कोख की क़त्लगाह : ज़िला- बीड, महाराष्ट्र

3 साल में 4,542 महिलाओं के गर्भाशय निकालने की घटना के पीछे बीड के अस्पतालों के अनियंत्रित लालच और गन्ने के खेती से जुड़ी जानलेवा स्थितियों की पड़ताल.

WrittenBy:प्रतीक गोयल
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रात के तकरीबन आठ बजते-बजते बीड जिले के संगम गांव की बस्ती सुनसान हो चुकी है. शाम को हुई हल्की बारिश ने इस सन्नाटे को और बढ़ाया है. गांव की कच्ची सड़कों पर बारिश ने कीचड़ कर दिया है. एक गली के कोने पर बने टीन की चादर वाले एक झोपड़े में कुछ गतिविधियां चल रही थीं, पास जाने पर पता चला कि झोपड़े के भीतर चूल्हा जल रहा है, उस पर मुर्गा पक रहा है. कच्ची ज़मीन वाले कमरे में कम वॉट के बल्ब की पीली रोशनी फैली हुई है. एक महिला खाना बना रही है और कोने में पड़ी खाट के बगल में तीन बच्चे बैठे हुए हैं.

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चूल्हे पर खाना पका रही 29 साल की द्रौपदी दडाटे गन्ना काटने वाली मजदूर हैं. तकरीबन तीन महीने पहले पास ही माज़लगांव तहसील के एक निजी अस्पताल में द्रौपदी का गर्भाशय निकालने का ऑपरेशन किया गया था. द्रौपदी 13 साल की उम्र से ही अपने पति के साथ पश्चिम महाराष्ट्र और कर्नाटक के शक्कर कारखानों में गन्ना काटने का काम करती आ रही हैं.

गर्भाशय का ऑपरेशन कराने के बाद से द्रौपदी के सामने कई समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं. एक तो उनके पीठ और कमर में लगातार दर्द बना रहता है. लेकिन इस साल कटाई के दौरान उनके साथ एक ऐसी घटना घटी जिसने उन्हें झंझोड़ कर रख दिया है. गर्भाशय की तकलीफ के चलते काम ना कर पाने की वजह से उन्हें मुकादम (गन्ना काटने वाले मजदूरों को काम देने वाला ठेकेदार) ने दो महीने तक बंधक बनाकर रखा. यह वह समय था जब द्रौपदी दिन रात गर्भाशय की तकलीफ के चलते परेशान थी और उसे एक डॉक्टर की जरूरत थी.

द्रौपदी ने हमें बताया, “12 साल की उम्र में मेरी शादी हो गयी थी और शादी के एक साल बाद से ही मैं हर साल अपने पति के साथ महाराष्ट्र और कर्नाटक के शक्कर कारखानों में गन्ना काटने के लिए जाने लगी थी. पिछले साल अप्रैल (2018) में गन्ना काटकर लौटने के बाद मुझे तेज पेट दर्द की शिकायत रहने लगी. दर्द बहुत बढ़ गया था, योनि से स्राव (वाइट डिस्चार्ज) होने लगा था. डॉक्टर को दिखाया तो उसने बताया कि गर्भाशय में गांठ है, ऑपरेशन करवाना पड़ेगा. लेकिन ऑपरेशन के लिये मेरे पास पैसे नहीं थे तो डॉक्टर ने दवाईयां दे दी थी. पछले साल सितंबर में हमारी जोड़ी (गन्ना काटने वाले मजदूर पति-पत्नी) को मुकादम ने अक्टूबर से लेकर अप्रैल तक निपानी (कर्नाटक) के एक शक्कर कारखाने में काम करने के लिए एक लाख रुपये की पेशगी दी थी. लेकिन मेरी तकलीफ बहुत बढ़ गयी थी और इलाज चल रहा था इसलिए मैं गन्ना काटने नहीं गई. मेरे पति अकेले गए. थोड़े दिन बाद मुकादम घर आ पहुंचा और मुझ पर दबाव बनाने लगा कि मैं भी निपानी जाऊं और गन्ने की कटाई करूं. मैं निपानी तो चली गयी, लेकिन मेरे पेट का दर्द और स्राव इतना बढ़ गया था कि मुझसे गन्ना कटाई का काम ही नही हो रहा था. लेकिन मुकादम चाहता था कि मैं भी काम करूं क्योंकि जोड़ी के हिसाब से उसने पैसे दिए थे.”

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द्रौपदी डदाटे, अपने तीन बच्चों के साथ.

द्रौपदी आगे बताती हैं, “मुकादम ने हम लोगों से कहा या तो मैं काम करूं या फिर उसके पैसे लौटाएं. मेरी तकलीफ बहुत ज़्यादा बढ़ गयी थी. डॉक्टर को दिखाना ज़रूरी हो गया था. पैसे नही थे तो मुकादम ने हमें बंधक बना लिया. मेरे पति जनवरी की शुरुआत तक पच्चीस हज़ार मेहनताने का गन्ना काट चुके थे लेकिन उसके बाद उसने उन्हें गन्ना नहीं काटने दिया और दो महीनों तक हमें वहां खेत पर कैद करके रखा.”

द्रोपदी के मुताबिक मुकादम ने उससे कहा, “तू नाटक कर रही है, तुझे कोई तकलीफ नहीं है. अब तुम दोनों यहां से तभी जाओगे जब पेशगी के पैसे लौटाओगे.” द्रौपदी बताती है, “मुझसे दर्द सहन नहीं होता था, हमने उससे बहुत मिन्नतें की कि हम बचे काम के पैसे अगले साल मजदूरी करके लौटा देंगे, लेकिन उसने हमारी बात नही सुनी. बाद में जब हमारे गांव से गन्ना काटने आयी दूसरी जोड़ियों ने मुकादम को बोला कि वह पैसे भर देंगे तब जाकर कहीं उसने हमको वहां से वापस गांव आने दिया.”

द्रौपदी ने बताया कि गांव लौटने के बाद माज़लगांव में जब वह डॉक्टर मोरे (नंदकिशोर मोरे, वातसल्य अस्पताल) के पास गयी तो डॉक्टर ने उसे तुरंत ऑपेरशन कर गर्भाशय निकालने की बात कही. वह कहती हैं, “तब भी पैसे नहीं थे लेकिन डॉक्टर ने बोला था कि ऑपेरशन ही एक जरिया है तकलीफ से निजात पाने का, इसलिए हमने 25,000 रुपये उधार लिया और गर्भाशय निकालने का ऑपेरशन करवा लिया. अब पेट में तो दर्द नहीं होता है लेकिन पीठ, कमर और पांव दुखते रहते हैं. खाना भी नहीं पचता है. काम भी बड़ी मुश्किल से कर पाती हूं.”

द्रौपदी अपने बड़े बेटे सुनील को मुर्गा खिलाने के लिए इसलिए जद्दोजहद कर रही थी, क्योंकि साल में सात-आठ महीने वह अपने पति और अन्य दो बच्चों स्वाति, और रोहन के साथ गन्ना काटने चली जाती है, जिसके चलते उनकी मुलाकात अपने बेटे से सात-आठ महीने बाद हो रही थी. दूसरा कारण यह कि सुनील को छात्रावास (बीड में इन्हे वतीशाला कहा जाता है, जहां गन्ना काटने वाले मजदूरों के बच्चे निशुल्क रहते हैं) में उसे पसंद का खाना नही मिलता है. इस रिपोर्टर से बात करते-करते वह भावुक होकर अपनी नौ साल की बेटी की तरफ इशारा करते हुए कहने लगी, “इसको जो कपड़े पहनाएं हैं वह भी गांव के लोगों से मांग कर पहनाये हैं. इस साल तो मैं गन्ना काटने जा नहीं पाऊंगी, यहीं गांवों में मजदूरी करनी पड़ेगी. ऑपेरशन के लिए जो पैसे उधार लिए थे वह भी चुकाने हैं, उसके अलावा जिन लोगों ने हमारी रिहाई के लिए मुकादम को पैसे दिए थे वह भी चुकाना है.”

