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एनएल चर्चा 148: एक दशक की यात्रा और महत्वपूर्ण घटनाओं पर विशेष चर्चा

हिंदी पॉडकास्ट जहां हम हफ़्ते भर के बवालों और सवालों पर चर्चा करते हैं.

     

एनएल चर्चा के 148वें एपिसोड में ख़ासतौर से इस दशक की महत्वपूर्ण घटनाओं पर चर्चा हुई. साथ ही मुंबई पुलिस द्वारा अर्णब गोस्वामी पर टीआरपी घोटाला के लिए बार्क के पूर्व सीईओ को दी घूस देने दावा, भारत में कोरोना के नए स्‍ट्रेन के फैलाव, उत्तर प्रदेश में नए अंतरधार्मिक विवाह कानून आने के एक महीने दर्ज हुए मामलों की यथास्थिति, कर्नाटक में गोहत्या रोकने के लिए पारित नए अध्यादेश जैसे कई खबरों का जिक्र विशेष तौर पर हुआ.

इस बार चर्चा में श्रुति नामक संस्था की सदस्य और जल, जंगल, ज़मीन के मुद्दों पर काम करने वाली श्वेता त्रिपाठी, न्यूज़लॉन्ड्री के एसोसिएट एडिटर मेघनाद एस और स्तंभकार आनंद वर्धन शामिल हुए. चर्चा का संचालन न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने किया.

अतुल चर्चा की शुरुआत इस दशक की सबसे बड़ी घटनाओं से बात करते हुए मजदूरों के पलायन, सीएए एनआरसी विरोध प्रदर्शन, कश्मीर से धारा 370 का हटना, राम मंदिर का निर्माण, नोटबंदी आदि घटनाओं के साथ की. अतुल ने कहा, “यह एक साल नहीं बल्कि एक दशक का अंत है. इस दशक की शुरुआत अन्ना आंदोलन के साथ हुई थी, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन था और आज दशक बीतने के मौके पर भी दिल्ली में एक आंदोलन चल रहा है, किसानों का.”

अतुल आगे कहते हैं, “जो मीडिया एक दशक पहले अन्ना आंदोलन को 24 घंटे लगातार दिखाता रहा, आज हम देख रहे हैं कि उसी मीडिया ने उसी तरह के जनआंदोलनों को न सिर्फ दिखाना बंद कर दिया है बल्कि उसे बदनाम करने की मुहिम भी चला रहा है.”

यहां पर श्वेता से सवाल करते हुए अतुल कहते हैं, “क्या आंदोलनों का चेहरा बदल रहा है या वैसे ही है जैसा पहले था? और क्या आंदोलनों के प्रति सरकार का नज़रिया पूरी तरह से बदल गया है.”

इस पर श्वेता त्रिपाठी कहती हैं, "मेरी नज़र में सरकारों का रवैया बदल गया है. अगर ऐतिहासिक तौर पर आंदोलन को देखें तो पहले की तरह ही आंदोलन हो रहे हैं. चाहे बात तेलंगाना की हो या तिभागा आंदोलन या अभी चल रहे किसान आंदोलन की. सराकरों का रवैया पूरी तरह से बदल गया है. इस रवैया को बार बार गोदी मीडिया कहकर, इसका विश्लेषण के साथ जिक्र किया जाता है. जिसकी कहीं ना कहीं इन सब में भूमिका है. लेकिन ये सरकारों की प्रतिबद्धता के साथ जुड़ा हुआ मामला है. इसमें मीडिया की शक्लें आगे-पीछे हो सकती. अगर सरकार उन आंदोलन के साथ एक चर्चा, एक पहल करती दिखे, तो इससे संस्थान मजबूत होते हैं."

श्वेता आगे कहती हैं, "यहां सरकार का आंदोलनों को देखने का रवैया और नज़रिया बदल चुका है. पूरी राजनीति प्रोपगैंडिस्ट की तरह काम कर रही है. जिसके चलते आंदोलनों में जो लोग हैं उनकी बातें जनता तक वैसे नहीं पहुंच रही हैं जैसी पहुंचनी चाहिए क्योंकि सरकार नहीं चाहती कि लोगों तक वह सूचनाएं पहुंचे.”

