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क्यों मोटा पैसा स्वस्थ, जवाबदेह और आजाद मीडिया की गारंटी नहीं है
“मोदी पर भरोसा अख़बार की सुर्ख़ियों से पैदा नहीं हुआ है. मोदी पर ये भरोसा टीवी पर चमकते चेहरों से नहीं हुआ है. जीवन खपा दिया है, पल-पल खपा दिया है. देश के लोगों के लिए खपा दिया है.”
यह शेखी उस नेता की है, जिन्होंने नौ साल में एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की, न गोदी मीडिया ने नौ साल में उनसे कोई सवाल किया. प्रधानमंत्री मोदी के इस दावे या दंभ में सच्चाई तब होती जब हर रात उनकी चुप्पियों पर मीडिया सवाल करता और प्रधानमंत्री जवाब देते. बहुत पीछे जाने की ज़रूरत नहीं है, मणिपुर पर उनकी और मीडिया की चुप्पी की मिसाल सामने है. बल्कि प्रधानमंत्री इसी तरह तब भी चुप हो गए थे, जब जनवरी के अंत में हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आई थी और उद्योगपति गौतम अडानी को लेकर सवाल उठे थे.
प्रधानमंत्री जिस भाषण में अखबार और टीवी को दुत्कार रहे थे, उस समय विपक्ष अडानी-अडानी के नारे लगा रहा था. प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं, “देशवासियों का मोदी पर भरोसा है. क्या ये झूठे आरोप लगाने वालों पर मुफ़्त राशन प्राप्त करने वाले मेरे देश के 80 करोड़ देशवासी कभी भरोसा करेंगे क्या?”
प्रधानमंत्री ने एक ही भाषण में अख़बार, टीवी, विपक्ष से लेकर जवाबदेही के तमाम नारों को झटक दिया. गोदी मीडिया के एंकरों ने जिस प्रधानमंत्री की सेवा में 10 साल खपा दिए, पत्रकारिता को गटर में डाल दिया, उसी प्रधानमंत्री ने कह दिया कि वे इनकी बदौलत तो नहीं हैं. भाषण में आप कुछ भी बोल सकते हैं लेकिन मीडिया से मोदी और मोदी से मीडिया को निकालना असंभव है.
प्रधानमंत्री के भाषणों में अंतर्विरोध का भी उनके लिए कोई मतलब शायद ही होगा. जब किसी सामाजिक कार्यकर्ता या पत्रकार को विदेशों में सम्मान मिलता है तब उसे एंटी इंडिया साज़िश बता दिया जाता है. लेकिन जब उन्हीं देशों में प्रधानमंत्री को सम्मान मिलता है, तब उसे भारत और उससे भी ज़्यादा प्रधानमंत्री का विश्व में बज रहा डंका बताया जाता है. मीडिया उनके प्रति चुप रहता है और जब बोलता है तो उनके लिए ही बोलता है.
2014-24 का एक राजनीतिक कालखंड पूरा होने जा रहा है. यह दशक जितना मोदी का है, उतना ही गोदी मीडिया का है. गोदी चैनलों के नाम अलग-अलग हैं मगर सभी का कंटेंट एक है. कंटेंट की यह समानता उन विषयों से बनी है, जो अक्सर मोदी की राजनीति में झलकते हैं. एक चैनल दूसरे चैनल से कंटेंट को लेकर कम ही प्रतिस्पर्धा करता है, सबका कंटेंट करीब-करीब समान होता है और पैकेजिंग एकदम घटिया. घटिया कंटेंट का उत्पादन और वितरण कर गोदी मीडिया ने कई मिथक तोड़े हैं.
2014 के पहले कहा जाता था कि टीवी पत्रकारिता में भूत-प्रेत इसलिए घूम रहे हैं क्योंकि इसे चलाने के लिए पैसा नहीं है. न्यूज़ चैनल के मालिकों के पास कंटेंट बनाने के लिए पैसे नहीं हैं. न्यूज़ चैनलों के बिज़नेस मॉडल में बहुत सारी ख़ामियां हैं. कोई भी बिल्डर या नेता अपना चैनल खोल लेता है. कुछ समय बाद जब चैनल नहीं चलता है तो टीआरपी के लिए भूत-प्रेत दिखाता है या चैनल बंद कर देता है. चूंकि बिल्डर टाइप मालिक पत्रकारिता का लिहाज नहीं करते. वे किसी भी दरजे का घटिया कंटेंट दिखा सकते हैं. इसलिए रेटिंग के चक्कर में ‘बेचारे’ कुछ स्थापित चैनलों के मालिकों को भी वैसा ही दिखाना पड़ता है. वरना बाज़ार से विज्ञापन नहीं मिलेगा. इस तरह इस घटिया कंटेंट के लिए बाज़ार से ही एक मिथक गढ़ा गया. अब वह मिथक भी टूट गया है.
