Khabar Baazi
राजनीति में पारदर्शिता के अडिग पैरोकार प्रोफेसर जगदीप एस छोकर का निधन
शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता और एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (एडीआर) के संस्थापक सदस्यों में से शामिल जगदीप एस. छोकर का गुरुवार सुबह दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. वे 80 वर्ष के थे. भारतीय राजनीति में पारदर्शिता और जवाबदेही के अडिग पैरोकार रहे छोकर ने दो दशकों से अधिक समय तक ऐसे सुधारों के लिए संघर्ष किया, जिन्होंने देश की चुनावी व्यवस्था को नई दिशा दी. वे उन ऐतिहासिक सुप्रीम कोर्ट फैसलों के अहम कानूनी रणनीतिकार बने, जिनके तहत राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों की आपराधिक, आर्थिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि उजागर करना अनिवार्य हुआ. ऐसा कदम जिसने चुनावी जवाबदेही को बदलकर रख दिया.
उनके निधन से भारत के नागरिक समाज और शैक्षणिक जगत में गहरी शोक लहर दौड़ गई है. शोक व्यक्त करने वालों में राजद सांसद मनोज कुमार झा, वकील संजय हेगड़े, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा और पत्रकार मनीष चिब्बर सहित कई नाम शामिल रहे.
झा ने कहा कि छोकर ने ‘राष्ट्र को अपनी चुनावी प्रथाओं के आईने में झांकने और लोकतांत्रिक ढांचे की सतह के नीचे छिपी दरारों का सामना करने पर मजबूर किया.” हेगड़े ने लिखा, “आराम कीजिए सर, आपने भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं की रक्षा के लिए साहसिक संघर्ष किया और उन्हें सही राह पर बनाए रखा.”
लवासा ने उनके निधन को दुखद बताते हुए कहा कि एडीआर ने “चुनावी लोकतंत्र के उच्च मानदंडों को बनाए रखने में अमूल्य सेवा दी है. छोकर जैसे लोग और एडीआर जैसी संस्थाएं सत्ता से सवाल पूछने के लिए अनिवार्य हैं- और यह किसी भी लोकतंत्र के लिए स्वस्थ संकेत है.” चिब्बर ने कहा कि राष्ट्र “आपके बिना और गरीब हो जाएगा.”
राजनीतिक चंदे की अपारदर्शी दुनिया, खासकर विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को उजागर करने में छोकर की कोशिशें बेहद अहम रहीं. उन्होंने इसे सार्वजनिक रूप से आलोचना करते हुए कहा था कि यह गुमनाम चंदे की इजाज़त देकर लोकतांत्रिक पारदर्शिता के लिए खतरा है. उन्होंने 1999 में एडीआर की सह-स्थापना की. एक ऐसी अग्रणी संस्था जो भारत में चुनावी और राजनीतिक पारदर्शिता के लिए समर्पित रही.
2002-2003 में छोकर ने उन ऐतिहासिक सुप्रीम कोर्ट फैसलों में अहम भूमिका निभाई, जिनमें सभी चुनावी उम्मीदवारों को चुनाव आयोग के समक्ष शपथपत्र के जरिए अपनी आपराधिक, आर्थिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि उजागर करना अनिवार्य कर दिया गया. उन्होंने राजनीतिक चंदे की अपारदर्शी व्यवस्था के खिलाफ एडीआर की कानूनी लड़ाई का नेतृत्व किया, जिसका चरम 2024 में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले में देखने को मिला, जिसने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक ठहराया.
न्यूज़लॉन्ड्री के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड्स की खामियों पर लिखे एक लेख में छोकर ने कहा था कि कंपनियों को राजनीतिक दलों को चंदा देने की अनुमति देने का खतरा 1975 से ही बताया गया है, जब बॉम्बे हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला ने टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी के राजनीतिक योगदान से जुड़े एक मामले में टिप्पणी की थी, “यह एक ऐसा ख़तरा है जो तेज़ी से बढ़ सकता है और अंततः देश में लोकतंत्र को दबा और कुचल सकता है.”
एक अन्य लेख में उन्होंने सवाल उठाया कि जब भारत के मुख्य न्यायाधीश तक सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे में आते हैं, तो राजनीतिक दलों को इसके दायरे में क्यों नहीं लाया जाना चाहिए?
उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों पर ‘नन ऑफ द एबव’ (नोटा) विकल्प की मांग की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में मंजूरी दी. इसने मतदाताओं को सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने का अधिकार दिया.
Also Read
-
In India, Christmas is marked by reports of Sangh-linked organisations attacking Christians
-
Is India’s environment minister lying about the new definition of the Aravallis?
-
लैंडफिल से रिसता ज़हरीला कचरा, तबाह होता अरावली का जंगल और सरकार की खामोशी
-
A toxic landfill is growing in the Aravallis. Rs 100 crore fine changed nothing
-
Efficiency vs ethics: The AI dilemmas facing Indian media