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क्या जून के शुरुआत में अत्यधिक मानसूनी बारिश देश में लंबी अवधि वाली बाढ़ का संकेत है?
इस बार देश का वित्त मंत्री कहा जाने वाला मानसून गर्मी से राहत, खुशनुमा मौसम और बारिश की हल्की फुहार लेकर नहीं आया है, बल्कि मानसून ने आते ही गंगा-यमुना बेसिन की नदियों में बड़ी हलचल पैदा की और जिसके कारण कई राज्यों में बाढ़ ने दस्तक दे दी है.
उत्तराखंड की 2013 त्रासदी के बाद 2021 दूसरा ऐसा वर्ष है जिसमें जून के शुरुआती दिनों में ही मानसून के आगमन के साथ उत्तर भारत में अत्यधिक वर्षा दर्ज की गई है. यह एक कारण है जिसके चलते गंभीर बाढ़ की स्थितियां बन गईं. हालांकि वर्षा के अलावा जानकारों और शोधपत्रों के मुताबिक बाढ़ की स्थिति का बनना ग्लोबल वार्मिंग समुद्री सतह का तापमान बढ़ना, शहरीकरण, और बाढ़ नियंत्रण करने वाले पारंपरिक जलाशयों के नुकसान के साथ पर्यावरणीय क्षति का परिणाम भी हो सकता है.
वर्ष 2012 से 2021 के बीच जून महीने में मौसमी उपखंडों (मेट्रोलॉजिकल सबडिविजन) के वर्षा आंकड़ों के अध्ययन में पाया कि उत्तराखंड की त्रासदी वाले वर्ष 2013 को छोड़कर 2021 के जून महीने में (1-24 जून) में खासतौर से उत्तर भारत में अत्यधिक वर्षा (लार्ज एक्सेस) हुई है. इसने बाढ़ के लिए उत्प्रेरक का काम किया है.
भारतीय मौसम विज्ञान (आईएमडी) के मुताबिक सब डिवीजन वर्षा आंकड़ों के मुताबिक 2010 से 2021 के अकेले जून महीनों का विश्लेषण बताता है कि 2013 के बाद 2021 ही दूसरा ऐसा वर्ष है जिसमें उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, गंगीय पश्चिम बंगाल (2011 में 70 फीसदी) में बीते एक दशक में अत्यधिक वर्षा (लार्ज एक्सेस: 60 फीसदी से अधिक) दर्ज की गई है. यहां तक कि 2021 के जून महीने को पूरा होने में अभी 5 दिन बाकी हैं
23 जून, 2021 तक हुई अत्यधिक वर्षा ने बीते 10 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है. उत्तराखंड में (243.2 एमएम) 114 फीसदी, पूर्वी उत्तर प्रदेश में (183.2 एमएम) 176 फीसदी, बिहार में (278.5 एमएम) 158 फीसदी, गंगीय पश्चिम बंगाल में (339.8 एमएम) 88 फीसदी अधिक वर्षा दर्ज किया गया है. इन सभी जगहों पर वर्षा लार्ज एक्सेस श्रेणी 60 फीसदी या उससे अधिक है.
पिछले एक दशक का आईएमडी का आंकड़ा बताता है कि असम और मेघालय सब डिवीजन में जून महीने में वर्षा की मात्रा (मैग्नीट्यूड) काफी ज्यादा है. इसलिए वहां जून महीने में अन्य राज्यों के मुकाबले अत्यधिक वर्षा होने के बावजूद वर्षा लार्ज एक्सेस कटेगरी में नहीं है.
देश में 1-23 जून तक कुल 145 सेमी वर्षा दर्ज की गई है. यह सामान्य 114.2 सेमी से +28 फीसदी ज्यादा है. आईएमडी के दूसरे दीर्घावधि औसत वर्षा फोरकास्ट के मुताबिक जून से सितंबर तक मानसून वर्षा देशभर में सामान्य रहेगी.
वर्षा के कारण ही जून के शुरुआती महीने में ही उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार में हिमालयी नदियां जून की मध्यावधि से ही खतरे के निशान के आस-पास पहुंच गईं हैं. इसके अलावा पश्चिम भारत में गुजरात-गोवा और पूर्वोत्तर भारत में असम के जिले बाढ़ प्रभावित हैं. बहरहाल उफान वाली नदियों के किनारे बसे कई गांवों में बाढ़ की वजह से जानमाल की क्षति भी जारी है.