मुकेश अंबानी और गौतम अडानी मीडिया के नए मालिक हैं. गौतम अडानी की मीडिया कंपनी ने कई चैनल खोलने की घोषणा की है. मुकेश अंबानी की मीडिया कंपनी के पास कई चैनल पहले से हैं. इन दोनों के पास जितने चैनल हैं या होंगे और इनके पास जितना पैसा है, उसके बाद तो मीडिया में पैसे की कमी नाम का भूत भाग जाना चाहिए. इसका असर कंटेंट पर दिखना चाहिए. मेरा सवाल है क्या इनके अकूत धन और बिज़नेस कौशल से घटिया हो चुकी टीवी पत्रकारिता में कोई भी सुधार आया? अंबानी और अडानी के चैनलों ने पत्रकारिता के मामले में कौन सी मिसाल कायम की है, क्या नया या शानदार किया है?
पत्रकारिता में कुछ भी अच्छा करने के लिए दो ज़रूरी, बुनियादी शर्त हैं, उनमें से एक है साहस और एक है सवाल. साहस के बिना सवाल नहीं कर सकते और सवाल के बिना साहस का मतलब नहीं है. अंबानी और अडानी के पास बड़ी-बड़ी कंपनियां चलाने का बिज़नेस कौशल और अनुभव है. फिर भारत के ये दो उद्योगपति एक ऐसे बिज़नेस में शानदार कंटेंट क्यों नहीं बना सके, जिस पर पैसा उनके अन्य बिज़नेस के मुकाबले बहुत कम लगता है. इसका सीधा जवाब यह है कि आप बिज़नेस कौशल और पैसे के दम पर गोदी मीडिया के कंटेंट को नहीं बदल सकते.
अंबानी और अडानी को भी वही होना पड़ेगा जो इस बिज़नेस में अरुण पुरी, सुभाष चंद्रा, जगदीश चंद्रा 'कातिल' और रजत शर्मा हो चुके हैं. इस कतार में सब कातर हैं.
पिछले 10 साल में मुख्यधारा के मीडिया में यही सबसे बड़ा बदलाव है. गोदी मीडिया का कंटेंट सर्वोच्च है और वो कंटेंट मालिक की सोच से नहीं बदलता. इन मालिकों के ‘अज्ञात मालिक’ की राजनीतिक सोच से बनता है. कंटेंट को दर्शकों के प्रति नहीं बल्कि ‘अज्ञात मालिक’ के प्रति समर्पित होना होगा. टेलीग्राफ अख़बार की तरह हेडलाइन लगाकर सवाल पूछने की उम्मीद इन धनिक मालिकों के चैनलों से नहीं की जानी चाहिए. ये मालिक चैनल खोल सकते हैं, बहुतों को नौकरियां दे सकते हैं मगर किसी को पत्रकार नहीं बना सकते हैं.
इनके चैनलों के कंटेंट को देख कर भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इनका मोदी सरकार के साथ किस तरह का मानसिक रिश्ता है. विपक्ष के आरोप ग़लत नहीं होते अगर इनके चैनलों पर कम से कम विपक्ष ही उसे बराबर से दिखाई देता. यहां तक कि आप पता लगा सकते हैं कि जब पत्रकारों पर हमले के विरोध में दिल्ली में पत्रकारों का प्रदर्शन होता है तो उसमें इन चैनलों के कितने पत्रकार जाते हैं.
मैं द वायर, कारवां, स्क्रॉल, न्यूज़लॉन्ड्री, ऑल्ट न्यूज़, न्यूज़ क्लिक, द न्यूज़ मिनट, बूम फैक्ट, आर्टिकल-14 को मुख्यधारा का विकल्प नहीं मानता. ऐसा कह कर मुख्यधारा के मीडिया को इस अपराधबोध से मुक्ति नहीं दी जा सकती. इन सभी नई संस्थाओं को व्यक्तिगत प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए और पतित मीडिया की बहस में इनका नाम नहीं लाना चाहिए कि इसी दौर में तो ये भी हैं.
ये हैं, मगर ये मीडिया के बनाए दौर में नहीं हैं. इन्हें सरकार विज्ञापन नहीं देती है. कॉरपोरेट का विज्ञापन भी न के बराबर ही मिलता है. ये वो स्टार्टअप नहीं हैं, जिन्हें सरकार मदद करती है. सवाल है कि जिन्हें जनता के पैसे का करोड़ों रुपया विज्ञापन के रूप में मिलता है, वो पत्रकारिता क्यों नहीं कर रहे हैं? और जब पत्रकारिता संभव नहीं है तो देश के सबसे बड़े धनिक चैनल क्यों खोल रहे हैं?