गर्भाशय का निकाला जाना, गरीबी और शोषण यह सिर्फ द्रौपदी की ही नहीं बल्कि बीड जिले की उन लाखों गन्ना काटने वाली महिलाओं की कहानी है जिनके कष्टों की शुरुआत छोटी उम्र में हुई उनकी शादी के बाद से हो जाती है. बीड की इन महिलाओं का मामला देश की नज़र में तब आया जब पिछले महीने महाराष्ट्र की विधान परिषद् में वहां के स्वास्थ्य मंत्री एकनाथ शिंदे ने जानकारी दी कि पिछले तीन सालों में बीड जिले की 4542 गन्ना काटने वाली मजदूर महिलाओं का गर्भाशय निकालने का ऑपरेशन अंजाम दिया जा चुका है. इस सनसनीखेज खुलासे के बाद महाराष्ट्र सरकार ने इस मामले की जांच करने के लिए तीन सदस्यों की एक जांच समिति बनाई है.

4542 का आंकड़ा सिर्फ पिछले तीन सालों का है जिसे जिलाधिकारी के आदेश पर तैयार किया गया था. इसके पहले बीड में इस तरह का कोई सर्वे नहीं हुआ है. हालांकि इस क्षेत्र में करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का अनुमान है कि अगर पिछले 25 सालों का आंकड़ा निकाला जाए यो यह संख्या लाख तक पहुंच जाएगी.

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चोंडी गांव की महिलाएं जिनका गर्भाशय निकाला जा चुका है.

सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक बीड जिला गर्भाशय निकालने के मामले में काफी पहले से कुख्यात रहा है. जिले में गन्ना काटने वाली महिलाओं की इस भयावह स्थिति और कुटीर उद्योग का रूप ले चुके गर्भाशय के ऑपरेशन की समस्या को देखते हुए न्यूज़लॉन्ड्री ने बीड जिले का दौरा किया और इसकी वजहों की तह में जाने की कोशिश की. हमने सौ से ज्यादा ऐसी महिलाओं से बातचीत की जिनके गर्भाशय का ऑपरेशन किया जा चुका था. ये सभी महिलाएं गन्ना के खेतों में कटाई करने वाली मजदूर हैं. हमें एक भी ऐसी महिला नहीं मिली जो गन्ने के खेत में मजदूर नहीं थी और उसने गर्भाशय का ऑपरेशन करवाया हो. यानि इनकी बीमारी का सीधा संबंध गन्ने के खेतों की अमानवीय, गंदगी भरी स्थितियों, जानकारी के अभाव और गरीबी से है.

अपनी पड़ताल में हमने पाया कि यह एक किस्म का संगठित दुष्चक्र है जिसमें गन्ना काटने वाली मजदूर महिलाएं पिस रही हैं. इसमें गरीबी, गन्ना कटाई, छोटी उम्र में शादी, मुकादम का आतंक और निजी अस्पतालों और डॉक्टरों का असीमित लालच एक साथ काम करता है.

यह एक ऐसा चक्रव्यूह है जिसमें गरीब महिलाओं का गन्ने के खेत में, गंदगी की (अनहाइजिनिक) स्थितियों में काम करना मजबूरी है और इस मजबूरी के चलते उनके जननांगों में घातक संक्रमण हो जाता है और इस संक्रमण का इलाज बीड के अस्पतालों और डॉक्टरों ने मिलकर निकाला है गर्भाशय का ऑपरेशन. एक बार गर्भाशय निकाल दिए जाने पर बार-बार की समस्या से मुक्ति और गन्ने के खेत में काम करने के लिए मजदूरों की किल्लत से भी छुटकारा. महाराष्ट्र की विधानसभा में दिया गया आंकड़ा सिर्फ तीन सालों का है. अतीत की तस्वीर नदारद है.

बीड के जिलाधिकारी असित पांडे इस समस्या के बारे में पूछने पर कहते हैं, “यहां की करीब छह लाख की आबादी गन्ना काटने जाती हैं. गन्ना काटने वाली मजदूर महिलाएं अस्वच्छ माहौल में रहती हैं, लगातार काम करती हैं. इसका उनकी सेहत पर काफी बुरा असर पड़ता है. हमारे यहां गर्भाशय से संबंधित परेशानियों के बारे में खुलकर बातचीत भी नहीं की जाती. जननांगों से जुड़ी बीमारी को छिपाया जाता है. ऐसी सूरत में जब ये महिलायें डॉक्टर के पास जाती है तो किसी को नही पता चलता है कि डॉक्टर ने उन्हें क्या सुझाव दिया या क्या इलाज किया. अब इसकी पूरी गंभीरता से जांच की जाएगी. गन्ना काटने वाली महिलाओं के ही गर्भाशय निकालने के मामले ज्यादा हैं. फिलहाल हम तकरीबन 3 लाख महिलाओं को ध्यान में रखकर एक व्यापक सर्वेक्षण कर रहे हैं और इसके कारणों को जानने की कोशिश कर रहे हैं.”

न्यूज़लॉन्ड्री ने बीड जिले के चोंडी, कारी, उपली और संगम समेत तमाम गांवों का दौरा करने पर पाया कि अमूमन हर गांव में औसतन सौ के करीब महिलाएं ऐसी है जिनका ऑपेरशन के जरिये गर्भाशय निकाला जा चुका है. इन महिलाओं की उम्र 28 साल से लेकर 65 साल तक है. इन सभी महिलाओं ने छोटी उम्र से गन्ने के खेतों में कटाई करना शुरू कर दिया था और इनमें से 90% आज भी वही काम करती हैं.

डॉक्टर ने कहा कैंसर हो जाएगा

32 साल की लता अडागले की शादी 16 साल की उम्र में हुई थी. उन्हें 10 और 7 साल की दो बेटियां हैं. छह साल पहले उन्होंने ऑपेरशन के ज़रिये अपना गर्भाशय निकलवा दिया था. वह कहती हैं, “जब से मेरी शादी हुई है तब से मैं गन्ना काटने के लिए कारखानों में जाती हूं. मेरे दो बच्चे हैं, छह साल पहले परली के कराड अस्पताल में मैंने अपना गर्भाशय निकलवा दिया था. दूसरे बच्चे को जन्म देने के बाद से मेरा पेट दुखता था. जब मैं डॉक्टर के पास गयी तो डॉक्टर ने जांच करने के बाद कहा कि गर्भाशय में गठान आ गयी है, अगर गर्भाशय नहीं निकलवाया तो कैंसर हो जाएगा. यह सुनकर मैं घबरा गयी थी और फिर ऑपेरशन के ज़रिये डॉक्टर से मैंने अपना गर्भाशय निकलवा दिया. ऑपेरशन में पचास हज़ार रुपये लग गए थे.”

45 साल की केसर मुंडे को याद नही कि उनकी शादी कब हुई थी, हां वह यह ज़रूर कहती हैं कि तब वह बच्ची थीं. केसर कहती हैं, “मैं लगभग 30 साल से गन्ना काटने जाती हूं. दस साल पहले जब मुझे पेट में दर्द की तकलीफ रहने लगी तो मैं अम्बेजोगाई तहसील के एक निजी अस्पताल में दिखाने के लिए गयी. डॉक्टर ने जांच के बाद कहा कि गर्भाशय में गठान हो गयी है, ऑपरेशन नहीं किया तो कैंसर हो जाएगा और तुम नहीं बचोगी. जब यह सुना तो मैं घबरा गयी और मैंने तुरंत गर्भाशय निकलवाने का ऑपरेशन करवा लिया.”

चोंडी गांव की ही रहने वाली 35 साल की जीजाबाई अडागले कहती हैं, “जब मैं 12 साल की थी तब मेरी शादी हो गयी थी और तब से मैं कारखानों में गन्ना काटने जाती हूं. 14 साल की उम्र में मैंने पहली बच्ची को जन्म दिया और जब मैं 17 साल की हुई तब तक तीन बच्चों (एक लड़की और दो लड़कों) की मां बन चुकी थी. तीसरे बच्चे के जन्म के एक साल बाद मुझे पेट में दर्द की शिकायत रहने लगी. करीब डेढ़ साल तक दर्द से परेशान रहने के बाद जब मैं माज़लगांव के एक निजी अस्पताल में गयी तो डॉक्टर ने कहा गर्भाशय निकालना पड़ेगा वर्ना मुझे कैंसर हो जाएगा. मैं और मेरा मालक (पति) दोनो घबरा गए थे. इसके बाद मैंने गर्भाशय निकलवा दिया. ऑपेरशन करवाने में 25 हजार रुपये का खर्चा आया था.