उत्तर प्रदेश में शारदा नदी किनारे फूलबेहर ब्लॉक में स्थित 20 हजार की आबादी वाला गांव मानपुर करदहिया के रहने वाले बिकाऊ निषाद बताते हैं, "करीब 20 वर्षों के बाद जून महीने की यह बाढ़ देखी है. बनबसा से पानी छोड़ा जाता है तो हमारे यहां बाढ़ आ जाती है. इस बार उत्तराखंड की तरफ से पानी ज्यादा है. मेरा खुद का छह एकड़ परवल का खेत बर्बाद हो गया है. जबकि कई किसानों के गन्ना और सब्जी के खेत बर्बाद हो गए हैं. अभी तक कोई सरकारी सहायता यहां नहीं पहुंची है."
अक्सर जुलाई और अगस्त महीने में बाढ़ प्रभावित रहने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार में बाढ़ ने जून महीने से ही क्षति पहुंचाना शुरू कर दिया है. बिहार में कोशी क्षेत्र में भी बाढ़ ने दस्तक दे दी है.
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक बाढ़ प्रभावितों की सर्वाधिक संख्या उत्तर प्रदेश में दर्ज की गई है. 22 जून, 2021 को राज्यों की ओर से भेजी गई रिपोर्ट के आधार पर नेशनल इमरजेंसी रिस्पांस सेंटर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि बिहार में गंडक और उत्तर प्रदेश में शारदा, गंगा व घाघरा नदी खतरे के निशान से ऊपर (0.12 मीटर से लेकर 0.57 मीटर तक) बह रही है. वहीं, उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक 63 गांव और 18620 लोग बाढ़ प्रभावित हैं.
उत्तर प्रदेश की ओर से 24 जून को जारी आधिकारिक फ्लड रिपोर्ट के मुताबिक बंदायू जिले में गंगा और लखीमपुर खीरी में शारदा, अयोध्या व बाराबंकी जिले में घाघरा नदी में बाढ़ वाली उफान जारी है.
केंद्रीय जल आयोग की ओर से 21 जून से लेकर 24 जून के बीच किए गए विभिन्न ट्वीट के मुताबिक असम के शिवसागर जिले में नांगलामोराघाट के पास देसांग नदी और उत्तराखंड के देहरादून में ऋषिकेश नदी उच्च बाढ़ स्तर (एचएफएल) पर है.
वहीं, उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में तुर्तीपार बंधे के पास घाघरा नदी में बाढ़ गंभीर स्तर पर बनी हुई है. हालांकि केंद्रीय जल आयोग के रोजाना फ्लड बुलेटिन में उत्तराखंड के बाढ़ का कोई जिक्र नहीं है.
सिर्फ जून नहीं बल्कि मई महीने में भी चक्रवातों की वजह से गुजरात और उत्तर प्रदेश, बिहार में खूब वर्षा दर्ज की गई थी. आईएमडी के मुताबिक मई महीने में देश में गुजरात रीजन में 1130 फीसदी और और सौराष्ट्र व कच्छ में 1476 फीसदी अधिक वर्षा रिकॉर्ड की गई. हालांकि वर्षा का मैग्नीट्यूड उत्तर प्रदेश और बिहार के मुकाबले कम था. इसी तरह बिहार में डिपार्चर 359 फीसदी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 467 फीसदी और पश्चमी उत्तर प्रदेश में 325 फीसदी अधिक वर्षा हुई.
जून की शुरुआत में अत्यधिक वर्षा और बाढ़ की दस्तक की वजह को लेकर स्काईमेट के महेश पालावत ने बताया, "गंगीय पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा तट पर जून के शुरुआत में ही निम्न वायु दाब (लो प्रेशर एरिया) बना था जो कि करीब 10 दिन तक टिका रहा. यह एक दुर्लभ अवधारणा है. इस लो प्रेशर एरिया को बंगाल की खाड़ी से लगातार नमी मिलती रही जिसके कारण यह लंबा टिका रहा. इसके अलावा पंजाब से पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और गंगीय पश्चिम बंगाल तक एक ट्रफ भी जा रही थी. लो प्रेशर एरिया और ट्रफ के मिलन से अत्यधिक वर्षा इन क्षेत्रों में देखी जा रही थी, जिस पर आगे लगाम लगेगा."
