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'पक्ष'कारिता: आज मर रहे पत्रकारों को बचाइए, उम्मीद बची तो कल पत्रकारिता भी बच जाएगी
कोविड-19 के कसते शिकंजे के आलोक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों के अचानक बदले चरित्र और जनपक्षधर रिपोर्टिंग पर पिछले अंक में एक सरसरी तौर पर इशारा था, हालांकि वह स्तम्भ बंगाल चुनाव पर केंद्रित था. अखबारों का आलोचनात्मक रुझान अब भी कायम है, बल्कि और तीखा हुआ है. अच्छी बात यह है कि छोटे-छोटे शहरों के अखबारी संस्करणों और छोटे प्रकाशनों (मुद्रित और ऑनलाइन) में जनता के दुख-दर्द की जो तस्वीरें अप्रैल के दूसरे हफ्ते से छपना शुरू हुई थीं, उन्होंने आज इंडिया टुडे और आउटलुक जैसी राष्ट्रीय पत्रिकाओं को अपना कवर बदलने पर मजबूर कर दिया है.
दिल्ली से निकलने वाली इन दोनों कॉरपोरेट पत्रिकाओं ने बीते सात वर्षों में जाने कितने कवर नरेंद्र मोदी की आदमकद तस्वीर वाले छापे होंगे. आज जब जनता की आवाज़ छापने की बारी आयी तो इंडिया टुडे के आवरण पर कतारों में उसकी लाशें पड़ी हैं जबकि आउटलुक के आवरण पर जनता अपने लापता प्रधानमंत्री को तलाश रही है. इन पत्रिकाओं ने जिंदा जनता को, उसकी उम्मीदों को, उसकी महत्वाकांक्षाओं को छापा होता तो सोचिए आज देश-समाज की तस्वीर क्या होती? बहरहाल...
गांव-कस्बों और छोटे शहरों से चलकर दिल्ली-नोएडा में कांच के मीडियाप्लेक्सों तक तबाही का यह अहसास जब तक पहुंचा, तब तक जनता की खबर लेने वाले कोई 300 पत्रकार खुद काल कवलित हो चुके थे. अप्रैल की शुरुआत में पत्रकारों की असमय मौत का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अब तक नहीं थमा है. रोज़ तीन-चार पत्रकारों की मौत की खबर देश के कोने-अंतरे से आती है जिनका राष्ट्रीय मीडिया नोटिस नहीं लेता. कुछ राज्य सरकारों ने बेशक पत्रकारों की सुध अलग से ली है, उन्हें वैक्सीन लगवाने का प्रबंध किया है, लेकिन ज़मीन पर हकीकत अलहदा है. इसे समझने के लिए 15 मई के राजस्थान पत्रिका (उत्तर प्रदेश संस्करण) का बैनर देखना ही काफी होगा.
उम्मीद ही सही! बीते 13 महीनों के अवसाद में अवाम की उम्मीद को जिंदा रखने के लिए पत्रकारों ने जाने कितना कुछ सहा होगा, ये सोचकर कई सवाल मन में आते हैं. जब मैं पत्रकार कह रहा हूं तो उसका सीधा सा आशय उनसे है जो कलमजीवी हैं, जिनकी आय का स्रोत लिखना है. महामारी के बीते 13 महीनों को पांच, दस, बीस, तीस साल कर दें तो सवाल बढ़ते जाते हैं क्योंकि उदारीकरण के साथ आये मशीनीकरण ने लेखकों-पत्रकारों को बुनियादी जरूरतों के लिए तरसा दिया है. तीन दशक की इस क्रमिक बदहाली के बावजूद हम रोज़ सुबह छोटे शहरों से सक्रिय और श्रमजीवी पत्रकारों के मरने की खबर यदि सुन पा रहे हैं, तो सवाल उठता है कि ये लोग दूसरों की उम्मीद को जगाए रख कर आखिर खुद किस उम्मीद में पत्रकारिता किये जा रहे हैं? लखनऊ की इस कहानी में एक जवाब छुपा हो सकता है.
