Report

मणिपुर हिंसा: घर छूटा, पढ़ाई रुकी; शिविरों में कट रही हजारों बच्चों की जिंदगी

चूड़ाचांदपुर के तुइबुओंग में ग्रेस एकेडमी रिलीफ कैंप में कई कुकी बच्चे विस्थापित होकर आए हैं. ये बच्चे रविवार की सामूहिक प्रार्थना में भाग लेने के लिए बाइबिल की प्रतियों के साथ कतार में खड़े हैं. 

कभी तुईबोंग के मैती और कुकी बच्चों का यह स्कूल अब विस्थापित कुकी परिवारों के रिलीफ कैंप में बदल गया है. इस रिलीफ कैंप में कांगपोकपी से विस्थापित हुए 124 परिवारों को आसरा मिला हुआ है. इस अस्थायी कैंप में 18 साल से 70 साल के लोग रहने को मजबूर हैं.  

तेरह साल का गिनमिनथांग अपने नए दोस्तों से दूर एक कोने में बैठा है. न्यूजलॉन्ड्री को उनकी मां नेम खो चोंग ने बताया कि कभी खुशमिजाज रहने वाले इस बच्चे ने जब से अपने दादी के शव की तस्वीर देखी है, तब से उसके व्यवहार में बदलाव आ गया है. नेम खो चोंग कहती हैं, ''उनकी पाई (दादी) को कांगपोकपी के खोकेन में एक चर्च में चार गोलियां मारी गईं. भीड़ ने प्रार्थना कर रहे उनके हाथों को भी तोड़ दिया.”

3 मई को चूड़ाचांदपुर में हिंसा के बाद गिनमिनथांग को अपने पिता और दो भाई-बहनों के साथ नज़दीकी कांगपोकपी जिले जाना पड़ा, जबकि उनकी मां और 75 वर्षीय दादी डोम खो होई को खोकेन गांव के अपने घर पर ही रूकना पड़ा. नेम खो चोंग कहती हैं, ''9 जून की सुबह एक भीड़ हमारे गांव में घुस गई, जिसके बाद उनकी (डोम खो होई की)  हत्या कर दी गई.''

राहत शिविर में अपनी मां के साथ गिनमिनथांग

13 साल का गिनमिनथांग मायूसी से कहता है, ''जब मेरे भाई-बहनों ने मुझे वह तस्वीर दिखाई तो मैं रो पड़ा. हम उनके (दादी) काफी करीब थे. उन्होंने मुझे बताया था कि कैसे व्यवहार करना चाहिए. जीवन को सही ढंग से कैसे जीना है, इसके बारे में मार्गदर्शन दिया. वह बहुत बुद्धिमान थीं." गिनमिनथांग से पूछा गया कि उसे अपने घर में सबसे ज्यादा याद किसकी आती है, तो वह कहता है, "मेरी दादी."

शिक्षा मंत्रालय के अनुसार, मणिपुर में तीन महीने तक चले संघर्ष की वजह से राज्य के 14,000 से अधिक स्कूली बच्चे विस्थापित हुए हैं. 

'दादी की इच्छा पूरी करने के लिए अफसर बनूंगा'

कैंप में गिनमिनथांग अकेले नहीं हैं, जिनके परिवार पर तड़के 4 बजे लगभग 40 लोगों की भीड़ ने खोकेन में गोलीबारी की थी. ऐसे कई लोग हैं, जिन्हें इस हमले की वजह से अपने परिवार के सदस्यों को खोना पड़ा. 

इसी हमले में 12 साल के लैम खो हेन ने अपने पिता जैंग पाओ टौथांग को खो दिया. वो कहते हैं, ''मेन रोड पर जब मेरे पिता के ऊपर घात लगाकर हमला किया गया, तब हम जंगल में छिपे हुए थे.''

लैम खो हेन और उनकी बहन किम वाह ने अपने पिता को हिंसा में खो दिया.

मणिपुर में 3 मई को हुए हिंसा के बाद लैम खो हेन के परिवार ने घर छोड़ दिया और खोकेन के नजदीक एक विरान जगह पर झोपड़ी में रहने लगे. लेकिन उनके पिता अपने गांव की पहरेदारी के लिए वहीं रुक गए.