अतुल कहते हैं, "अगर मीडिया के लिहाज से देखा जाए, तो ऐसा पहले भी कहा जाता रहा है कि सत्ताधारी दल के खिलाफ ज्यादा मुखर होना मीडिया के लिए मुनासिब नहीं था इसके बाद भी मीडिया की एक भूमिका सत्ता के खिलाफ रही. जब दिल्ली में सरकार के खिलाफ अन्ना आंदोलन हुआ तब आंदोलन को चौबीस घंटे दिखाया जा रहा था. लेकिन जो आज मीडिया की भूमिका है वो सरकार का भोंपू बन गया है.”

आज की मीडिया की स्थिति पर मेघनाथ कहते है, "मीडिया की स्थिति हमें अर्णब गोस्वामी के नज़रिए से देखना चाहिए. जब 2011 में अन्ना आंदोलन हुआ था तब गोस्वामी स्टार पत्रकार बन गए थे, उन्होंने यूपीए के नेताओं को खड़ाकर बहुत ही तीखे सवाल पूछे थे, जिससे लगता था कि वो आम नागरिक के साथ है. लेकिन 2014 के बाद ऐसा लगा कुछ बदल गया है. दरअसल अर्णब कभी बदले ही नहीं, वो पहले भी यूपीए के खिलाफ थे और 2014 के बाद भी यूपीए के खिलाफ ही हैं.”

मेघनाथ आगे कहते हैं, ''पत्रकारिता का मतलब होता है सत्ताधारी पार्टी या दल के नेता से सवाल पूछना. जब गोस्वामी ऐसा कर रहे थे वो आम लोगों के साथ थे. अब ये साफ है कि वो बीजेपी के तरफ हो गए हैं और अब जो पार्टी सत्ता में है उससे सवाल नहीं पूछ रहे.”

मीडिया के इस भटकाव पर आनंद वर्धन कहते हैं, "मीडिया में जो विभाजन दिख रहा हैं वह अभी भी है और पहले भी रहा है. इस नज़रिए से देखना कि सब चीज़ किसी के विरुद्ध ही होनी चाहिए. जैसा कि जो पावर में हैं उनके विरुद्ध यह संभव नहीं है. अभी के समय में दो तरह का एस्टेब्लिशमेंट है. कुछ मीडिया समूह एंटी पॉलिटिकल एस्टेब्लिशमेंट और कुछ एंटी कल्चरल एस्टेब्लिशमेंट के साथ हैं. अभी दो धाराएं चल रही है. मीडिया की स्थित एस्टेब्लिशमेंट के साथ बीच-बचाव की हो सकती है क्योंकि कई बार एस्टेब्लिशमेन्ट के विरुद्ध होने से भी कई तरह की जानकारियां दब जाती है. और कई तरह का भ्रामक प्रचार भी होता है. सूचना खुद में न्यूट्रल होती है. तो मीडिया अपने पूर्वाग्रहों के बाद भी सूचना का सिपाही हो सकती है.”

इसके अलावा भी दशक की अन्य मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की गई साथ ही किसान आंदोलन पर भी पैनल ने विस्तार से अपनी राय रखी. इसे पूरा सुनने के लिए हमारा पॉडकास्ट सुनें और न्यूज़लॉन्ड्री को सब्सक्राइब करना न भूलें.

टाइम कोड

2:56 - हेडलाइन

10:37 - दशक के विरोध प्रदर्शन और उन आंदोलन के मीडिया कवरेज

12:42 - कैसे इस दशक में मीडिया में आया बदलाव

27:22 - धारा 370 को हटाना

37:00 - इस सरकार के निर्णय

1:05:33 - सलाह और सुझाव

क्या देखा पढ़ा और सुना जाए.


श्वेता त्रिपाठी

रीकास्टिंग वूमेन - किताब

कश्मीर और कश्मीरी पंडित: अशोक कुमार पाण्डेय

कश्मीरनामा : अशोक कुमार पाण्डेय

अंडरस्टैंडिंग कश्मीर एंड कश्मीर : क्रिस्टोफ़र स्नोडेन

द शॉक डॉक्ट्रिन : नाओमी क्लेन की किताब

नेटफ्लिक्स पर द किंग्स स्पीच

यूट्यूब पर मौजूद गमन फिल्म

अमेज़न प्राइम पर मौजूद फिल्म 1984

नेटफ्लिक्स पर अ ब्यूटीफ़ुल माइंड फिल्म

मेधनाथ एस

नेटफ्लिक्स पर एके वर्सेज एके शो

न्यूज़लॉन्ड्री पर विश्व हिन्दू परिषद के लीडर सुरेश शर्मा का इंटरव्यू

न्यूज़सेंस का 115वां एपिसोड

आनंद वर्धन

दीपांकर गुप्ता का लेख : साइंस एंड पब्लिक ट्रस्ट

हर साल हज़ारों पाकिस्तानी लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन :कथी गननॉन की रिपोर्ट

