अमेरिका की कोशिश है कि वह जल्द से जल्द पाक-अफगान झमेले से अपना पीछा छुड़ाये, जो बेताल की तरह 16 सालों से उसकी पीठ पर लदकर ड्रैकुला की तरह उसे चूस रहा है
अमेरिका और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव का वर्तमान चरण यही इंगित करता है कि अब दोनों के संबंध सामान्य नहीं हो पायेंगे. मामला यदि सेना और सुरक्षा के नाम पर अमेरिका द्वारा दी जाने वाली धनराशि को रोकने मात्र का होता, तब भी यह संभावना बनी रहती कि भविष्य में दोनों देश सामरिक मुद्दों पर साझेदारी बहाल कर सकते हैं, लेकिन जिस प्रकार से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के बीच ट्विटर पर शब्द-युद्ध हुआ है, उसके हिसाब से तो सामान्य राजनीतिक और कूटनीतिक संबंध अब उत्तरोत्तर बिगड़ते ही जायेंगे.
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Contributeइस प्रकरण में एक दिलचस्प पहलू यह है कि दोनों ही पक्षों के आरोपों में बहुत कुछ सच्चाई है. इसी के साथ यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि अमेरिका के तेवर पाकिस्तानी रवैये से पैदा हुई खीझ का नतीजा नहीं हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बदलते समीकरणों की उपज है.
यदि हम ट्रंप और खान के चुनावी अभियानों पर नजर डालें, तो दोनों ही ने एक-दूसरे पर खूब आरोप लगाये थे. साल 2016 में ट्रंप पाकिस्तान के विरोध में बोलते रहे, तो इमरान खान हमेशा अमेरिका पर निशाना साधते रहे. अभी के 1.66 बिलियन डॉलर की सुरक्षा सहायता स्थगित करने से पहले सितंबर में 300 मिलियन डॉलर की सैन्य सहायता रोकने का बयान आया था, तो इस साल के शुरू में अमेरिकी कांग्रेस के निर्देश पर 500 मिलियन डॉलर के अन्य सहयोग पर भी रोक लगाई गई थी.
ट्रंप का पाकिस्तान विरोध पिछले साल अगस्त में अफगानिस्तान और दक्षिण एशिया पर नीति की घोषणा में ही स्पष्ट हो गया था, जब उन्होंने पाकिस्तान पर उन आतंकवादियों को पनाह देने का आरोप लगाया था, जो अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की हत्या कर रहे थे. अमेरिका का यह आरोप काफी हद तक सही है. आतंकवाद और अलगाववाद पाकिस्तान की विदेश और रक्षा नीति का एक अघोषित हिस्सा है तथा इसका खामियाजा अफगानिस्तान और भारत बरसों से भुगत रहे हैं.
यह बात भी उल्लेखनीय है कि खुद अमेरिका की शह पर ही पाकिस्तान ने 1980 के दशक में इस नीति पर चलना शुरू किया था और तब से उसे अमेरिका से हथियार, धन और राजनीतिक सहयोग मिलता आ रहा है.
लगे हाथ पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यह बात भी पूरी तरह से दुरुस्त है कि आतंक के विरुद्ध अमेरिका की कथित लड़ाई में पाकिस्तान को जान-माल का भारी नुकसान हुआ है. भले ही इमरान खान के 75 हजार मौतों और 123 बिलियन डॉलर से अधिक धनराशि बर्बाद होने के आंकड़े पर बहस की जा सकती है, पर इससे पाकिस्तान में हुई बड़ी तबाही का अंदाजा लगाया जा सकता है. उनकी यह बात भी ठीक है कि करीब डेढ़ लाख अमेरिकी सैनिकों और ढाई लाख अफगान सुरक्षाकर्मियों तथा एक ट्रिलियन डॉलर से अधिक के खर्च के बावजूद अफगानिस्तान में तालिबान पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हुआ है.
दरअसल, इस तनातनी की कहानी की शुरुआत कुछ साल पहले ही हो चुकी थी, जब अमेरिका ने अफगानिस्तान में लड़ाई के बेनतीजा रहने और काफी घाटा उठाने के बाद परदे के पीछे से तालिबान से बातचीत का सिलसिला शुरू किया था. इस प्रक्रिया का एक मतलब यह था कि अब इस इलाके में अमेरिका के लिए पाकिस्तान की प्रासंगिकता बहुत कम रह गयी थी.
