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'पक्ष'कारिता: ‘नैतिक क्षरण’ पर भाषा की चादर उर्फ औपनिवेशिक कुंठाओं का उत्सव
इस पाक्षिक स्तंभ के पिछले दो अंक कुछ व्यस्तताओं के कारण नहीं लिखे जा सके, ऐसा कहना पूरी तरह सही नहीं होगा. इसकी एक आंशिक वजह और है. इस घटनाप्रधान दौर में भी अखबार हमें बहुत कुछ सोचने को नहीं दे पा रहे. मुझे लंबे समय से ऐसा लग रहा है कि हिंदी के अखबार एक-दूसरे की छायाप्रति बन चुके हैं. 10 अखबार पढ़ जाइए, ऐसा लगता है कि एक ही अखबार प़ढ़ा. इस लिहाज से अखबार एक पखवाड़े में भी ऐसी सहूलियत नहीं दे पा रहे कि उनमें छपी सामग्री के आधार पर एक भी काम की बात कही जा सके. जब बात काम की न हो तो कहने का कोई मतलब नहीं बनता. इस नाते भी ‘पक्षकारिता’ में एक महीने का नागा हुआ. इस अवकाश को पाठक इसी रूप में लें, कि मुद्दे तो बहुत थे पर कहने को मेरे पास कोई बात ही नहीं थी.
जब अखबार जिक्र के लायक न रह जाएं, तो उनका होना या न होना बराबर ही होता है. ऐसे में बीती 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस पर एनडीटीवी के प्राइम टाइम एंकर रवीश कुमार ने जो टिप्पणी अपने फेसबुक पर की, उसमें कुछ तो दम दिखता है, अपील जान पड़ती है.
बात इस पोस्ट पर आए लाइक की नहीं है. शेयर-संख्या या कमेंट की भी नहीं है. इतने ही लाइक, शेयर और कमेंट तब भी आ जाते हैं जब रवीश पीपल या चम्पा का पौधा रोपते हैं. बात अनुभव की है. क्या रवीश का यह निष्कर्ष सामूहिक अनुभव है? यह जानने के लिए मैंने उसी मंच पर सवाल किया. ज्यादातर जवाब असहमति में आए. लोगों का मानना था कि हिंदी पत्रकारिता समाप्त नहीं हुई है. यह बात थोड़ा आश्वस्तकारी लगती है. इस लिहाज से भी, कि पिछले साल पत्रकारिता दिवस के ही आसपास रवीश कुमार ने अपने प्राइम टाइम में कहा था कि लोग जो देख रहे हैं उसी को पत्रकारिता मान ले रहे हैं जबकि वो खराब पत्रकारिता है. अगर उनकी यह वाली बात सही थी, तो महज साल भर में बची-खुची ‘खराब पत्रकारिता’ समाप्त हो जाए, ऐसा कुछ हुआ तो अचानक दिखता नहीं!
हिंदी पत्रकारिता का समाप्त हो जाना सामूहिक अनुभव नहीं है, यह 30 मई को फिजाओं में चौतरफा तैर रही बधाइयों और कार्यक्रमों से पुष्ट हुआ. इस सब के बीच असल खबर यह रही कि प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने इस बार हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया और उन तमाम लोगों को मंच पर बैठाया जिनमें से कोई भी श्रमजीवी पत्रकार नहीं था. शायद इसीलिए क्लब द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में बड़ी ईमानदारी से कहा गया:
हिंदी पत्रकारिता के सामने एक ओर अंग्रेजी के वर्चस्व की चुनौती है तो दूसरी तरफ पूंजी और राजनीतिक सत्ता के तले दबाए जा रहे लोकतंत्र की भी चुनौती है. इन दोनों से निपटने के लिए हिंदी को ज्यादा जिम्मेदारी और मजबूती से खड़ा होना पड़ेगा. तभी उसका भविष्य बचा रह सकेगा. यह बात प्रेस क्लब आफ इंडिया में हिंदी पत्रकारिता की 196वीं जयंती के मौके पर आयोजित `हिंदी पत्रकारिताः चुनौतियां और भविष्य’ विषय एक संगोष्ठी में उभर कर आई.