दुनिया के नंबर वन और नंबर टू टाइप के उद्योगपतियों का गोदी मीडिया के क्षेत्र में आना इस बात का इशारा है कि इसमें बाज़ार और बिज़नेस तो है, बस मन का प्रोडक्ट बनाने का सुख नहीं है. अपने-अपने क्षेत्र के इन सेठों को गोदी मीडिया में आकर गोदी सेठ बनना ही पड़ता है. आपके सामने एक और सवाल रखता हूं. स्टार्टअप बनाने वाले तमाम तरह के संस्थानों से पढ़े नौजवानों ने मीडिया में कोई स्टार्टअप बनाने की क्यों नहीं सोची? उन्हें पता है कि मीडिया में आज़ाद कंटेंट नहीं बना सकते हैं. गोदी मीडिया ने पत्रकारिता का ऐसा मॉडल विकसित किया है, जो चलता तो पत्रकारिता के नाम पर है मगर उसके उत्पाद का संबंध पत्रकारिता से नहीं है.
गौतम अडानी ने एनडीटीवी खरीदने के दौरान एक इंटरव्यू दिया था और कहा था कि भारत में फाइनेंशियल टाइम्स या अल जज़ीरा जैसा ग्लोबल चैनल क्यों नहीं हो सकता. उन्होंने ऐसा कुछ कहा था कि इसके लिए पैसे की कोई कमी नहीं है.
गौतम अडानी को नहीं पता कि पैसा हो जाने से पत्रकारिता नहीं हो जाती है. गौतम अडानी फाइनेंशियल टाइम्स बनाना चाहते हैं, लेकिन उनके ऊपर फाइनेंशियल टाइम्स ने जो डॉक्यूमेंट्री बनाई है, क्या उनका पैसा या उनका चैनल ऐसा कुछ बना सकता है? क्या भारत का कोई भी चैनल उस डॉक्यूमेंट्री की बात कर सकता है? गौतम अडानी ने फाइनेंशियल टाइम्स को लीगल नोटिस भेजा था और उस चैनल ने उनकी करतूतों पर डॉक्यमेंट्री बना दी.
ग्लोबल चैनल इस तरह के साहस से बनते हैं. दुनिया के अलग-अलग देशों में दशकों तक रिपोर्टर रखने होते हैं. बारात में दूल्हे के सर पर नोट घुमाकर सड़क पर फेंक देने से ग्लोबल न्यूज़ चैनल नहीं बनता है. भारत के भीतर ही रिपोर्टर भेजने के नाम पर पैसा बचाने वाले चैनलों के मालिक महंगी कार खरीद सकते हैं मगर एक ढंग का स्टूडियो नहीं बना सकते. ग्लोबल चैनल की बात तो छोड़िए.
मोदी ग्लोबल मीडिया की बात करते रहे हैं. अडानी भी ग्लोबल मीडिया की बात करते हैं, अर्णब गोस्वामी ने भी ग्लोबल मीडिया की बात की थी. मोदी राज के 10 साल में ग्लोबल का हल्ला होता रहा और भारत का मीडिया लोकल लेवल पर ही पिट गया है. मोदी दूरदर्शन को ही ग्लोबल नहीं बना सके जिसके पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है. दूरदर्शन सरकारी तौर पर एक उदासीन चैनल के रूप में देखा जाता था, लेकिन अब यह भी सक्रिय रुप से गोदी-गोदी खेल रहा है. न्यूज़लॉन्ड्री ने दूरदर्शन को लेकर कई रिपोर्ट की हैं.
गोदी मीडिया की फैक्ट्री के भीतर सवाल नाम का कुछ भी नहीं बन सकता. यह फैक्ट्री सवाल बनाने के लिए नहीं है बल्कि यहां वो हथियार बनाया जाता है जिनसे सवालों की हत्या की जाती है. सवाल पूछने वाली जनता को भी देशद्रोही कहा जाता है. किसानों को आतंकवादी कहा जाता है. जंतर-मंतर पर ओलंपिक विजेता महिला पहलवानों ने जब धरना दिया तो सरकार की बेरूखी से ज्यादा उन्हें इस बात का सदमा पहुंचा कि उनकी प्रेस कांफ्रेंस में सारे माइक आईडी दिखाई देते हैं मगर चैनलों पर कुछ नहीं दिखता.
जनता ने अपने स्तर पर गोदी मीडिया का लोकतांत्रिक विरोध करना शुरू कर दिया है. कई लोगों ने चैनलों को देखना बंद कर दिया है. उन्हें समझ आने लगा है कि गोदी मीडिया भले खुद को देशभक्त कहता है मगर यह देश के लिए अच्छा नहीं है. मोदी राज के एक दशक में भारत के मीडिया की जितनी व्यापक और निरंतर आलोचना हुई है, इतनी शायद कभी किसी दशक में नहीं हुई होगी. सोशल मीडिया पर कुछ नागरिकों ने गोदी मीडिया पर नज़र रखने का काम ले लिया है. कहां तो मीडिया को प्रहरी बनना था, यहां आम लोग ही इस मीडिया की चौकीदारी करने लगे हैं.