जीजाबाई कहती हैं, “गर्भाशय का दर्द हो या माहवारी का या फिर बच्चे को ही थोड़े दिन पहले जन्म क्यों ना दिया हो, गन्ना काटने वाली महिलाओं को कारखाने में ज़रा भी आराम करने की छूट नहीं है, अगर कोई महिला इन दिनों में एक दिन काम ना कर सके तो उसे मुकादम को एक हज़ार रुपये का खाड़ा देना पड़ता है. मेरे दो छोटे बच्चों का जन्म कारखाने में काम करने के दौरान ही हुआ था. दोनों वक़्त मैं बच्चे जनने के बाद 15 दिन तक गन्ना काटने  नहीं गयी थी. इसके ऐवज में मुझे दोनों बार मुकादम को 15 हजार रुपये खाड़ा देना पड़ा था. इसलिए उचल मिलने के बाद  महिलाएं चाहे कितने ही कष्ट में हो गन्ना काटती रहती हैं.”

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जीजाबाई अडागले का गर्भाशय निकालने का ऑपरेशन तब हुआ था जब वह 25 वर्ष की भी नहीं थीं.

महिलाओं के इन आरोप का जवाब बीड में पिछले 20 साल से मुकादम का काम कर रहे तुलसीराम अव्हाड देते हैं. वह कहते हैं, “जब यह महिलायें छुट्टी लेती है तब खाड़ा लिया जाता है. सिर्फ महिलाओं से ही नही अगर कोई भी व्यक्ति काम नहीं  करता है तो उससे 500 से 1000 रुपये तक खाड़ा लिया जाता है. यह खाड़ा लेने के लिए जोड़ियां ही बोलती हैं. अगर कोई महिला माहवारी या गर्भवती होने के चलते काम नहीं करती है तो काम कर रही अन्य जोड़ियां हमसे कहती हैं कि उनसे खाड़ा वसूल करो वरना हम भी छुट्टी पर जायेंगे या काम नहीं करेंगे.”

उचल और खाड़ा

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में स्थित बीड जिला गन्ने की कटाई करने वाले मजदूरों को गढ़ है. यहां से हर साल लाखों लोग पश्चिम महाराष्ट्र और कर्नाटक के शक्कर कारखानों में गन्ने की कटाई करने के लिए जाते हैं. यूं तो मराठवाड़ा के अन्य जिले उस्मानबाद, परभणी, लातूर आदि के अलावा विदर्भ के यवतमाल, अमरावती जैसे इलाकों से भी मजदूर गन्ना काटने जाते हैं, लेकिन अकेले बीड से गन्ना काटने वालों की कुल आबादी का पचास प्रतिशत हिस्सा जाता है.

बीड के इलाके में लगातार सूखे के चलते इन भूमिहीन लोगों के पास जीविका चलाने के लिए गन्ने की कटाई के अलावा दूसरा कोई पर्याय नहीं है. इसलिए यह लोग इतनी बड़ी संख्या में अस्थायी रूप से पश्चिम महाराष्ट्र और कर्नाटक के इलाके में विस्थापित हो जाते हैं. ये लोग अक्टूबर से मई के बीच शक्कर कारखानों के लिए गन्ना काटते हैं. गन्ना काटने के लिए जाने वाले मजदूर पति-पत्नी की जोड़ियों में जाते हैं. ये अपने साथ अपने बच्चों को भी गन्ने के खेतों में ले जाते हैं और वहां अस्थायी झोपड़ियां बनाकर रहते हैं. हालांकि ऐसे भी मजदूर हैं जो अपने बच्चों को वतीशाला (सरकारी छात्रावास) या घर के बुज़ुर्गों के हवाले छोड़कर चले जाते हैं. गन्ना काटने जाने वाली एक जोड़ी को मौजूदा दौर में पचास हज़ार से लेकर एक लाख रुपये तक की रकम दी जाती है. यह रकम बतौर पेशगी दी जाती है और इसी पेशगी को स्थानीय भाषा में उचल कहते हैं. उचल लेने के बाद इन जोड़ियों की हालत किसी बंधुआ मजदूर जैसी हो जाती है. इसके बाद मुकादम इनका बुरी तरह से शोषण करते हैं. अगर यह लोग इस दौरान एक भी दिन, किसी भी कारणवश काम ना करे तो उन्हें मुकादम को एक हज़ार रुपये प्रतिदिन का हर्जाना देना पड़ता है और इसी हर्जाने को खाड़ा कहते हैं.

मुआवज़े या खाड़े का यह डर बीड में बड़े पैमाने पर होने वाले गर्भाशय के ऑपरेशन की जड़ है. माहवारी का वक्त हो, बच्चे के पैदा होने का वक्त हो या कोई अन्य बीमारी, रोज़ाना एक हजार के हर्जाने के डर से महिलाएं खेतों की गंदगी भरे माहौल में, बीमारी में भी गन्ना काटती रहती हैं. ज्यादातर महिलाएं सैनिटरी पैड आदि का इस्तेमाल भी नहीं करती हैं. ऐसे में लगभग हर महिला को किसी न किसी समय जननांगों से सम्बंधित संक्रमण हो जाता है. धीरे-धीरे यह बीमारी का रूप ले लेता है. काम पर ना आने पर मुकादम उनसे खाड़ा वसूल करते हैं और अगर वह खाड़ा नहीं दे पाती हैं तो उन्हें या तो बंधक बना लिया जाता है, या फिर अगले साल फिर से उन्हें उसी मुकादम के यहां बिना मजदूरी के काम करना पड़ता है.

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पार्वती अडागले अपनी बेटी प्रतीक्षा के साथ.

गन्ना काटने वाली महिलाओं की कहानियां

45 साल की गोदावरी मोरे बीड के कारी गांव के एक कच्चे मकान में रहती हैं. वह जब 15 साल की थीं तब उनकी शादी हो गई थी और तब से वह हर साल गन्ने की कटाई के लिए शक्कर के कारखानों में जाती हैं. वह कहती हैं, “मैं पहली बार गन्ना काटने के लिए बारामती के एक कारखाने में गयी थी. पिता के घर में मैंने यह काम कभी नहीं किया था. बहुत मुश्किल होता है यह काम ख़ास तौर से एक महिला के लिए. सुबह चार बजे उठ कर खाना बनाना पड़ता है और उसके बाद गन्ने के खेतों में कटाई करने जाते हैं. दिन भर में एक जोड़ी को तकरीबन दो टन (2000 किलो) गन्ना काटना पड़ता है. कभी-कभार डेढ़ टन ही काट पाते हैं, लेकिन चाहे कुछ भी हो जाए एक टन से नीचे नहीं जा सकते वरना मुकादम आकर गाली गलौज करते हैं. झोपड़ी पर आते-आते सात-आठ बज जाते हैं. उसके बाद खाना बनाते हैं. अगर उस वक़्त गन्ना ढोने वाली गाड़ी आ जाती है तो खाना-पीना छोड़कर वहां जाना पड़ता है. एक गाड़ी को गन्ने से भरने में दस जोड़ियां लग जाती हैं और औसतन एक गाड़ी भरने में तीन घंटे लग जाते हैं. लौटते लौटते एक बज जाता है. फिर खाना खाकर सोते हैं और सुबह फिर चार बजे उठना पड़ता है. इस काम का कोई समय नहीं है दिन-रात काम करना पड़ता हैं.”

