अवधेश कुमार की तस्वीर.
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रिपोर्टर डायरी: ‘साइबर गुलामी’ और ‘हाफ एनकाउंटर’ की गुत्थी सुलझाने में गुजरा साल 

एक और नया साल आने वाला है. आमतौर पर इस वक्त हम पीछे मुड़कर देखते हैं क्या पाया, क्या खोया, और आगे क्या करना है. लेकिन बीता साल मेरे लिए उन लोगों की कहानियों से भरा रहा, जिनके लिए वक्त जश्न नहीं, बल्कि किसी तरह गुजर जाने का नाम था. इन कहानियों में चाहे म्यांमार की ‘साइबर गुलामी’ में फंसे युवा हों या उत्तर प्रदेश में पुलिस के डर में जीते परिवार. ऐसी ही बातें बीते साल की ही तरह नए साल में भी हमारे सामने खड़ी रहेंगी. एक रिपोर्टर के तौर पर बीता साल इन्हीं कहानियों के पीछे भागते हुए गुज़रा. इन किस्सों ने साल भर साथ नहीं छोड़ा. 

देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मानव तस्करी आज एक गंभीर संकट बन चुकी है. इस तस्करी का एक बड़ा अड्डा म्यांमार है. जहां युवाओं को नौकरी के बहाने बुलाकर बंधक बना लिया जाता है. यहां एक ऐसा संगठित नेटवर्क है, जिसमें टिकट से लेकर पूरी यात्रा तक का इंतजाम सीमा पार बैठे ठग ही करते हैं.

एक बार म्यांमार पहुंचने के बाद इन युवाओं को साइबर स्कैम सेंटर्स में बंधक बना लिया जाता है. न बाहर जाने की इजाजत, न मोबाइल फोन, न किसी तरह की आजादी. दिन-रात साइबर ठगी करवाई जाती है. यातनाएं इतनी भयावह होती हैं कि उन्हें सुनकर रूह कांप जाए. इस जाल से निकलने के लिए कुछ युवाओं ने मोटी रकम देकर अपनी जान बचाई, जबकि कई परिवारों की जमीन और घर तक बिक गए.

न्यूज़लॉन्ड्री ने इस पूरे नेटवर्क पर 42 मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री की है. लेकिन दर्शकों तक पहुंचने वाली यह कहानी, उस लंबी और कठिन रिपोर्टिंग प्रक्रिया का सिर्फ निचोड़ है. किसी भी ऐसी स्टोरी के पीछे महीनों की मेहनत, यात्राएं, जोखिम और अनगिनत पड़ाव होते हैं, जो अपने आप में एक अलग कहानी हैं.

इस स्टोरी की शुरुआत उत्तर प्रदेश के प्रयागराज निवासी जेया पंजतन और बाराबंकी के मोहम्मद आरिफ से हुई. दोनों को म्यांमार में बंधक बनाकर साइबर स्कैम करवाया जा रहा था. उन्हें छोड़ने के बदले परिजनों से फोन पर 20 से 25 लाख रुपये की फिरौती मांगी जा रही थी. काफी मशक्कत और भारी खर्च के बाद दोनों को रिहा तो करवा लिया गया, लेकिन यहीं से यह साफ हो गया कि यह मामला सिर्फ दो युवाओं तक सीमित नहीं है. इसका जाल कहीं ज्यादा बड़ा है, और इसकी तह तक जाना जरूरी है.

ऐसी स्टोरी करते समय सबसे बड़ी चुनौती पीड़ितों तक पहुंचना और उन्हें कैमरे के सामने लाना होती है. म्यांमार डॉक्यूमेंट्री के दौरान दर्जनों पीड़ितों ने हमसे मिलने से इनकार कर दिया. एक समय ऐसा भी आया जब लगा कि यह कैसी दुनिया है, जहां लोग अपना दर्द तक बताने से डरते हैं. लेकिन सामाजिक हालात को समझने के बाद उनके डर वाजिब लगे. जैसे समाज में बदनामी का डर, भविष्य में होने वाली परेशानियों और कुछ को शादी न होने का डर.  