अमेरिका ने पहले अफगानिस्तान में सोवियत संघ-समर्थित सरकार को तबाह करने और फिर तालिबान एवं अल-कायदा को ठिकाने लगाने के लिए पाकिस्तान का भरपूर इस्तेमाल किया था. बदली परिस्थितियों में उसे पाकिस्तान की जरूरत नहीं रह गयी है. इसका एक सिरा तालिबान से संपर्क बढ़ाने से जुड़ता है, तो दूसरा सिरा अफगानिस्तान में सक्रिय अन्य समूहों के पाकिस्तान विरोधी होने से. यही कारण है कि ओबामा प्रशासन में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और मध्य एशिया मामलों के अधिकारी रह चुके डेविड सेडनी ने राष्ट्रपति ट्रंप की प्रशंसा की है और सहायता रोकने के कदम को सही ठहराया है. लेकिन उन्होंने या ट्रंप प्रशासन ने पाकिस्तान के कथित असहयोग का बहाना बनाया है.
ताजा टकराव का एक आयाम यह भी अहम है कि पाकिस्तानी सत्ता-तंत्र में इतने केंद्र हैं और इसके इतर चरमपंथी और आतंकी गिरोहों का ऐसा संजाल है कि अमन-चैन की बहाली या चरमपंथी तत्वों पर पूर्ण नियंत्रण किसी प्रधानमंत्री या सेनाध्यक्ष के बूते से बाहर की बात है. दशकों की तानाशाही, भ्रष्ट और क्षेत्रवादी राजनीति तथा चरमपंथियों और कट्टरपंथियों के रणनीतिक इस्तेमाल की प्रवृत्ति ने वहां के समाज और शीर्ष संस्थाओं को पंगु बना दिया है. आतंकवाद, अलगाववाद और धार्मिक कट्टरता के जरिये पाकिस्तान न सिर्फ अपने पड़ोसी देशों को अस्थिर करता है, बल्कि अपने देश के भीतर भी अलग-अलग स्वार्थ अपने हित साधने के लिए उन्हें काम में लाते हैं.
अमेरिका इस बात से भी अनजान नहीं है कि पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी. ऐसी बुरी स्थिति में उसे पटरी पर लाने के लिए जितना बड़ा सहयोग चाहिए वह सहयोग न तो कर सकता है और न ही करना चाहता है. उसे यह भी पता है कि भारी निवेश और बड़ी परियोजनाओं के जरिये पाकिस्तान में चीन का असर बहुत बढ़ गया है तथा उसे उलटी दिशा में मोड़ पाना अब संभव नहीं है.
कुछ समय से सामरिक तौर पर रूस भी पाकिस्तान पर मेहरबान हुआ है. चीन और रूस से अमेरिका के मौजूदा रिश्तों के लिहाज से ऐसी हालत में अमेरिका के लिए यह बहुत मुश्किल है कि वह पाकिस्तान को बड़ी धनराशि ऐसे मद में देता रहे, जिसका कोई खाता-बही भी नहीं होता और जिसके मुख्य लाभुक पाकिस्तानी राजनेता और सैन्य अधिकारी होते हैं. दूसरी बात यह कि वह धन भी देता रहे तथा चीन और रूस के साथ पाकिस्तान की गलबहियां भी देखता रहे, यह कैसे संभव है!
एक तरफ अमेरिका की कोशिश है कि वह जल्दी से अफगानिस्तान के झमेले से अपना पीछा छुड़ाये, जो बेताल की तरह 16 सालों से उसकी पीठ पर लदा है और ड्रैकुला की तरह उसके संसाधन पी रहा है. यह युद्ध जिनके फायदे के लिए था, वे फायदा उठाकर मंच से विदा ले चुके हैं. दूसरी तरफ अफगानिस्तान में रूस और चीन की दिलचस्पी बढ़ती जा रही है. पिछले दिनों मास्को में रूस की कोशिशों से तालिबान, अफगान सरकार और अन्य देशों की बातचीत इसका एक संकेत है. चीन भी अफगानिस्तान में अपने निवेश को बढ़ाने पर विचार कर रहा है.
ऐसे हर संबंध की एक सीमा होती है और वह सीमा भू-राजनीतिक कारणों से प्रभावित होती है. इसलिए मौजूदा प्रकरण को आतंक रोकने की सफलता-विफलता के चश्मे से देखना महज बहानेबाजी है. चूंकि यह मुहावरा अब भी चलता है, इसलिए ट्रंप और उनका प्रशासन इसका इस्तेमाल कर रहा है. इमरान खान और उनकी सरकार भी पाकिस्तान की पीड़ित दिखने की पुरानी चाल पर चल रही है तथा उनका यह तेवर पाकिस्तान के भीतर समर्थन जुटाने और रूस एवं चीन जैसे देशों की सहानुभूति लेने की एक कोशिश है.
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