फोर्सड कन्वरशंस पर प्रकाशित बर्मिंघम यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट

अतुल चौरसिया

नेटफ्लिक्स पर एके वर्सेज एके शो

अमेज़न प्राइम पर मौजूद- द टेस्ट सीरीज

इस सप्ताह की एनएल टिप्पणी

रामचंद्र गुहा की किताब - द कॉमनवेल्थ ऑफ़ क्रिकेट

***

प्रोड्यूसर- आदित्य वारियर

रिकॉर्डिंग - अनिल कुमार

एडिटिंग - सतीश कुमार

ट्रांसक्राइब - अश्वनी कुमार सिंह

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अतुल आगे कहते हैं, “जो मीडिया एक दशक पहले अन्ना आंदोलन को 24 घंटे लगातार दिखाता रहा, आज हम देख रहे हैं कि उसी मीडिया ने उसी तरह के जनआंदोलनों को न सिर्फ दिखाना बंद कर दिया है बल्कि उसे बदनाम करने की मुहिम भी चला रहा है.”

यहां पर श्वेता से सवाल करते हुए अतुल कहते हैं, “क्या आंदोलनों का चेहरा बदल रहा है या वैसे ही है जैसा पहले था? और क्या आंदोलनों के प्रति सरकार का नज़रिया पूरी तरह से बदल गया है.”

इस पर श्वेता त्रिपाठी कहती हैं, "मेरी नज़र में सरकारों का रवैया बदल गया है. अगर ऐतिहासिक तौर पर आंदोलन को देखें तो पहले की तरह ही आंदोलन हो रहे हैं. चाहे बात तेलंगाना की हो या तिभागा आंदोलन या अभी चल रहे किसान आंदोलन की. सराकरों का रवैया पूरी तरह से बदल गया है. इस रवैया को बार बार गोदी मीडिया कहकर, इसका विश्लेषण के साथ जिक्र किया जाता है. जिसकी कहीं ना कहीं इन सब में भूमिका है. लेकिन ये सरकारों की प्रतिबद्धता के साथ जुड़ा हुआ मामला है. इसमें मीडिया की शक्लें आगे-पीछे हो सकती. अगर सरकार उन आंदोलन के साथ एक चर्चा, एक पहल करती दिखे, तो इससे संस्थान मजबूत होते हैं."

श्वेता आगे कहती हैं, "यहां सरकार का आंदोलनों को देखने का रवैया और नज़रिया बदल चुका है. पूरी राजनीति प्रोपगैंडिस्ट की तरह काम कर रही है. जिसके चलते आंदोलनों में जो लोग हैं उनकी बातें जनता तक वैसे नहीं पहुंच रही हैं जैसी पहुंचनी चाहिए क्योंकि सरकार नहीं चाहती कि लोगों तक वह सूचनाएं पहुंचे.”

अतुल कहते हैं, "अगर मीडिया के लिहाज से देखा जाए, तो ऐसा पहले भी कहा जाता रहा है कि सत्ताधारी दल के खिलाफ ज्यादा मुखर होना मीडिया के लिए मुनासिब नहीं था इसके बाद भी मीडिया की एक भूमिका सत्ता के खिलाफ रही. जब दिल्ली में सरकार के खिलाफ अन्ना आंदोलन हुआ तब आंदोलन को चौबीस घंटे दिखाया जा रहा था. लेकिन जो आज मीडिया की भूमिका है वो सरकार का भोंपू बन गया है.”

आज की मीडिया की स्थिति पर मेघनाथ कहते है, "मीडिया की स्थिति हमें अर्णब गोस्वामी के नज़रिए से देखना चाहिए. जब 2011 में अन्ना आंदोलन हुआ था तब गोस्वामी स्टार पत्रकार बन गए थे, उन्होंने यूपीए के नेताओं को खड़ाकर बहुत ही तीखे सवाल पूछे थे, जिससे लगता था कि वो आम नागरिक के साथ है. लेकिन 2014 के बाद ऐसा लगा कुछ बदल गया है. दरअसल अर्णब कभी बदले ही नहीं, वो पहले भी यूपीए के खिलाफ थे और 2014 के बाद भी यूपीए के खिलाफ ही हैं.”

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