Opinion

मुक्तिबोध जाति प्रसंग: ‘मुक्तिबोध को ब्राह्मण किसने बताया?’

व्यक्ति की जाति किसी भी मामले में उसके जन्म का संयोग है. किसी व्यक्ति का किसी जाति में पैदा होना उस व्यक्ति के हाथ में नहीं है. उसके दोष या कर्मों के साथ जाति का कोई सीधा संबंध नहीं होना चाहिए, लेकिन भारतीय समाज व्यवस्था जिस तरह की है उसमें व्यक्ति का जन्म और उसके कारण बनी हुई स्थिति ही उसकी आगे की यात्रा को कई तरह से प्रभावित करती है. जब मैं यह लिख रहा था कि मुक्तिबोध कुशवाहा थे तो इसकी एक संभावित प्रतिक्रिया का मुझे अंदाजा था क्योंकि यह बात बहुत महत्वपूर्ण है और अंडरलाइन की जानी चाहिए कि ‘किसी व्यक्ति की जाति इस बात से निर्धारित नहीं होती कि वह व्यक्ति खुद को किस जाति में मानता है किसी व्यक्ति की जाति इस बात से निर्धारित होती है कि कौन सी जाति उसे अपना मानती हैं और उसके साथ उसके उस तरह से अंतर्संबंधों में जाती है. यह जाति है.’ मैं खुद को जाति मुक्त मान लूं इससे मेरा जाति मुक्त होना संपन्न नहीं होगा क्योंकि कोई जाति होगी जो मुझे अपना मानती होगी और उसके साथ अंतर्संबंधों में जुड़ा रहता हूं तो तो मेरा जाति मुक्त होना पूरा नहीं होता है.

मुक्तिबोध को जब मैं कुशवाहा लिख रहा था तो मुझे इस बात का अंदाजा था कि इस पर कैसी प्रतिक्रिया होगी और बिल्कुल वही प्रतिक्रिया हुई. उस जाति ने मुक्तिबोध को अपनी जाति का क्लेम किया, उसके लिए सारे जतन किए, सारे प्रयास किए, उनके बेटे से बात की. केवल यह नहीं पता किया कि वह ब्राह्मण हैं बल्कि यह यह भी पता किया कि वे किस कुल खानदान के ब्राह्मण हैं, किस राज्य के ब्राह्मण हैं. सब कुछ पता किया और बाकायदा उसे लेखनीबद्ध करके बताया.

मुक्तिबोध का कवि होना और उनके कविकर्म के लिए कतई जरूरी नहीं था कि आप उनकी जाति बताते, लेकिन वह जाति इतनी बेचैन हो गई कि आनन-फानन में सात दिन के अंदर पूरी जाति की वंशावली खोल के रख दी. हम यहां के थे, हम देशस्थ थे आदि. अंततः मेरा वह पोस्ट अपने उद्देश्य में कामयाब रहा जिसका उद्देश्य यह बताना था कि भारत में जाति कैसे काम करती है और एक समाजशास्त्र के विद्यार्थी के नाते मेरी जो परिकल्पना थी वह तथ्यों के आधार पर प्रमाणित हुई. अंततः उस जाति ने स्वीकार कर लिया कि मुक्तिबोध कुशवाहा नहीं थे, कुर्मी नहीं थे, यादव नहीं थे, जाटव नहीं थे, वाल्मीकि नहीं थे, ब्राह्मण थे.

इस तरह से मैंने मुक्तिबोध की जाति नहीं बताई बल्कि आप देखेंगे कि उस जाति ने बताया कि मुक्तिबोध हमारे हैं. यह एक बहुत महत्वपूर्ण उद्देश्य मेरे उस फेसबुक पोस्ट ने हासिल किया. यह बात कतई मायने नहीं रखती कि मुझे पता था या नहीं. अभी अगर मैं यह कह भी दूं कि मुझे पता था या मैं कहूं कि नहीं पता था, इससे उस पूरी प्रक्रिया पर कोई फर्क नहीं पड़ता. आज की तारीख में जिन लोगों को नहीं भी पता था उन सब को बता दिया गया है कि मुक्तिबोध उनके थे.

मोटी बात ये है कि मेरा उद्देश्य यह स्थापित करना था कि जाति मुक्त होना इतनी सरल और सहज प्रक्रिया नहीं है. कोई व्यक्ति खुद को जाति मुक्त बता भी ले तो कोई जाति फिर उन पर क्लेम करके उनकी जाति को लेकर सारा कुछ खोदकर बाहर निकाल देगी. उद्देश्य यह नहीं था कि उनकी जाति का पता चले, बड़ा उद्देश्य यह था कि भारत में जाति की संरचना कैसे काम करती है. जिस व्यक्ति की जाति नहीं बताई गई या गलत बताई गई उसकी सही जाति बताने के लिए इतने लोग बेचैन क्यों हुए. जो लोग कह रहे हैं कि मुक्तिबोध को उनके रचना कर्म से आंकिए न कि उनकी जाति से, वे यह बताने के लिए बेसब्र क्यों हैं कि मुक्तिबोध ब्राह्मण थे. अगर रचना कर्म से ही आंकना था तो फिर मेरे कुशवाहा बोलने से क्या फर्क पड़ता है, उनके रचना कर्म से तौलिये. यादव होंगे, सैनी होंगे, मल्लाह होंगे, कुछ भी हो सकते हैं, जुलाहा होंगे. वह ये बताने के लिए क्यों बेचैन हैं कि नहीं वह तो देशस्थ ब्राह्मण थे?

