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फिल्म लॉन्ड्री: भारतीय फिल्मों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व

फिल्मों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के लिए स्वीकृत मानक बेकडेल के अनुसार किसी भी फिल्म में कम से कम दो महिला चरित्र हों. वे आपस में बात करें और उनकी बात किसी पुरुष के बारे में न होकर किसी और विषय पर हो. उन महिला किरदारों के नाम भी हों.

अगर हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों को इस मानक से परखें तो सभी भाषाओँ की अधिकांश फिल्मों में हम पाएंगे कि महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है. हम सभी जानते हैं कि सभी भारतीय भाषाओं की फिल्म इंडस्ट्री मुख्य रूप से पुरुष प्रधान है. यही कारण है कि फिल्मों की कहानियों से लेकर निर्माण के सभी विभागों में महिलाओं की संख्या नगण्य रही है. अगर पुरुष-महिला अनुपात पर गौर करें तो 21वीं सदी के तीसरे दशक में भी स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है. हां, फिल्मों के निर्माण में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन आम धारणा के विपरीत अभी समानता के लिए महिलाओं को लंबी यात्रा तय करनी है.

पिछले दिनों ओर्मेक्स मीडिया और फिल्म कम्पैनियन ने ‘ओ वुमनिया 2021’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट को पढ़ने-समझने की जरूरत है. यह रिपोर्ट भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं की वर्तमान स्थिति का आकलन करती है. रिपोर्ट के लिए 2019-2020 में प्रदर्शित 129 फिल्मों का बारीक अध्ययन किया गया. इनमें हिंदी की 56, तमिल की 24, तेलुगू की 23, मलयालम की 16 और कन्नड़ की 10 फिल्में थीं. 129 फिल्मों में 100 फिल्में थिएटर में और 29 फिल्में ओटीटी पर प्रदर्शित हुई थीं. बेकडेल टेस्ट में 129 फिल्मों में से 59% फिल्में अनुत्तीर्ण रहीं. सिर्फ 41% फिल्मों में ही महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व मिला.

ओटीटी से प्रसारित फिल्मों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व थिएटर में प्रदर्शित हुई फिल्मों से अपेक्षाकृत बेहतर रहा. फिल्मों के ट्रेलर के अध्ययन से पता चला कि वहां भी पुरुषों को महिलाओं की तुलना में चार गुना ज्यादा संवाद मिलते हैं. पाया गया कि ट्रेलर में महिलाओं को केवल 19% संवाद मिलते हैं, जबकि पुरुषों को 81% संवाद दिए जाते हैं. सभी भाषाओं को मिलाकर केवल 10 फिल्में ऐसी थीं, जिनमें महिलाओं के संवादों का प्रतिशत ज्यादा था. इनमें हिंदी की ‘थप्पड़’, ‘छपाक’, ‘जजमेंटल है क्या’, ‘मणिकर्णिका’, ‘गिल्टी’, ‘मर्दानी’ और ‘शकुंतला देवी’ थी. गौरतलब है कि इन सभी फिल्मों को महिला प्रधान फिल्मों की श्रेणी में रखा जाता है.

हिंदी फिल्मों के अनेक कलाकार और निर्देशक यह बताते मिल जाते हैं कि पिछले दशकों की तुलना में अब किसी भी फिल्म के सेट पर महिलाओं की मौजूदगी ज्यादा रहती है. निश्चित ही फिल्म निर्माण के सभी विभागों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है, लेकिन अब भी यह सम्मानजनक अनुपात में नहीं पहुंचा है. ताप्सी पन्नू ने अपनी पिछली दो फिल्मों का उदाहरण देते हुए बताया है कि ‘रश्मि रॉकेट’ में सेट पर महिलाओं की तादाद 50% के लगभग थी. वह खुशी थीं कि तब्दीली आ रही है. निर्मंधीन दूसरी फिल्म ‘लूप लपेटा’ में उन्होंने पाया कि वहां महिलाओं की संख्या 10% से अधिक नहीं है. उन्होंने अपने अनुभव से कहा कि अनुराग कश्यप की फिल्मों के सेट पर अधिक महिलाएं रहती हैं.

