Film Laundry

"अच्छा हुआ कि मेरी पहली दोनों फिल्में रिजेक्ट हो गईं वरना मैं कभी ‘लगान’ नहीं बना पाता"

अभिनय, दोस्ती और फिल्में

केतन मेहता की फिल्म ‘होली’ (1984) में अभिनय के इच्छुक आमिर खान और आशुतोष गोवारिकर ने मुख्य भूमिकायें निभाई थीं. इसी फिल्म के सेट पर दोनों की पहली मुलाकात हुई थी, जो भविष्य में हमख्याल होने की वजह से प्रगाढ़ हुई. दोनों ने थिएटर से अभिनय की शुरुआत की थी, लेकिन लक्ष्य थी फिल्में. केतन मेहता को अपनी फिल्म ‘होली’ के लिए कुछ नए चेहरों की तलाश थी. उनका चयन हो गया.

केतन मेहता की यह फिल्म अनदेखी रह गई. आमिर खान का फिल्म कैरियर ‘कयामत से कयामत तक’ के बाद छलांगे मारता हुआ आगे बढ़ा. आशुतोष गोवारिकर ने छोटी-मोटी भूमिकाओं में अभिनय जारी रखा, लेकिन कोई खास कामयाबी नहीं मिल पाई. आशुतोष ने महसूस किया कि उन्हें अभिनय से ज्यादा आनंद निर्देशन में आता है. उन्होंने जिन चंद फिल्मों में अमोल पालेकर, सईद मिर्जा, महेश भट्ट और कुंदन शाह के निर्देशन में अभिनय किया था, उन सभी के सेट पर अपना शॉट देने के बाद वह निर्देशन टीम की मदद के लिए खड़े हो जाते थे. उन्होंने निर्देशन का विधिवत या औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था. फिर भी फिल्म निर्देशन का उनका सपना दृढ़ होता गया.

इस बीच आमिर खान ने बतौर अभिनेता अपनी विशेष पहचान बना ली. उनकी लोकप्रियता के प्रभाव में आशुतोष गोवारिकर ने पहली फिल्म ‘पहला नशा’ के निर्देशन की सोची. इस फिल्म में उन्होंने आमिर खान के साथ दीपक तिजोरी, रवीना टंडन और पूजा भट्ट को चुना. पूजा भट्ट के साथ आमिर खान की ‘दिल है कि मानता नहीं’ हिट रही थी. ‘पहला नशा’ फिल्म बॉक्स ऑफिस पर लुढ़क गई. इसके लिए खुद को ही दोषी मानकर उन्होंने ‘बाजी’ फिल्म की योजना बनाई. इस फिल्म में हिंदी फिल्मों के सभी चालू मसाले डाले. सेक्सी डांस, लोकलुभावन गाने और दृश्य और बाकी सारी चीजें. फिर भी दर्शकों ने फिल्म स्वीकार नहीं की. इस फिल्म की शूटिंग के दौरान ही बन रही फिल्म से नाखुश आमिर खान ने आशुतोष गोवारिकर को समझाया था, ‘हिम्मत से काम किए बगैर तुम कभी अच्छे निर्देशक नहीं बन पाओगे. अगर तुम्हें अपने काम पर विश्वास नहीं है, अपनी फिल्मों पर विश्वास नहीं है तो तुम कभी सफल नहीं होंगे.

पूर्वजों ने सिखाई ढिठाई

आशुतोष गोवारिकर ने एक इंटरव्यू में मुझे बताया था, “अच्छा ही हुआ कि मेरी पहली दोनों फिल्में ‘पहला नशा’ और ‘बाजी’ दर्शकों ने रिजेक्ट कर दीं. उनमें से एक भी चल गई होती तो मैं कभी ‘लगान’ नहीं बना पाता.” कामयाबी की उसी लकीर को पीटता रहता. बाहरी असफलता का एहसास तब गहरा हो जाता है, जब खुद ही उसकी अनुभूति हो. समझ में आ जाए कि मैंने ही गलत राह चुन ली थी. आमिर की बातों ने उत्प्रेरक का काम किया. इन खाली दिनों में आशुतोष गोवारिकर ने खूब पढ़ाई की और बीते दौर के पूर्वज निर्देशकों की फिल्में देखीं. गुरु दत्त, विमल राय, के आसिफ और महबूब खान की फिल्मों ने राह दिखाई.