मैं समाजशास्त्र और मास कम्युनिकेशन का विद्यार्थी हूं. मेरा जो प्रश्न है उसका दायरा मुक्तिबोध का रचनाकर्म नहीं है. वह साहित्य के छात्र का दायरा है. मेरा क्षेत्र भारतीय समाज और उसके कार्य करने की पद्धति और उसका अध्ययन है. मैंने बहुत सीमित उद्देश्य के साथ इस बात को लिखा और मेरी परिकल्पना को लोगों ने सही साबित कर दिया कि एक जाति ने मुक्तिबोध पर अपना दावा कर दिया. अगर वो जातिमुक्त थे तो इसकी कोई जरूरत नहीं थी. वह देशस्थ ब्राह्मण थे यह बताने की जरूरत क्यों पड़ी? किसी को कुशवाहा बोल दिया क्या फर्क पड़ता है, किसी ने लोहार बोल दिया क्या फर्क पड़ता है, कुम्हार बोल दिया, बोलने दीजिए, क्या फर्क पड़ता है. लेकिन फर्क पड़ता है. फर्क नहीं पड़ता तो कुछ लोग दौड़े-दौड़े उनके बेटे के पास यह पूछने क्यों जाते.

मैंने तो नहीं बताया था कि मुक्तिबोध ब्राह्मण हैं. ब्राह्मण हैं यह किसने बताया? जिन लोगों को मुक्तिबोध की जाति नहीं पता थी उनको भी उनकी जाति के बारे में किसने बताया? मैंने तो नहीं बताया. मैंने तो गलत बताया था. सही किसने बताया? यह बताना यदि बुरा काम है तो यह बुरा काम किसने किया? मैंने तो नहीं किया. जिन लोगों ने यह काम किया उनसे पूछा जाना चाहिए कि किसी ने गलत या सही बताया भी तो आपको इतनी बेसब्री या चिंता क्यों थी मुक्तिबोध की जन्म कुंडली खोलने की?

मैं जो कह रहा हूं, यही मेरा उद्देश्य था और तब तक इसे ही मेरा उद्देश्य माना जाय जब तक कि कोई इसे प्रमाणित न कर दे कि मेरा उद्देश्य कुछ और था. एक सामाजिक तथ्य की जांच करनी थी, पुष्टि करनी थी. जब तक मेरे इस वक्तव्य का खंडन करने के लिए कोई और तथ्य न हो तब तक यही मानना होगा कि मैं सही बोल रहा हूं.

कर्म से आकलन को लेकर अर्जुन सिंह या वीपी सिंह का जिक्र किया जा रहा है. जो उनका राजनीतिक जीवन है उसके आधार पर ही उनको तौला जाना चाहिए. जिस तरह से मुक्तिबोध को उनके रचनाकर्म के आधार पर. वीपी सिंह ने जब मंडल कमीशन लागू किया तब बहुत सारे लोगों ने इस तरह के पोस्टर्स लगाए कि वो किसी दलित मां की संतान हैं. इस तरह के पोस्टर्स उन्हें अपमानित करने के लिए लगाए गए थे. तमाम मीडिया हाउस में भी उन्हें गालियां दी गई. गिने-चुने पत्रकारों ने मंडल कमीशन का समर्थन किया था. वीपी सिंह को भी तमाम दलित जातियों के नाम जोड़कर चिन्हिंत किया गया यानी दलित जातियों के नाम भी गाली हैं.

जिन लोगों ने एक्शन लिया इससे क्या फर्क पड़ता है कि उनकी जाति क्या है. वीपी सिंह ने जो किया उनका कर्म है. अगर आज की तारीख में कोई कहे कि वो ओबीसी थे इसलिए उन्होंने ऐसा किया और इस पर बाद में कोई कूद पड़े कि नहीं वह तो ठाकुर थे. तो समस्या उनकी है न जो उनकी जाति पर तत्काल सफाई देने कूद पड़े. उनकी समस्या थोड़ी है जो यह बोल रहे हैं कि नहीं उनका कर्म तो ओबीसी या दलितों की तरह था.

प्रश्न यही है कि मुक्तिबोध की सही जाति बताने की इतनी उत्कंठा क्यों है, इतनी लालसा क्यों है? क्या इसलिए कि मुक्तिबोध विद्वान कवि थे तो उनको ब्राह्मण साबित करना ही पड़ेगा. यह क्यों जरूरी है? क्या इन्हें यह बताना जरूरी लगता है कि कोई कुशवाहा अच्छा रचनाकर्म नहीं कर सकता?

(यह लेख दिलीप मंडल से तस्नीम फातिमा की बातचीत पर आधारित है)

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