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बंधुआ मजदूरों की संख्या और पुनर्वास के आंकड़ों में राज्य सरकारों की हेराफेरी

साल 2019-20 में आठ राज्यों में बंधुआ मज़दूरी का कोई मामला सामने नहीं आया है. यह जानकारी भारत सरकार ने राज्य सभा में दी है.

दो फरवरी को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के राज्यसभा सांसद बिनॉय विश्वम ने बंधुआ मजदूरों को लेकर सवाल किया था. बिनॉय ने साल 2019 से देश के अलग-अलग राज्यों में मुक्त कराए गए और पुनर्वासित किए गए बंधुआ मजदूरों के आंकड़े मांगे थे, जिसका जवाब श्रम व रोजगार राज्य मंत्री रामेश्वर तेली ने दिया.

तेली ने अपने जवाब में महज आठ राज्यों - मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की जानकारी साझा की. जवाब के मुताबिक वित्त वर्ष 2019-20 से लेकर वित्त वर्ष 2022-23 (31 जनवरी 2023) तक इन राज्यों में 2,650 बंधुआ मजदूर मुक्त कराए गए.

यदि प्रति वर्ष आंकड़ों की बात करें तो साल 2019 में बंधुआ मजदूरी से जुड़ा कोई भी मामला सामने नहीं आया. वहीं वित्त वर्ष 2020-21 में 320, वर्ष 2021-22 में 1,676 और वर्ष 2022-23 (31 जनवरी 2023 तक) में 654 बंधुआ मजदूर मुक्त कराए गए.

वहीं राज्यवार आंकड़े बताते हैं कि असम में इन चार वर्षों में एक, पश्चिम बंगाल में 16, मध्य प्रदेश में 34, राजस्थान में 169, छत्तीसगढ़ में 350, उत्तर प्रदेश में 287, बिहार में 580 और तमिलनाडु में 1,313 बंधुआ मजदूर आज़ाद कराए गए.

उत्तर प्रदेश के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन चार सालों में सिर्फ वित्त वर्ष 2022-23 में ही 287 मामले बंधुआ मजदूरी से जुड़े आए हैं, वहीं बाकी सालों में ये आंकड़ा शून्य है.

सरकार के इन आंकड़ों पर बंधुआ मजदूरी की समस्या पर काम करने वाली संस्थाएं सवाल उठा रही हैं. लंबे समय से मजदूरों के लिए काम करने वाले असंगठित मजदूर मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, दल सिंगार ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “अकेले हमारी संस्था ने साल 2019 से जनवरी 2023 के बीच 695 बाल एवं बंधुआ मजदूर छुड़ाए हैं. इसके अलावा अन्य दूसरे संगठनों ने भी मजदूर मुक्त कराए होंगे. इसके बाद भी सरकार कह रही है कि यूपी में 2019 से 2021 तक एक भी बंधुआ मजदूर मुक्त नहीं हुआ. यह हैरान करता है.’’

दल सिंगार ने हमसे अपनी संस्था द्वारा मुक्त कराए गए मजदूरों के आंकड़े साझा किए. इन आंकड़ों में विस्तार से बताया गया है कि यूपी के रहने वाले मजदूरों को देश के किन-किन राज्यों से छुड़ाया गया है.

मजदूरों के लिए काम करने वाले एक अन्य संगठन, बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने, नवंबर 2021 में त्रिपुरा से उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के रहने वाले 40 बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया था. 

ऐसे ही मध्य प्रदेश में वित्त वर्ष 2021-22 से 2022-23 के बीच बंधुआ मजदूरी का एक भी मामला सामने नहीं आया है. हालांकि स्वयंसेवी संगठन इसे सही नहीं मानते हैं. नेशनल कैंपेन कमिटी फॉर द इरेडिकेशन ऑफ़ बॉण्डेड लेबर के संयोजक निर्मल गोराना न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘मध्य प्रदेश के ग्वालियर के रहने वाले 21 पुरुषों और महिलाओं सहित पांच बच्चों को दिसंबर 2022 में महाराष्ट्र के लातूर जिले से छुड़ाया गया. इनके पुर्नवास के लिए हम कोशिश कर रहे हैं. इसके अलावा भी हम मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश समेत देश के अलग-अलग हिस्सों से अक्सर ही बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराते रहते हैं.’’

