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लोग गरीबी और भय के बीच बंगाल के डूआर्स चाय बागानों में कुछ ऐसे लड़ रहे हैं कोविड-19 से लड़ाई
हिमालय की पहाड़ियों की तलहटी में बसा डूआर्स क्षेत्र घने जंगलों और चाय के बागानों से ढका है. पश्चिम में तीस्ता नदी और पूर्व में सनकोष नदी के बीच 150 किलोमीटर लंबा और 40 किलोमीटर की चौड़ाई वाला यह क्षेत्र अत्यंत सुंदर भी है. क्षेत्र में अलीपुरद्वार, जलपाईगुड़ी और कूचबिहार जिले आंशिक तौर पर या पूरे आते हैं.
डूआर्स क्षेत्र में मुख्यतः ओराऑन, मुंडा, संतल, खड़िया, मेच, राभा, राजबंसी और नेपाली लोग बसते हैं, ये सभी अपनी आजीविका के लिए चाय बागानों, जंगलों और खेती पर निर्भर हैं. मनमोहक प्राकृतिक सुंदरता अपने पीछे वर्षों की उपेक्षा और उत्पीड़न छुपाए हुए है, जिसका परिणाम खराब शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं, पलायन, तस्करी और गरीबी है.
उत्तर बंगाल में 283 चाय के बागान हैं जहां दिन में 3.5 लाख लोग काम करते हैं. अकेले डूआर्स क्षेत्र में ही 154 चाय के बागान हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार जलपाईगुड़ी और अलीपुरद्वार जिलों की कुल जनसंख्या ही 3,872,846 है.
जिले की कुल कामगार संख्या में से 60.7 प्रतिशत केवल अन्य कर्मचारी हैं. यह बात गौर करने लायक है कि 2011 की जनगणना में किसी भी बागान जैसे चाय, में काम करने को "अन्य कर्मचारियों" की श्रेणी में रखा जाता है.
15 जून 2021 को पश्चिम बंगाल में कोविड के 4371 नए मामले सामने आए और 84 मौतें हुईं, पूरे भारत का यह आंकड़ा क्रमश 77722 और 3721 रहा. मई महीने के मध्य से नए आने वाले मामलों की संख्या गिरी है लेकिन मरने वालों की संख्या अभी भी ज्यादा है जो चिंता का एक कारण है. जहां कई राज्यों ने अपने लॉकडाउन को हटाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, वहीं बंगाल सरकार ने अपना लॉकडाउन कुछ ढील देते हुए 1 जुलाई तक बढ़ा दिया है.
जलपाईगुड़ी और अलीपुरद्वार के गांवों और चाय के बागानों में कोविड-19 के मरीजों की संख्या अभी भी बहुत ज़्यादा है. अलीपुरद्वार के मदारी हार्ट ब्लॉक में 9 जून को 7 लोग पॉजिटिव पाए गए, 10 जून को 29, 12 जून को 33 और 13 जून को 28 लोग पॉजिटिव थे. 12 जून को पॉजिटिव पाए गए 33 लोगों में से 17 लंकापाड़ा चाय बागान से थे. 7 अप्रैल और 30 मई के बीच जलपाईगुड़ी के मटेइल्ली ब्लॉक में 740 लोग कोविड-19 पॉजिटिव पाए गए थे.
और यह केवल वही मामले हैं जो दर्ज हो पाए. टेस्टिंग न हो पाने, नौकरी जाने और अपर्याप्त पौष्टिक आहार के चलते बड़ी संभावना है कि चपेट में आई जनसंख्या के अंदर बड़ी संख्या में केस मौजूद हैं जिनका पता नहीं चल पाया. इसीलिए डूआर्स के गांवों और चाय बागानों में कोविड-19 से लड़ाई बहुत कठिन है.
'भयंकर डर फैला है'
साधारण दिनों में भी बीरपारा का सरकारी अस्पताल भरा रहता है. जगह की कमी की वजह से अक्सर मरीजों को गलियारों में भी रखा जाता है.
चाय के बागानों में अस्पताल खराब हालत में हैं, कई में डॉक्टर और नर्सें हैं ही नहीं. गंभीर बीमारी का इलाज तो दूर, बुखार, सर दर्द और पेट दर्द जैसी साधारण तकलीफों के लिए दवाई भी मुश्किल से मिल पाती है.
चाय बागानों में कर्मचारियों को 202 रुपए दिहाड़ी मिलती है. गरीबी और कुपोषण के शिकार इन लोगों को गंभीर बीमारियों जैसे टीबी, मलेरिया और दस्त लगने का खतरा बना रहता है, हर साल सैकड़ों मौतें भी होती हैं लेकिन खबरें ठीक से ना मिल पाने के कारण सही संख्या का ज्ञान नहीं है. 1951 के बागान श्रम अधिनियम में मिले कल्याणकारी कदमों के बावजूद चाय के बागानों में काम करने वाले कर्मचारी अभावग्रस्त जीवन जीते हैं. तब भी चाय उद्योग, मजदूरों का फायदा उठाकर और उनके अधिकारों का हनन कर दशकों से तेजी से व्यापार करता रहा है.