‘उम्मीद’ एक जिंदा शब्द है
अखिलेश कृष्ण मोहन पत्नी और दो बच्चों के साथ लखनऊ में रहते थे. दूरदर्शन से लेकर दैनिक भास्कर तक का पानी पीने के बाद अपनी पत्रिका उन्होंने शुरू की- फर्क इंडिया. एक यूट्यूब चैनल है. वेबसाइट भी है. खुद चलाते थे, अपनी जीवनसंगिनी को भी काम में जोड़े रखते थे. बीते हफ्ते 13 मई को वे संजय गांधी पीजीआई में कोरोना से लड़ाई हार गये. उन्हें अस्पताल में बिस्तर दिलवाने से लेकर श्रद्धांजलि देने और आर्थिक मदद की अपील करती सोशल मीडिया पर जितनी पोस्ट आयीं, शायद ही इतनी संख्या किसी और के लिए रही होगी बीते एक महीने में, ऐसी उनकी लोकप्रियता थी. यह लोकप्रियता पैसे या पावर के कारण नहीं, बल्कि उनकी जनपक्षधर पत्रकारिता के कारण थी.
उनकी पत्नी रीताजी को पति के जाने का सदमा अभी लगा ही था कि ठीक अगले दिन पुत्रशोक के सदमे में अखिलेश की माताजी गुजर गयीं. इस दोहरे सदमे को आज कुल दो दिन हुए हैं, लेकिन दुख और अनिश्चय के भंवर में फंसी रीता की चिंता कुछ और है. फोन पर लंबी बातचीत में वे कहती हैं, ‘’मुझे वो इतना सिखा गए हैं कि उनके काम को मैं संभाल सकती हूं, लेकिन दिक्कत ये है कि सामाजिक न्याय पर मैं उनके जैसा नहीं लिख सकती. इसकी कमी कौन पूरी करेगा?‘’
क्या ग़म में डूबे किसी भारतीय परिवार की महिला से ऐसे सहज और विवेकपूर्ण जवाब की कोई अपेक्षा कर सकता है? वे बताती हैं कि अभी दस दिन पहले ही अखिलेश ने एक कंपनी रजिस्टर करवायी थी, पत्नी को ज्वाइंट डायरेक्टर बनाया था और हाल ही में ‘फर्क इंडिया’ को एकाध विज्ञापन मिलना भी शुरू हुआ था. रीता कहती हैं, ‘’अभी तो सब कुछ शुरू ही हुआ था. लग रहा था कि अब शायद हालत ठीक हो जाए. बताइए, इतने साल वो सामाजिक न्याय की पत्रकारिता करते रहे और कुछ नहीं बचाए, अब जब लग रहा था कि एकाध साल में सब पटरी पर आ जाएगा तो छोड़ के चले गए.‘’
बस्ती जैसे छोटे से जिले से निकला एक युवा अपना सब कुछ दांव पर लगाकर, गांव-खेत छोड़कर, परिवार का भविष्य खतरे में डालकर आखिर किस उम्मीद में सामाजिक न्याय की पत्रकारिता कर रहा था? वो कौन सी उम्मीद है जो चार अंकों की मासिक कमाई के बावजूद किसी को जनपक्षधर खबरों में झोंके रखती है? आखिर किस उम्मीद से कोई सहाफ़ी बड़े घरानों की नौकरी छोड़ कर अपना अखबार निकालता है? खुद संक्रमित होने का खतरा लिए एक खबरनवीस जब श्मशान से लेकर अस्पताल तक खबर जुटा रहा होता है, तो उसके पीछे कौन सी प्रेरणा काम करती है?