महज तीन दिन पहले हिंदी के एक उपन्यास को पहली बार अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिलना, हिंदी के एक पत्रकार का लंदन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स में जाकर हिंदी में भाषण दे आना, हिंदी की एक लेखिका का राज्यसभा के लिए खड़ा किया जाना, और अमेरिका की तमाम सरकारी वेबसाइटों के हिंदी में अनुवाद को मिली मंजूरी- उपर्युक्त विज्ञप्ति के पहले वाक्य के आधे हिस्से पर सवाल खड़ा करती है. ‘अंग्रेजी का वर्चस्व’, हिंदी वालों की एक ऐसी सनातन शिकायत है जो सब कुछ पाने के बावजूद जाने का नाम नहीं ले रही. इसीलिए जब बात पत्रकारिता पर होती है तो भाषा की राजनीति बीच में घुसेड़ दी जाती है और सारा विमर्श दूसरी पटरी पर चला जाता है. फिर औपनिवेशिक मानसिकता से उपजी भाषाई कुंठा पत्रकारिता के आड़े आ जाती है. सवाल यह है कि खराब पत्रकारिता करने या पत्रकारिता न करने की ढाल आप भाषा को कैसे बना सकते हैं जबकि इसी देश के कोने-अंतरों में अपनी भाषा में पत्रकारिता करने के एवज में पत्रकार जान से मारे जा रहे हों?
इस संदर्भ में 30 मई के हिंदुस्तान दैनिक के संपादकीय पृष्ठ पर छपे एक लेख का विशेष जिक्र जरूरी है जिसमें वह सवाल उठाया गया है जिस पर आजकल कम से कम दिल्ली में कोई नहीं बोलता. प्रेस क्लब में भी किसी ने इस पर बात नहीं की. सोशल मीडिया मंचों पर तो इसका घोर अभाव है. यह एक दुर्लभ और लुप्तप्राय शब्द है. इसे ‘नैतिकता’ कहते हैं. आधुनिकता और नवउदारवाद के मेले में इसके दो बिछड़े सहोदर भी यहां दिख जाते हैं: ‘सत्य’ और ‘साहस’. लेखक किंशुक पाठक उद्दन्त मार्तण्ड के बहाने जंग लगी इन तीन पुरानी चाबियों से पत्रकारिता का जम चुका भुन्नासी ताला खोलने की बात कर रहे हैं.
फर्क देखिएगा- कहां एक लेखक पत्रकारिता में ‘नैतिक क्षरण’ को बड़ा मुद्दा मान रहा है और कहां बाकी के हिंदी अखबार 30 मई को पत्रकारिता पर एक लेख छापना तक गवारा नहीं कर रहे, संपादकीय टिप्पणी को तो भूल ही जाएं. यह अनायास नहीं हुआ है कि जिस लोकतंत्र का प्रधानमंत्री आठ साल के अपने राज में एक बार भी प्रेसवार्ता न किया हो, उस लोकतंत्र के चौथे खंबे ऐन पत्रकारिता दिवस पर आठ साल के ठाठ मनाने में व्यस्त रहे और ‘सत्य’, ‘साहस’ व ‘नैतिकता’ के अपने पुरखे उद्दन्त मार्तण्ड को भूल गए.
नीचे 30 मई को छपे हिंदी के अखबारों के संपादकीय पन्नों की एक झांकी देखिए और सोचिए कि पत्रकारिता समाप्त हो गई है या उसकी सेहत खराब हो गई है.
दिलचस्प यह है कि ऊपर की तस्वीर में खुद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा, नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत और (आश्चर्यजनक रूप से जनसत्ता में) केंद्रीय मंत्री महेंद्र नाथ पांडेय के लेख छपे हैं. शेखर गुप्ता इस सरकारी कतार में जश्न मनाते इकलौते पत्रकार दिखते हैं.
हमारे अखबार अपने इस पत्रकारीय ‘नैतिक क्षरण’ की भरपाई भाषाई गौरव (या कहें औपनिवेशिक कुंठा) से करते हैं. बुकर पुरस्कार को आए तीन दिन हो चुके थे लेकिन 30 और 31 मई को हिंदी अखबारों के संपादकीय पन्नों पर सरकार के आठ साल के समानांतर हिंदी का जश्न भी मनाया जा रहा था. एक साथ दो-दो जश्न! हिंदुस्तान की हिंदू सरकार के साथ हिंदी का जश्न! जो लोग बुकर पुरस्कार पर नादान और निर्दोष भाव में खुश हैं, उन्हें समझना चाहिए कि ‘हिंदी का यह गौरव’ समूचे पैकेज के साथ आया है जहां हिंदी पत्रकारों को ठेंगे पर रखने वाली सरकार का भी उसी शिद्दत के साथ उत्सव मनाया जाता है. दोनों उत्सवों में कोई विरोध नहीं है. हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान- भाषा की राजनीति यहीं शुरू होती है.