गोदावरी बताती हैं “मैं जब पहली बार गयी थी तो बहुत दिन तक तो रोज़ रोती थी. दिन में करीब 18-19 घंटे काम करते हैं. अब 19 साल हो गए हैं यह काम करते-करते. माहवारी के दिनों में यह काम करना बहुत मुश्किल हो जाता है, लेकिन काम पर जाना ही पड़ता है वरना मुकादम को खाड़ा (हर्जाना) देना पड़ता है. 15-20 साल पहले यह खाड़ा 200 रुपये था आज की तारीख में 1000 रुपये है. हम लोग इतने गरीब हैं कि खाड़ा कहां से भरेंगे इसलिए माहवारी चल रही हो या, गर्भवती हों काम करते ही रहते हैं.”

गोदावरी ने अपना गर्भाशय निकालने का ऑपरेशन साल 2006 में ही करवा दिया था. गर्भाशय निकालने के तीन साल पहले से उसके पेट में दर्द होता था. माहवारी के बाद खून रुकने का नाम नहीं लेता था और महीने में 15 दिन तक रक्तस्राव होता रहता था. ऐसे में बहुत कमज़ोरी आ जाती थी लेकिन फिर भी गन्ना कटाई का काम करती रहती थी. आखिरकार डॉक्टर ने 30,000 रुपये लेकर ऑपेरशन किया और गर्भाशय निकाल दिया. गर्भाशय निकालने के बाद पेट का दर्द तो ठीक हो गया था लेकिन पीठ, गर्दन और पांव में अक्सर दर्द रहता है.

गोदावरी बताती हैं, “छह महीने तक हर रोज़ तकरीबन 18-19 घंटे काम करने के बाद भी मुकादम हमारे साथ जालसाज़ी करते हैं. अक्टूबर 2018 से लेकर मई 2019 तक काम करने के ऐवज में इस साल हमने एक लाख की उचल (पेशगी) उठायी थी. लगभग 6-7 महीने दिन रात काम किया और हर रोज़ दो टन गन्ना काटते थे 227 रुपये टन के हिसाब से. उसके बाद भी मुकादम ने कहा कि हमने सिर्फ 50,000 रुपये का ही गन्ना काटा है और हमें उसे बाकी 50,000 रुपये वापस करने पड़ेंगे. इसलिए अब अगले साल हमें फिर से उसके लिए छह महीने तक बिना किसी मजदूरी के गन्ना काटना पड़ेगा.”

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चोंडी गांव की कुछ महिलाएं जो 13-14 साल की उम्र से गन्ना काटने का काम कर रही है.

जब न्यूज़लॉन्ड्री ने गोदावरी से पूछा कि वह इस बात का विरोध क्यों नहीं करती तो वह रुआंसी होकर कहती हैं, “हम लोग गरीब हैं, हम क्या किसी का विरोध करेंगे. अगर मुकादम के पैसे नहीं देंगे तो वह बंधक बना लेगा.”

मुकादम का चक्रव्यूह

मुकादम यानि मजदूरों का प्रबंध करने वाला ठेकेदार. मुकादम ऐसा शब्द है जो गन्ना काटने वाले मजदूरों के लिए खौफ बन चुका है. यह वह लोग होते हैं जिनके साथ शक्कर कारखाने के मालिक गन्ने की कटाई का करार करते हैं. अधिकतर मुकादम किसी ना किसी राजनैतिक पार्टी से जुड़े होते हैं और शक्कर कारखानों की यूनियनों से भी जुड़े रहते हैं. शक्कर कारखाने इन मुकादमों से गन्ना काटने के मजदूर मुहैय्या कराने का करार करते हैं और उन्हें 25-30 प्रतिशत की दलाली देते हैं. यह मुकादम हर साल बीड और मराठवाड़ा के अन्य जिलों से पेशगी देकर मजदूरों को जोड़ियों में गन्ना काटने के लिए ले जाते हैं. यह उन्हें पेशगी देकर ऐसे चक्रव्यूह में फंसाते हैं जिससे निकल पाना उनके लिए असंभव हो जाता है और मजदूर उधारी के दलदल में फंसते जाते हैं. मजदूरों को बंधक बनाने से लेकर उनका यौन शोषण तक करने में मुकादम लिप्त रहते हैं.

चोंडी गांव में रहने वाले 38 साल की पार्वती अडागले की कहानी मुकादमों के आतंक और बेरहमी की मिसाल है. मुकादम के बारे में बात करने पर पार्वती असहज हो जाती हैं लेकिन फिर दरख्वास्त करने पर कहती हैं, “8 साल पहले मैं कर्नाटक के शक्ति शक्कर कारखाने में अपने पति के साथ गन्ना काटने गई थी. मुकादम ने हमें 20,000 रुपये उचल दी थी. मेरा सात साल का बेटा समाधान भी मेरे साथ था लेकिन हमारा काम ख़त्म होने के कुछ 20 दिन पहले खेत के कुएं में गिरकर उसकी मृत्यु हो गयी. उसके बावजूद भी हमने आखरी दिन तक दिन-रात 18-20 घंटे काम किया. लेकिन काम ख़त्म होने पर मुकादम ने कहा की हमने सिर्फ 10,000 रुपयों का ही काम किया है, और वह हमें तब जाने देगा जब हम उसके बाकी दस हजार रुपये चुकाएंगे. हम लोग पहले से ही अपने बच्चे की मौत से दुखी थी लेकिन उसके बावजूद वह मुकादम हमें परेशान कर रहा था. उसने हमारे साथ 8-9 और जोड़ियों को कैद कर लिया था. हम सभी लोगों को एक मैदान में रखा गया था, जिसे चारों ओर से उसके आदमियों ने घेर रखा था. चार दिन तक हमको उसी मैदान में रखा गया. खाने-पीने की भी दिक्कत थी. वहां से आज़ाद होने के लिए हम सभी जोड़ियों को एक दूसरे मुकादम से पैसा उधार लेकर उसको देना पड़ा और अगले साल फिर छह महीनों के लिए हमने उस मुकादम के यहां मजदूरी की जिसने हमें पैसे उधार दिए थे.”

62 साल की गवलन बाई मुकादमों के बारे में कहती हैं, “पांच साल पहले मैं और मेरे मालक गुलबर्गा के एक शक्कर कारखाने में गन्ना काटने गए थे. मेरे मालक की तबीयत बहुत बुरी तरह बिगड़ गयी थी. हमने मुकादम से लाख मिन्नतें कीं, कि उन्हें घर वापस जाने दे. लेकिन मुकादम ने मेरी एक ना सुनी. वह कहता था- ‘यह चला गया तो एक जोड़ी कम हो जायेगी’. जब हम वहां से काम ख़त्म करके लौटे उसके दो महीने के बाद ही मेरे पति का देहांत हो गया.” यह कहकर गवलन बाई रोने लगीं.

मराठवाड़ा में काम करने वाली समाजसेवी संस्था मानवी हक़ अभियान से जुड़े समाज सेवी परमेश्वर अडागले कहते हैं, “मुकादम गन्ना काटने वाले मजदूरों की गरीबी का फायदा उठाते हैं. वह उन्हें पेशगी की रकम देने के बाद अपना गुलाम समझते हैं. गन्ना मजदूर कितना ही गन्ना काट ले मुकादम उसे कम ही बताते हैं और मजदूरों से कहते हैं कि उन्हें जितने पैसे दिए गये हैं उतने का उन्होंने काम नहीं किया. बीड और मराठवाड़ा के अन्य जिलों में गन्ना काटने वाले मजदूर भूमिहीन होते है, यह बहुत ही गरीब होते हैं, जैसे ही पेशगी रकम उन्हें मिलती है वह इनके बच्चों की पढ़ाई, घर के राशन, शादी, दवाई जैसे पारिवारिक खर्चों में ख़त्म हो जाती हैं. मुकादम इनसे दिन-रात गन्ना कटवाते हैं. यह बेचारे लोग 2000 किलो गन्ना एक दिन में काटते हैं, गन्ना गाड़ियों में भरते हैं, औसतन 19-20 घंटे काम करते हैं. इन गरीबों मजदूरों के पास मुकादम को देने के पैसे नहीं होते तो मुकादम इन्हें बंधक बना लेते हैं. वहां से निकलने के लिए इन्हें अपने रिश्तेदारों या किसी अन्य मुकादम से फिर कर्जा लेना पड़ता है. अगले साल फिर यह जिस मुकादम से कर्जा लिया होता वहां जाकर काम करते हैं. मुकादम इन्हें कर्जे और गुलामी के ऐसे दलदल में फंसा देते हैं जिससे यह कभी निकल नहीं पाते.”