लैम की मां लहिंग नेंग टौथांग कहती हैं, ''उन्होंने मारे जाने से कुछ मिनट पहले मुझसे फोन पर बात की थी. वह हमारे पास आ रहे थे, इसलिए मैंने उन्हें शॉर्टकट लेने और मेन रोड के रास्ते आने से मना किया. उन्होंने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है.'' 

लैम कहते हैं,  "उनकी मौत से पहले तक मैं वैज्ञानिक बनना चाहता था. लेकिन मैं अब उनकी इच्छा पूरी करूंगा और (आईएएस) अफसर बनूंगा." वह अपने पिता के साथ अनानास के खेत में बिताए गए समय को याद करते हुए रो पड़ते हैं. वे कहते हैं, "उन्होंने मुझसे उन्हें छीन लिया."

लैम की 18 साल की बहन किम वाह ‘अपने’ लोगों को बचाने के लिए आईपीएस अधिकारी बनना चाहती हैं. वह कहती हैं, ''मेरे पिता की मौत से पहले मैं मासूम बच्ची थी, लेकिन अब मुझे अपने कंधों पर बोझ महसूस होता है. जब हमने सुबह 4 बजे गोलियों की आवाज सुनी, तो मैंने उनके ज़िंदगी की प्रार्थना की थी. हमारे लिए उनके आखिरी शब्द थे 'सब कुछ ठीक है.''

कांगपोकपी में लगभग 2,800 बच्चे विस्थापित हुए हैं, जबकि संघर्ष का केंद्र रहे चूड़ाचांदपुर में 4,000 से अधिक बच्चे विस्थापित हुए हैं. खोकेन की एक्सेल एकेडमी में पढ़ने वाले तेरह साल के पाओ मिन सांग को अब लगता है कि वह फिर कभी स्कूल नहीं जा पाएंगे.

पाओ मिन सांग कहते हैं, ''मेरे पिता को हमारे गांव की पहरेदारी करते हुए गोली मार दी गई थी. मुझे नहीं लगता कि दोबारा स्कूल जाने के लिए हमारे पास कभी पैसे होंगे.'' पाओ की मां बताती हैं कि उनके घर का सबसे बड़ा बच्चा (पाओ) अब पहले की तरह स्वस्थ नहीं है. 

पाओ मिन सांग को लगता है कि वो अब कभी स्कूल नहीं जा पाएगा.

पाओ की मां नेंग टिन लहिंग गुइते कहती हैं, "अब उसका दिल कमज़ोर हो चुका है." नेंग टिन 13 मई को ग्रेस एकेडमी रिलीफ कैंप में चली गई थीं. लैम के पिता की तरह ही पाओ के पिता खैमांग गुइटे भी अपने गांव और घर की पहरेदारी के लिए वहीं रुक गए थे. 

पाओ कहते हैं, "जब से मैंने उनके शव की तस्वीर देखी है, मैं डर गया हूं. लेकिन मुझे लगता है कि वह (मेरे पिता) चाहते हैं कि मैं मजबूत रहूं और अपनी मां का ख्याल रखूं."

नेंग टिन पास के एक छोटे से किराए के मकान में रहती हैं. उनका कहना है कि वह पाओ को पालने की पूरी कोशिश करेंगी, क्योंकि उनके पति ने "उनकी हिफाजत करने की पूरी कोशिश की."

यहां से कुछ किलोमीटर दूर सेंट मैरी रिलीफ कैंप में 11 साल के मंगमिमकाप उस रात को याद करते हैं, जब उन्होंने काकचिंग जिले के सेरौ गांव को एक पहाड़ी की चोटी से जलते हुए देखा था. कभी मैती समुदाय के दबदबे वाले सेरौ गांव पर 27 मई को एक हथियारबंद भीड़ ने हमला कर दिया. इसके ठीक एक दिन के बाद नजदीक के सुगनू गांव में कुकी लोगों के घरों पर जवाबी हमला हुआ.

राहत शिविर में अपने पिता के साथ मंगमिमकाप
चूड़ाचांदपुर की 'स्मृति दीवार' पर मृतकों की तस्वीरें. (बाएं से दाएं: गिनमिनथांग की दादी डोम खो होई, लाम खो हेन के पिता जंग पाओ टौथांग, और पाओ मिन सांग के पिता खैमांग गुइते.)

