागरिकों की पूरे दो महीने नहीं रही, जो किसी भी तरह अपने घर, अपने गांव पहुंच जाना चाहते थे?

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महिलाओं के लिए तालिबान किसी कहर से कम नहीं है, लेकिन क्या महिलाओं के लिए कोई भी सत्ता (रिजीम) किसी कहर से कम है? मानव सभ्यता के इतिहास में उन कहानियों को छोड़ दिया जाए जहां औरत-पुरुष के बीच वाकई काम का बंटवारा नहीं हुआ था और जिसे आदिम युग कहा जाता है. उसके बाद जितने भी रिजीम आए, वे महिलाओं के लिए किसी कहर से कम नहीं थे क्‍या? जब अनाधिकारिक तौर पर देश का सबसे ताकतवर इंसान कहता है कि महिलाएं, एक पत्नी के तौर पर पुरूष की चाकर हैं या उन्हें बाहर निकलने की ज़रूरत नहीं है या उन्हें आर्थिक गतिविधियों से दूर रखा जाना चाहिए, तो क्या इस एजेंडे में हमें तालिबान के स्वर और उनकी आवाज़ नहीं सुनायी देती?

तालिबान फरमान देता है कि कोई भी ख़वातीन कहीं भी अकेले नहीं निकल सकेगी, उसके साथ पुरुष का होना अनिवार्य है? क्या इस फरमान को हमने पहली दफा तालिबान के हवाले सुना है? आपका नहीं पता लेकिन मेरी एक भाभी जिनकी उम्र अब 60 साल है, आज भी एक दहलीज से दूसरी दहलीज तक जाने के लिए किसी देवर को आवाज़ लगाती हैं. पति को सांप काट ले तो भी अकेले डॉक्टर के यहां तक नहीं जा सकतीं. उनसे कब और किसने ये कहा होगा नहीं मालूम, लेकिन उन्हें पता है कि एक ख़वातीन को अकेले दहलीज से बाहर नहीं जाना है. क्या मेरी भाभी के खुद अपने लिए अपनायी गयी इस आचार संहिता में हमें तालिबान की हिंसक कार्यवाहियों की धमक नहीं सुनायी पड़ती है?

यह इस्लाम को मानने वालों की बात नहीं है जिसे दुनिया में सबसे क्रूर मजहब बताया जाता है. यह बात एक ऐसे धर्म के अनुयायियों की है जो खुद को सबसे सहिष्णु और उदार कहता आया है. इतना उदार कि यही उसका अवगुण बन गया है और उसे हिंसक और उग्र बनाये जाने की राजनैतिक परियोजनाएं खुले आम ज़ोरों पर चलायी जा रही हैं.

आज़ादी एक आकांक्षा है. आज़ादी स्वत: कोई प्राप्य नहीं है. एक यात्रा है. एक मूल्य है. एक उपस्थिति है जिसे हर समय महसूस किया जाना है. आज़ादी यह नहीं है कि सरेआम पत्थरों से मार डालना अनुचित है लेकिन घूंघट में ज़िंदगी बिता देना उचित है. बुर्का, घूंघट से कम बुरा नहीं है. दोनों का उद्देश्य महिलाओं को अदृश्य बनाना है. महज उनकी सेवा लेना और उसकी मौजूदगी को खारिज कर देना दोनों की सोची-समझी साजिश है.

बच्चों के लिए तो एक निर्मल समाज बनाने के बारे में ईमानदारी से अभी तक पूरी दुनिया ने नहीं सोचा है. उनकी दुनिया इस बेदर्द और चालाक दुनिया के भीतर सदियों से दम साधे कहीं छुपकर बैठी है. अपने लिए एक अदद प्यारी दुनिया, प्यारा पड़ोस, प्यारा समाज देखने को लालायित बचपन कब किशोर, युवा और प्रौढ़ में बदल जाता है इसका एहसास हम खुद भी नहीं कर पाते. बचपन महज एक अवस्था ही तो है जिसे ढल जाना है और फिर इसी दुनिया के मुताबिक खुद को ढाल लेना है.

