Pakshakarita
'पक्ष'कारिता: हिंदी के अखबार और संपादक हमेशा राम-रावण क्यों खेलते रहते हैं?
विजयादशमी की सुबह सिंघु बॉर्डर पर लटकती हुई एक जीर्ण-शीर्ण लाश से खुलेगी, ये भला किसने सोचा था? आए दिन पंजाब में बेअदबी के मामले होते हैं लेकिन किसी की हत्या नहीं होती. अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में समूचा पंजाब गुरु ग्रंथ साहब की बेअदबी के छह साल पचा गया, उनकी कुर्सी भी चली गयी, लेकिन किसी की हत्या नहीं हुई. खुद निहंग ऐसे बेअदबों को पकड़ कर पुलिस के हवाले कर देते रहे हैं. फिर किसान आंदोलन के स्थल पर शुक्रवार को हत्या क्यों हुई?
एक पत्रकार के लिए यह सवाल सबसे ज्यादा झकझोरने वाला होना चाहिए, पर हमारे समाज में सत्य के संधान और बयान में 'क्यों' के मुकाबले 'कौन' का सवाल सांस्कृतिक रूप से ज्यादा मायने रखता है. हमारे यहां सत्य और असत्य का सबसे लोकप्रिय मानवीकरण राम और रावण के रूप में होता आया है. ये जो सांस्कृतिक मानस है इस समाज का, वह सही और गलत को व्यक्तियों में खोजने का आदी रहा है. इसीलिए महज एक घटना विभाजक रेखा के दोनों ओर के किरदारों को झट बदल देती है.
एक अखबारी साथी सवेरे बता रहे थे कि सिंघु बॉर्डर की घटना पर उनके न्यूज़रूम में उत्साह का माहौल है क्योंकि अचानक राम और रावण के किरदार बदलते हुए से लग रहे हैं. वास्तव में किरदार वे ही हैं जो मानकर चले जा रहे थे. अखबारों और मीडिया के लिए घोषित और अघोषित रूप से किसान ही बुराई का प्रतीक थे. ठीक वैसे ही किसानों के लिए 'नरेंद्र मोदी' और 'खट्टर' ही रावण हैं जिनके आज पुतले जलाए जाने की तैयारी है. एक घटना बस इतना सा फर्क डालती है कि किसका 'परसेप्शन' व्यापक हो रहा है और किसका संकुचित.
केवल एक पखवाड़े पहले की तो बात है जब लखीमपुर खीरी की घटना ने सही और गलत की सामाजिक पहचान तय की थी. जब समाज सही और गलत पर एकमत होता है, तो सत्ताएं दबाव में आती हैं. मंत्रीपुत्र मोनू मिश्र की गिरफ्तारी उसी का परिणाम रही. आम समाज की सहानुभूति किसानों के साथ थी. उस वक्त दैनिक जागरण जैसे तत्व जो सच को विकृत करने की कोशिश कर रहे थे (देखें पक्षकारिता का पिछला अंक) उनकी खास चल नहीं पायी, पर अब?
लखीमपुर खीरी ने किसानों के तईं राम-रावण के किरदारों का परसेप्शन मजबूत किया था. दशहरे की सुबह सिंघु बॉर्डर पर मार कर लटकाए गए दलित मजदूर लखबीर सिंह ने सत्ता से नत्थी मीडिया का परसेप्शन मजबूत किया है. दो हफ्ते में पासा पलटा है. घटना के 'क्यों' में न तो पहले किसी की दिलचस्पी थी, न अब है क्योंकि सबके अपने-अपने राम और रावण पहले से तय हैं. इस बात की तस्दीक करना हो तो आज यानी दशहरे के अखबारों का पहला पन्ना देखिए- सबसे ऊपर ठीक सामने अखबार मालिकों के 'राम' दिखाई दे जाएंगे जो किसी रावण पर 'सर्जिकल' हमला करने की धमकी दे रहे हैं. मास्टहेड में राम और रावण की प्लेसमेंट के हिसाब से खबरों को देखिएगा.
दैनिक जागरण हमेशा ऐसे मामलों में महीन खेलता है. उसने अमित शाह के बयान को लीड नहीं बनाया है, लीड के ठीक नीचे छापा है. सीधे भावना को अपील करने वाली खबर लीड बनायी गयी है- ''बांग्लादेश में मंदिरों व दुर्गा पूजा पंडालों पर हमले''. ऐसे शीर्षकों से पाठक अपने आप समझ जाता है कि उसका 'रावण' कौन है. फिर जैसे ही नीचे आता है, ''भये प्रकट कृपाला'' का अहसास हो उठता है. बांग्लादेश की खबर को हालांकि 'अमर उजाला' ने लीड से सटा के छापा है तो 'जनसत्ता' ने लीड के नीचे बीचोबीच बड़ा सा छापा है. 'दैनिक भास्कर' ने नई दिल्ली के अपने संस्करण में बिलकुल जागरण की तरह बांग्लादेश की खबर को लीड बनाया है.
