भीमा कोरेगांव: वह एफआईआर जो 75 अन्य एफआईआर पर भारी पड़ी

इसी में पहली बार शहरी माओवाद का जिक्र आया. इस एफआईआर की खामियां कई सारे सवाल खड़े करती है.

WrittenBy:राहुल कोटियाल
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‘प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश’ और ‘अर्बन नक्सल’, ये दोनों मुद्दे बीते हफ्ते देश भर की चर्चाओं में शामिल रहे. ये चर्चा तब शुरू हुई जब 28 अगस्त की सुबह पुणे पुलिस ने देश भर के कई शहरों में एकसाथ छापेमारी की और कई सामाजिक/मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और वकीलों को हिरासत में लिया. पुणे पुलिस ने आरोप लगाया है कि ये तमाम लोग प्रतिबंधित माओवादी संगठनों से जुड़े हैं और उनके शहरी नेटवर्क का हिस्सा हैं. पुलिस का ये भी आरोप है कि ये लोग देश की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए लोगों को उकसाने का काम करते हैं.

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पुणे पुलिस ने ये कार्रवाई इसी साल भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा की जांच के दौरान की है. एक जनवरी के दिन पुणे के भीमा कोरेगांव इलाके में हिंसा भड़कने से एक व्यक्ति की मौत हो गई थी और करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ था. यह हिंसा दलितों और स्थानीय मराठा समुदायों के बीच पैदा हुए तनाव के चलते भड़की थी. हिंसा की इस घटना के बाद महाराष्ट्र के अलग-अलग थानों में लगभग 75 एफआईआर दर्ज हुई. किसी एफआईआर में हिंसा भड़काने के आरोप हिंदुत्ववादी संगठनों पर लगाए गए थे तो किसी में दलितों पर.

इन 75 में से एक एफआईआर सबसे अलहदा थी. इसमें हिंसा भड़काने का आरोप न तो सीधे तौर से दलितों पर था और न ही हिंदू संगठनों पर. ये एफआईआर कहती है कि भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के पीछे माओवादियों की साजिश थी. ये एफआईआर घटना के पूरे आठ दिन बाद दर्ज की गई. इसके आधार पर जब न्यूज़लॉन्ड्री ने यह एफआईआर दर्ज करवाने वाले व्यक्ति की पड़ताल करना शुरू किया तो हमारा सामना एक के बाद एक चौंकाने वाली घटनाओं और जानकारियों से हुआ. यहां हम सिलसिलेवार उस एफआईआर से जुड़ी खामियां, उसके दर्ज होने की परिस्थितियां और दर्ज कराने वाले की राजनैतिक आकांक्षाओं का जिक्र करेंगे.

एफआईआर दर्ज करवाने वाले व्यक्ति का नाम है तुषार दामगुडे. तुषार पुणे के ही रहने वाले एक कारोबारी हैं. वो मानते हैं कि उन्होंने ही आठ जनवरी को वह एफआईआर दर्ज करवाई थी जिसमें माओवादियों का हाथ होने की संभावना जताई गई थी. हैरानी की बात ये है कि तुषार एक जनवरी से आठ जनवरी यानी घटना होने से लेकर एफआईआर दर्ज करवाने के बीच लगातार अपने सोशल मीडिया पर सक्रिय थे. वो लगातार इस घटना के बारे में फेसबुक पर लिख रहे थे पर उन्होंने इस पूरे एक हफ्ते के दौरान एक बार भी भीमा कोरेगांव की हिंसा में माओवादियों का हाथ होने का जिक्र नहीं किया. जबकि इस दौरान वे बार-बार इस हिंसा के संभावित कारणों के बारे में लिख और बता रहे थे.

आठ जनवरी को तुषार की यही एफआईआर दर्ज होने के बाद से पूरा मामला बदल गया. पुणे पुलिस ने अन्य तमाम शिकायतों को दरकिनार कर तुषार की इसी एफआईआर पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया. नतीजा ये हुआ कि भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा का मुद्दा तो गौण हो गया जबकि ‘शहरी नक्सली’ और ‘प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश’ जैसे मुद्दे सामने आ गए. भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा की जांच में आए इस नाटकीय बदलाव को समझने के लिए पूरे घटनाक्रम को सिलसिलेवार तरीके से समझना जरूरी है.