इस अध्ययन में फिल्म निर्माण के पांच प्रमुख विभागों में पुरुष-महिला की भागीदारी का विश्लेषण किया गया तो यह निष्कर्ष निकला है कि यह अनुपात 52% पुरुष और 8% महिलाओं का है. निर्देशन, लेखन, छायांकन, संपादन और प्रोडक्शन डिजाइन के 5 विभागों में प्रोडक्शन डिजाइन में महिलाओं का प्रतिशत सबसे ज्यादा 15% रहा. लेखन में 10%, संपादन में 7%, निर्देशन में 6% और छायांकन में केवल 2%... छायांकन में तो केवल एक ही महिला कैमरामैन केइको नाकाहरा निकलीं, जिनकी ‘टोटल धमाल’, ‘शकुंतला देवी’ और ‘तान्हाजी’ तीन फिल्में आई थीं. केइको जापानी मूल की कैमरामैन हैं. इन दिनों भारत में सक्रिय हैं. लैंगिक समानता के मामले में दक्षिण भारतीय फिल्मों के प्रमुख विभागों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 1% है, जबकि हिंदी फिल्मों में कुछ बेहतर होकर भी केवल 16% है.

दरअसल, दशकों से चली आ रही परंपरा और पुरुष प्रधानता की वजह से सभी विभागों पर पुरुषों का ही दबदबा रहा है. सभी विभागों में सहायक के तौर पर महिलाओं का प्रतिशत पहले की तुलना में अवश्य बढ़ा है, लेकिन उन्हें विभाग संभालने की स्वतंत्र जिम्मेदारी सौंपने में निर्माता और निर्देशक हिचकते हैं. सबसे पहले उन्हें भरोसा नहीं रहता कि महिलाएं नेतृत्व कर सकती हैं. शंका रहती है कि उनके पुरुष सहायक उनका कहा मानेंगे कि नहीं? व्यवहारिक स्तर पर देखा गया है कि महिला अधिकारी के आदेश और निर्देश मानने में पुरुष मातहत बहुत हद तक अड़ियल रुख अख्तियार करते हैं, जबकि महिला सहायकों को पुरुषों का आदेश-निर्देश मानने में कोई दिक्कत नहीं होती.

भारतीय समाज की संरचना ऐसी रही है कि कामकाज में फैसले के अधिकार पुरुषों ने अपने पास रखे हैं. उनका वही रवैया फिल्म इंडस्ट्री में भी नजर आता है. फराह खान, जोया अख्तर और मेघना गुलजार जैसी कुछ महिला निर्देशकों को छोड़ दें तो निर्माता-निर्देशक युवा महिला निर्देशकों पर यकीन नहीं करते कि वे सही समय पर सभी जरूरतों का ख्याल रखते हुए फिल्में पूरी कर लेंगी. इन तीन महिला निर्देशकों के निर्माताओं पर गौर करें तो पाएंगे कि शाह रुख खान, फरहान अख्तर और करण जौहर आदि उनके करीबी समर्थक और पुराने सहयोगी रहे हैं. निर्देशन के क्षेत्र में अभी महिलाओं को चुनौतियों भरा कठिन सफर तय करना है.

पिछले कुछ सालों में अभिनेत्रियों के पारिश्रमिक का मसला उड़ता रहा है. अनेक अभिनेत्रियों ने इस मुद्दे को उठाया है और कुछ ने अपने पारिश्रमिक बढ़वाने में सफलता हासिल की है. ‘ओ वुमनिया’ सर्वेक्षण में फिल्मकार अंजलि मेनन ने सही कहा है कि फिल्म निर्माण और निर्देशन का एक पैटर्न बन चुका है महिला निर्देशकों में निर्माता और निवेशक धन नहीं लगाना चाहते. अभिनेत्रियों के पारिश्रमिक बढ़ाने पर भी यह पूर्वाग्रह उभर कर आता है. फिल्मों की कामयाबी के बाद अभिनेता पारिश्रमिक बढ़ाए तो इसे उसकी सफलता से जोड़ा जाता है. वही कोई अभिनेत्री अपना पारिश्रमिक बढ़ाए तो कहा जाता है कि वह महत्वाकांक्षी हो गई है. उसके साथ काम करना मुश्किल है, क्योंकि वह अधिक पारिश्रमिक की मांग करती हैं. स्थिति यह है कि अगर अभिनेत्री टॉप 3 में हो तो भी उसे टॉप 20 के अभिनेताओं से कम पारिश्रमिक मिलता है. तापसी पन्नू तो स्पष्ट कहती हैं कि इन दिनों लोकप्रिय अभिनेताओं को मिल रहे पारिश्रमिक के बराबर रकम में तो अभिनेत्रियों की मुख्य भूमिका की फिल्में बन जाती हैं.

ओर्मेक्स मीडिया और फिल्म कम्पैनियन के इस सर्वेक्षण और अध्ययन से कई धारणाएं टूटती हैं. फिल्मों में महिलाओं की वस्तुस्थिति और प्रतिनिधित्व का सही आंकड़ा सामने आता है. हजारों करोड़ की फिल्म इंडस्ट्री में फिलहाल महिलाओं की स्थिति चिंतनीय और विचारणीय है. उन्हें बराबर तो दूर उल्लेखनीय परतिनिधित्व भी नहीं मिलता.