यही नहीं मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश के बाद जनवरी 2022 में महाराष्ट्र से जबलपुर और सिवनी जिले के रहने वाले 17 बंधुआ मजदूरों को आज़ाद कराया गया था. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक उच्च न्यायालय ने पुलिस को आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करके कार्रवाई के आदेश दिए थे. आदेश के बाद पुलिस द्वारा महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के एक गांव से 17 बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया गया.

सरकार बताती है कि साल 2019 में बंधुआ मजदूरी से जुड़ा कोई भी मामला सामने नहीं आया. जबकि 2019 में ही बंधुआ मजदूर मोर्चा ने बिहार के रहने वाले 80 मज़दूरों को हरियाणा के कुरुक्षेत्र में ईंटों के भट्टे से आजाद कराया था. ये मजदूर बिहार के बांका और आसपास जिलों के रहने वाले मुसहर समुदाय के थे. न्यूज़लॉन्ड्री ने इस घटना पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2019 में छत्तीसगढ़ में बंधुआ मजदूरी से जुड़ा एक भी मामला सामने नहीं आया. वहीं द वायर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, “26 और 27 दिसंबर 2019 को जम्मू-कश्मीर के राजौरी तहसील स्थित ईंटों के एक भट्टे से छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चापा जिले के रहने वाले 91 बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया गया था. ये सभी मजदूर 24 परिवारों से थे. इनमें महिलाओं और पुरुषों के अलावा 41 बच्चे भी शामिल थे.’’

‘पुनर्वास के नाम पर चल रहा मजाक’

राज्य सभा में दी गई इस जानकारी में गड़बड़ी सिर्फ बंधुआ मजदूरों के आंकड़ों में ही नहीं बल्कि उनके पुनर्वास को लेकर दी गई जानकारी में भी है, वो भी सरकारी नियमों के मुताबिक सही नहीं है.

बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिए भारत सरकार के नियमों के मुताबिक, अगर पीड़ित कोई महिला या बच्चा हो तो उसे दो लाख रुपए, वहीं अगर पुरुष हो तो एक लाख रुपए दिए जाने चाहिए. वहीं जैसे ही किसी मजदूर को बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया जाए तो उसे तत्काल 30 हजार रुपए की आर्थिक मदद स्थानीय जिला अधिकारी को देनी होती है. यह पुनर्वास का ही हिस्सा है. पहले यह राशि 20 हजार रुपए थी.

केंद्र सरकार का पुनर्वास को लेकर जारी आदेश

सरकार ने राज्य सभा में पुनर्वास पर हुए खर्च को लेकर जो आंकड़े दिए, वो हैरान करते हैं. बिहार सरकार के आंकड़ों को देखें तो 580 बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास पर 1 करोड़ 01 लाख 65 हजार रुपए खर्च हुए हैं. ऐसे में देखा जाए तो यह राशि लगभग 17 हजार 525 रुपए प्रति व्यक्ति आएगी. यह राशि बंधुआ मजदूरों को दी जाने वाली तत्काल राशि (30 हजार) से भी कम है.

ऐसे ही राजस्थान की स्थिति है. राजस्थान में 2020 से 2023 के बीच 169 बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास हुआ. सरकार ने बताया कि इनके पुनर्वास पर कुल 33 लाख 80 हजार रुपए खर्च हुए. यानी यहां एक व्यक्ति के पुनर्वास पर कुल 20 हजार रुपए खर्च हुए हैं.

