पत्रकारिता की यही नियति है कि जब उसकी घटना से पहले घटना को भांपने की क्षमता नष्ट हो जाती है तो वह घटना के बाद की भी जानकारियां देने की ताकत खो देता है.
पड़ोसी प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाकिस्तान में लॉक डाउन नहीं करने की वजहों को 27 मार्च को अपने देशवासियों विस्तार से बताया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत में 24 मार्च की रात आठ बजे चार घंटे के भीतर पूरे देश में लॉक डाउन करने का ऐलान कर दिया. चारों तरफ अफरा तफरी का माहौल बन गया है. उनकी इस बात के लिए आलोचना की जा रही है कि उन्होंने 2016 में नोटबंदी की तरह ही बिना किसी तैयारी के लॉक डाउन का फैसला देशवासियों को सुना दिया.
मुख्यधारा की मीडिया की भी इस बात के लिए आलोचना क्यों नहीं की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस योजना को नहीं भांप सकी? मुख्यधारा की मीडिया क्या नरेन्द्र मोदी सरकार की भक्ति में इस कदर लीन हो चुकी है कि उसे खबरों की गंध ही महसूस होना बंद हो गया है? इसकी कीमत लोगों को चुकानी पड़ रही है.
मीडिया की जिम्मेदारी खबरें देना है. खबर उसे माना जाता है जो घटना से पहले भांप ली जाती हैं. इसी तरह घटना के बाद मीडिया की जिम्मेदारी घटना की सही रिपोर्ट करने की होती है. अभी मीडिया में लॉकडाउन की वजह से मची अफरा तफरी की जानकारियां मिल रही हैं. मुख्यधारा की मीडिया ने यदि खबरों का ‘सेंस’ नहीं खोया होता तो वह आम लोगों को कम से कम पांच दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की योजना के लॉकडाउन से अगाह कर सकती थी और इसके लिए उसे पर्याप्त संकेत भी मिल चुके थे.
19 मार्च को प्रधानमंत्री ने रात आठ बजे कोरोना वायरस के रोकथाम के इरादे से 22 मार्च को जनता कर्फ्यू और थाली-ताली बजाने की अपील की थी. उस भाषण में अगले हफ्तों में होने वाले लॉक डाउन की चेतावनी मिल गई थी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस भाषण के उन अंशों को फिर से सुना जा सकता है.
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा-“आपसे मैंने जब भी और जो भी मांगा है, देशवासियों ने निराश नहीं किया है. ये आपके आशीर्वाद की कीमत है कि हम सभी मिलकर अपने निर्धारित लक्ष्यों की तरफ आगे बढ़ रहे हैं. आज हम 130 करोड़ देशवासियों से कुछ मांगने आए हैं. मुझे आपसे आपके आने वाले कुछ सप्ताह चाहिए, आने वाला कुछ समय चाहिए... इस बीमारी से बचने के लिए संयम की अनिवार्यता है. संयम का तरीका है- भीड़ से बचना, सोशल डिस्टेंसिंग. यह बहुत ही ज्यादा आवश्यक और कारगर है... इसलिए मेरा सभी देशवासियों से आग्रह है कि आने वाले कुछ सप्ताह तक जब बहुत जरूरी हो तभी अपने घर से बाहर निकलें. जितना संभव हो सके, आप अपना काम हो सके तो अपने घर से ही करें... मेरे प्यारे देशवासियों यह जनता कर्फ्यू हमारे लिए एक कसौटी की तरह होगा. यह कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई के लिए भारत कितना तैयार है, यह परखने और देखने का भी समय है.”
यह पहला मौका नहीं है जब मुख्य धारा का मीडिया घटना होने से पहले अप्रत्याशित लॉकडाउन की घटना को भांपने में असफल साबित हुआ हैं. संसद का सत्र 3 अप्रैल तक चलने वाला था लेकिन उसे 23 मार्च को स्थगित कर दिया गया. जबकि संसद को स्थगित करने के संकेत हफ्ते भर पहले से मिलने लगे थे. संसद में आने वाले दर्शकों की संख्या को कम करने, फिर दर्शकों के आने पर पाबंदी आदि के जरिये संसद के सत्र को स्थगित करने के पर्याप्त संकेत मिल रहे थे.दरअसल मुख्यधारा का मीडिया नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल के दौरान खबरें देने की भूमिका से भागते हुए खुद ही ख़बर बन गया है. मीडिया के भीतर की यह सबसे बड़ी खबर हैं कि उसने नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल मेंसबसे ज्यादा खबरों के सूंघने या उसके भांपने के अपने सेंस या चेतना को खोयाहैं.
नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में मीडिया ‘भक्ति’ के विशेषण से ‘सम्मानित’ हुआ है तो इसके लिए उसे सबसे बड़ी कसरत यह करनी पड़ी है कि खबरों को भांपने की क्षमताओं और ताकत को ‘राम धुन’ की तरफ लगा दिया है.
मीडिया में खबरदाताओं को अलग-अलग राजनीतिक दलों व उनके नेताओं पर विशेष निगाह रखने की जिम्मेदारी दी जाती है. इसके पीछे यह समझ हैं कि खबरदाता राजनीतिक दल व नेताओं की भाषा और उसके संकेतों को समझने की क्षमता विकसित कर सकें. राजनीतिज्ञों के फैसले की अपनी एक योजना पद्धति होती है तो मीडियाकर्मी द्वारा घटना से पहले घटना को भांपने के एक परिस्थितिजन्य तर्क होते हैं. इसके बदले यह देखने को मिलता है कि किसी राजनीतिक दल व नेता के संकेतों की भाषा समझने की जिम्मेदारी वाले संवाददाता उस दल व नेता की भाषा की कॉपी करने में अव्वल निकलने की कोशिश करते हैं.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में मीडिया के बारे में सबसे ज्यादा शिकायतें यह बढ़ी हैं कि वह घटना के बाद की भी जानकारियां देने में कोताही बरतता हैं. पत्रकारिता की यह नियति है कि मीडिया संस्थान के कर्मचारी की जब घटना को घटना से पहले भांपने की क्षमता नष्ट हो जाती है तो वे घटना के बाद की भी जानकारियां देने की ताकत खो देते हैं और पत्रकारिता नौकरशाही में तब्दील हो जाती है.
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