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फिल्मों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के लिए स्वीकृत मानक बेकडेल के अनुसार किसी भी फिल्म में कम से कम दो महिला चरित्र हों. वे आपस में बात करें और उनकी बात किसी पुरुष के बारे में न होकर किसी और विषय पर हो. उन महिला किरदारों के नाम भी हों.

अगर हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों को इस मानक से परखें तो सभी भाषाओँ की अधिकांश फिल्मों में हम पाएंगे कि महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है. हम सभी जानते हैं कि सभी भारतीय भाषाओं की फिल्म इंडस्ट्री मुख्य रूप से पुरुष प्रधान है. यही कारण है कि फिल्मों की कहानियों से लेकर निर्माण के सभी विभागों में महिलाओं की संख्या नगण्य रही है. अगर पुरुष-महिला अनुपात पर गौर करें तो 21वीं सदी के तीसरे दशक में भी स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है. हां, फिल्मों के निर्माण में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन आम धारणा के विपरीत अभी समानता के लिए महिलाओं को लंबी यात्रा तय करनी है.

पिछले दिनों ओर्मेक्स मीडिया और फिल्म कम्पैनियन ने ‘ओ वुमनिया 2021’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट को पढ़ने-समझने की जरूरत है. यह रिपोर्ट भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं की वर्तमान स्थिति का आकलन करती है. रिपोर्ट के लिए 2019-2020 में प्रदर्शित 129 फिल्मों का बारीक अध्ययन किया गया. इनमें हिंदी की 56, तमिल की 24, तेलुगू की 23, मलयालम की 16 और कन्नड़ की 10 फिल्में थीं. 129 फिल्मों में 100 फिल्में थिएटर में और 29 फिल्में ओटीटी पर प्रदर्शित हुई थीं. बेकडेल टेस्ट में 129 फिल्मों में से 59% फिल्में अनुत्तीर्ण रहीं. सिर्फ 41% फिल्मों में ही महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व मिला.

ओटीटी से प्रसारित फिल्मों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व थिएटर में प्रदर्शित हुई फिल्मों से अपेक्षाकृत बेहतर रहा. फिल्मों के ट्रेलर के अध्ययन से पता चला कि वहां भी पुरुषों को महिलाओं की तुलना में चार गुना ज्यादा संवाद मिलते हैं. पाया गया कि ट्रेलर में महिलाओं को केवल 19% संवाद मिलते हैं, जबकि पुरुषों को 81% संवाद दिए जाते हैं. सभी भाषाओं को मिलाकर केवल 10 फिल्में ऐसी थीं, जिनमें महिलाओं के संवादों का प्रतिशत ज्यादा था. इनमें हिंदी की ‘थप्पड़’, ‘छपाक’, ‘जजमेंटल है क्या’, ‘मणिकर्णिका’, ‘गिल्टी’, ‘मर्दानी’ और ‘शकुंतला देवी’ थी. गौरतलब है कि इन सभी फिल्मों को महिला प्रधान फिल्मों की श्रेणी में रखा जाता है.

हिंदी फिल्मों के अनेक कलाकार और निर्देशक यह बताते मिल जाते हैं कि पिछले दशकों की तुलना में अब किसी भी फिल्म के सेट पर महिलाओं की मौजूदगी ज्यादा रहती है. निश्चित ही फिल्म निर्माण के सभी विभागों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है, लेकिन अब भी यह सम्मानजनक अनुपात में नहीं पहुंचा है. ताप्सी पन्नू ने अपनी पिछली दो फिल्मों का उदाहरण देते हुए बताया है कि ‘रश्मि रॉकेट’ में सेट पर महिलाओं की तादाद 50% के लगभग थी. वह खुशी थीं कि तब्दीली आ रही है. निर्मंधीन दूसरी फिल्म ‘लूप लपेटा’ में उन्होंने पाया कि वहां महिलाओं की संख्या 10% से अधिक नहीं है. उन्होंने अपने अनुभव से कहा कि अनुराग कश्यप की फिल्मों के सेट पर अधिक महिलाएं रहती हैं.

इस अध्ययन में फिल्म निर्माण के पांच प्रमुख विभागों में पुरुष-महिला की भागीदारी का विश्लेषण किया गया तो यह निष्कर्ष निकला है कि यह अनुपात 52% पुरुष और 8% महिलाओं का है. निर्देशन, लेखन, छायांकन, संपादन और प्रोडक्शन डिजाइन के 5 विभागों में प्रोडक्शन डिजाइन में महिलाओं का प्रतिशत सबसे ज्यादा 15% रहा. लेखन में 10%, संपादन में 7%, निर्देशन में 6% और छायांकन में केवल 2%... छायांकन में तो केवल एक ही महिला कैमरामैन केइको नाकाहरा निकलीं, जिनकी ‘टोटल धमाल’, ‘शकुंतला देवी’ और ‘तान्हाजी’ तीन फिल्में आई थीं. केइको जापानी मूल की कैमरामैन हैं. इन दिनों भारत में सक्रिय हैं. लैंगिक समानता के मामले में दक्षिण भारतीय फिल्मों के प्रमुख विभागों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 1% है, जबकि हिंदी फिल्मों में कुछ बेहतर होकर भी केवल 16% है.

