यह सब ऐसे समय में लिखा जा रहा है जब किसी को किसी से कोई फर्क नहीं पड़ता!

जब पीड़ितों को पीड़ा से फर्क न पड़े और उत्पीड़कों के लिए भी उत्पीड़न एक सामान्य बात हो जाए और यह सब एक व्यवस्था के तहत हो रहा हो तब सामुदायिक जीवन में फर्क पड़ने जैसा कोई भाव रह नहीं जाता है.

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यह सब ऐसे समय में लिखा जा रहा है जब किसी को किसी से कोई फर्क नहीं पड़ता!
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यह सब एक ऐसे समय में लिखा जा रहा है जब किसी को किसी से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि किसी के साथ कुछ हो जाने से खुद उसे ही कुछ फर्क नहीं पड़ता. जब पीड़ितों को पीड़ा से फर्क न पड़े और उत्पीड़कों के लिए भी उत्पीड़न एक सामान्य बात हो जाए और यह सब एक व्यवस्था के तहत हो रहा हो तब सामुदायिक जीवन में फर्क पड़ने जैसा कोई भाव रह नहीं जाता है. यह एक ऐसा जड़त्व है जिसे बड़े जलजले की ज़रूरत है. ताउते और यास जैसे कम तीव्रता के तूफान भी इस जड़त्व को हिला नहीं पाते.

यास ने तो फिर भी कुछ क्षणिक मनोरंजन भारत की राजनीति में पैदा किया और एक हाई वोल्टेज ड्रामा होते हुए दिखा, लेकिन उससे भी आखिर तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा! बंगाल के मुख्य सचिव अलपन तय समय पर रिटायर हो गये, केंद्र सरकार ने उन्हें तलब किया, ममता बनर्जी ने भेजने से मना किया. रिटायर होने से आप खेल के मैदान से बाहर हो जाते हैं. अलपन साहब को उम्र से फर्क पड़ गया और रस्साकशी के खेल से मुक्ति. इस पूरे मनोरंजक खेल में मोदी और उनके केंद्र को चाहे मुंह की खानी पड़ी हो या गर्दन पर या कमर के नीचे यानी बिलो द बेल्ट, लेकिन इससे किसी और को कोई फर्क नहीं पड़ा. सवाल होना था कि मोदी और उनके केंद्र ने ये जो हरकत की वो जायज़ थी या नहीं, लेकिन अब सब कुछ जायज़-नाजायज के बंधनों से मुक्त होकर मनोरंजन की हद में चला गया है, जिसका कुल हासिल है कि मनोरंजन हुआ या नहीं। मनोरंजन से कोई स्थायी फर्क नहीं पड़ा करते.

राजनीति वो शै है जो कायदे से ‘फर्क’ लाती है. जो है, उसमें बदल करती है. निर्माण करती है, ध्वंस भी करती है. इन सभी कार्यवाहियों से हमारे सामुदायिक जीवन में फर्क पड़ता है, लेकिन जब फर्क पड़ने की बुनियादी नागरिक और सामुदायिक चेतना का ही ध्वंस किया जा चुका हो और बाजाफ़्ता एक राजनैतिक कार्यवाही के तहत किया जा चुका हो तब हमें इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि आखिर हमें फर्क क्‍यों नहीं पड़ रहा.

इस सप्ताह ऐसी बहुत सी घटनाएं हुई हैं जिनसे हमें फर्क पड़ना था. मसलन, एक इंसान जो रिश्ते में इस देश का प्रधानमंत्री लगता है एक दिन आता है और शाम 5 बजे से 5 बजकर 35 मिनट तक घनघोर झूठ बोलकर चला जाता है और हम उसके पिद्दी से संदेश का शोरबा बनाते हैं और खाकर सो जाते हैं कि अब सबको वैक्सीन मुफ्त मिलेगी. मुफ्त मुफ्त मुफ्त? ये व्‍यक्ति हमारे ही घर में, हमारे ही टीवी सेट पर प्रकट होकर हमें बता गया कि देश में अब तक कोई टीकाकरण ऐसा नहीं हुआ जैसा अब हो रहा है. हमने अपने-अपने हाथ भी न देखे जो अब तक हुए सफल टीकाकरण अभियानों के ज़िंदा सबूत हैं.

मसलन, यही व्यक्ति जो रिश्ते में वही लगता है जो पिछले पैराग्राफ में लगता था, एक दिन पर्यावरण दिवस के दिन कहता है कि पूरा देश हिंदुस्तान की तरफ देख रहा है कि हम कैसे आर्थिक विकास, खनन और इसी तरह के अन्य काम पर्यावरण संरक्षण करते हुए कर पा रहे हैं. पूछो ये सब कैसे किया. कहेगा खदानों के लिए पेड़ काटकर? या आठ लेन सड़क के लिए पेड़ काटकर? तब इसमें पर्यावरण संरक्षण कैसे हुआ? पूछ ले कोई तो बगलें झांकने लगे, लेकिन उसे पता है कि अब उसके बोले हुए से भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. इसलिए अब उसे भी कोई फर्क नहीं पड़ता.

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