आशुतोष ने महसूस किया कि तरह-तरह की कठिनाइयों और अड़चनों के बावजूद सभी ने अपनी पसंद के विषय चुने और उन पर फिल्में बनाईं. उन्होंने बॉक्स ऑफिस की कोई परवाह नहीं की. नतीजा यह हुआ कि उनकी फिल्में भारतीय सिनेमा का दीपस्तंभ बन गई.

इस निश्चय और धैर्य के साथ ढिठाई दिखाते हुए नए विषय की तलाश शुरू हुई. चिंतन, मंथन और मनन के बाद उन्होंने ब्रिटिश राज के किसानों की कथा गुनी. कथा पूरी तरह से काल्पनिक थी, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के शोषक और दुराचारी प्रवृत्ति को जाहिर करती है. भारतीय किसानों की एकजुटता और जीत दिखाती है. 19वीं सदी के ब्रिटिश राज में इस जीत का कथानक क्या हो? दीन-हीन भारतीय किसान सशस्त्र संघर्ष में अंग्रेजों को नहीं हरा सकते थे.

किसी भी तरह अंग्रेजी हुकूमत के प्रतिनिधियों पर विजय पाना मुश्किल लग रहा था. किसी स्फुर्लिंग की तरह एक विचार कौंधा कि क्यों ना खेलों के शौकीन अंग्रेजों को भारतीय किसान खेल में हरा दें. भारतीय खेल अंग्रेज नहीं खेल सकते थे, इसलिए भारतीय जनमानस में सर्वाधिक लोकप्रिय क्रिकेट का मुकाबला बेहतर विकल्प लगा. अंग्रेजो के खिलाफ क्रिकेट के मैदान में भारतीय किसानों की जीत, फिर क्या था? वर्षों की पीड़ा और निराशा अचानक छंट गई. आशुतोष गोवारिकर को जिस अनोखी स्क्रिप्ट की खोज थी, वह मिल गई. अब तो उसे पन्नों पर उतारना था. कुछ महीनों के बाद वह भी हो गया और आशुतोष ने आमिर से मिलने और स्क्रिप्ट सुनाने का समय मांगा.

पहले ना और फिर हां

आमिर खान के जीवन और कैरियर में दोस्तों का खास महत्व है. वह निभाते हैं और पूरी संलग्नता से निभाते हैं. दिन-रात की शूटिंग में व्यस्त आमिर खान ने समय निकाला और एक सुबह आशुतोष को बुलाया. देर रात की शूटिंग के बाद उन्हें वही वक्त मिला था. अपनी स्क्रिप्ट सुनाने के लिए उतावले आशुतोष गोवारिकर ने समय और स्थान को महत्व नहीं दिया. आमिर खान के निवास मरीना अपार्टमेंट के पार्किंग एरिया में कार की बोनट मेज बन गई और कार के सहारे खड़े आमिर खान ने पूरी स्क्रिप्ट तन्मयता से सुनी. आमिर खान की एकाग्रता दुर्लभ है. उस नैरेशन के बाद आमिर की संक्षिप्त प्रतिक्रिया होती है. यह अनोखी है... बिल्कुल अविश्वसनीय.

इस प्रतिक्रिया में आमिर का परिचित उत्साह नहीं है. आशुतोष कुछ और सुनना चाहते हैं... आमिर निर्णयात्मक स्वर में कहते हैं. ब्रिटिश राज... लगान रद्द करवाने के लिए क्रिकेट का खेल. भूल जाओ ऐश. इस आइडिया में मेरी कोई रुचि नहीं है. एक दोस्त के तौर पर मैं तुझे यही सलाह दूंगा कि तुम इस पर समय बर्बाद मत करो. देखो ऐश, तुमने पहले दो फिल्में बनायीं. दोनों ही नहीं चलीं. इस बार तुम्हें कोई सुरक्षित और सुंदर काम करना चाहिए. यह कैसा आइडिया ले आए. ब्रिटिश राज के गांव वाले.