दरअसल, दशकों से चली आ रही परंपरा और पुरुष प्रधानता की वजह से सभी विभागों पर पुरुषों का ही दबदबा रहा है. सभी विभागों में सहायक के तौर पर महिलाओं का प्रतिशत पहले की तुलना में अवश्य बढ़ा है, लेकिन उन्हें विभाग संभालने की स्वतंत्र जिम्मेदारी सौंपने में निर्माता और निर्देशक हिचकते हैं. सबसे पहले उन्हें भरोसा नहीं रहता कि महिलाएं नेतृत्व कर सकती हैं. शंका रहती है कि उनके पुरुष सहायक उनका कहा मानेंगे कि नहीं? व्यवहारिक स्तर पर देखा गया है कि महिला अधिकारी के आदेश और निर्देश मानने में पुरुष मातहत बहुत हद तक अड़ियल रुख अख्तियार करते हैं, जबकि महिला सहायकों को पुरुषों का आदेश-निर्देश मानने में कोई दिक्कत नहीं होती.

भारतीय समाज की संरचना ऐसी रही है कि कामकाज में फैसले के अधिकार पुरुषों ने अपने पास रखे हैं. उनका वही रवैया फिल्म इंडस्ट्री में भी नजर आता है. फराह खान, जोया अख्तर और मेघना गुलजार जैसी कुछ महिला निर्देशकों को छोड़ दें तो निर्माता-निर्देशक युवा महिला निर्देशकों पर यकीन नहीं करते कि वे सही समय पर सभी जरूरतों का ख्याल रखते हुए फिल्में पूरी कर लेंगी. इन तीन महिला निर्देशकों के निर्माताओं पर गौर करें तो पाएंगे कि शाह रुख खान, फरहान अख्तर और करण जौहर आदि उनके करीबी समर्थक और पुराने सहयोगी रहे हैं. निर्देशन के क्षेत्र में अभी महिलाओं को चुनौतियों भरा कठिन सफर तय करना है.

पिछले कुछ सालों में अभिनेत्रियों के पारिश्रमिक का मसला उड़ता रहा है. अनेक अभिनेत्रियों ने इस मुद्दे को उठाया है और कुछ ने अपने पारिश्रमिक बढ़वाने में सफलता हासिल की है. ‘ओ वुमनिया’ सर्वेक्षण में फिल्मकार अंजलि मेनन ने सही कहा है कि फिल्म निर्माण और निर्देशन का एक पैटर्न बन चुका है महिला निर्देशकों में निर्माता और निवेशक धन नहीं लगाना चाहते. अभिनेत्रियों के पारिश्रमिक बढ़ाने पर भी यह पूर्वाग्रह उभर कर आता है. फिल्मों की कामयाबी के बाद अभिनेता पारिश्रमिक बढ़ाए तो इसे उसकी सफलता से जोड़ा जाता है. वही कोई अभिनेत्री अपना पारिश्रमिक बढ़ाए तो कहा जाता है कि वह महत्वाकांक्षी हो गई है. उसके साथ काम करना मुश्किल है, क्योंकि वह अधिक पारिश्रमिक की मांग करती हैं. स्थिति यह है कि अगर अभिनेत्री टॉप 3 में हो तो भी उसे टॉप 20 के अभिनेताओं से कम पारिश्रमिक मिलता है. तापसी पन्नू तो स्पष्ट कहती हैं कि इन दिनों लोकप्रिय अभिनेताओं को मिल रहे पारिश्रमिक के बराबर रकम में तो अभिनेत्रियों की मुख्य भूमिका की फिल्में बन जाती हैं.

ओर्मेक्स मीडिया और फिल्म कम्पैनियन के इस सर्वेक्षण और अध्ययन से कई धारणाएं टूटती हैं. फिल्मों में महिलाओं की वस्तुस्थिति और प्रतिनिधित्व का सही आंकड़ा सामने आता है. हजारों करोड़ की फिल्म इंडस्ट्री में फिलहाल महिलाओं की स्थिति चिंतनीय और विचारणीय है. उन्हें बराबर तो दूर उल्लेखनीय परतिनिधित्व भी नहीं मिलता.

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