एसओई 2021: 2019 में वायु प्रदूषण के कारण अकेले पांच राज्यों में हुईं 8.5 लाख से ज्यादा मौतें

एसओई 2021 के मुताबिक जिन राज्यों में गरीबी है और जहां पार्टिकुलेट मैंटर 2.5 का प्रदूषण ज्यादा है वहां वायु प्रदूषण जनित मौतें ज्यादा हुई हैं.

WrittenBy:विवेक मिश्रा
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यदि जीबीडी, 2017 के आंकड़ों के आधार पर 1990 से लेकर 2017 तक दो दशक में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की प्रमुख बीमारियों के कारण होने वाले मौतों के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट होता है कि पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण जनित निचले फेफड़ों का संक्रमण (एलआरआई) परेशान करता है.

जीबीडी 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक 1990 में पांच वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों की डायरिया से 16.73 फीसदी (4.69 लाख मौतें) हुई थीं जबकि 2017 में नियंत्रण से यह 9.91 फीसदी (एक लाख) पहुंच गईं. वहीं, निचले फेफड़ों के संक्रमण से 1990 में 20.20 फीसदी (5.66 लाख मौतें) हुईं थी जो कि 2017 में 17.9 फीसदी (1.85 लाख) तक ही पहुंची. यानी करीब तीन दशक में एलआरआई से मौतों की फीसदी में गिरावट बेहद मामूली है.

निचले फेफड़े के संक्रमण और वायु प्रदूषण के घटक पार्टिकुलेट मैटर 2.5 के बीच एक गहरा रिश्ता भी है. 0 से 5 आयु वर्ग वाले समूह में निचले फेफड़े का संक्रमण जितना प्रभावी है उतना 5 से 14 वर्ष आयु वर्ग वालों पर नहीं है. 2017 में 5 से 14 आयु वर्ग वाले बच्चों में निचले फेफड़ों के संक्रमण से 6 फीसदी बच्चों की मृत्यु हुई. इससे स्पष्ट है कि निचले फेफड़ों का संक्रमण पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर ही ज्यादा प्रभावी है.

वहीं, जीबीडी रिपोर्ट बताती है कि 2019 में 17 लाख मौतों में 58 फीसदी मौतें बाहरी यानी परिवेशी वायु प्रदूषण के कारण हैं जबिक 36 फीसदी मौतें भीतरी यानी घर से होने वाली मौतों के कारण हैं. घर से होने वाले प्रदूषण में सबसे बड़ा कारक प्रदूषित ईंधन से खाने का पकाया जाना है.

पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का तय मानकों से कई गुना ज्यादा होना और वायु प्रदूषण जनित मौतों का सीधा कनेक्शन है. यह कई रिपोर्ट बार-बार दोहरा रही हैं. मसलन शीर्ष ऐसे 10 राज्य जहां पीएम 2.5 प्रदूषण ज्यादा रहा है और वहां होने वाली मौतें भी ज्यादा रही हैं.

डब्ल्यूएचओ के मानकों के मुताबिक पीएम 2.5 का सालाना सामान्य सांद्रण 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से नीचे का है. जबकि राज्यों में 20 गुना ज्यादा पीएम 2.5 प्रदूषण है और वहां मौतें भी सबसे ज्यादा हैं. इसे नीचे सारिणी में देखें.

यदि जीबीडी, 2017 के आंकड़ों के आधार पर 1990 से लेकर 2017 तक दो दशक में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की प्रमुख बीमारियों के कारण होने वाले मौतों के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट होता है कि पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को सबसे ज्यादा वायु प्रदूषण जनित निचले फेफड़ों का संक्रमण (एलआरआई) परेशान करता है.

जीबीडी 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक 1990 में पांच वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों की डायरिया से 16.73 फीसदी (4.69 लाख मौतें) हुई थीं जबकि 2017 में नियंत्रण से यह 9.91 फीसदी (एक लाख) पहुंच गईं. वहीं, निचले फेफड़ों के संक्रमण से 1990 में 20.20 फीसदी (5.66 लाख मौतें) हुईं थी जो कि 2017 में 17.9 फीसदी (1.85 लाख) तक ही पहुंची. यानी करीब तीन दशक में एलआरआई से मौतों की फीसदी में गिरावट बेहद मामूली है.

निचले फेफड़े के संक्रमण और वायु प्रदूषण के घटक पार्टिकुलेट मैटर 2.5 के बीच एक गहरा रिश्ता भी है. 0 से 5 आयु वर्ग वाले समूह में निचले फेफड़े का संक्रमण जितना प्रभावी है उतना 5 से 14 वर्ष आयु वर्ग वालों पर नहीं है. 2017 में 5 से 14 आयु वर्ग वाले बच्चों में निचले फेफड़ों के संक्रमण से 6 फीसदी बच्चों की मृत्यु हुई. इससे स्पष्ट है कि निचले फेफड़ों का संक्रमण पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर ही ज्यादा प्रभावी है.

वहीं, जीबीडी रिपोर्ट बताती है कि 2019 में 17 लाख मौतों में 58 फीसदी मौतें बाहरी यानी परिवेशी वायु प्रदूषण के कारण हैं जबिक 36 फीसदी मौतें भीतरी यानी घर से होने वाली मौतों के कारण हैं. घर से होने वाले प्रदूषण में सबसे बड़ा कारक प्रदूषित ईंधन से खाने का पकाया जाना है.

पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का तय मानकों से कई गुना ज्यादा होना और वायु प्रदूषण जनित मौतों का सीधा कनेक्शन है. यह कई रिपोर्ट बार-बार दोहरा रही हैं. मसलन शीर्ष ऐसे 10 राज्य जहां पीएम 2.5 प्रदूषण ज्यादा रहा है और वहां होने वाली मौतें भी ज्यादा रही हैं.

डब्ल्यूएचओ के मानकों के मुताबिक पीएम 2.5 का सालाना सामान्य सांद्रण 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से नीचे का है. जबकि राज्यों में 20 गुना ज्यादा पीएम 2.5 प्रदूषण है और वहां मौतें भी सबसे ज्यादा हैं. इसे नीचे सारिणी में देखें.

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