फिल्मों के मोंटाज की तरह अवसाद और निराशा के सभी भावों से गुजरते हुए आशुतोष गोवारीकर थके और खामोश कदमों से मरीना अपार्टमेंट से निकले. आमिर की ‘ना’ से झटका तो लगा है, लेकिन अपनी कथा पर उनका सघन विश्वास उन्हें डिगने नहीं देता. वे अपने दो दोस्तों कुमार दवे और संतोष दायमा को लेकर मुंबई के पास स्थित कालोथे में अपने एक दोस्त के फॉर्म हाउस चले जाते हैं. वहां लगातार बिजली नहीं रहती और टेलीफोन के तार तो पहुंचे ही नहीं हैं. पीरियड फिल्म लिखने के लिए इससे मुफीद जगह नहीं हो सकती. पूरे महीने की मेहनत और मंथन के बाद नई स्क्रिप्ट पूरी हुई तो तीनों दोस्त विजय भाव से लबालब थे. इस बार उन्हें यकीन था कि किसी को भी स्क्रिप्ट पसंद आएगी.

जनवरी 1997 में आशुतोष ने फिर से आमिर से समय मांगा. आमिर का पहला सवाल था, ‘कहीं यह वही स्क्रिप्ट तो नहीं है?’ आशुतोष ने दृढ विश्वास के साथ कहा, “बीज रूप में तो वही है, लेकिन इस बार कहानी पसंद आएगी.” आमिर को यकीन होता है, लेकिन स्क्रिप्ट सुनने का समय निकालने में तीन महीने लग जाते हैं. तीसरे महीने मार्च में स्क्रिप्ट सुनने के बाद चकित आमिर की प्रतिक्रिया होती है, “आखिर इस कहानी का विचार तुम्हारे मन में कैसे आया? यह तो अद्भुत है.” इसके आगे उन्हें शब्द नहीं मिल पाते. थोड़ी देर रुक कर आमिर कहते हैं. यह अद्भुत स्क्रिप्ट है ऐश, लेकिन इस फिल्म के साथ जुड़ने में डर लग रहा है. पता नहीं मुझमें इस फिल्म से जोड़ने की हिम्मत है या नहीं?

दो सालों की तैयारी और प्रतिभाओं का जुटान

आमिर खान की सहमति के बाद उनकी सलाह से निर्माताओं की तलाश जारी होती है. स्क्रिप्ट के प्रति अभिनेताओं की राय समझने के लिए कुछ अभिनेताओं से आशुतोष मुलाकात करते हैं. सभी को कहानी अच्छी और विशेष लगती है, लेकिन कोई भी जुड़ना नहीं चाहता. आमिर ने मना कर रखा है कि किसी निर्माता को मेरी सहमति के बारे में नहीं बताना. आमिर का नाम सुनते ही सभी राजी हो जाएंगे, लेकिन इस महंगी फिल्म की कहानी में उनका यकीन होना जरूरी है. इसी वजह से पहले निर्माता यकीन जाहिर करें तो आमिर का नाम बता दिया जाए.

हर तरफ से ना होने के बाद फिर से गेंद आमिर खान के पाले में आ जाती है. उनके दिमाग में उथल-पुथल चल रही है. वे बीच-बीच में आशुतोष से प्रगति की जानकारी लेते रहे हैं. आमिर खान निर्णय लेते हैं कि अगर इस फिल्म में काम करना है तो मुझे ही निर्माता बनना पड़ेगा. कैरियर के आरंभ में पिता की परेशानियों से सबक लेकर फिल्म निर्माण में नहीं उतरने का फैसला ले चुके आमिर खान पुनर्विचार करते हैं. अंतिम निर्णय लेने के पहले वे चाहते हैं कि आशुतोष उनके माता-पिता, पूर्व पत्नी रीना और फिल्म के फाइनेंसर जामू सुगंध को स्क्रिप्ट सुनाएं. अगर इन करीबियों को फिल्म पसंद आती है तो आमिर निर्माता बन जाएंगे. स्क्रिप्ट सभी को पसंद आती है और आमिर निर्माता बनने के लिए तैयार हो जाते हैं.