काफी कोशिशों के बाद हम कुछ युवाओं को कैमरे पर लाने में कामयाब रहे. हालांकि, उनमें से कई ने अपना चेहरा, नाम और पहचान उजागर करने से इनकार किया. हमारा मकसद किसी एक व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि उस पूरे सिस्टम को समझना था जिसमें लाखों युवाओं ने अपनी जान दांव पर लगा दी.

इन पीड़ितों को बाहर निकालने के नाम पर एक शंकर नाम के शख्स का जिक्र बार-बार सामने आता रहा. पीड़ितों की मानें तो शंकर एक ‘ब्रोकर’ है, जो म्यांमार में फंसे लोगों को निकालने के बदले परिवारों से मोटी रकम लेता है. कुल मिलाकर जो लोग वापस लौटे, उनमें से ज्यादातर ने अपनी रिहाई खरीदी. किसी ने बिचौलियों को, तो किसी ने भारतीय दूतावास के आसपास सक्रिय लोगों को भारी भरकम रकम चुकाई.

जब ये लोग भारत लौटते हैं, तो सरकार इसे रेस्क्यू ऑपरेशन बताकर प्रचारित करती है. लेकिन जारी की गई लगभग हर तस्वीर में शंकर नाम का वही शख्स मौजूद होता है. पीड़ितों के मुताबिक, शंकर का दावा था कि उसे भारत सरकार ने यह काम सौंपा है. हमारा अगला लक्ष्य शंकर तक पहुंचना था. अलग-अलग लोगों से बात करने पर उसके 7–8 मोबाइल नंबर मिले, लेकिन जांच में पता चला कि वह हर 15–20 दिन में अपना नंबर बदल लेता है. हमने कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन सभी नंबर बंद मिले.

शंकर की भूमिका समझने के लिए हमने थाईलैंड और म्यांमार स्थित भारतीय दूतावास और विदेश मंत्रालय से सवाल पूछे. जवाब सिर्फ म्यांमार स्थित भारतीय दूतावास से मिला, जिसमें साफ कहा गया कि म्यांमार या भारतीय अधिकारियों द्वारा किसी भी बिचौलिए को नियुक्त नहीं किया गया है. इसके बाद यह सवाल और गहरा हो गया कि रेस्क्यू की आड़ में पीड़ितों से उगाही करने वाला यह शख्स आखिर है कौन? क्या वह यह सब अपने दम पर कर रहा है, या फिर इस पूरे खेल में दूतावास से जुड़े कुछ लोग भी शामिल हैं? पीड़ितों से वसूले जा रहे लाखों रुपयों के पीछे असली ताकत कौन है?  

अब लौटते हैं उत्तर प्रदेश पुलिस के तथाकथित ‘हाफ एनकाउंटर’ पर, जिसे ऑपरेशन ‘लंगड़ा’ भी कहा जाता है. इन एनकाउंटर की कहानियां लगभग एक जैसी होती हैं. कई मामलों में पुलिस कथित अपराधियों को पहले से हिरासत में लेती है, फिर कुछ दिनों तक कस्टडी में रखने के दौरान तमाम प्रपंच रचे जाते हैं, और उसके बाद एक दिन अचानक मुठभेड़ दिखाकर उनके पैर में गोली मार दी जाती है.

इन मामलों की पड़ताल के लिए हमने उत्तर प्रदेश के कई शहरों कानपुर, मथुरा, अलीगढ़ और गौतम बुद्ध नगर का दौरा किया. हर जगह कहानी अलग दिखती थी, लेकिन निचोड़ एक ही था. हमने इन मामलों को स्थापित करने के लिए सीसीटीवी फुटेज, एफआईआर, मुठभेड़ की जगह, समय और पुलिस की कहानियों की गहराई से जांच की.

इनमें से ज्यादातर पीड़ितों की आर्थिक स्थिति कमजोर है. उनके लिए अदालतों के चक्कर लगाना, पुलिस से लड़ना आसान नहीं है. जो परिवार हिम्मत भी करता है, उसे दोबारा किसी केस में फंसा देने की धमकी का डर हमेशा बना रहता है.