आइए, इस राजनीति की एक प्रच्छन्न लेकिन अभिजात्य झलक देखें अनुराग वत्स के लिखे लेख में, जिसे दैनिक भास्कर ने 31 मई को छापा है. यह लेख प्रथम दृष्टया बहुत तार्किक और प्रगतिशील जान पड़ता है. हिंदी को बुकर का इंतजार इतना लंबा क्यों करना पड़ा, उस पर अनुराग की तकरीर के दो हिस्से हैं: पहला, कि हिंदी को अच्छे अनुवादक नहीं मिलते. यह बात सच है. दूसरे कारण में समस्या है. वे लिखते हैं कि ‘यह साधु मान्यता हिंदी पट्टी की घुट्टी में है कि आप बस लिखिए, बाकी का काम आपका नहीं है’. इसके ठीक उलट एक दिन पहले किंशुक (हिंदुस्तान में)- यह पुरानी उक्ति याद दिलाते हुए कि पत्रकारिता ‘जल्दी में लिखा गया साहित्य’ है- लिखते हैं, ‘पत्रकारिता अपने प्रारंभिक दौर से ही “मिशन” थी और आज भी “मिशन” है.’ पत्रकारिता या साहित्य अगर मिशन है तो लेखक का काम मिशनरी लेखन करना है.
अनुराग इस बात से सहमत नहीं हैं. वे इसे ‘साधु मान्यता’ करार देंगे. साधु मान्यता से विचलन स्वाभाविक रूप से उन मूल्यों से विचलन हो जाएगा जो साधु के गुण होते हैं. फिर हिंदी को हर साल बुकर मिल जाए, पुलित्जर मिल जाए, लेकिन वह उपलब्धि निजी ही होगी, सामूहिक नहीं क्योंकि भुन्नासी ताले को खोलने वाली ‘सत्य’, ‘साहस’ और ‘नैतिकता’ की कुंजी आप अटलांटिक सागर में फेंक आए होंगे. अनुराग जो कह रहे हैं, दरअसल हुआ वही है. जश्न उसी का मन रहा है.
गीतांजलिश्री को देखिए, महुआ माजी को देखिए- यहां आपको एक लेखक के ‘सिर्फ लेखक न रह जाने’ का जश्न दिखेगा! नीचे उपेंद्र राय को देखिए- यहां एक पत्रकार के ‘सिर्फ पत्रकार न रह जाने’ का जश्न दिखाई देगा.
इस जश्न के केंद्र में साहित्य या पत्रकारिता नहीं, भाषा है. उसके अलावा ‘कास्ट’ और ‘क्लास’ भी है, जो तय करता है कि कौन सा जश्न क्षैतिज रूप से कितना व्यापक होगा. मसलन, उपेंद्र राय के जश्न की खबर आपको केवल उनके अखबार राष्ट्रीय सहारा और गाजीपुर के कुछ लोगों के पास मिलेगी लेकिन गीतांजलि श्री की खबर वैश्विक है. महुआ माजी के जश्न की खबर प्रांतीय है.
इन सभी उत्सवों में व्यक्ति का मूल ‘काम’ केंद्र में नहीं है, उनके काम की भाषा केंद्र में है. इसीलिए जो लोग गौरव मना रहे हैं और जो आलोचना कर रहे हैं- दोनों ही भाषा की टेक लगाए हुए हैं, ‘कंटेंट’ की नहीं. इस भाषाई गौरव (पढ़ें कुंठा) ने कंटेंट पर परदा डालने का काम किया है. मसलन, एक लेखिका सह राज्यसभा सांसद से कोई नहीं पूछेगा कि ‘मरंग घोड़ा नीलकंठ हुआ’ का कुछ साल पहले उठा ‘चोरी’ विवाद क्या और क्यों था तथा लेखिका की प्रतिक्रिया कितनी नैतिक थी. अब कम से कम सहारा समूह में किसी को याद करने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि उपेंद्र राय नाम का पत्रकार जहां से शुरू कर के आज जहां पहुंचा है उस सफरनामे में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, जेल, बेल और हवाला जैसे शब्द कहां और क्यों गुम हो गए.