बाढ़ को लेकर पलावत बताते हैं, नेपाल समेत तराई क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा का सिलिसिला जून महीने में ही चलता रहा. इसकी वजह से नदियां भी बहुत ही जल्द ऊफान पर आ गईं."
मसलन नेपाल में अत्यधिक वर्षा के कारण नारायणी नदी में जलस्तर काफी बढ़ा जो कि बिहार में गंडक के नाम से जानी जाती है. इसके अलावा उत्तराखंड में अत्यधिक वर्षा के कारण शारदा नदी जो कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के मैदानी भागों में बहती है वहां बाढ़ का सिलसिला बहुत जल्द शुरू हो गया.
आईएमडी ने 24 जून को जारी अपने नए पूर्वानुमान में बताया है कि उत्तर, मध्य भारत में मानसून कमजोर पड़ जाएगा और आने वाले समय में वर्षा कम हो जाएगी. हालांकि, असम और नॉर्थईस्ट राज्यों में अत्यधिक वर्षा होने का अनुमान है. जहां पर पहले से ही नदियां ऊफान पर हैं.
जून में बाढ़ निश्चित ही सीजनल खेती के लिए विनाशकारी है. मानसून कारकों के अलावा बाढ़ विषय के जानकार और बिहार के बाढ़, सूखा व आकाल के इतिहास पर काम कर रहे दिनेश मिश्र बताते हैं, "लोगों की स्मृतियों के अभाव होने और सरकारी दस्तावेजों में बाढ़ की सही सूरत न दर्ज किए जाने के कारण आजकल लोग भूल गए हैं कि बिहार ने मई और नवंबर दोनों महीने में काफी क्षति वाली बाढ़ देखी है. इसलिए यह कहना कि जून के शुरुआती महीने में बाढ़ एक नई चीज है यह गलत होगा. यहां तक कि बाढ़ का सीजन मई से भी कभी-कभी शुरू हो जाता है. जलवायु परिवर्तन हो रहा है, इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन सरकारें इसकी ओट में छुपने की कोशिश करती हैं और बाढ़ से पहले समुचित तैयारियों से नजर चुराती रहती हैं. इस वक्त एक भी नाव और सरकारी सहायता लोगों तक नहीं पहुंच रही है, यह हर वर्ष का दस्तूर बन गया है."
यदि बीते एक दशक में 2021 को छोड़कर बड़ी बाढ़ का अध्ययन करें जिनमें काफी जान-माल को नुकसान पहुंचा है. तो ऐसी कुल 12 बाढ़ हैं, जिनकी वजह भारी वर्षा, मानसूनी वर्षा और साइक्लोन के साथ की वर्षा रही है.
इस वर्ष 2021 के शुरुआत में ही फरवरी महीने में चमोली में बाढ़ ने काफी जान-माल को नुकसान पहुंचाया था.
दरअसल असमय और अल्प समय वाली तीव्र वर्षा फ्लैश फ्लड यानी अचानक विनाशकारी बाढ़ लेकर आ रही हैं. 14 अप्रैल, 2021 को जर्नल अर्त सिस्टम में प्रकाशित एक शोधपत्र में जर्मन शोधार्थियों की टीम को लीड करने वाले लेखक अंजा काटजेनबर्जर ने चेताया है कि हर एक डिग्री सेल्सियस वार्मिंग के कारण मानसून वर्षा में पांच फीसदी की वृद्धि हो सकती है. ग्लोबल वार्मिंग भारत में वर्षा को इस कदर बढ़ाने वाला है जैसा कि पहले कभी सोचा नहीं गया. यह 21 शताब्दी में मानसून का प्रबल आयाम है.
19 जून, 2021 को गोवा और कोंकड़ सब डिवीजन में दक्षिणी गोवा तट पर फ्लैश फ्लड की सूचना का खतरा मानसूनी वर्षा के बाद ही मंडरा रहा था. इसके अलावा 2013 की तरह ही ऋषिकेष में गंगा का स्तर काफी ज्यादा था.
नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक हाल ही के शोध में कहा गया है कि केंद्रीय भारत में मानसून चक्र कमजोर होने के साथ औसत वर्षा कम हो रही है लेकिन चरम वर्षा की घटनाएं बढ़ रही हैं. इसके कई मिले-जुले कारण हो सकते हैं. अल नीनो इवेंट की तीव्रता और आकार (मैग्नीट्यूड) बढ़ने के साथ ही लैंड यूज में बदलाव, वायु प्रदूषण चरम वर्षा वाली घटनाओं के कारण हो सकते हैं. केंद्रीय भारत में वृहत चरम वर्षा घटनाएं 10 से 30 फीसदी तक बढ़ सकती हैं.