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किष्किन्दा और रंजना अजबे उपली गांव में.

बीड की माज़लगांव तहसील में रहने वाले मुकादम बंदू खंडागले इन आरोपों के जवाब में कहते हैं, “अधिकतर महिलाएं माहवारी के दौरान भी काम करती हैं. जो नहीं करती हैं उनसे खाड़ा लिया जाता है और यह खाड़ा लेने के लिए उनके साथ काम कर रही अन्य जोड़ियां ही कहती हैं. हम अपनी मर्ज़ी से खाड़ा वसूल नहीं करते.”

खंडागले ने बताया कि मजदूरों को बंधक बनाने में सिर्फ मुकादम का ही हाथ नहीं होता है बल्कि यह काम गाड़ी मालिक भी करते हैं. उनके मुताबिक अगर मजदूर पैसे लेकर काम नहीं करते हैं तो ऐसी स्थिति में उन्हें कभी-कभी बंधक बना लिया जाता है.

क्या मुकादम की कोई भूमिका है गर्भाशय निकालने में?

मुकादम तुलसीराम अव्हाड इस आरोप पर बिदक जाते हैं. वो कहते हैं, “हम सभी महिलाओं को एक साथ काम देते हैं. यह गलत आरोप है. कोई भी मुकादम किसी भी महिला को गर्भाशय निकालने को नहीं बोलता है, वह गर्भाशय अपनी खुद की मर्ज़ी से निकलवाती हैं. वो ऐसा इसलिए करती हैं क्योंकि उन्हें गर्भाशय से संबंधित बीमारियां हो जाती हैं.”

न्यूज़लांड्री ने ऐसी सौ से ज़्यादा महिलाओं से यह सवाल किया कि क्या मुकादम उन्हें गर्भाशय निकलवाने के लिए कहते हैं? किसी भी महिला ने इस बात की पुष्टि नहीं की. इनका ये कहना था कि मुकादम बहुत निर्मम होते हैं. वो माहवारी के चलते या किसी भी बीमारी से आप कितनी भी तकलीफ में क्यों न हों, वे जरा भी रहम नहीं करते. अगर कोई बीमारी की वजह से काम पर ना जाए तो एक दिन का एक हज़ार रुपये हर्जाना भरना पड़ता है. लेकिन कोई भी मुकादम गर्भाशय निकालने के लिए नहीं बोलता है.

45 साल की निर्गुणा हज़ारे एक पते की बात बताती हैं, “मुकादम हम पर और हमारे मालक पर बहुत ज़ुल्म करते हैं. लेकिन गर्भाशय निकालने के लिए नहीं बोलते. हमें जब पेट दर्द या रक्तस्राव की तकलीफ बढ़ जाती है तो हम डॉक्टर के पास जाते हैं. डॉक्टर हमें कहते हैं कि गर्भाशय निकालना पड़ेगा.”

हजारे की बात से बीड जिले में फैली गर्भाशय की महामारी के सिरे को पकड़ना आसान है. गन्ने की कटाई का काम बीड की महिलाओं पर अभिशाप बनकर गिरता है. ये बताता है कि गन्ने की कटाई, इसकी अमानवीय परिस्थितियों का सीधा संबंध इनके गर्भाशय की बीमारी या यौन संक्रमण से है. बीड के डॉक्टरों और अस्पतालों के लिए यह नोट छापने का जरिया बन गया है बिल्कुल उसी तरह जैसे देश के अधिकतर हिस्सों में निजी अस्पतालों द्वारा बच्चों की डिलेवरी के लिए सी-सेक का सहारा लेना आम बात हो गई है.

जिलाधिकारी असित पांडे भी इस पक्ष को लेकर सजग हैं. उन्होंने बताया, “इस समस्या का एक बड़ा पहलु मुक़ादम भी हैं. मुकादमों पर यह आरोप है कि वह महिलाओं को यह ऑपेरशन करने के लिए बाध्य करते हैं. लेकिन अभी तक की जांच में ऐसा कुछ नज़र नही आया है. हम आगे भी इस पहलु की गहराई से तहकीकात करेंगे कि मुकादमों की इन ऑपरेशनों में कोई  भूमिका है क्या.”

कमर और पीठ में दर्द रहता है

कारी गांव की रहने वाली 50 साल की सिंधु मोरे ने तकरीबन 10 साल तक गन्ना काटने का काम किया है. वह कहती हैं, “मैंने गन्ना काटने का काम सिर्फ 10 साल तक ही किया है क्योंकि ऑपरेशन करने के बाद पीठ, कमर और पांव में अक्सर दर्द बना रहता था. मेरा ऑपरेशन 25 साल पहले हुआ था, लेकिन मुझे आज भी कमर और पीठ में दर्द रहता है. बहुत सी महिलाएं गर्भाशय निकलने के बाद भी गन्ना काटने जाती हैं, लेकिन यह बहुत पीड़ादायक होता है. मेरी लिए यह संभव नहीं था. हमारे गांव में ऐसी 200 के करीब महिलाएं हैं जिन्होंने ऑपेरशन करके गर्भाशय निकालवा दिया है. इन सभी महिलाओं को पीट, कमर, गर्दन और पैर दर्द की तकलीफ रहती है.”

गौरतलब है कि जितनी महिलाओं के गर्भाशय निकालने का ऑपेरशन इन गांवों में हुआ है उन सभी को पीठ, कमर, गर्दन और पैर दर्द की तकलीफ रहती है और सबका कहना है कि यह तक़लीफ ऑपरेशन होने के बाद ही शुरू हुई है. इसके बावजूद भी 90% महिलाएं अभी भी गन्ना काटने का काम करती हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री ने पाया कि इस इलाके में ग्रामीण महिलायें आज भी माहवारी के दौरान कपड़े आदि का इस्तेमाल करती हैं.

35 साल की कमल मुंडे का गर्भाशय 12 साल पहले गर्भाशय निकाला जा चुका है. वह कहती हैं, “माहवारी के दिन हो या रक्तस्राव की तकलीफ हम लोग कपड़े का ही इस्तेमाल करते थे.” जब उनसे पूछा गया की क्या वह सेनेटरी पैड्स का इस्तेमाल नहीं करती तो पहले तो उन्हें यह शब्द समझ में नहीं आया. थोड़ा विस्तार से समझाने पर वो बोलीं, “हम लोग एक-एक रुपये के लिए मोहताज हैं पैड कहां से खरीद कर लाएंगे.”

शिकार है ये महिलाएं

उपली गांव में रहने वाली 26 साल की वर्षा इचके राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए काम करती हैं. वह कहती हैं, “बीड जिले के ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाओं को गर्भाशय से सम्बंधित समस्याएं बहुत कारणों से होती हैं. छोटी उम्र में शादी, गन्ना कटाई में दिन-रात काम करना, बोझा उठाना, माहवारी के वक़्त ध्यान नहीं देना, गन्दी जगहों पर शौच करना आदि. लेकिन निजी अस्पतालों के लिए यह महिलाएं आसान शिकार हैं. यह उनकी तकलीफों का ढंग से इलाज नहीं करते, जो समस्या दवाई से ठीक हो सकती है उसके लिए यह निजी अस्पताल इन महिलाओं को सीधे गर्भाशय निकाल देने की सलाह देते हैं. सिर्फ पैसा कमाने के लिए ये लोग ऐसा करते हैं. गर्भाशय के ऑपेरशन के बाद भी महिलाओं को अपना ध्यान रखना चाहिए. उन्हें कम से कम तीन महीने तक आराम करना चाहिए, मेहनत का कोई भी काम नहीं करना चाहिए, हर आठ दिन में हीमोग्लोबिन, ब्लड प्रेशर की जांच करनी चाहिए, पौष्टिक आहार खाना चाहिए लेकिन गरीबी और काम के दबाव के चलते ये अपना ध्यान नहीं रख पाती हैं.”