महाराष्ट्र के पुणे जिले में स्थित कोरेगांव भीमा नाम का गांव दो सौ साल पहले, एक जनवरी 1818 के दिन अंग्रेजों की ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ और पेशवाओं के नेतृत्व वाली मराठा सेना के बीच हुई लड़ाई के लिए मशहूर है. इस लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से लड़ते हुए दलित महार जाति के सैनिकों ने मराठों को हराया था. महार महाराष्ट्र में अछूत माने जाते हैं. डॉ भीमराव आंबेडकर इस जाति से ताल्लुक रखते थे. चूंकि पेशवा ब्राह्मण थे लिहाजा इस लड़ाई को ब्राह्मणों पर महारों की जीत के तौर पर भी देखा जाता है.

सालों से महाराष्ट्र भर के दलित इस जीत का जश्न मनाने के लिए भीमा कोरेगांव में इकट्ठा होते हैं. इस साल इस लड़ाई के दो सौ साल पूरे हुए थे. लिहाजा देश भर के करीब ढाई सौ अलग-अलग संगठनों ने यहां 31 दिसंबर, 2017 के दिन एक ‘यलगार परिषद’ का आयोजन किया. पुणे के शनिवारवाडा में हुए इस आयोजन में हजारों लोगों ने भाग लिया. इसके अगले ही दिन, एक जनवरी को भीमा कोरेगांव युद्ध स्मारक के पास लाखों दलित जमा हुए थे जहां कुछ ही देर बाद पथराव होने लगा और इससे हिंसा भड़क उठी.

दलितों का आरोप है कि पथराव की शुरुआत हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा की गई. उनका कहना है कि ऐसे संगठन पिछले कई दिनों से दलितों के खिलाफ लोगों को भड़का रहे थे. घटना के अगले ही दिन तमाम अखबारों में भी हिंसा के बारे में लगभग यही बातें सामने आई थी. इसके बाद पुणे के अलग-अलग थानों में इस घटना से जुडी कई एफआईआर दाखिल करवाई गई. 3 जनवरी को पुणे पुलिस ने ‘हिन्दू एकता मंच’ के मुखिया मिलिंद एकबोटे और ‘शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान’ के मुखिया संभाजी भिड़े के खिलाफ भी हिंसा भड़काने के आरोप में मामला दर्ज किया.

दूसरी तरफ से स्थानीय दलित नेताओं के साथ ही दलित नेता जिग्नेश मेवानी और छात्रनेता उमर खालिद के खिलाफ भी हिंसा भड़काने के आरोप में मामले दर्ज हुआ. जिग्नेश मेवानी और उमर खालिद के खिलाफ ये मामला अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे अक्षय बिक्कड़ और आनंद ढोंड ने दर्ज करवाया था. इन तमाम मामलों की जांच पुणे पुलिस कर ही रही थी कि आठ जनवरी को तुषार दामगुडे ने पुणे, विश्रामबाग पुलिस थाने में एक नई एफआईआर दर्ज करवाई. यहीं से इस मामले में पहली बार ‘माओवादियों की साजिश’ होने की बात सामने आई.

तुषार ने जो एफआईआर दर्ज करवाई उसमें उन्होंने बताया, ‘मुझे फेसबुक के जरिये 31 दिसंबर को आयोजित हुई यलगार परिषद की जानकारी हुई थी जिसके बाद मैं वहां पहुंचा.’ उन्होंने अपनी एफआईआर में आगे कहा,“वहां मंच पर सागर गोरखे, सुधीर धावले, ज्योति जगताप, जिग्नेश मेवानी, उमर खालिद व अन्य लोग मौजूद थे.” सुधीर धावले पर आरोप लगाते हुए तुषार ने अपनी शिकायत में कहा कि वे यलगार परिषद में भड़काऊ भाषण देते हुए कह रहे थे, “जब ज़ुल्म हो तो बगावत होनी चाहिए शहर में, और अगर बगावत न हो तो बेहतर हो कि ये रात ढलने से पहले ये शहर जलकर राख हो जाए. ये लड़ाई का एलान है. इस नई पेशवाई को हमें शमशान घाट में, कब्रिस्तान में दफनाना है.”

तुषार ने अपनी शिकायत में कहा कि कबीर कला मंच से जुड़े कई कार्यकर्ता भी यलगार परिषद में मौजूद थे और भड़काऊ भाषण देने के साथ ही वे लोगों को भड़काने वाला साहित्य बांट रहे थे. उन्होंने एफआईआर में आगे कहा, “यहां मौजूद कई लोगों के प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) से संपर्क हो सकते हैं. इन लोगों का उद्देश्य है कि दलितों को बहकाकर उन्हें माओवादी विचारधारा का बनाएं और फिर हिंसा के रास्ते ले जाकर समाज में दुश्मनी को बढ़ावा दें.” ये तमाम बातें कहते हुए तुषार ने आरोप लगाया कि एक जनवरी को हुई हिंसा का मुख्य कारण माओवादी संगठनों से जुड़े इन लोगों द्वारा आम जनता को भड़काना ही था.