उम्मीद, जो तकलीफ़ जैसी है
ये सवाल इसलिए ज़रूरी हैं क्योंकि अव्वल तो जितने पत्रकारों की मौत महामारी और चिकित्सीय लापरवाही व अभाव में हुई है, उनमें करीब 60 फीसदी प्रिंट माध्यम यानी अखबार-पत्रिकाओं से हैं. इनमें भी हम हिंदीपट्टी की बात विशेष रूप से इसलिए कर रहे हैं क्योंकि पत्रकारों की मौत के मामले में छह प्रमुख राज्यों में तीन- उत्तर प्रदेश, दिल्ली और मध्य प्रदेश- हिंदीपट्टी के हैं. दूसरी बात, ये क्षेत्रीय और भाषायी पत्रकार ही राष्ट्रीय पत्रकारिता की रीढ़ हैं. बक्सर और गाज़ीपुर से लेकर उन्नाव और कन्नौज के गंगा तट पर पायी गयी लाशों की तस्वीर नोएडा के न्यूज़रूम में बैठे व्यक्ति ने उद्घाटित नहीं की थी, स्थानीय मीडिया ने की थी. हर चुनाव में जब दिल्ली और नोएडा के लखटकिया वेतन उठाने वाले मीडियाकर्मी जिलों में जाते हैं, तो सबसे पहले वे अपने किस ‘सोर्स’ को फोन करते हैं? यह ‘सोर्स’ वही स्थानीय पत्रकार होता है, जो थोक के भाव में आज महामारी का शिकार बन रहा है.
पत्रकारिता अगर पैसे या पावर की ‘उम्मीद’ का मामला होती, तो देश के हर जिले से पचासों अखबार और वेबसाइटें नहीं निकल रही होतीं और दिल्ली के सत्ता-प्रिय पत्रकार उच्च चिकित्सीय सहायता के बावजूद मर नहीं रहे होते. इसीलिए जब एक अखबार सरकार की आलोचना करने के लिए शीर्षक लगाता है ‘’टीके नहीं, उम्मीद लीजिए’’, तो यह पूछना ज़रूरी हो जाता है कि ऐसा लिखने वाला खुद किस उम्मीद से है, यह जानते हुए कि अगला नंबर उसका हो सकता है? अखिलेश कृष्ण मोहन सामाजिक न्याय की ‘उम्मीद’ से थे. ऐसी ही अनगिनत ‘उम्मीदें’ पत्रकारिता को दिल्ली से बाहर बचाए हुए हैं.
नज़ीर के तौर पर हिंदी के अखबारों के साथ गुजराती दिव्य भास्कर का विशेष जिक्र हमेशा आएगा जिसने एक मंत्री का मोबाइल नंबर छापने से लेकर कोविड से हो रही मौतों के आंकड़े उजागर करने के लिए गुजरात में जारी किए गए मृत्यु प्रमाण पत्रों को खंगाल मारा. बीते शुक्रवार 14 मई को छपी खबर में अखबार ने उद्घाटन किया कि 1 मार्च से 10 मई, 2021 के बीच गुजरात में 1.23 लाख डेथ सर्टिफिकेट जारी किए गए जो इसी अवधि में पिछले साल जारी किए गए सर्टिफिकेट से 65,085 ज्यादा हैं जबकि कोविड से होने वाली मौतों का सरकारी आंकड़ा इस बीच इस साल मात्र 4218 है.
अशोका युनिवर्सिटी में सेंटर फॉर इकनॉमिक डेटा एंड अनालिसिस से सम्बद्ध बिज़नेस स्टैंडर्ड के पूर्व पत्रकार अंकुर भारद्वाज लिखते हैं कि इस दौर को जब हम पीछे मुड़ कर देखेंगे, तो याद करेंगे कि कैसे हिंदी और गुजराती के पत्रकारों और अखबारों ने कोविड से हो रही मौतों की हकीकत और आंकड़ों को छुपाने की सरकारों की कोशिश को उजागर किया था. वे लिखते हैं कि इस स्टोरी से अंग्रेज़ी के अखबार और तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों ने अपनी दूरी बनाए रखी.