बीड जिले में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता दीपक थोरात कहते हैं, “सरकारी अस्पताल में अगर कोई महिला गर्भाशय की समस्या को लेकर आती है तो सबसे पहले उसके खून की जांच की जाती है. यह जांच रिपोर्ट आठ दिन में आती है, अगर रिपोर्ट पॉजिटिव आती है तभी गर्भाशय निकालने की प्रक्रिया शुरू करते हैं वरना नहीं करते हैं. इसके अलावा गर्भाशय उसी महिला का निकालते हैं जिसकी उम्र 45 साल के ऊपर हो. इससे कम उम्र की महिलाओं का गर्भाशय नहीं निकाला जाता और दवाइयों के ज़रिये उसे ठीक किया जाता है. रक्तस्राव, योनि स्राव जैसी समस्याओं को दवाइयों से ही ठीक किया जा सकता है. लेकिन अगर कोई महिला निजी अस्पताल में जाती है तो वो इसी फ़िराक़ में रहते हैं कि उस का गर्भाशय निकाल दें. बीमार महिला और उनके परिवार को डॉक्टर डरा देते हैं कि उन्हें कैंसर होने वाला है, या वो मर सकती है.”

आगे थोरात कहते हैं, “पिछले 25-30 सालों में कैंसर या मौत का भय इन निजी डॉक्टरों की वजह से ग्रामीण महिलाओं के मन में घर कर चुका है. रक्तस्राव या योनि स्राव होने पर उन्हें लगता है कि गर्भाशय निकालना ही एकमात्र इलाज है. जबकि अगर इन महिलाओं को सही इलाज दिया जाए तो गर्भाशय निकालने की ज़रुरत ही नहीं होगी.”

बीड के अस्पताल- गर्भाशय निकालने की फैक्ट्री

न्यूज़लॉन्ड्री को मिले कुछ दस्तावेज बीड की डरावनी तस्वीर सामने लाते हैं. बीड में ऐसे 120 निजी अस्पताल हैं जहां गर्भाशय निकालने की सुविधा है. इनमें से सात अस्पातल अब गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन नहीं करते हैं.

गौरतलब है कि अप्रैल के महीने में बीड के कलेक्टर ने एक परिपत्र जारी किया था. जिसके अनुसार निजी अस्पतालों को गर्भाशय निकालने के लिए अब सिविल सर्जन और मेडिकल सुपरिंटेंडेंट की इजाजत लेनी पड़ेगी. बीड जिला अस्पताल में कार्यरत एक अधिकारी नाम नहीं उजागर करने की शर्त पर बताते हैं, “जब से परिपत्र जारी हुआ है तब से गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन की तादाद 50 फीसदी गिर गई है. पिछले 3 महीनों में सिर्फ 200 ऑपरेशन हुए हैं जबकि उसके पहले औसतन 125-130 ऑपरेशन ये अस्पताल हर महीने करते थे. अब अगर कोई महिला गर्भाशय से सम्बंधित तकलीफ को लेकर निजी अस्पताल जाती है और वहां पर मौजूद डॉक्टर उसे गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन की सलाह देता है तो पहले उस महिला का सरकारी अस्पताल का स्त्री रोग डॉक्टर जांच करता है तभी जाकर ऑपेरशन की इजाजत देता है या खारिज करता है.”

अस्पताल अधिकारी बताते हैं, “जब से यह सर्कुलर जारी हुआ था, उसके बाद हमने दो दिन के अंदर साल 2016-17, 2017-18, 2018-19 में बीड जिले में हुए गर्भाशय के ऑपेरशन का सर्वेक्षण किया था. सर्वे के मुताबिक पहला आंकड़ा पिछले तीन सालों में 4605 का था और यही आंकड़ा महाराष्ट्र के स्वास्थ्यमंत्री ने विधान परिषद् में बोला था. हालांकि बाद में इन आंकड़ों में थोड़ा फेरबदल हुआ, सही आंकड़ा 4542 है. यह सिर्फ पिछले तीन सालों का है. अगर पिछले 25-30 सालों का आंकड़ा निकलेगा तो शायद ऐसी महिलाओं की संख्या लाख तक पहुंच जाएगी.”

न्यूज़लॉन्ड्री ने बीड के जिला अस्पताल के अतिरिक्त सिविल सर्जन डॉ सुखदेव राठोड़ से मुलाकात के दौरान जब निजी अस्पतालों द्वारा किये गए गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, “अब कोई भी निजी अस्पताल सिविल सर्जन (शहर में) और मेडिकल सुपरिंटेंडेंट (तहसील में) की इज़ाज़त के बिना गर्भाशय निकालने का ऑपेरशन नहीं कर पायेगा. हर महीने निजी अस्पतालों को सिविल सर्जन को गर्भाशय निकालने वाले ऑपरेशनों की रपट भेजनी होगी. ऐसे ऑपेरशन करने वाले निजी अस्पतालों को एक बोर्ड भी लगाना होगा जो गर्भाशय निकालने वाले ऑपेरशन की अच्छाइयां और बुराइयां दोनों बताएगा.”

जब न्यूज़लॉन्ड्री ने डॉ राठोड़ से पूछा कि क्या कारण है कि गर्भाशय से सम्बंधित बीमारियों या उसके ऑपेरशन के लिए महिलाएं सरकारी अस्पताल में आने के बजाय निजी अस्पतालों में जाती हैं, तो वह उसका कोई माकूल जवाब नहीं दे पाए. इतनी बड़ी संख्या में हो रहे ऑपरेशनों का कारण पूछने पर उन्होंने कहा, “अशिक्षा की वजह से छोटी सी बीमारी को भी ग्रामीण महिलाएं बड़ा समझ लेती हैं. योनिस्राव होने पर वह आपस में जब बात करती हैं तो वह इस निष्कर्ष पर पहुंच जाती हैं कि गर्भाशय निकालना पड़ेगा. निजी अस्पतालों के डॉक्टरों की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि वह पूरी तरह से जांच करके ही उनका ऑपेरशन करें, जो तकलीफ दवा से दूर हो सकती है उसके लिए गर्भाशय निकालने की कोई ज़रुरत नहीं है.”

टॉप टेन अस्पताल

न्यूज़लॉन्ड्री को मिली जानकारी के मुताबिक पिछले तीन सालों में बीड जिले के 113 अस्पतालों ने गर्भाशय निकालने के कुल 4542 ऑपेरशन किए. इनमें से 1705 ऑपेरशन जिले के सिर्फ 10 अस्पतालों ने किए. यह बताता है कि किस तरह से बीड में निजी अस्पतालों ने गर्भाशय के ऑपरेशन को पैसा बनाने का जरिया बना रखा है. इनमें सबसे ऊपर प्रतिभा नर्सिंग होम (कैज तहसील) का नाम है जहां पिछले तीन साल में 277 ऑपेरशन हुए हैं. उसके बाद तिड़के हॉस्पिटल (बीड) है जिसका आकड़ा 196 का है. तीसरे नंबर श्री भगवान हॉस्पिटल (बीड) है जहां तीन सालों में 193 ऑपेरशन हुए. चौथे नंबर पर घोलवे हॉस्पिटल (बीड) है जिसने तीन सालों में 186 ऑपेरशन किये हैं. पांचवे नंबर पर वीर हॉस्पिटल (बीड) है जिसने 179 ऑपेरशन किये हैं. छठवें नंबर पर श्री कृपालु हॉस्पिटल (बीड) है जिसने पिछले तीन सालों में 167 ऑपेरशन किये. सातवे नंबर पर ओस्तवाल हॉस्पिटल (बीड) है जिसने 151 ऑपेरशन किये हैं. आठवे नंबर पर धूत हॉस्पिटल (बीड) है जहां 145 ऑपेरशन हुए हैं. नौवे नंबर पर कराड (परली) हॉस्पिटल है जहां पिछले तीन सालों में 110 ऑपेरशन हुए और दसवे नंबर पर योगेश्वरी मैटरनिटी होम (अम्बे जोगाई तहसील) है जहां पिछले तीन सालों में 101 ऑपेरशन हुए हैं.