तुषार दामगुडे की इसी एफआईआर पर कार्रवाई करते हुए पुणे पुलिस ने अब तक देश भर से लगभग दस लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है और कई अन्य लोगों के घरों और कार्यालयों पर छापे मार चुकी है. लेकिन ऐसे कई कारण हैं जिनके चलते तुषार दामगुड़े की इस एफआईआर पर ही कई सवाल खड़े होते हैं. इनमें सबसे पहला कारण तो यही है कि इस एफआईआर में कही गई बातें उन बातों से बिलकुल अलग हैं जो तुषार दामगुड़े ने इस घटना के अगले ही दिन कही थी.

तुषार फेसबुक पर काफी सक्रिय हैं और करीब 16 हजार लोग उन्हें यहां फॉलो करते हैं. वे खुद भी बताते हैं कि कई सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर वे सक्रियता से फेसबुक पर लिखते हैं और उनकी लिखावट ही उनकी लोकप्रियता का कारण है. भीमा कोरेगांव के मुद्दे पर भी तुषार समय-समय पर लिखते रहे हैं. न सिर्फ हिंसा के बाद बल्कि वे एक जनवरी को हुई हिंसा से पहले भी इस मुद्दे पर लगातार लिख रहे थे. कभी वे भीमा कोरेगांव की लड़ाई में हुई दलितों की जीत पर सवाल उठा रहे थे तो कभी यलगार परिषद में शामिल होने आ रहे लोगों पर.

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उमर खालिद के बारे में भी उन्होंने दिसंबर 2017 में लिखा था कि उमर खालिद यहां दलितों की बात करने आ रहे हैं लेकिन जब वे यहां आएं, तो आप लोग उनसे ये जरूर पूछना कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कश्मीर के दलित आखिर कहां गए. वामपंथी सोच वाले लोगों के प्रति दुराग्रह और आपत्तिजनक शब्दों वाले लेखों से तुषार दामगुड़े की फेसबुक वॉल भरी पड़ी है.

2 जनवरी को फेसबुक पर लिखा लेख

एक जनवरी को हुई हिंसा के बारे में भी उन्होंने फेसबुक पर विस्तार से लिखा था. हैरानी की बात है कि उनके इस लेख में ऐसा कुछ नहीं लिखा गया था जैसा उन्होंने बाद में अपनी एफआईआर में लिखवाया. दो जनवरी के दिन तुषार ने इस घटना के बारे में लिखा, “महाराष्ट्र में जो बीते 60 सालों तक नहीं हुआ वो कल हुआ. इसका कारण ये है कि पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र में कई इतिहासकार पैदा हो गए हैं जो रोज नए-नए दावे कर रहे हैं. इन दावों को सच मानकर कुछ लोग रास्तों पर उतर जाते हैं.”

उन्होंने आगे लिखा, “मराठा बेहद आक्रामक होते हैं और भावुक भी. अपने मान-सम्मान के लिए उन्होंने सैकड़ों लोगों को मारा है और इतिहास में इसका वर्णन दर्ज है. उनके साथ छेड़-छाड़ करने का मतलब आग से खेलना है.”

तुषार ने इस लेख में यह भी लिखा कि, “पिछले कुछ समय में अशांति फैलाने वाले इन इतिहासकारों ने ये कहानियां गढ़ी कि संभाजी महाराज की मौत के बाद मराठा उनका अंतिम संस्कार करने भी नहीं आए और डर के अपने-अपने घरों में छिपे रहे. ऐसे दावे सोशल मीडिया पर फैलाए गए. स्पष्ट था कि मराठा समाज इन दावों को सहन नहीं करेगा और इनसे विवाद बढ़ेगा ही.”

तुषार आगे लिखते हैं, “कोरेगांव में दोनों समूह आमने-सामने हुए. नीले झंडे और भगवा झंडे लहराए गए, घोषणाबाजी हुई, गालीबाजी हुई और इस कारण हाथापाई शुरू हुई. उसके बाद जो हुआ वो तो सब जानते ही हैं. मैं और मेरे कुछ दोस्त उस जगह पर दिन भर थे. किसने क्या कहा, किसने क्या किया वो हमने सब देखा.”