300 मौतों के पार टूटती उम्मीद
अकसर खबरें वे नहीं होतीं जो छप जाती हैं. जो रद्दी की टोकरी में फेंक दी जाती हैं, खबर उनमें होती है. कोरोना वायरस से उपजी महामारी में भाषायी पत्रकारिता की हकीकत ये है कि क्षेत्रीय और स्थानीय पत्रकारों की मौत को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया है. इसके साथ वे उम्मीदें भी फ़ना हो रही हैं जिनकी प्रेरणा से वे पत्रकारिता कर रहे थे. इस बात को दिल्ली में बैठे जो लोग समझते हैं, थोड़ी दिक्कत उनमें भी है. इस जमात को भी पहली बार रोहित सरदाना की मौत पर ही चीखते-चिल्लाते हुए देखा गया कि आजतक ने उसकी मौत की खबर क्यों नहीं चलायी. वही लोग बाद में चैनल पर रोहित को दी गयी एक व्यावसायिक श्रद्धांजलि की आलोचना करते पाए गए. किसी ने भी नहीं पूछा था उससे पहले कि 15 अप्रैल से 30 अप्रैल के बीच मात्र एक पखवाड़े में कोरोना का शिकार हो चुके 100 से ज्यादा पत्रकारों की खबर कहीं किसी ने क्यों नहीं चलायी. हां, उसके बाद से ऐसी खबरें दिखना शुरू हुई हैं लेकिन अब भी केवल रस्म अदायगी हो रही है, जब मौतों का आंकड़ा 300 को पार कर चुका है.
पिछले साल पहली लहर में यह स्थिति नहीं थी. 4 मई, 2020 को जब बनारस की युवा पत्रकार रिज़वाना तबस्सुम की ख़बर आयी थी तो कई हफ्ते भर उस पर अलग-अलग वेबसाइटों पर चर्चा चलती रही थी. रिज़वाना की मौत कोविड से नहीं हुई थी, फिर भी यह बड़ी खबर बनी. पत्रकारों में कोविड से पहली मौत दैनिक जागरण, आगरा के पंकज कुलश्रेष्ठ की दर्ज की गयी थी जिसे यूपी से लेकर दिल्ली तक तकरीबन सभी अखबारों और वेबसाइटों ने छापा था. इस साल पहली बरसी पर इन दो मौतों को याद तक नहीं किया गया. इस एक साल में हम कहां आ गए हैं, इसका अंदाजा केवल इस तथ्य से लगाइए कि ‘आज’ अखबार के निदेशक शाश्वत विक्रम गुप्त और बरसों इस अखबार के राजनीतिक संपादक रहे सत्यप्रकाश असीम की मौत की खबर गुमनामी में रह गयी. खबर ही नहीं, पत्रकार चंदन प्रताप सिंह की लाश भी लखनऊ में घंटों गुमनामी में पड़ी रही और उसे कोई लेने नहीं आया.
सवाल हालांकि पत्रकारों की मौत को नोटिस किये जाने से कहीं ज्यादा बड़ा है. यह सवाल मौत से पहले अस्पताल में बिस्तर, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर, प्लाज़्मा, दवा के लिए संघर्ष से शुरू होता है और मौत के बाद परिवार का खर्च चलाने तक जाता है. फिर जिंदगी के साथ ही खत्म होता है. लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार विनय श्रीवास्तव की मौत की दर्दनाक कहानी ऐसी ही है. उनकी कोविड रिपोर्ट तीन दिन बाद आनी थी लेकिन ऑक्सीजन 50 के स्तर पर पहुंच चुका था. अस्पताल कोविड रिपोर्ट के बगैर भर्ती करने को तैयार नहीं थे. उनका बेटा हर्षित सीएमओ का रेफरल लेने के लिए दफ्तर के बाहर डटा रहा और उनके ट्विटर अकाउंट से उनकी मौत के आखिरी पल तक ट्वीट कर के मदद मांगता रहा, लेकिन मदद नहीं आयी. दोपहर 3.30 बजे विनय श्रीवास्तव गुज़र गए. उन्हें देखने, सांत्वना देने, एक भी शख्स उनके घर नहीं पहुंचा.
बेबसी और मौत की यह कहानी अंग्रेज़ी की एक वेबसाइट से होते हुए विदेश तक गयी और मशहूर पत्रकार एनी गोवन ने इसे ट्वीट कर के अंग्रेज़ी में लिखा, ‘’श्मशानों को जाने वाले रास्तों पर जब लाशें बिखरी पड़ी थीं, एक पत्रकार अपनी मौत को लाइव ट्वीट कर रहा था.‘’ इस कहानी को दिल्ली में एकाध वेबसाइटों को छोड़ किसी ने नहीं उठाया.
