सिंघु, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डर के अलावा शाहजहांपुर बॉर्डर पर भी जारी है किसानों का धरना. इस रिपोर्ट में पढ़िए शाहजहापुर बॉर्डर का सूरतेहाल.
आंदोलन में कम क्यों हो रहे हैं लोग
आंदोलन में लोग कम क्यों हो रहे हैं? इस सवाल पर राजस्थान के करोड़ी से आए 70 वर्षीय शोभाराम कहते हैं. "मीटिंग चल रही हैं. हम उन्हें भी सफल बनाने का काम कर रहे हैं. साथ ही फसलों का मौसम भी है. इसलिए खेत का काम भी देखना पड़ रहा है. किसान आते और जाते रहते हैं. क्योंकि खेत में पानी देना भी जरूरी है."
58 वर्षीय कल्याण सिंह जिला अलवर से आए हैं. वह कहते हैं, "गर्मी का मौसम आ रहा है हमारे टेंटों में अब भभका लगेगा. इसलिए अब इन्हें हटाकर यहां गर्मियों वाले टेंट लेगेंगे. अब हम छप्पर लगाने की तैयारी कर रहे हैं. यह आंदोलन आर पार चलेगा. जब तक यह तीनों कानून वापस नहीं हो जाते हैं. हम हटने वाले नहीं हैं. हम सारे काम यहीं करेंगे. हम इस रोड पर जरूरत पड़ी तो खेती भी कर सकते हैं अगर सरकार नहीं मानी तो. अभी बजट इकट्ठा करके देश भर में महापंचायत चल रही हैं. ऐसे ही सभी किसान संगठन मिलकर उसमें तय करेंगे कि आगे कि क्या रणनीति है."
टिकरी बॉर्डर पर लोगों का प्यार मिला, लेकिन भाषा समझ नहीं आई तो वापस आ गया
हमारी मुलाकात यहां आंदोलन के सबसे बुजुर्ग किसान 92 वर्षीय कंवर सिंह से हुई. न्यूज़लॉन्ड्री ने उनसे बात की.
जिला अलवर निवासी सिंह कहते हैं, "उन्होंने आजादी की लड़ाई देखी है. उस समय सात लाख लोगों ने कुर्बानी दी थी. आज की लड़ाई में और उस लड़ाई में सिर्फ इतना फर्क है कि तब अंग्रेजों से लड़ाई थी लेकिन यह किसानों की लड़ाई है जो गांधीवादी नीति से जारी है. वो क्रांति थी."
अपने पास खड़े लोगों को देखकर इशारा करते हुए कहते हैं, "तब इनका जन्म भी नहीं हुआ था जब मैंने आजादी की लड़ाई देखी थी. मेरे बराबर के सब मर लिए. और मुझसे बड़ा तो कोई है ही नहीं हमारे यहां."
जो लड़ाई अब लड़ रहे हैं उसे जीत पाएंगे या नहीं? इस सवाल पर वह कहते हैं, "हमें सौ प्रतिशत जीत मिलेगी. मैं यहां से पहले टिकरी बॉर्डर पर भी गया था. वहां सब हरियाणा और पंजाब के लोग बैठे हैं. मेरी समझ में उनकी पंजाबी भाषा नहीं आई. फिर मैं वहां से चला आया. वो प्यार तो बहुत करते थे लेकिन वो जब बात करते थे तो कुछ समझ नहीं आता था इसलिए मैं वहां से आ गया. रास्ते में मुझे एक जगह सवारी नहीं मिली तो मैं वहां से पैदल चलकर ही यहां पहुंचा. यह बात अखबारों में भी छपी है. बहरोड़ से पैदल चलकर आया था. वह यहां से 35 किलोमीटर है."
उनकी कुछ बातें हमें समझ नहीं आ रही थीं इस दौरान उनके साथ खड़े 52 वर्षीय जरनैल सिंह हमें समझाते रहे.
बाद में जरनैल सिंह कहते हैं, "जब हमारे बुजुर्ग इतनी मेहनत कर रहे हैं तो हम तो अभी जवान हैं. इसलिए जब तक यह तीनों कानून वापस नहीं हो जाते हैं तब तक हम यहां से नहीं जाएंगे. यह बहुत बड़ा आंदोलन है ना आजतक किसी ने देखा है और शायद ही आगे कोई देख पाए."
जिला भिवानी के मिराड़ से आए सिंह कहते हैं, "अब हमारा भाईचारा बहुत बढ़ गया है. देश के अंदर जो भाईचारा बढ़ा है यह सब मोदीजी की देन है वरना हमें तो पता ही नहीं था कि भाईचारा भी कुछ होता है. मोदीजी यह तीन काले कानून लाए नहीं होते तो यह भाईचारा भी नहीं बढ़ता."