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तुषार के इस लेख में कहीं भी इस हिंसा के पीछे माओवादियों या फिर यलगार परिषद की साजिश का कोई जिक्र नहीं किया गया था. बल्कि यह लेख लगभग वही बातें कहता था जो तमाम अन्य रिपोर्ट्स में भी सामने आई थी. एक जनवरी की हिंसा से जुड़ी कई रिपोर्ट्स में ये तथ्य सामने आए थे कि दिसंबर के आखिरी दिनों में भीमा कोरेगांव में कई आपत्तिजनक पोस्टर और बैनर लगाए गए थे. इन बैनरों में भीमा कोरेगांव की लड़ाई और संभाजी महाराज की हत्या से जुड़ी कई ऐसी बातें लिखी गई थी जिनसे वहां का माहौल तनावपूर्ण हो गया था और एक जनवरी को हिंसा भड़कने की संभावनाएं जताई जाने लगी थी.

5 जनवरी को फेसबुक पर लिखा लेख

पांच जनवरी को तुषार ने एक और लेख फेसबुक पर लिखा. यह लेख उन्होंने जिग्नेश मेवानी और उमर खालिद के खिलाफ दाखिल की गई एफआईआर की कॉपी को साझा करते हुए लिखा था. इसमें उन्होंने लिखा, ‘मेरे युवा दोस्त अक्षय बिक्कड़ ने कल हिंसा भड़काने के मामले में जिग्नेश मेवानी और उमर खालिद के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का साहसपूर्ण काम किया है.’ इस एफआईआर को देखने और सराहने के बाद भी तुषार को यह ख्याल नहीं आया था कि उन्हें खुद भी इस मामले में कोई एफआईआर दर्ज करवानी है या फिर उन्होंने 31 दिसंबर को कथित तौर पर यलगार परिषद में कुछ और देखा-सुना था.

न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए तुषार कहते हैं, “31 दिसंबर के दिन यलगार परिषद होती है. इसमें कुछ लोग कहते हैं कि अगर बगावत न हो तो रात ढलने से पहले शहर जल कर राख हो जाना चाहिए. और इसके अगले ही दिन शहर जलकर राख हो जाता है. ऐसे में ये क्यों न माना जाए कि यलगार परिषद में शामिल लोगों ने ही शहर जलवाया है.”

इस पर हमने तुषार से पूछा कि अगर ऐसा है तो उन्होंने हिंसा के तुरंत बाद या दो-तीन-चार दिन बाद तक भी एफआईआर दर्ज क्यों नहीं करवाई? तुषार कहते हैं, ‘मैं इस बारे में अपने रिश्तेदारों से बात कर रहा था.’

न्यूज़लॉन्ड्री ने उनसे अगला सवाल किया कि उन्होंने इस पूरे समय के दौरान फेसबुक पर लिखे गए लेखों में भी कहीं पर माओवादियों के इस हिंसा में शामिल होने का कोई जिक्र क्यों नहीं किया? घटना के लगभग आठ दिन बाद उन्होंने किस आधार पर ऐसा कहा? तुषार जवाब देते हैं, “मान लीजिये मेरे पेट में दर्द है. मैं शुरुआत में डॉक्टर के पास ये सोचकर नहीं जाता कि ये दर्द खुद ही ठीक हो जाएगा. लेकिन दो महीने बाद भी जब दर्द ठीक नहीं होता और मैं डॉक्टर के पास जाता हूं तो मुझे पता चलता है कि मुझे तो पेट का कैंसर है. अब आप कहेंगे कि तुम्हें पहले पता क्यों नहीं था कि तुम्हें पेट का कैंसर है.”

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तुषार का ये जवाब समझ से परे है और काफी हद तक टालमटोल भरा भी प्रतीत होता है, क्योंकि भीमा कोरेगांव के मामले में एक जनवरी के बाद कुछ नया नहीं हुआ. 31 जनवरी को यलगार परिषद की मीटिंग हुई और एक जनवरी को दलितों की रैली में हिंसा हुई. इस के बाद दो और तीन तारीख को अधिकतर एफआईआर दर्ज हुई. ऐसे में तुषार आठ दिनों तक क्या करते रहे जबकि इस दौरान वे लगातार इस हिंसा की घटना पर लेख आदि लिख रहे थे.

एफआईआर दर्ज करवाने में देरी ही एकमात्र ऐसा कारण नहीं जिसके चलते तुषार की एफआईआर पर संशय पैदा हो रहा है. उनकी एफआईआर में कही बातें उनके ही लेखों से पूरी तरह से अलग हैं और साथ ही तुषार का इस मामले के कई अन्य आरोपितों के साथ देखा जाना भी उन्हें सवालों के घेरे में खड़ा करता है. इस हिंसा के मामले में ‘हिन्दू एकता मंच’ के मुखिया मिलिंद एकबोटे और ‘शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान’ के मुखिया संभाजी भिड़े भी आरोपित हैं. मिलिंद एकबोटे को तो इस मामले में गिरफ्तार भी किया गया था. लेकिन जब उन्हें जमानत मिली तो तुषार ने लिखा था, “मिलिंद एकबोटे पिछले 20 साल से भीमा कोरेगांव जा रहे हैं और संभाजी महाराज का स्मारक अगर आज भी वहां गर्व से खड़ा है तो इसमें उनका भी बहुत बड़ा योगदान है.”