नाउम्मीदी का सरकारी सामान
देर से ही सही, लेकिन उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली और झारखंड तक पत्रकारों को टीका लगाने के लिए विशेष प्रबंध सरकारों और यूनियनों ने किए हैं. टीका तो भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए है और जरूरी भी है, लेकिन संकट में फंसे वर्तमान के लिए किसी के पास कोई योजना नहीं है. प्रेस काउंसिल ने आज से दस दिन पहले ही केंद्र और राज्य सरकारों को अपनी सिफारिश याद दिलायी थी कि पत्रकारों का बीमा कराया जाए, उन्हें कोविड योद्धाओं की श्रेणी में डाला जाए और मौत होने पर वित्तीय मदद दी जाए. लगता है राज्य सरकारों ने अपने कान बंद कर रखे हैं.
केंद्र सरकार ने अप्रैल में कोविड का शिकार हुए पत्रकारों के लिए पांच लाख रुपये की मदद के प्रावधान की घोषणा पत्रकार कल्याण योजना में की थी. पिछले दो सप्ताह से इसकी अधिसूचना केवल व्हाट्सएप समूहों में घूम रही है लेकिन अब तक किसी को कोई मदद मिली हो ऐसी सूचना नहीं है. यही हाल पिछले साल उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा घोषित पांच लाख के बीमा का है. इस बार यूपी सरकार ने टीकाकरण में पत्रकारों को प्राथमिकता देने का प्रावधान किया है लेकिन आर्थिक मदद के लिए केंद्र की योजना का ही हवाला दे दिया है.
इसके बरक्स ओडिशा सरकार ने अपने पत्रकारों को 15 लाख की आर्थिक मदद का प्रावधान किया है. तेलंगाना मीडिया अकादमी ने कोविड से प्रभावित पत्रकारों के लिए एक करोड़ की राशि अनुदान में दी है. इसके अलावा तेलंगाना सरकार ने मारे गए पत्रकारों के परिवार को 2 लाख रुपये की मदद की घोषणा की है. कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने एक अहम प्रावधान किया है कि वह उन संक्रमित पत्रकारों को वित्तीय मदद देगी जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं. इसके अलावा कई और विदेशी संस्थान मदद के लिए आगे आए हैं. दिक्कत यह है कि इस बारे में सूचना के प्रसार का कोई औपचारिक तंत्र नहीं है.
दिल्ली और मुंबई के प्रेस क्लब अपेक्षया संसाधन-संपन्न हैं, तो वहां कुछ अग्रिम इंतज़ाम किए गए हैं ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर आदि के. प्रेस असोसिएशन, विमेन्स प्रेस कॉर्प्स भी अपने-अपने तरीके से सक्रिय हैं. इसके बावजूद वैश्विक आपदा के मौके पर भारत के पत्रकारों की जान को बचाने के लिए कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं है. न संस्थान मदद करते हैं, न प्रशासन. निजी संपर्कों के माध्यम से किसी की मदद हो जाय यही बहुत है लेकिन जब तक मदद आती है तब तक जीने की गुंजाइश नहीं बचती. मेरठ के पत्रकार अरविंद शुक्ला सहित तमाम ऐसे केस हैं जहां मौत को समय रहते टाला जा सकता था.
इस अंधेरे वक्त में पत्रकारिता की लौ को भरसक जगाए रखने के लिए पत्रकार खुद मोम की तरह पिघल रहे हैं. किसी को किसी ने पत्रकारिता करने को नहीं कहा है. किसी ने इसका टेंडर नहीं भरा है. बस एक धुंधली सी उम्मीद है, एक प्रेरणा, जो अलग-अलग शक्ल में सबके पास अलग-अलग जगहों और विचारों से आती है. इसलिए हमें समझना होगा कि अखबार अकेले पूंजी, मशीन या मालिक से नहीं चल सकते. अखबार के मूल में उसका पत्रकार है. पत्रकार में उम्मीद बचेगी, तो ही पत्रकार बचेगा और अखबार भी बचेगा. अखबार बचा, तो ही वो पढ़ने वालों को उम्मीद बंधा पाएगा. अखबार बचा, तो सही वक्त आने पर उसके लिए तोप भी मुकाबिल होगी.
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