क्या इन कानूनों से पहले कोई भाईचारा नहीं था? इस सवाल पर वह कहते हैं, "भाईचारा तो था लेकिन इस तरह से पहले कोई इकट्ठा नहीं हुआ. भाषा नहीं समझे लेकिन अब भाषा भी समझ रहे हैं और सारे काम साथ में मिलकर कर रहे हैं."
उनकी बात को रोकते हुए बुजुर्ग कंवर सिंह एक बार फिर कहते हैं, "पहले अगर कोई दलित हमसे टकरा जाता था तो हम नहाया करते थे. कपड़ा टच होने पर भी हमें बुरा लगता था, कपड़े बदलने पड़ते थे. यह बहुत पुरानी बातें हैं."
वहीं झुंझुनू जिला उदयपुर वाटी तहसील के सापोली गांव से आए राम लाल यादव कहते हैं, "मैं यहां तीन दिन पहले ही आया हूं. अब तक का आंदोलन सफल रहा है और आगे भी यह आंदोलन जारी रहेगा शांतिप्रिय तरीके से. मेरे गांव के 60 से ज्यादा लोग यहां मौजूद हैं."
उनके साथी दिनेश कुमार गुर्जर कहते हैं, "वह भी राजस्थान के उदयपुर वाटी तहसील से ही हैं. उन्हें यहां पर आए हुए पांच दिन हो गए हैं. यहां और भी काफी लोग आने वाले हैं.” 20 वर्षीय दिनेश कुमार ने मैथ से बीएससी की हुई है. आगे अब मास्टर्स की तैयारी कर रहे हैं साथ ही सरकारी नौकरी की भी तैयारी में लगे हैं.
उन्हीं के एक साथी रवि कहते हैं, "शुरू में यहां परेशानी होती थी एक दूसरे को जानते नहीं थे लेकिन अब सबको जानने लगे हैं. घर जैसा माहौल हो गया है. अब यहां न खाने की दिक्कत है ना सोने रहने की. सभी बहुत बढ़िया है. बड़े बुजुर्गों के साथ बैठकर बातें होती हैं. ज्ञान मिलता है.”
वह सिंघु बॉर्डर पर भी गए थे. वहां के लोग भी यहां पर आते हैं.
आंदोलन में कम क्यों हो रहे हैं लोग
आंदोलन में लोग कम क्यों हो रहे हैं? इस सवाल पर राजस्थान के करोड़ी से आए 70 वर्षीय शोभाराम कहते हैं. "मीटिंग चल रही हैं. हम उन्हें भी सफल बनाने का काम कर रहे हैं. साथ ही फसलों का मौसम भी है. इसलिए खेत का काम भी देखना पड़ रहा है. किसान आते और जाते रहते हैं. क्योंकि खेत में पानी देना भी जरूरी है."
58 वर्षीय कल्याण सिंह जिला अलवर से आए हैं. वह कहते हैं, "गर्मी का मौसम आ रहा है हमारे टेंटों में अब भभका लगेगा. इसलिए अब इन्हें हटाकर यहां गर्मियों वाले टेंट लेगेंगे. अब हम छप्पर लगाने की तैयारी कर रहे हैं. यह आंदोलन आर पार चलेगा. जब तक यह तीनों कानून वापस नहीं हो जाते हैं. हम हटने वाले नहीं हैं. हम सारे काम यहीं करेंगे. हम इस रोड पर जरूरत पड़ी तो खेती भी कर सकते हैं अगर सरकार नहीं मानी तो. अभी बजट इकट्ठा करके देश भर में महापंचायत चल रही हैं. ऐसे ही सभी किसान संगठन मिलकर उसमें तय करेंगे कि आगे कि क्या रणनीति है."
टिकरी बॉर्डर पर लोगों का प्यार मिला, लेकिन भाषा समझ नहीं आई तो वापस आ गया
हमारी मुलाकात यहां आंदोलन के सबसे बुजुर्ग किसान 92 वर्षीय कंवर सिंह से हुई. न्यूज़लॉन्ड्री ने उनसे बात की.
जिला अलवर निवासी सिंह कहते हैं, "उन्होंने आजादी की लड़ाई देखी है. उस समय सात लाख लोगों ने कुर्बानी दी थी. आज की लड़ाई में और उस लड़ाई में सिर्फ इतना फर्क है कि तब अंग्रेजों से लड़ाई थी लेकिन यह किसानों की लड़ाई है जो गांधीवादी नीति से जारी है. वो क्रांति थी."