शशि सुनूवार अलीपुरद्वार के मदारी हार्ट ब्लॉक में डाल्मोर चाय बागान में दिहाड़ी मजदूर हैं, वे उत्तर बंगाल चाय श्रमिक संगठन या यूबीसीएसएस के सदस्य भी हैं, यह संस्था चाय के बागानों में न्यूनतम आय नियम को लागू करवाने के लिए और चाय बागान कर्मचारियों के भूमि अधिकारों के लिए काम करती है. मार्च में कोविड-19 की दूसरी लहर शुरू होने के बाद से, वह मदारीहाट ब्लॉक के चाय के बागानों में सेवा कार्य में ही जुटे हुए हैं.
शशि को लोगों को कोविड-19 की गंभीरता का एहसास कराने में बड़ी दिक्कत होती है. उदाहरण के लिए वह बताते हैं, “इन इलाकों में एक अफवाह फैली हुई है कि अगर मरीज को अस्पताल ले जाया जाता है तो वह वापस नहीं लौटता.” इससे टेस्ट करवाने और बीमार होने पर कम ही लोग स्वास्थ्य केंद्र जाते हैं.
यूबीसीएसएस के अध्यक्ष और नागासुरी चाय बागान में रहने वाले क्रिश्चियन खारिया कहते हैं, "चाय बागानों में लोग कोविड-19 को लेकर बहुत लापरवाही बरत रहे हैं. यह लोग इसमें भी बाकी किसी दूसरी बीमारी की तरह ही पेश आते हैं. लोग कोविड-19 प्रोटोकॉल का पालन नहीं कर रहे."
क्रिश्चियन, जो बंगाल में चाय बागान मज़दूरों के हक़ के लिए काम करने वाली एक ट्रेड यूनियन 'पश्चिम बंगाल खेत मजदूर समिति' के लिए भी एक स्वयंसेवक की तरह काम करते हैं, कहते हैं कि चाय बागानों में कोविड-19 को फैलने से रोकना इन सब वजहों से बहुत मुश्किल हो जाता है. लेकिन उनका यह भी कहना है कि प्रशासन को भी और सक्रिय होना चाहिए.
वे कहते हैं, "उन्हें जागरूकता जगाने और आत्मविश्वास बढ़ाने के काम में सबसे आगे होना चाहिए. केवल लोगों को ही दोषी नहीं ठहराना चाहिए." चाय बागानों के कर्मचारियों की आर्थिक हालत की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं, “लोगों के लिए पैसा कमाना आवश्यक है जिसकी वजह से वह घर में नहीं रुक सकते.”
कर्मचारियों की परिस्थितियां कोविड को उनके लिए कहीं बड़ा खतरा बनाती हैं. चाय बागानों पर जाने के लिए एक वैन में 40 से 50 मजदूरों को ठूंस कर भर दिया जाता है. क्रिश्चियन यह भी कहते हैं, "इसकी बड़ी संभावना है कि बीमारी एक बाग से दूसरे बाग में संक्रमण के द्वारा फैल सकती है." लेकिन काम को रोकने का अर्थ होगा भोजन और आमदनी का नुकसान, इसलिए वह सलाह देते हैं कि सरकार को कर्मचारियों के लिए लॉकडाउन के दौरान एक न्यूनतम आय सुनिश्चित करनी चाहिए.
चलौनी चाय बागान के सूरज ओरन, मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से स्नातकोत्तर स्तर की पढ़ाई कर रहे हैं. वे प्रयत्न नाम की संस्था के सदस्य भी हैं, लॉकडाउन के दौरान वह घर लौट आए और कोविड तथा वैक्सीन लगवाने की महत्ता को लेकर जागरूकता बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं. प्रयत्न एक आदिवासी युवा संगठन है जो 10 वर्ष से अधिक से चाय बागानों में शिक्षा, सामाजिक जागरूकता तथा सामाजिक सशक्तिकरण के लिए काम करता रहा है. वे विद्यार्थियों की उच्च शिक्षा के लिए ट्रेनिंग, मार्गदर्शन और तैयारी कराते हैं. पिछले कुछ वर्षों में प्रयत्न के कई सदस्य टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज या टीआईएसएस, अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, अंबेडकर विश्वविद्यालय, विश्व भारती विश्वविद्यालय और मैंगलौर विश्वविद्यालय में पढ़े हैं या पढ़ रहे हैं.
सूरज कहते हैं, "चाय बागानों में कोविड को लेकर बहुत डर है. अगर लोग बीमार भी हैं तो वह अस्पताल नहीं जाते. वे घरेलू इलाज करना पसंद करते हैं और टेस्ट केवल तभी कराते हैं जब बहुत ज्यादा बीमार पड़ जाते हैं. लोगों को डर है कि अगर वह पॉजिटिव पाए गए तो उन्हें वहां से ले जाया जाएगा. वह वैक्सीन लगवाने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्होंने वैक्सीनेशन के बाद मौतों के बारे में सुना है."