मंगमिमकाप कहते हैं, ''जब हमने सुगनू में गोलियों की आवाज सुनी तो हमें घर छोड़ने को मज़बूर होना पड़ा. जैसे ही हम सुरक्षा की तलाश में पड़ोसी गांव की तरफ निकले, मैंने देखा कि वहां कई घरों में आग लगी हुई थी.''

चंदेल जिले के उन 47 बच्चों में से मंगमिमकाप एक हैं जो 3 जून को अस्थायी रिलीफ कैंप शुरू होने के बाद से सेंट मैरी कैंप में रह रहे हैं. यहां के 147 विस्थापितों में से ज़्यादातर सुगनू गांव के हैं. सुगनू गांव हिंसा हमलों के बाद एक सुनसान इलाके में तब्दील हो गया है. 

मंगमिमकाप से जब पूछा गया कि क्या उन्हें गोलियों की आवाज़ से डर लगता है तो इसके जवाब में उन्होंने कहा, ''नहीं, मैं अब बंदूकों से नहीं डरता. वह आगे कहता है, ''मेरे घर को भीड़ ने जला दिया था, लेकिन मैं अपने घर को उतना याद नहीं करता. हालांकि, मुझे अपने दोस्तों के साथ फुटबॉल खेलना याद आता है.''  

16 वर्षीय सेलेना को अपने कमरे में लगी यीशु की तस्वीर बहुत याद आती है.
सुगनू का वो चर्चा जहां अब सेलेना जा नहीं सकती.

मंगमिमकाप की साथी निवासी सेलेना लैमनीथम बताती हैं कि उन्हें अपने कमरे में लगे यीशु (ईसा मसीह) की तस्वीर की याद आती है. 16 साल की सेलेना हर शाम अपने दोस्तों के साथ सुगनू बाजार में घूमने और हर रविवार को अपने चर्च के इलाके में जाने के लिए उत्सुक रहती थी, लेकिन अब वह रिलीफ कैंप के भीतर दिन गुजारने को मजबूर हैं. 

न्यूज़लॉन्ड्री द्वारा दिखाई गई तस्वीरों में वो अपने इलाके की पहचान करती हैं और अपने शहर की हालत को देखकर रो पड़ती हैं.  सेलेना अपने उन दोस्तों को याद करती हैं जो मैती समुदाय के थे. वो इसमें उनका कोई दोष नहीं मानती हैं. वो कहती हैं, ''मैं अतीत में जाना चाहती हूं और आने वाले समय को लेकर सबको आगाह करना चाहती हूं.'' 

चंदेल जिले के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने वाले 12 साल के नगामिनसांग का कहना है कि उन्हें जो विषय पढ़ाए जाते थे, उनमें से उन्हें मणिपुरी भाषा पढ़ना बिल्कुल पसंद नहीं था. नगामिनसांग कहते हैं, ''मैं मैती भाषा को समझ नहीं सकता था. इस वजह से टीचर ने क्लास में मेरे समुदाय के बच्चों को दरकिनार कर दिया था.'' 

नगामिनसांग सेंट मैरीज में राहत शिविर के स्वयंसेवकों की मदद करता है.

न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत के दौरान ज्यादातर बच्चों ने यही बात दोहराई. 

बाकी के रिलीफ कैंपों की तरह ग्रेस एकेडमी और सेंट मैरी के बच्चों को भी नियमित शिक्षा से वंचित रखा गया है. मंगमिमकैप कहते हैं, "वॉलंटियर्स सप्ताह में दो बार मैरी कॉम और मदर टेरेसा की उपलब्धियों के बारे में प्रेरक सबक देते हैं." 

लेकिन सेलेना को अपनी परीक्षाओं की चिंता है. "जब संघर्ष शुरू हुआ तो मैं 10वीं की पढ़ाई कर रही थी, लेकिन मुझे चिंता है कि मैं बोर्ड के दौरान क्या लिख ​​पाऊंगी? क्योंकि हमने तीन महीने से कुछ भी नहीं पढ़ा है... और मुझे नहीं पता कि हम कब परीक्षा लिख पाएंगे?"

इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

Also Read: इंटरनेट बैन: घाटी से पहाड़ तक 100 दिन में कितनी बदली मणिपुर के लोगों की जिंदगी? 

Also Read: मणिपुर हिंसाः कुकी-मैती की जातीय जंग में वीरान हुआ एक गांव