दूसरे संस्करणों के मामले में 'दैनिक भास्कर' और 'राजस्थान पत्रिका' ने थोड़ा समझदारी दिखाने की कोशिश जरूर की है लेकिन राम-रावण के सांस्कृतिक खांचे में ही उनका प्रयोग सीमित है. भास्कर ने जैकेट पर लीड में खदानों में काम कर रहे मजदूरों पर ग्राउंड रिपोर्ट की है जो काबिले तारीफ है, लेकिन पहले पन्ने पर आते ही संपादक फिसल गया है. बीएसएफ की कार्रवाई का दायरा पंजाब में बढ़ाए जाने को लीड बनाया गया है और ठीक बगल में सेकेंड लीड भावना को अपील करने वाली मृत जवानों की तस्वीरें हैं.
'राजस्थान पत्रिका' आजकल अपना ई-पेपर मॉड्युलर डिजाइन में रिवर्स कलर में छापता है. उसके ई-पेपर में लीड खबर प्रथम दृष्टया गजब का प्रभाव दे रही है, लेकिन खबर के नाम पर इसमें कलाकारी से ज्यादा कुछ नहीं है, जिसे आजकल न्यूज़रूम में 'आइडिएशन' के नाम से जाना जाता है. किसी ने सुझा दिया होगा कि दस समस्याएं गिनवाओ और उन्हें रावण के सिर के साथ तुलना करते हुए सकारात्मक स्टोरी करो. फिर क्या था, ''भारत के लिए मंदी के रावण पर विजय की दसों दिशाएं'' अखबार ने खोल दीं. बाकी रेप, भ्रष्टाचार, डेंगू, बाल मजदूरी, महंगाई, निजीकरण आदि खबरों को बाद के पन्नों में धकेल दिया गया.
हिंदी के अखबारों ने लखीमपुर खीरी की घटना के बाद तकरीबन ठंडी खबरें छापी हैं. लखीमपुर खीरी के अपडेट, कश्मीर से हिंदुओं का जम्मू पलायन, एयर इंडिया की बिक्री, चीन के साथ झड़प, आशीष मिश्रा की गिरफ्तारी आदि नियमित खबरों को जिस तरह रिपोर्ट किया गया उससे ऐसा आभास हुआ कि अखबार नवरात्र में कोई खुराफात करने के मूड में नहीं हैं. 'दैनिक जागरण' हालांकि ऐसे मौके कभी नहीं छोड़ता. 10 अक्टूबर को जागरण की बॉक्स लीड खबर देखिए.
तकरीबन सभी हिंदी अखबारों ने दिल्ली में आतंकवादियों की गिरफ्तारी की खबर प्रमुखता से छापी. संपादकीय के पन्नों पर लगातार 'आतंक की वापसी' और 'चीन के साथ गतिरोध' की चिंता जतायी जाती रही. पिछले लंबे समय से हिंदी अखबारों के संपादकीय पन्ने राष्ट्रीय सुरक्षा पर केंद्रित हुए पड़े हैं. खासकर अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद से हर लेखक और विचारक 'बड़ा' सोच रहा है. इस पर हमने पक्षकारिता के 1 सितम्बर वाले अंक में विस्तार से चर्चा की थी. उसके बाद से अब तक कोई बदलाव नहीं आया है, सिवाय इसके कि त्योहारी माहौल है और ऐसे दिनों में अखबारों के पन्नों पर आम तौर से धर्म और राष्ट्र एक हो जाते हैं.
कभी-कभार खबर लिखते हुए पत्रकार के काल का बोध गायब हो जाता है. ऐसा अकसर त्योहारी सीजन में होता है. और हो भी क्यों न? पूरे के पूरे पन्ने जब सत्य और असत्य, भलाई और बुराई, राम और रावण के मुहावरे में लिखे गए विज्ञापनों से पटे पड़े हों; हर अखबार का एक पूरा पन्ना दिल्ली के मुख्यमंत्री की शुभकामनाओं से भरा पड़ा हो तो पत्रकार अपने आप सतयुग में पहुंच जाता है. उदाहरण के लिए अमर उजाला की ये खबर देखिए.
दिलचस्प बात है कि अमर उजाला का ब्यूरो ऐसी खबरें भी करता है और संपादक बाकायदे 'अमर उजाला ब्यूरो' की बाइलाइन से इसे जाने देता है, इस बात को पूरी तरह भुलाकर कि यह कलयुग है जहां रामलीला की रिपोर्टिंग हो रही है न कि सतयुग की पत्रकारिता. बहरहाल, आज अखबारों में एक और राम छाए हुए हैं. निर्विवाद रूप से पहले पन्ने पर अमित शाह के बाद पूरे पन्ने पर रिवर्स में मुस्कुराते हुए अरविंद केजरीवाल हर राष्ट्रीय अखबार की शोभा हैं.