बाढ़ से मौतों (फ्लड मोर्टेलिटी) के कारण बाढ़ को दुनिया में सर्वाधिक विनाशकारी माना जाता है. इसमें भारत की स्थिति काफी चिंताजनक है.
वर्षा के कारण बाढ़ और चरम घटनाओं से होने वाली मौतों के मामले में डाउन टू अर्थ ने 13 अगस्त, 2019 को प्रकाशित अपने विश्लेषण में पाया था कि देश में बाढ़ के कारण सर्वाधिक मौतें उत्तराखंड में होती हैं और वर्ष 2008 से 23 जुलाई 2019 के बीच एक दशक में कुल 24 हजार मौतें देश में दर्ज की गई हैं.
एक अंतरराष्ट्रीय शोधपत्र में 1995 से 2006 तक दो दशक में बाढ़ से होने वाली मौतों (फ्लड मोर्टेलिटी) के अध्ययन में भी फ्लड मोर्टेलिटी को लेकर कहा गया है, "चीन की तरह भारत में भी एक दशक से दूसरे दशक तक बाढ़ की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हो रही है. लेकिन चिंताजनक यह है कि भारत में बाढ़ से मृत्यु (मोर्टेलिटी) चीन से काफी ज्यादा है. वर्ष 2006 से 2015 के बीच 90 बाढ़ ने 15820 जानें ली हैं और 1995 से 2005 के बीच कुल 67 बाढ़ के कारण 13660 लोगों ने जान गंवाई है. यदि भारत चीन का अनुसरण करता है तो वैश्विक स्तर पर बीते दशक में बाढ़ के कारण होने वाली मौतों की घटती हुई प्रवृत्ति को संभव है विस्तार मिले." ( पेज -9, स्रोत : पॉवर्टी एंड डेथ डिजास्टर मोर्टेलिटी )
बाढ़ के विनाश से बचने के लिए एक्सपर्ट पूर्वसूचना को प्रबंधन का बड़ा हथियार मानते हैं. हालांकि, यह अब भी एक बड़ी चुनौती है. पानी राज्य का विषय है और इसलिए केंद्र और राज्य आपस में कभी आसानी से प्रबंधन के लिए एकमत नहीं होते. उत्तराखंड में बार-बार अचानक होने वाली चरम वर्षा की घटनाओं में जान-माल नुकसान के लिए इसपर ही चिंता जताई जा रही है.
केंद्रीय जल आयोग ने 5 मई, 2021 को एक गंगा, सतलुज बेसिन में फ्लड फोरकास्टिंग के सवाल को लेकर पर अपने आधिकारिक ट्वीट में कहा, "जम्मू-कश्मीर की ओर से गुजारिश किए जाने के बाद वर्ष 2019 से एक मई महीने से ही झेलम नदी की बाढ़ फोरकॉस्टिंग शुरु कर दी गई है. यदि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की सरकार भी हमसे रिक्वेस्ट करेगी तो हम ऐसा जरूर करेंगे."
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी रुड़की के डॉक्टर शरद कुमार जैन ने कहा, "इस वर्ष चमोली में बाढ़ की घटना ने स्पष्ट इशारा किया है कि हमें वर्ष भर बाढ़ की पूर्वसूचना (फोरकास्टिंग चाहिए). हमें कुछ मानकों को तैयार रखना होगा, जैसे ही थ्रेशहोल्ड पार करने की स्थिति बने हमें अलर्ट होना होगा. ऐसा अभ्यास हम समुद्री तटीय इलाकों में करने लगे हैं, यह बाढ़ से बचाव के लिए भी हो सकता है."
क्या यह बाढ़ लंबी अवधि तक रुक सकती है? शरद के जैन ने कहा, "इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट नहीं दिया जा सकता है. हां, यह जरूर है कि पानी का ड्रेनेज सिस्टम (तालाब, जलाशय, प्राकृतिक नालियां) खराब हुआ है जिससे वह ज्यादा देर तक टिकने लगी है.
(डाउन टू अर्थ से साभार)
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