वहीं मध्य प्रदेश में 34 बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास पर महज 6 लाख 20 हजार रुपए खर्च हुए हैं. मध्य प्रदेश के पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में भी यही स्थिति है. 250 मजदूरों के पुनर्वास पर महज 50 लाख रुपए खर्च हुए हैं.

अगर बात तमिलनाडु की करें तो यहां मुक्त कराए गए 1,313 मजदूरों के पुनर्वास पर 262.53 लाख रुपए खर्च हुए. यहां भी प्रत्येक व्यक्ति लगभग 20 हजार रुपए ही पुनर्वास पर खर्च हुए हैं.

इस मामले में उत्तर प्रदेश और असम की स्थिति थोड़ी बेहतर है. असम में मुक्त कराए गए एक बंधुआ मजदूर के पुनर्वास पर दो लाख रुपए खर्च हुए हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में 287 मजदूरों के पुनर्वास पर 390.42 लाख रुपए खर्च हुए हैं. हालांकि पुनर्वास तो दूर की बात है, उत्तर प्रदेश में अभी सैकड़ों मजदूर ऐसे हैं जिन्हें तात्कालिक राशि भी नहीं मिली है.

राज्य सभा में सरकार द्वारा दिए गए आंकड़े बताते हैं कि 2021 में यूपी में बंधुआ मजदूरी का कोई मामला सामने नहीं आया. हालांकि दल सिंगार की टीम ने 9 जुलाई 2021 को पंजाब के मोगा से 71 मजदूरों को मुक्त कराया था. इसी में से एक थे बांदा जिले के रहने वाले राजेश.

पुनर्वास के सवाल पर राजेश बताते हैं, ‘‘हमें कुछ नहीं मिला है. मुझे तो तात्कालिक राशि भी नहीं मिली. मेरे साथ जितने लोग आए थे उनमें से ज्यादातर दोबारा उन्हीं कामों में लौट गए. कुछ दिल्ली या दूसरी जगह चले गए. मैं अभी घर पर ही हूं. यहीं कुछ करता हूं.’’  

यूपी और असम को छोड़ बाकी राज्यों में पुनर्वास राशि 20 हजार के आसपास ही है. कुछ राज्यों में यह राशि 20 हजार से भी कम है. इसको लेकर निर्मल गोराना कहते हैं, ‘‘सरकार जो राशि मज़दूरों को तत्काल आर्थिक मदद के लिए देती है, उसे ही पुनर्वास मान लेती है. हम पुनर्वास के लिए संघर्ष करते हैं, लेकिन कुछ होता नहीं है. कई पीआईएल अलग-अलग कोर्ट में लंबित हैं. पुनर्वास ठीक से नहीं होने के कारण मजदूर कुछ दिनों बाद वापस उसी बंधुआ मजदूरी के जाल में फंस जाते हैं.’’

सरकार दावा करती है कि इन मजदूरों के पुनर्वास के लिए घर/खेती के लिए जमीन या आमदनी के दूसरी योजनाओं का लाभ भी दिया जाता है. हालांकि गोहाना इसे गलत बताते हैं. वे कहते हैं, ‘‘हम हर साल में 200 से 300 मजदूरों को मुक्त कराते हैं. घर और जमीन दिलाने की जिम्मेदारी जिलाधिकारी की होती है. परेशानी यह है कि अधिकारी मजदूरों को ही गलत मानते हैं और कहते हैं कि यह मजदूरों का धंधा है. मेरी जानकारी में नहीं है कि कभी किसी को जमीन या घर मिला हो.’’

साल 1976 बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम लागू कर बंधुआ मजदूरी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया. लेकिन आज भी यह पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. आए दिन बंधुआ मजदूरी से जुड़ी खबरें सामने आती रहती हैं. दरअसल इसको लेकर नियम तो मजबूत बनाए गए लेकिन सरकारी अधिकारियों की लापरवाही के कारण यह जमीन पर ठीक से लागू नहीं हो पाते हैं.

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