इस हिंसा के दूसरे आरोपित संभाजी भिड़े, जिनकी तारीफ के कसीदे खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पढ़ चुके हैं, से भी तुषार की नजदीकियां चर्चित रही हैं. हालांकि इस बारे में तुषार कहते हैं, “मैं कई लोगों से मिलता हूं इसका मतलब ये नहीं कि मैं उनका समर्थक हूं. मैं जब संभाजी भिड़े से मिला तो मैंने लिखा था कि भिड़े गुरूजी से कई मुद्दों पर चर्चा हुई और मैंने उन्हें कहा कि अगर कुछ मामलों में हमारी असहमति हुई तो हम आपको बता देंगे. इसके बाद गुरूजी के समर्थक भी मुझसे नाराज़ हो गए थे.”

तुषार दामगुड़े के एफआईआर के समय पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. उन पर यह आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने घटना के कई दिनों बाद यह एफआईआर हिन्दुत्ववादी संगठनों के इशारे पर दर्ज करवाई है. इन आरोपों को इसलिए भी बल मिल रहा है क्योंकि तुषार की एफआईआर में जो बातें कही गई हैं, हूबहू वही बातें आरएसएस से जुड़े एक संगठन ने भी अपनी रिपोर्ट में कही हैं.

पुणे स्थिति ‘फोरम फॉर इंटीग्रेटेड नेशनल सिक्योरिटी’ में आरएसएस और भाजपा के वरिष्ठ लोग शामिल हैं. इस संगठन ने भीमा-कोरेगांव मामले में मार्च में एक रिपोर्ट जारी की थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि भीमा कोरेगांव की लड़ाई के इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है और माओवादी संगठनों से जुड़े लोग ऐसा कर रहे हैं. ये लोग जाति, न्याय और समानता की बातों के बहाने दलितों को भड़का रहे हैं और उन्हें हिंसक आंदोलन से जोड़ने की तैयारी कर रहे हैं.

तुषार दामगुड़े और उनकी एफआईआर से जुड़ा एक बेहद दिलचस्प पहलू और भी है. एक जनवरी से आठ जनवरी के बीच जब तुषार लगातार भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के बारे में लिख रहे थे तो वे महाराष्ट्र पुलिस के प्रति बेहद नर्म थे. जब महाराष्ट्र सरकार पुलिस को लापरवाही बरतने के लिए लताड़ रही थी तो तुषार हैशटैग ‘आई ऍम विद महाराष्ट्र पुलिस’ के साथ ही लिख रहे थे कि “हमें पुलिस के साथ खड़ा होना चाहिए.” उधर महाराष्ट्र पुलिस के कुछ अधिकारी 4-5 जनवरी को ये बयान दे रहे थे कि “जिस तरह के लेख यलगार परिषद में बांटे गए हैं उनसे लगता है कि नक्सलियों का इस घटना में हाथ हो सकता है.” लेकिन पुलिस के पास अपनी इस थ्योरी पर काम करने के लिए कोई शिकायतकर्ता या एफआईआर नहीं थी.

फिर आठ तारीख को अचानक तुषार दामगुडे पुलिस के पास पहुंच जाते हैं और पुलिस को अपनी थ्योरी पर काम करने के लिए एक शिकायतकर्ता मिल जाता है. वही शिकायतकर्ता जो अब तक इस हिंसा के पीछे कुछ अलग ही कारण बता रहा था. लेकिन इसके बाद पूरी पुलिसिया जांच इसी दिशा में घूम जाती है. जबकि इस वक्त तक राज्य के ‘एंटी-नक्सल ऑपरेशन’ के मुखिया शरद शेलार खुद भी भीमा कोरेगांव की हिंसा में किसी भी तरह से नक्सलियों का हाथ होने की संभावना को लेकर स्पष्ट नहीं थे.

ये तमाम कारण हैं जिनके चलते तुषार दामगुडे और उनके द्वारा दर्ज की गई एफआईआर पर सवाल उठ रहे हैं. इनमें ये सवाल भी शामिल है कि क्या पुणे पुलिस ने तुषार दामगुडे के कहने पर ऐसी शिकायत दर्ज की थी या फिर तुषार दामगुडे ने ही पुलिस के कहने पर?

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