अफगान, हिंदुस्तान से बहुत दूर नहीं है. भौगोलि‍क नजदीकी ज़हन की नजदीकी कैसे बनती है इसके लिए हमें अपने अपने भीतर बैठे तालिबान को महसूस करना होगा. हमें अपने अंदर कई-कई तालिबान दिखलायी देंगे. तालिबान एक अनुमोदित व्यवस्था के समानान्तर एक दीनी व्यवस्था को खड़ा करने का उद्यम है, तो क्या यहां एक सुव्यवस्थित सांवैधानिक व्यवस्था को एक समानान्तर व्यवस्था के तहत चलाने का राजनैतिक, सत्ता संरक्षित और पोषित प्रयास नहीं किया जा रहा है? यह इत्तेफाक नहीं है कि यहां भी दीन का ही सहारा लिया जा रहा है. यह दीन हिन्दुत्व के आवरण में है. काफिर की परिभाषाएं भी लगभग समान हैं, बल्कि यहां काफिर अब वो भी हैं जो दीन के अलावा सत्ता की आलोचना कर दें. क्या हम अपने आसपास तालिबान का एक स्वीकृत स्वरूप देख पा रहे हैं?

इन्हीं आंखों से उन पांच बुर्कानशीं महिलाओं को हम देख पा रहे हैं जो काबुल में राष्ट्रपति भवन के पास प्लेकार्ड लेकर चारों तरफ मची हिंसक अफरातफरी के बीच बेआवाज होकर इस माहौल से अपनी असहमति दर्ज़ करा रही हैं. तमाम वीभत्स दृश्यों के बीच यह एक दृश्य दुनिया को जीने लायक बनाने का सपना हमारी आंखों को दे सकता है. उन महिलाओं को सलाम जिन्होंने बताया कि आज़ादी अफगानियों के लिए महज़ एक सुविधा या सर्विस नहीं बल्कि एक जीवन-मूल्य है.

अफगान हाल-हाल के इतिहास में आज़ादी के लिए लड़ा है. वैश्विक राजनीति और समृद्ध देशों के लालच ने उन्हें आज़ादी के ऐसे-ऐसे और लगभग अंतिम विकल्प दिये हैं जिससे अफगानी केवल वैसी आज़ादी जी सकें कि वे किसका गुलाम होना चाहते हैं. जैसे महिलाओं को यह आज़ादी है कि वे किसकी चाकरी करना चाहती हैं बल्कि यह भी नहीं है, जिसके साथ बांध दिया उन्हें उनकी गुलामी करना है. आज़ादी की आकांक्षा ही आज़ादी पैदा करती है. गुलामी एक परिस्थिति है जो एक परियोजना के तहत थोपी जाती है.

एक समय में दो देशों को देखना, उनकी एक सी नियति को देखना, उनके एक से अतीत को देखना और उनके एक से भविष्य को देखना असहज करता है लेकिन आंखों का क्या कीजिए जो समय के आर-पार यूं ही वक़्त की मोटी-मोटी दीवारों को भेद लेती हैं. इन्हें भेदने दीजिए ऐसी दीवारें जिनके पार हमारा बेहतर भविष्य कुछ आकार ले सकता है.

जब हम अफगान को देखें तो अपने आसपास भी देखें. जब तालिबान को देखें तो अपने आसपास बन रहे, बन चुके और सदियों से बने आए तालिबानों को भी देखें. फिर दुख का एक सार्वभौमिक अध्याय खुलेगा. भौगोलिक सीमाओं से पार. अपनी आंखों को एक बार साफ पानी से धोएं और फिर देखने की कोशिश करें. ज़रूर अभी सदमा लगेगा कि आसपास हम कितने-कितने तालिबानों से घिरे हैं लेकिन अगर आंखें यह देखने का अभ्यस्त हो गयीं तो इन सदमों के पार एक बेहतर दुनिया भी दिखेगी क्योंकि तब तक हम बेहतर मनुष्य हो रहे होंगे.

दुख सबको इसीलिए मांजता है. मिला लेना चाहिए अभी सारे दुखों को. इसे मीडिया की नज़रों से नहीं, मनुष्यता की अपनी और केवल अपनी नज़रों से देखिए.

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(साभार- जनपथ)

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