कुछ बातों पर ध्यान दीजिएगा: उपेंद्र राय ने ‘हिंदी के प्रति गंभीरता और प्रेम’ के संदर्भ में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का नाम लिया, गीतांजलि श्री ने हिंदी के पहले उपन्यास को बुकर मिलने के पीछे ‘नक्षत्रों का ऐसा संयोग बताया जिसकी आभा से वे चमक उठी हैं’, महुआ माजी को राज्यसभा टिकट से पहले इंटरनेशनल कथा यूके सम्मान और विश्व हिंदी सेवा सम्मान मिल चुका है और उन्होंने जोर देकर कहा है कि ‘मैं 1932 से खतियानधारी हूं’. (पाठकों को जानना चाहिए कि 1932 के खतियान को लेकर झारखंड में पिछले कुछ महीनों से एक विभाजनकारी भाषाई आंदोलन चल रहा है.)
एक और महत्वपूर्ण घटना: पत्रकारिता दिवस के अगले दिन हिंदी के यशस्वी पत्रकार रहे शेषनारायण सिंह की पहली बरसी पर एक व्याख्यान श्रृंखला का आरंभ हुआ. पहला व्याख्यान प्रभात खबर के संपादक रहे और फिलहाल राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह ने दिया. शेष नारायण सिंह की दुनिया बहुत बड़ी थी. उनका भौगोलिक वितान अवध से जेएनयू तक और बौद्धिक वितान इतिहास से पत्रकारिता तक फैला था. इस व्यापक दायरे में पहला आचमन करने वाले बहुत से वक्ता दिल्ली में ही उपलब्ध हो सकते थे. इस जगह हरिवंश का होना क्या ‘नक्षत्रों का संयोग’ मान लिया जाए?
ये सारी बातें अलग-अलग नहीं हैं. गौर से देखिए, सब आपस में जुड़ी हैं. पहचान की राजनीति सबसे पहले और सबसे सरल तरीके से भाषा से शुरू होती है और इसका अंत धरती के दक्खिन तक उसको बांटने में होता है. हमारे अखबार जब भाषाई गौरव और सरकारी गौरव को एक साथ मना रहे होते हैं, संपादकीय पन्ने जब केंद्रीय मंत्रियों के लिखे से पटे होते हैं, हमारे पत्रकार जब भाषाई वर्चस्व का रोना रो रहे होते हैं, और पत्रकारिता पर ज्ञान जब राज्यसभा का सभापति दे रहा होता है, इसी बीच एक और लेखक राज्यसभा जाने की तैयारी कर रहा होता है- तो यह ‘नक्षत्रों का संयोग’ नहीं होता बल्कि ‘हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान’ का संयोग होता है, जिसका अंतिम सिरा नागपुर में पाया जाता है.
इसी बात को जब राहुल गांधी कैम्ब्रिज में थोड़ा ढीले ढंग से बोल आते हैं तो विभाजनकारी राजनीति को उघड़ने से बचाने के लिए चारों ओर से राष्ट्रीय एकता की पताकाएं फहराई जाने लगती हैं- जैसे बीते कोरोनाकाल में आंधी आने पर इलाहाबाद की रेत में दबी लाशों को उघड़ जाने से रोकने के लिए उन पर आनन-फानन में चुनरी तानी जा रही थी!
हिंदी पत्रकारिता दिवस फिर आएगा. फिर यही बातें होंगी. अपने-अपने गौरव होंगे, अपने-अपने दुख हैं. राष्ट्रीय सहारा ने अपना निजी गौरव मनाया, तो नवभारत टाइम्स ने अपना निजी दुख. टाइम्स समूह के सांध्य दैनिक ‘साध्य टाइम्स’ के मशहूर संपादक रहे बुजुर्ग सत सोनी जी बीते हफ्ते गुजर गए. दिल्ली में जिसने भी पत्रकारिता की है, वह सोनीजी को जानता है. इस दुख में कायदे से सबको शामिल होना था क्योंकि यहां ‘नैतिकता, सत्य और साहस’ तीनों अक्षुण्ण था. यह दुख एनबीटी में राजेश मित्तल का निजी बनकर रह गया. 28 मई के हिंदी अखबारों में कहीं और मुझे सोनी जी के निधन की खबर नहीं दिखी. किसी को दिखे तो सूचित करेगा. कौन थे सोनी जी, जानने के लिए राजेश मित्तल की यह छोटी सी श्रद्धांजलि पढ़ें (एनबीटी, 28 मई 2022).
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