गोदी मीडिया बदल रहा है. नए-नए चैनल आ रहे हैं तो चैनलों में नए-नए चेहरे आ रहे हैं. चेहरे भी स्थान बदल रहे हैं. एक चैनल से दूसरे चैनल में जा रहे हैं. ताकि जनता के बीच गोदी मीडिया को लेकर जो चिढ़ मची है, उसे भटकाया जा सके. जैसे समय-समय पर बाज़ार में पुराना उत्पाद कुछ नया बनकर आ जाता है लेकिन इनमें नया कुछ नहीं होता है. 2024 आते-आते बहुत सारे नए चैनल, बहुत सारे नए चेहरे गोदी मीडिया का ही काम करेंगे. गैंगवार पर बनी फिल्मों में आपने देखा होगा. पुराना हो चुका गुर्गा रास्ते से हटा दिया जाता है. नया गुर्गा लाया जाता है ताकि माफिया का साम्राज्य चलता रहे. नया एंकर नया गुर्गा है.
इनकी साख इतनी गिर चुकी है कि अब मोदी सरकार के मंत्री सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर नाम के जीव को इंटरव्यू देने लगे हैं. इसकी शुरुआत भी प्रधानमंत्री मोदी ने ही की थी. 2019 के चुनाव में अक्षय कुमार को इंटरव्यू करने के लिए बुलाया गया था. यह अपने आप में बताता है कि अडानी और अंबानी के गोदी मीडिया चैनलों और उनके एंकरों ने अगर जनता के बीच साख बनाई होती तो मोदी के मंत्री इंफ्लुएंसरों को इंटरव्यू नहीं देते. मोदी को नया गोदी मीडिया चाहिए. गोदी मीडिया के प्लेटफार्म पर मंत्रियों को भेजने से अच्छा है, खाना बनाने, पेट पिचकाने, मार्केट में पैसा लगाने के उपाय बताने वाले लोकप्रिय चेहरों को इंटरव्यू दिया जाए.
विपक्ष ने इस गोदी मीडिया को समझने में देर कर दी. भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस को गोदी मीडिया के विकल्प के रूप में स्थापित कर दिया. राहुल गांधी अपनी प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों को चुनौती देने लगे कि आप ये सवाल प्रधानमंत्री मोदी से नहीं कर सकते हैं मगर मुझसे कर सकते हैं. राहुल पत्रकारों का जवाब देने लगे.
बीजेपी की प्रेस कांफ्रेंस में अब सवाल-जवाब की क्लिपिंग नहीं दिखती हैं. प्रवक्ता के सामने बैठे पत्रकारों की आवाज़ नहीं आती है. केवल प्रवक्ता की आवाज़ आती है. भारत जोड़ो यात्रा के दौरान पत्रकारों के सवाल-जवाब का दौर देखने को मिला लेकिन तब भी गोदी मीडिया ने इस यात्रा को न के बराबर ही कवर किया. राहुल गांधी ने अपनी सभाओं में गोदी मीडिया को लेकर बोलना शुरू कर दिया है लेकिन अब राहुल के भाषणों से गोदी मीडिया गायब होने लगा है.
कांग्रेस की सरकारें भी गोदी मीडिया को विज्ञापन देने लगी हैं. जिस मीडिया ने उनके नेता को गायब कर दिया या बदनाम करने का उद्योग चला रखा है. इस गोदी मीडिया से लड़ने का साहस राहुल ने दिखाया मगर कांग्रेस के बाकी मुख्यमंत्री हिम्मत नहीं जुटा सके. हैरानी की बात है कि मोदी सरकार के मंत्री जिस गोदी का विकल्प खोज रहे हैं, कांग्रेस की सरकार उस गोदी मीडिया को विज्ञापन दे रही है.
भारत में स्वतंत्र प्रेस के बनने की संभावना मुख्यधारा के मीडिया के भीतर से खत्म हो चुकी है. यहां पर पत्रकारिता की समाप्ति का उत्सव मनाया जा रहा है. मीडिया के बिना लोकतंत्र नहीं होता है. वो कुछ और होता है जिसके नाम इतिहास के दौर में अलग-अलग होते हैं. मगर उसका चेहरा एक ही होता है. आप उस चेहरे के बारे में जानते हैं. हर बार नाम लेकर बुलाना ठीक नहीं है. उसका काम ही बता देता है कि नाम क्या है.
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