हिंदी अखबारों के पन्नों से क्यों गायब है महिला फोटोग्राफरों का काम?

अंग्रेजी अखबारों की तुलना में हिंदी अखबारों में एक भी महिला फोटो पत्रकार काम नहीं करती. ऐसा क्यों?

Article image
  • Share this article on whatsapp

महिलाओं की कम हिस्सेदारी पर क्या सोचते हैं पुरुष फोटो पत्रकार?

हिन्दुस्तान के वरिष्ठ फोटो पत्रकार सुशील कुमार इस क्षेत्र में महिलाओं के कम दिखने के पीछे की वजह बताते हुए कहते हैं, "अगर पुरुष और महिला फोटो पत्रकारों की तुलना करें तो इसका रेश्यो 90:10 है. महिला फोटोग्राफर को रखते समय एडिटर कई चीज़ों का ध्यान रखते हैं. कई तरह के प्रतिबंध होते हैं जैसे सुरक्षा का ध्यान रखते हुए महिलाओं को रैली कवर करने नहीं भेजा जाता. पत्रकारिता में शारीरिक मेहनत बहुत है. रात को काम करने से मना नहीं कर सकते."

सुशील आगे कहते हैं, "समाज अब भी महिलाओं को फोटोग्राफर के तौर पर स्वीकार नहीं कर पाया है. यदि कोई महिला भीड़ में निकल जाए, लोग उसे घूरकर देखने लगते हैं. मध्यम-वर्गीय लड़कियों के माता-पिता सोचते हैं कि महंगा कैमरा दिलवाने से बेहतर है यही पैसा लड़की की शादी में लगा देंगे. पुरुष फोटोग्राफर भी अपनी बेटियों को इस पेशे में आने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते."

सुशील का मानना है, “महिलाओं का टीम में होने से, पुरुष सही से व्यवहार करते हैं. महिलाओं के टीम में रहने से जेंडर डाइवर्सिटी (लैंगिक विविधता) बनी रहती है. तस्वीरों को खींचने का दूसरा नज़रिया पता चलता है. उनके ऑफिस में रहने से पुरुष भी अनुशासन में रहते हैं."

पंजाब केसरी में फोटोग्राफर मिहिर सिंह कहते हैं कि एक फ्रेशर को 10 से 15 हज़ार रूपए ही मिलते हैं. वहीं दैनिक जागरण के चीफ फोटो पत्रकार ध्रुव कुमार कहते हैं, "इस जॉब में सुबह से शाम तक दौड़ना पड़ता है. हिंदी मीडिया में संसाधनों की कमी रहती ही है. कभी गाड़ी नहीं मिल पाती तो खुद जाना पड़ता है. फिर ऐसे में सैलरी भी कम है."

अमर उजाला में फोटग्राफर विवेक निगम कहते हैं, "मुझे काम करते हुए 14 साल हो गए हैं. आज तक किसी हिंदी भाषी अखबार में लड़की फोटोग्राफर नहीं रही. अमर उजाला में ही दो लड़कियां हुआ करती थीं. लेकिन उन्होंने ज़्यादा दिन तक काम नहीं किया. अब इन अखबारों में फोटो पत्रकरों के लिए पहले के मुकाबले जगह भी कम कर दी है. पहले हमारा 10 लोगों का स्टाफ हुआ करता था. अब चार ही फोटोग्राफर बचे हैं."

अंग्रेजी अखबारों को लीड कर रहीं महिलाओं का क्या सोचना है?

हरियाणा के पारम्परिक परिवार में जन्मी प्रियंका पाराशर ने मीडिया क्षेत्र में अपने लिए एक अलग जगह बनाई. वो साल 2010 में मिंट अखबार की फोटो एडिटर रही हैं. 42 वर्षीय प्रियंका कहती हैं, "हिंदी मीडिया जगत में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है. ऐसा इसलिए क्योंकि फोटो पत्रकारिता 24 घंटे काम के लिए तैयार रहने वाला पेशा है. ऐसे में प्राथमिकता पुरुष फोटोग्राफरों को दी जाती है. लेकिन जो भी महिलाएं ग्राउंड रिपोर्टिंग पर जाती हैं उनका काम सराहनीय है. मुद्दा यह है कि संपादक फोटो टीम में लिंग समान कार्यबल क्यों नहीं नियुक्त करते?"

फोटो पत्रकार रेणुका पुरी 1997 से इंडियन एक्सप्रेस में काम कर रही हैं. इस समय वो इंडियन एक्सप्रेस में आठ फोटोग्राफरों की टीम को बतौर डिप्टी फोटो एडिटर लीड कर रही हैं. फोटो पत्रकारिता में महिलाओं की कम भागीदारी पर वह कहती हैं, "इस पेशे की मांग अलग है. हमारा शरीर आदमियों से अलग होता है. भारी कैमरा उठाना पड़ता है. मेरे पिता कहा करते थे कि बैंकिंग या टीचिंग जैसे पेशे में जाओ जहां सुरक्षित वातावरण मिलता है. जब मैंने उन्हें बताया कि मैं फोटो पत्रकारिता करना चाहती हूं तो उन्होंने मुझसे कहा, ‘क्या तुम पागल हो? तुम्हे क्यों हर समय इतना भारी बैग लटकाकर घुमते रहना है. 'वो चिंतित रहते थे कि हर समय मैं पुरुषों से घिरी रहूंगी. वो मुझे खीचेंगे और धक्का मारेंगे. जब मैंने यहां आने का मन बनाया तो नहीं सोचा था कि यह सब इतना मुश्किल होगा."

रेणुका आगे कहती हैं, "असाइनमेंट के लिए जगह-जगह घूमने के कारण घरवालों को समय नहीं दे पाते. इंडियन एक्सप्रेस में आने के बाद मुझे पता लगा पत्रकारिता करना कितना कठिन है. महिलाओं को साफ़ जगह में रहने और काम करने की आदत होती है. फील्ड पर होते समय आस-पास लोग पसीने से लथपथ होते हैं. लेकिन समय के साथ मैंने समझ लिया कि पत्रकारिता मेरी ज़िम्मेदारी है. यह हर कोई नहीं कर सकता. मुझे इस काम में मज़ा आने लगा."

रेणुका का मानना है कि परिवार का प्रेशर और स्टेबिलिटी न होना महिलाओं के प्रवेश में बाधा डालता है. "मेरे सामने कई महिलाएं इस पेशे में आईं. हां इनमें से कई महिलाओं ने पेशा छोड़ दिया. फोटो पत्रकारों के लिए बहुत सीमित जॉब होती हैं. उनके लिए आसानी से जॉब हासिल करना मुश्किल होता है. हां, लेकिन इंडियन एक्सप्रेस एक जगह है जहां महिलाओं को प्राथमिकता मिलती है."

Also see
article imageआपके मीडिया का मालिक कौन? कैसे सुभाष चंद्रा के जुनून ने उनके ज़ी साम्राज्य को बर्बाद कर दिया!
article imageपश्चिमी मीडिया पर आईआईएमसी में सेमिनार और सर्वे: मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like