एक रिपोर्टर के तौर पर ऐसे लोगों तक पहुंचना आसान होता है लेकिन उनसे उनके साथ क्या हुआ यह बेहद मुश्किल काम है. इसके लिए या तो वह अपनी किसी करीबी या फिर स्थानीय पत्रकार को लूप में रखते हैं. और यह आश्वासन दिया जाता है कि आपको साथ कुछ गलत नहीं होगा. पुलिस भी परेशन नहीं करेगी. करेगी तो हम आपके साथ हैं. ऐसे में स्थानीय पत्रकार भी यह सब कराने के लिए कुछ रुपयों की डिमांड करते हैं कि हमें इतना चाहिए आपकी स्टोरी करवा देंगे. यह किसी एक स्टोरी की बात नहीं है, ग्राउंड पर अक्सर स्थानीय पत्रकारों का रवैया इसी तरह से देखने को मिलता है.

खैर, मथुरा में एक ‘हाफ एनकाउंटर’ की पड़ताल के दौरान मैं करीब तीन दिन वहां रुका. स्टोरी प्रकाशित होने के बाद मुझे कई अनजान नंबरों से कॉल आने लगे. कॉल करने वाले खुद को स्थानीय पत्रकार बता रहे थे. सबके सवाल लगभग एक जैसे थे. आपने मथुरा में किसकी मदद से काम किया? कहां ठहरे थे? किसके संपर्क में थे? अगली बार आना तो बताइएगा, आपने अच्छी स्टोरी की है. 

शुरुआत में मुझे यह सामान्य लगा, लेकिन बाद में शक गहराया. फिर उसी व्यक्ति का फोन आया जिसकी मदद से मैं वहां रिपोर्टिंग कर रहा था. उसने साफ कहा कि आप किसी को मत बताइएगा कि मथुरा में आपकी मदद किसने की. पुलिस यहां पत्रकारों से पूछ रही है कि दिल्ली से आए इस रिपोर्टर की मदद किसने की.

मुझे यह भी बताया गया कि जिस होटल में मैं ठहरा था, वहां पुलिस गई थी और पूछताछ की थी कि कौन-कौन मुझसे मिलने आता था. दरअसल, हमारी स्टोरी में मथुरा के हेमंत की कहानी थी, जिसे पुलिस ने कुछ दिन पहले उठाया था और कई दिन हिरासत में रखने के बाद रात के समय एक मुठभेड़ में उसके पैर में गोली मार दी गई थी.

हेमंत को डिटेन किए जाने की पूरी घटना सीसीटीवी में कैद थी. जिस जगह मुठभेड़ दिखाई गई, वहां से भी स्थानीय लोगों ने हमें कई अहम सबूत दिए, कि कैसे इस ‘हाफ एनकाउंटर’ को अंजाम दिया गया. उन्होंने बताया कि यह कोई पहला एनकाउंटर नहीं था. पुलिस पहले दो-तीन दिन तक इलाके की रेकी करती है, और फिर ‘हाफ एनकाउंटर’ को अंजाम देती है.

कानपुर और ग्रेटर नोएडा की कहानियां भी कुछ ऐसी ही हैं. कुल मिलाकर ये रिपोर्टें उत्तर प्रदेश पुलिस की ‘हाफ एनकाउंटर’ की कार्रवाइयों पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं.

एक रिपोर्टर के तौर पर ऐसी कहानियां करना सिर्फ स्टोरी लिखना नहीं होता. यह निगरानी, डर, दबाव और जोखिम के बीच सच तक पहुंचने की एक लंबी लड़ाई होती है. पाठकों तक पहुंचने वाली हर स्टोरी के पीछे, कई अनकही कहानियां छुपी होती हैं और यही एक रिपोर्टर की असली डायरी होती है.

नया साल दरवाजे पर है. सभी को नए साल की शुभकामनाएं. शायद कैलेंडर बदल जाए, लेकिन बहुत-सी कहानियों में वक़्त आज भी ठहरा हुआ है. ज़ुल्म, डर और चुप्पी के बीच फंसे लोगों के लिए बदलाव सिर्फ तारीख़ों से नहीं आता. एक रिपोर्टर के तौर पर उम्मीद बस इतनी है कि आने वाला साल सवाल पूछने की ताकत छीने नहीं, बल्कि उसे और ज़रूरी बना दे. और जब तक उन कहानियों को इंसाफ नहीं मिलता, तब तक उन्हें दर्ज करने और सवाल उठाने का काम नए साल में भी जारी रहे. आपका प्यार ही हमारी हिम्मत है.

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