टेस्ट करवाना भी इतना आसान नहीं है. चलौनी चाय बागान से निकटतम टेस्ट करवाने का केंद्र 12 किलोमीटर दूर चलसा में है. किरन ओरन, जो टीआईएसएस में स्नातकोत्तर के छात्र व चलौनी चाय बागान से प्रयत्न के एक सदस्य भी हैं, कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान वाहनों पर लगी पाबंदियों के चलते लोग टेस्ट करवाने नहीं जा पाते. अपने लिए एक व्यक्तिगत वाहन को ले जाना महंगा पड़ता है, जो चाय बागान के लोगों की गुंजाइश से ज्यादा है."
इसलिए 31 मई से 8 जून के बीच, किरण ने चलौनी चाय बागान में मटेइल्ली ब्लॉक के स्वास्थ्य विभाग के सहयोग से कोविड टेस्टिंग अभियान का आयोजन किया. 200 लोगों का रैपिड एंटीजन टेस्ट किया गया; 6 टेस्ट पॉजिटिव आए.
लेकिन उनके भरसक प्रयासों के बावजूद कुछ बीमार पड़ने वाले कर्मचारियों ने घर पर रहने को ही चुना. इंडोंग चाय बागान की सुषमा ओरन को कोविड के लक्षण 2 मई को दिखने शुरू हुए. लेकिन टेस्ट करवाने के बजाय, उन्होंने अपने को अकेला कर लिया, अपने डॉक्टर से बात की और घर पर ही रहीं.
सुषमा खुशकिस्मत थीं क्योंकि वह ठीक हो गईं, लेकिन उन्होंने अपना टेस्ट क्यों नहीं कराया?
वे बताती हैं, "अगर मैं पॉजिटिव पाई जाती, तो मेरी मां जो दिहाड़ी मजदूर हैं, उन्हें चाय बागान का मैनेजमेंट काम पर न आने के लिए बोल देता. इसकी भी संभावना थी कि मेरे पड़ोसी भी कुछ समय के लिए अपने काम से हाथ धो बैठते."
चाय बागान कर्मचारियों को वेतन के साथ छुट्टी नहीं मिलती. इसलिए महामारी के दौरान, टेस्ट कराने के लिए भी काम को छोड़ना उनके लिए एक विकल्प नहीं है, खासतौर पर जब उन्हें पहले से ही आजीविका चलाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.
हरिहर नागबंसी, जो वीडियो वॉलिंटियर नाम की एक सामाजिक मीडिया पहल के लिए फ्रीलांस करते हैं इस ओर इशारा करते हैं, “केंद्र और राज्य सरकारों में महामारी के दौरान छुट्टी के लिए दिशानिर्देश हैं. यह दिशानिर्देश, जो 7 जून को कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के द्वारा जारी किए गए, में परिवर्तित अवकाश, विशेष कैजुअल अवकाश, अर्जित अवकाश और आधे वेतन पर अवकाश का प्रावधान, पॉजिटिव पाए जाने पर सरकारी कर्मचारियों को उपलब्ध है.”
हरिहर पूछते हैं, "चाय बागानों में यह निर्देश क्यों नहीं लागू किए गए?"
न अवकाश, न आमदनी
केवल चाय बागानों में काम करने वाले कर्मचारियों पर ही बुरी मार नहीं पड़ी है. डूआर्स क्षेत्र में बड़ी संख्या में बिहारी मजदूर रहते हैं जो फैक्ट्रियों, ईंट के भट्टों और भवन निर्माण आदि जगहों पर काम करते हैं. जब से लॉकडाउन लगा है उनके पास कोई काम नहीं है.
45 वर्षीय असीम कुजुर डूआर्स क्षेत्र के शिशुझुमरा से आते हैं. एक प्लाईवुड फैक्ट्री में बिहारी मजदूर हैं और 300 रुपए प्रतिदिन कमाते हैं. मई में लॉकडाउन शुरू होने के बाद से असीम के पास कोई काम नहीं रहा. यही हाल इरफान का है जो एफसीआई यानी फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के गोदाम में दिहाड़ी पर काम करने वाला एक कर्मचारी है. गोदाम लॉकडाउन के दौरान भी चलता रहा लेकिन उपलब्ध काम में कमी आई है.
इरफान बताते हैं, "हम रोज करीब 700-800 रुपए रोज कमा लेते थे लेकिन अब यह घटकर 200 रुपए रह गया है." इस आमदनी के जाने से, काम करने वालों की लोन चुकाने और शिक्षा या बाकी खर्चे करने की क्षमता पर असर पड़ा है.
इस परिस्थिति के कई हल हैं जिन पर विचार किया जा सकता है.
पहला, कोविड को फैलने से रोकने के लिए बड़े स्तर पर रेंडम टेस्टिंग शुरू किया जाना आवश्यक है. एक सुनिश्चित न्यूनतम आय कर्मचारियों को गरीबी के चक्रव्यूह में फंसने से बचा लेगी. जो लोग पॉजिटिव पाए जाते हैं उन्हें भी क्वारंटाइन के दौरान वेतन सहित छुट्टी मिलनी चाहिए. ऐसा किए जाने पर ही इन क्षेत्रों में कोविड-19 से लड़ाई तो जीता जा सकता है.
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