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न्यूज़लॉन्ड्री ने तीन साल में 193 ऑपरेशन करने वाले श्री भगवान् हॉस्पिटल के मालिक डॉ माधव सानप से बात की तो उन्होंने बताया, “यह सिर्फ बीड में नहीं चल रहा है सारे महाराष्ट्र में चल रहा है, बीड का सिर्फ नाम बदनाम किया जा रहा है. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से साढ़े चार हज़ार महिलाओं का 100 अस्पतालों में ऑपेरशन हुआ है. इस हिसाब से एक अस्पताल में तीन सालों में 45 ऑपेरशन हुए होंगे और एक साल में 15 इसका मतलब है की एक महीने में 1 ऑपेरशन. अब इसमें क्या ज़्यादा है. यह सिर्फ डॉक्टरों को बदनाम करने का षडयंत्र है. मरीज को जागरुक बनाने का काम स्वास्थ्य विभाग का है जो कि वह बिलकुल नहीं करता हैं. मुद्दे की जड़ों पर नहीं जा रहे है, बच्चा पैदा करने के समय, माहवारी के समय, महिलाओं को क्या ध्यान रखना चाहिए उसके बारे में कोई नहीं बोल रहा है.” जाहिर है डॉ. सानप आंकड़ों की बाजीगरी से अपने अस्पताल की सच्चाई को छुपाने की कोशिश कर रहे हैं.

सानप आगे कहते हैं, “दूसरी बात यह है कि गर्भाशय से सम्बंधित बीमारी के चलते यदि गांव में किसी महिला को कैंसर हो जाता है तो पूरे गांव में दहशत फैल जाती है. जिसके गांव में किसी भी महिला को गर्भाशय से सम्बंधित तकलीफ होती है, वो खुद तय कर लेती है कि उसको गर्भाशय निकालना है वरना उसे भी कैंसर हो जाएगा. हम उनको दवाई का कोर्स करने को कहते, लेकिन दो-तीन बार खाने पर जब उन्हें आराम नहीं होता तो वे दूसरे डॉक्टरों के पास चली जाती हैं और ऑपेरशन करवा लेती हैं.”

अमूमन आप लोग किस स्थिति में गर्भाशय का ऑपरेशन करने का निर्णय करते हैं? इसके जवाब में डॉ सानप ने कहा, “महिलाओं को जब वाइट डिस्चार्ज होता है या पेट के निचले हिस्से मैं दर्द होता है, या रक्तस्राव होता है तो उनका पूरा परिवार परेशान हो जाता है. ऐसे में उनके घर का सारा काम बंद पड़ जाता है. औरत, मर्द दोनों काम नहीं कर पाते. डॉक्टर के पास एक बार आने-जाने में इन लोगों के हज़ार-डेढ़ हज़ार रुपये खर्च हो जाते हैं. ऐसी सूरत में वो परेशान हो जाते हैं, तकलीफ बढ़ जाती है. जब कोई पर्याय नहीं रहता तब जाकर ऑपेरशन करते हैं.”

डॉ सानप कहते हैं, “गर्भाशय के ऑपेरशन के लिए सिविल सर्जन की अनुमति और मरीज की सरकारी अस्पताल में जांच का जो नियम आया है उसकी वजह से जिस मरीज को ऑपरेशन की सख्त ज़रुरत है उनको दिक्कत हो रही है. हमें मरीज को सरकारी अस्पताल भेजना पड़ता है, वहां उनको लाइन में इंतज़ार करना पड़ता है. उस दिन नंबर नहीं आता तो अगले दिन जाना पड़ता है. इस चक्कर में यह मरीज़ अब पड़ोस के अहमद नगर जिले में ऑपरेशन के लिए जाने लगे हैं.”

धूत हॉस्पिटल की डॉ अर्चना धूत कहती हैं, “गर्भाशय निकालने का ऑपेरशन तभी किया जाता है जब कोई रास्ता नहीं बचता है और मरीज की जान खतरे में आ जाती है. जब तीन-चार बार दवाइयों से मरीज़ को आराम नहीं मिलता है और तकलीफ बढ़ती जाती है, गर्भाशय में गांठ हो जाती है या ट्यूमर हो जाता है तभी गर्भाशय निकालते हैं.”

डॉ धूत से जब पूछा गया कि गर्भाशय के ऑपेरशन के बाद महिलाओं को पीठ, गर्दन और कमर दर्द की शिकायत क्यों रहती है, तो वह कहती हैं, “पीठ, कमर और गर्दन दर्द का ऑपेरशन से कोई संबंध नहीं है. यह सब दर्द किसी भी महिला को हो सकता है.” वह आगे कहती है, “गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन पर जो हाल में प्रतिबन्ध आये उसमे सबसे ज़्यादा नुकसान मरीज़ों को हो रहा है और डॉक्टर भी तनाव में काम कर रहे हैं.”

न्यूज़लॉन्ड्री ने बीड के प्रतिभा नर्सिंग होम (जहां पिछले तीन सालों में सबसे ज़्यादा गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन हुए हैं) के डॉ त्रयम्बक चाटे से भी इस संबंध में बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.

गौरतलब है कि बीड के सरकारी अस्पतालों में भी गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन धड़ल्ले से होते है. न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद दस्तावेजों के मुताबिक़ साल 2014 से 2019 तक कैज़ तहसील के उप जिला अस्पताल में कुल 284 गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन किये गए थे. गौरतलब है कि कैज़ वही तहसील है जहां के निजी अस्पतालों में पिछले तीन साल में सबसे ज़्यादा गर्भाशय निकालने वाले ऑपरेशन हुए हैं.

बीड जिला अस्पताल के सिविल सर्जन डॉ अशोक थोरात ने हमें बताया, “यह सब ऑपेरशन तभी किये गए है जब मरीज को इसकी सख्त ज़रुरत थी. पहले दवाइयां दी जाती है और जब दवाइयों से ठीक ना हो और कोई पर्याय ना बचा हो तब ऑपरेशन किया जाता है. कोई भी ऑपेरशन बेवजह नहीं किया जाता.”

डॉ थोरात ने बताया कि बीड जिले के सरकारी अस्पताल और अन्य उप जिला अस्प्तालों में हर साल मिलाकर 700 के करीब गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन किये जाते हैं.

कलेक्टर असित पांडे भी सिविल सर्जन राठोड़ की बातों को ही दहराते हैं, “सरकार ने इस मामले की जांच के लिए एक कमेटी बनाई है. गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन करने लिए निजी अस्पतालों को सिविल सर्जन की अनुमति लेनी होगी. यह ज़ाहिर है कि निजी अस्पतालों में गर्भाशय निकालने के ऑपरेशन बड़ी तादाद में किये जा रहे थे. हमें एक शिकायत यह भी मिली थी कि यह ऑपरेशन ज़रूरत ना होने के बावजूद भी किये जा रहे हैं. सरकारी अस्पतालों में ऐसे ऑपरेशनों की संख्या कम है और यह सिर्फ ज़रूरत होने पर ही किये जाते है. सरकार ने कभी भी ऐसे ऑपरेशनों को बढ़ावा नही दिया है उसके बावजूद भी यहां पर इतने ऑपरेशन सिर्फ इसलिए हुए हैं क्योंकि एक विशेष तबके में इसका प्रचार बहुत ज़ोरों से हुआ हैं. इसलिए यह अब ज़रूरी हो गया है कि सरकार की इस मुद्दे पर दखलंदाज़ी हो और वह भी बहुत सावधानी से.”

ऑपरेशन के कागज़ात नहीं है 

गौरतलब है कि न्यूज़लॉन्ड्री ने जब गर्भाशय निकालने का ऑपरेशन करवा चुकी महिलाओं से उनके ऑपरेशन के कागज़ात दिखाने को कहा तो पता चला कि करीब 70 प्रतिशत महिलाओं को डॉक्टरों ने ऑपरेशन के बाद कोई कागज़ात या मेडिकल तक फ़ाइल नहीं दी है.