इस सरकारी विज्ञापन से इतर दिल्ली से छपने वाले हर हिंदी अखबार में केजरीवाल सरकार द्वारा लागू की जा रही एक परिवहन व्यवस्था को बड़ी खबर बनाया गया है. इसका नाम है 'रेड लाइट ऑन गाड़ी ऑफ'. इसके मुताबिक लाल बत्ती होने पर आपको अपनी गाड़ी का इंजन बंद करना होगा. अक्टूबर का महीना दिल्ली में प्रदूषण लेकर आता है. कहते हैं कि पंजाब-हरियाणा में पराली जलाने के कारण दिल्ली धुएं में घिर जाती है. इसीलिए हर बार केजरीवाल सरकार कुछ नया प्रयोग करती है. इस बार पहले तो गाड़ी बंद करने का अभियान चलाया जाएगा, उसके बाद एक ट्रिप कम करनी होगी और फिर कार पूलिंग के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा.
इस खबर को पढ़ते ही मुझे नयी कोरियन सिरीज़ 'स्क्विड गेम' की याद हो आयी जिसमें रेड लाइट की घोषणा होने के बाद थोड़ी सी भी हरकत पर गोली मार दी जाती थी. वहां भी यही नियम था कि रेड लाइट होते ही आपको अपनी गाड़ी यानी शरीर को ऑफ कर देना होता था. अरविंद केजरीवाल तो इंजीनियरिंग पढ़े हैं, इतना विज्ञान जानते होंगे कि कोई भी गतिमान वस्तु रुकते-रुकते रुकती है. अचानक आप ब्रेक मारेंगे तो गाड़ी पलट जाएगी. मेरे मन में सवाल आया कि रेड लाइट होते ही अगर गाड़ी बंद नहीं हुई और थोड़ा खिसकते-खिसकते आगे बढ़ गयी तब क्या होगा?
थोड़ा डर इसलिए भी है क्योंकि महीने भर चलने वाले इस अभियान के दौरान 100 चौराहों पर 2500 सिविल डिफेंस कर्मी तैनात रहेंगे. पिछले दिनों इन कर्मियों को खिड़की का कांच बेहिचक उतरवा के अपनी फोटो खींचते हमने देखा है. अब अगर गाड़ी लाल बत्ती पर बंद नहीं हुई तो ये क्या करेंगे, इस बारे में अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं बताया गया है. जनता को पिछले अनुभव के कारण शक तो है, फिर भी वो सवाल उठाए बगैर अपनी गाड़ी लाल बत्ती पर ऑफ करने को तैयार है.
ठीक वैसे ही जैसे अमित शाह द्वारा 10 अक्टूबर को किये ऐतिहासिक दावे पर पत्रकारों को बेशक शक होगा लेकिन अब तक मीडिया में कहीं कोई संगठित सवाल नहीं उठ सका है. शाह ने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ज्यादा लोकतांत्रिक नेता आज तक पैदा नहीं हुआ जो इतने धैर्य से लोगों को सुनता हो. इसका मायने ऐसे समझिए कि आज से ज्यादा लोकतंत्र देश में कभी नहीं रहा. सभी अखबारों ने इस बयान को प्रमुखता से छापा. क्या आपको लगता है कि इस बयान पर बाकायदे बहस होनी चाहिए थी और इसका जम कर खंडन किया जाना चाहिए था? क्या अखबारों के संपादकों को इसे सबसे बड़ा झूठ नहीं बोलना चाहिए था चूंकि आज तक प्रधानमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने एक भी प्रेस कांन्फ्रेंस नहीं की? आखिर अमित शाह का यह बयान अखबारों में तथ्यात्मक आलोचना का बायस क्यों नहीं बन सका?
'स्क्विड गेम' का लीडर कहता है कि उसका तंत्र पूरी तरह समानतावादी और लोकतांत्रिक है जहां हर किसी को खेलने का बराबर 'चांस' दिया जाता है। आप जीत गए तो इनाम ले जाइए, हार गए तो मौत. इस तंत्र से जो भी छेड़छाड़ करेगा उसे मरना होगा क्योंकि जनता के लिए तय किये गए 'आदर्श' के साथ धोखा नहीं किया जा सकता. हिंदी अखबारों के मालिकों और संपादकों को इसी 'आदर्श' में मर्यादा पुरुषोत्तम नजर आते हैं. उन्हें देश में रहना है और दिल्ली में भी. मजबूरी दोतरफा है. इसीलिए वे राम-रावण के खेल खेलते रहते हैं और सतयुग के स्मरण में मिथ्या जगत को भुलाए रखते हैं.
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