आमिर चाहते हैं कि उनकी प्रोडक्शन की पहली महत्वाकांक्षी फिल्म की टीम के सभी विभागों में प्रतिभाओं का जुटान हो. कलाकारों का चयन कड़े ऑडिशन के बाद लिया जाए. सबसे पहले प्रोडक्शन की जिम्मेदारी के लिए रीना तैयार होती है. फिल्म के प्रोडक्शन डिजाइनर के तौर पर नितिन चंद्रकांत देसाई का चुनाव होता है. उसके बाद एक-एक कर सभी विभागों के लिए फिल्म इंडस्ट्री की श्रेष्ठ प्रतिभाओं से संपर्क किया जाता है. कॉस्टयूम डिजाइनर ऑस्कर विजेता भानु अथैया हैं. कैमरे की जिम्मेदारी अनिल मेहता को दी जाती है. साउंड के लिए नकुल कामटे को चुना जाता है. फिल्म की थीम के अनुसार पुरबिया लहजे के संवादों के लिए लखनऊ के केपी सक्सेना से आशुतोष मिलते हैं. गीत के लिए जावेद अख्तर और संगीत के लिए एआर रहमान से बात होती है. जावेद अख्तर की प्रतिक्रिया आमिर और आशुतोष को हैरान करती है.

वे दो टूक शब्दों में कहते हैं, “इस स्क्रिप्ट में मुझे कई दिक्कतें हैं. अगर कोई मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों की ‘अनावश्यक’ चीजों की सूची बनाए तो इस स्क्रिप्ट में वह सब मिलेगी.” उन्हें लगा कि यह दोनों का पागलपन या कमर्शियल आत्महत्या है. पूरी शिष्टता से आशुतोष और आमिर उनसे असहमति जाहिर करते हैं. अपनी आशंकाओं के बावजूद जावेद अख्तर गीत लिखने के लिए तैयार हो जाते हैं.

कलाकारों का चुनाव एक अलग कठिन प्रक्रिया रही. फिल्म के नायक भुवन की टीम के लिए ऐसे कलाकारों की जरूरत थी, जो सबसे पहले तो क्रिकेट खेल सकें. उसके बाद उन्हें अपनी भूमिका के हिसाब से गांव के कारीगरों के पेशे से वाकिफ होना चाहिए. वे अभ्यास कर उसे जल्दी से जल्दी सीख लें. अंग्रेजों की टीम के कलाकारों के लिए तय हुआ कि लंदन जाकर उनका चुनाव किया जाए. हिंदी की अन्य फिल्मों की तरह मुंबई और भारत में उपलब्ध गोर व्यक्तियों को कलाकारों के तौर पर नहीं लिया जाए. लंदन जाकर कलाकारों को चुनना आसान नहीं रहा. आशुतोष और रीना के फाइनल किए कलाकारों का ऑडिशन देखने के बाद दो कलाकारों के चुनाव में आमिर को भारी चूक लगी. अंतिम समय में उन्हें बदलना पड़ा. अनुबंध नहीं होने के बावजूद उनके लिए तय की गई राशि उन्हें दे दी गई. अमूमन ऐसा नहीं होता.

सबसे चुनौतीपूर्ण और नया फैसला फर्स्ट एडी के रूप में हॉलीवुड से किसी प्रोफेशनल को बुलाना था. एक शेड्यूल, एक लोकेशन में शूटिंग का फैसला लेने के बाद आमिर चाहते थे कि फर्स्ट एडी के लिए किसी प्रोफेशनल का आयात किया जाए. आशुतोष इसके लिए राजी नहीं थे. इसके बावजूद आमिर के जोर देने पर अपूर्व लाखिया को बुलाया गया. अपूर्वा ने शूटिंग की पुरानी परिपाटी बदल दी. उन्होंने शूटिंग का नया तौर-तरीका पेश किया, जिसे बाद में पूरी फिल्म इंडस्ट्री ने अपनाया.

और अंत में

15 जून 2001 को रिलीज होने के बाद इस फिल्म ने कामयाबी और तारीफ का नया इतिहास रच दिया. पिछले 20 सालों में इस फिल्म का प्रभाव बढ़ता ही गया है. यह फिल्म सही मायने में 21वीं सदी की हिंदी की पहली क्लासिक फिल्म है.

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