अपने पास खड़े लोगों को देखकर इशारा करते हुए कहते हैं, "तब इनका जन्म भी नहीं हुआ था जब मैंने आजादी की लड़ाई देखी थी. मेरे बराबर के सब मर लिए. और मुझसे बड़ा तो कोई है ही नहीं हमारे यहां."
जो लड़ाई अब लड़ रहे हैं उसे जीत पाएंगे या नहीं? इस सवाल पर वह कहते हैं, "हमें सौ प्रतिशत जीत मिलेगी. मैं यहां से पहले टिकरी बॉर्डर पर भी गया था. वहां सब हरियाणा और पंजाब के लोग बैठे हैं. मेरी समझ में उनकी पंजाबी भाषा नहीं आई. फिर मैं वहां से चला आया. वो प्यार तो बहुत करते थे लेकिन वो जब बात करते थे तो कुछ समझ नहीं आता था इसलिए मैं वहां से आ गया. रास्ते में मुझे एक जगह सवारी नहीं मिली तो मैं वहां से पैदल चलकर ही यहां पहुंचा. यह बात अखबारों में भी छपी है. बहरोड़ से पैदल चलकर आया था. वह यहां से 35 किलोमीटर है."
उनकी कुछ बातें हमें समझ नहीं आ रही थीं इस दौरान उनके साथ खड़े 52 वर्षीय जरनैल सिंह हमें समझाते रहे.
बाद में जरनैल सिंह कहते हैं, "जब हमारे बुजुर्ग इतनी मेहनत कर रहे हैं तो हम तो अभी जवान हैं. इसलिए जब तक यह तीनों कानून वापस नहीं हो जाते हैं तब तक हम यहां से नहीं जाएंगे. यह बहुत बड़ा आंदोलन है ना आजतक किसी ने देखा है और शायद ही आगे कोई देख पाए."
जिला भिवानी के मिराड़ से आए सिंह कहते हैं, "अब हमारा भाईचारा बहुत बढ़ गया है. देश के अंदर जो भाईचारा बढ़ा है यह सब मोदीजी की देन है वरना हमें तो पता ही नहीं था कि भाईचारा भी कुछ होता है. मोदीजी यह तीन काले कानून लाए नहीं होते तो यह भाईचारा भी नहीं बढ़ता."
क्या इन कानूनों से पहले कोई भाईचारा नहीं था? इस सवाल पर वह कहते हैं, "भाईचारा तो था लेकिन इस तरह से पहले कोई इकट्ठा नहीं हुआ. भाषा नहीं समझे लेकिन अब भाषा भी समझ रहे हैं और सारे काम साथ में मिलकर कर रहे हैं."
उनकी बात को रोकते हुए बुजुर्ग कंवर सिंह एक बार फिर कहते हैं, "पहले अगर कोई दलित हमसे टकरा जाता था तो हम नहाया करते थे. कपड़ा टच होने पर भी हमें बुरा लगता था, कपड़े बदलने पड़ते थे. यह बहुत पुरानी बातें हैं."
वहीं झुंझुनू जिला उदयपुर वाटी तहसील के सापोली गांव से आए राम लाल यादव कहते हैं, "मैं यहां तीन दिन पहले ही आया हूं. अब तक का आंदोलन सफल रहा है और आगे भी यह आंदोलन जारी रहेगा शांतिप्रिय तरीके से. मेरे गांव के 60 से ज्यादा लोग यहां मौजूद हैं."
उनके साथी दिनेश कुमार गुर्जर कहते हैं, "वह भी राजस्थान के उदयपुर वाटी तहसील से ही हैं. उन्हें यहां पर आए हुए पांच दिन हो गए हैं. यहां और भी काफी लोग आने वाले हैं.” 20 वर्षीय दिनेश कुमार ने मैथ से बीएससी की हुई है. आगे अब मास्टर्स की तैयारी कर रहे हैं साथ ही सरकारी नौकरी की भी तैयारी में लगे हैं.
उन्हीं के एक साथी रवि कहते हैं, "शुरू में यहां परेशानी होती थी एक दूसरे को जानते नहीं थे लेकिन अब सबको जानने लगे हैं. घर जैसा माहौल हो गया है. अब यहां न खाने की दिक्कत है ना सोने रहने की. सभी बहुत बढ़िया है. बड़े बुजुर्गों के साथ बैठकर बातें होती हैं. ज्ञान मिलता है.”
वह सिंघु बॉर्डर पर भी गए थे. वहां के लोग भी यहां पर आते हैं.
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