कारी गांव की रहने वाली 42 साल की सावित्री फरताड़े का ऑपरेशन 10 साल पहले बीड के डॉ श्रीहरि लहाने ने 15,000 रुपये में किया था. जब इस रिपोर्टर ने सावित्री से उनके कागज़ात दिखाने के लिए कहा, तो वह कहती हैं, “मुझे अस्पताल से कोई कागज़ नहीं दिया गया था.”

इसी तरह 30 साल की मनीषा प्रधान को भी उनका गर्भाशय का ऑपरेशन करने के बाद डॉक्टर ने उससे सम्बंधित कोई भी कागज़ात नहीं दिया. उनके 50,000 रुपये खर्च हुए थे. उनकी सास रुक्मणि प्रधान कहती हैं, “हमें अस्पताल से कोई कागज़ नहीं दिया गया था.”

अशोक तंगाड़े जो कि एक समाजसेवी हैं, कहते हैं, “बीड में गर्भाशय निकालने वाले बहुत से डॉक्टर इन महिलाओं को ऑपेरशन करने के बाद उनको उनके इलाज से सम्बंधित कागज़ात नहीं देते हैं. इससे यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि ये लोग गड़बड़ करते हैं. यह ऑपेरशन का लेखा-जोखा फाइलों से गायब कर देते हैं, सोनोग्राफी की रिपोर्ट गायब कर देते हैं और किस कारण ऑपरेशन किया है उसके कागजात भी गायब कर देते हैं. यह 4542 का जो आंकड़ा पिछले तीन साल का मिला है वह ऑपरेशन थिएटर के रजिस्टर से निकाली गयी जानकारी है. असल में यह आंकड़ा इससे कहीं ज़्यादा है. बीड में दो दशकों से ज़्यादा समय से ऐसे ऑपरेशन चल रहे हैं. यहां 1200 गांव हैं और एक-एक गांव में आपको ऐसे सौ-सौ मामले मिल जाएंगे. आप जोड़ लीजिए ये कितना होगा.”

डॉक्टरों का गोरखधंधा

न्यूज़लॉन्ड्री ने अपनी इस कहानी की कवरेज के दौरान पाया कि गाँवों की  महिलाओं ने जिन डॉक्टरों से अपना गर्भाशय निकलवाने का ऑपरेशन  करवाया है उनमे से कई अपनी गैरकानूनी गतिविधियों के चलते गिरफ्तार हो चुके हैं.

गौरतलब है कि डॉ माधव सानप पूर्व में लिंग परिक्षण और भ्रूण हत्या के आरोप में गिरफ्तार होकर जेल तक जा चुके हैं. 2005 में डॉ सानप को लिंग परीक्षण करते हुए रंगे हाथों धरा गया था. इस घटना के बाद उनका मेडिकल रजिस्ट्रेशन पांच साल के लिए निरस्त कर दिया गया था और उनके अस्पताल (श्री भगवान हॉस्पिटल) की मान्यता रद्द कर दी गयी थी. जनवरी 2012 में बीड की एक अदालत ने डॉ सानप को इस मामले में एक साल कैद की सजा सुनाई थी, हालांकि सानप जमानत पर रिहा हो गए थे. लेकिन डॉ सानप अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आये और अस्पताल की मान्यता और मेडिकल रजिस्ट्रेशन रद्द होने के बावजूद भी अपना अस्पताल चलाते रहे. जून 2012 में एक बार फिर से वो कन्या भ्रूण हत्या के आरोप में गिरफ्तार हुए. इतना सब होने के बावजूद डॉ माधव सानप का अस्पताल बीड के बार्शी रोड पर पूरी शान से चल रहा है.

गांवों के दौरे के दौरान न्यूज़लॉन्ड्री से चर्चा करते वक़्त महिलाओं ने जिस सानप अस्पताल का नाम लिया था उसे संचालित कर रहे डॉक्टर श्रीहरि लहाने और डॉ शिवाजी सानप भी जून 2012 में लिंग परीक्षण और कन्या भ्रूण ह्त्या के मामले में गिरफ्तार हुए थे.

यहां तक कि बीड जिले के मौजूदा सिविल सर्जन डॉ अशोक थोरात भी दिसंबर 2012 में एक महिला के अवैध गर्भपात से जुड़े विवाद में गिरफ्तार हो चुके हैं. 2012 में डॉ थोरात बीड की कैज़ तहसील में मेडिकल सुपरिंटेंडेंट थे, उस दौरान उन्होंने एक महिला को गर्भपात कराने के लिए एक निजी नर्सिंग होम में भेज दिया था जिसके पास गर्भपात करने की मान्यता नहीं थी. महिला को वहां भेजने के बाद डॉ थोरात ने उस डॉक्टर का स्टिंग ऑपेरशन किया, जिसके चलते वह डॉक्टर (डॉ चंद्रकांत लामटुरे) गिरफ्तार हो गया था. पुलिस की जांच में साबित हुआ कि डॉ थोरात ने निजी दुश्मनी के चलते ऐसा किया था. इस मामले के चलते डॉ थोरात की भी गिरफ्तारी हुई थी और उन्हें निलंबित कर दिया गया था. न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद इस मामले के आरोपपत्र के अनुसार डॉ थोरात ने जानबूझ कर एक महिला की ज़िन्दगी को खतरे में दाल दिया था. गौरतलब है कि यह मामला कोर्ट में होने के बावजूद भी डॉ थोरात को 2014 में कैज़ तहसील के उप-जिला अस्पताल में फिर से पदस्थ कर दिया गया और आज की तारीख में वे बीड के सरकारी अस्पताल के सिविल सर्जन हैं.

अशोक तंगाड़े बीड़ जिले में हो रहे गर्भाशय निकालने के मामलों पर पिछले पांच सालों से अध्ययन कर रहे हैं, कहते हैं, “बीड जिले में गर्भाशय निकालने के इतने सारे मामलों के पीछे सबसे बड़ा हाथ भ्रष्ट और लालची डॉक्टरों का है. यह लोग लिंग परीक्षण, भ्रूण ह्त्या करने के बावजूद भी बच जाते और अपने अस्पतालों के ज़रिये अपना गोरखधंधा चलाते रहते हैं.”

जांच समिति क्या कहती है

महाराष्ट्र की विधान परिषद् में बीड में हो रहे गर्भाशय निकलवाने के ऑपरेशन का मुद्दा उठने के बाद महाराष्ट्र के स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव की अध्यक्षता में इस मामले की जांच करने के लिए एक समिति बनाई गई है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने इस समिति की एक सदस्य और शिवसेना नेत्री मनीषा कायंदे से बात की. मनीषा बताती हैं, “यहां जितने भी गर्भाशय निकालने के ऑपेरशन निजी अस्पतालों में हुए हैं वो बेवजह किये गए हैं. इन महिलाओं के मन में कैंसर और मौत का डर बिठाया जाता है. उन्हें कहा जाता है कि कैंसर हो जाएगा या फाइब्राइड (रसौली) हो जाएगा और ऑपेरशन कर दिए जाते हैं. श्रम मंत्रालय के ज़रिये गन्ना मजदूरों को उनका हक़ दिलाने की ज़रुरत है, उनको दी जाने वाली मजदूरी की प्रक्रिया में व्यापक सुधार करने की ज़रुरत है. उनको शौचालय आदि जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहैया करवाने की जरूरत है. चीनी आयुक्त को भी निर्देश दिए गए हैं कि गन्ना काटने वाले मजदूरों के साथ दुर्व्यवहार नहीं होना चाहिए.”

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके में स्थित बीड जिला गन्ना खेती के लिए मजदूरों की आपूर्ति का सबसे बड़ा जरिया है. 1994 में यह जिला दुनिया भर में ब्यूबोनिक प्लेग के फैलाव के चलते चर्चा में आया था. फिलहाल यहां महिलाओं में गर्भाशय का ऑपरेशन प्लेग की शक्ल में फैला हुआ है.

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