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छत्तीसगढ़ में लगातार क्यों बढ़ रही हैं मानव-हाथी संघर्ष की घटनाएं?
छत्तीसगढ़ के बालोद ज़िले के कुंजकन्हार गांव की रहने वाली 60 साल की गीताबाई को शायद अनुमान नहीं रहा होगा कि घर से सुबह-सुबह बाहर निकलना उनके लिए जानलेवा साबित होगा. 16 मई की सुबह जब वो घर से निकल कर खेत की ओर गईं तभी एक जंगली हाथी ने उन्हें कुचल कर मार डाला.
इसी तरह 15 मई की सुबह सुरजपुर ज़िले के बगड़ा गांव के 55 साल के चरकु राजवाड़े को गांव के नाले के पास एक हाथी ने कुचल डाला, जिनकी इलाज के दौरान मौत हो गई. 12 मई को सरगुजा ज़िले के सरगा में 28 साल के राजेश चौहान को, तो 10 मई को जशपुर ज़िले के सपघरा गांव में जंगली हाथियों ने एक महिला को कुचल कर मार डाला. 7 मई को मोहला मानपुर अंबागढ़ चौकी ज़िले में पांडरवानी गांव के दुखूराम धावडे हाथियों के हमले में मारे गए.
छत्तीसगढ़ में हाथियों से होने वाली मौत के आंकड़े लगातार गहराते जा रहे हैं. हर दिन राज्य के किसी न किसी इलाके से मानव-हाथी संघर्ष की ख़बर ज़रूर आती है. कहीं हाथियों का दल फसलों को तबाह कर रहा होता है तो कहीं घरों में तोड़-फोड़ मचा रहा होता है. कभी किसी व्यक्ति के मारे जाने की ख़बर आती है तो कभी हाथियों की मौत के मामले सामने आते हैं.
पिछले 100 सालों में भी राज्य के जिन इलाकों में हाथियों की उपस्थिति कभी दर्ज़ नहीं की गई थी, उन इलाकों में लगातार हाथी पहुंच रहे हैं. उन्हें एक जंगल से, दूसरे जंगल में, एक बस्ती से दूसरी बस्ती में खदेड़ा जा रहा है और अपने घरों से विस्थापित हाथी, भोजन-पानी और जीवन की तलाश में यहां से वहां भटक रहे हैं.
छत्तीसगढ़ में कोयला खदानों के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर हसदेव अरण्य में अध्ययन के बाद करीब डेढ़ साल पहले आई भारत सरकार की वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में मानव-हाथी संघर्ष एक विडंबनापूर्ण स्थिति में है, जहां हाथियों की संख्या अपेक्षाकृत कम, <300 है, जो भारत के जंगली हाथियों का <1% है, लेकिन मानव-हाथी संघर्ष उच्च स्तर पर है, जहां हर साल इस संघर्ष में 60 से अधिक लोगों की जान चली जाती है. यह मानव-हाथी द्वन्द में मानव मौत की दर्ज संख्या का >15% है.
बढ़ता गया मानव-हाथी संघर्ष
छत्तीसगढ़ में पिछले हज़ार साल से भी अधिक समय से जंगली हाथियों की उपस्थिति के प्रमाण मिलते हैं. बस्तर के राजपुर में मधुरान्तक देव के 11वीं सदी के ताम्रपत्र से लेकर अबुल-फज़ल के आइन-ए-अकबरी में और केप्टेन जे फारसाइथ की 1871 में प्रकाशित ‘हाईलेंड्स आफ सेंट्रल इंडिया’ से लेकर एए डनबर ब्रंडर 1923 में प्रकाशित किताब ‘वाइल्ड एनिमल्स इन सेंट्रल इंडिया‘ में इस इलाके में हाथियों की उपस्थिति का उल्लेख है.
वन विभाग के दस्तावेज़ों की मानें तो छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने से 12 साल पहले, 1988 में 18 हाथियों के एक दल ने अविभाजित बिहार के इलाके से सरगुजा इलाके में प्रवेश किया. बाद के बरसों में इनमें से 13 हाथियों को पकड़ लिया गया और हाथियों के उत्पात पर काबू पाने की असफल कोशिश की गई. लेकिन हाथियों का कुनबा बढ़ता गया.
वन विभाग के दस्तावेज़ों के अनुसार सितंबर 2002 में राज्य में केवल 32 हाथी थे. 2007 में यह आंकड़ा 122 और 2017 में 247 पहुंच गया. आज की तारीख़ में छत्तीसगढ़ में कम से कम 450 हाथी स्थाई रूप से रह रहे हैं.
छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनने के बाद के कुछ सालों तक राज्य के सरगुजा, जशपुर, रायगढ़ और कोरबा में ही हाथी रहते थे. मानव-हाथी द्वन्द के कुछ मामले भी इन्हीं ज़िलों तक सीमित थे. लेकिन इन ज़िलों में भी साल दर साल संघर्ष के आंकड़े बढ़ते चले गए. हाथियों के साथ संघर्ष का दायरा भी इन चार ज़िलों से बढ़ते हुए राज्य के अधिकांश ज़िलों तक पहुंच गया. राज्य में दो एलिफेंट रिज़र्व भी बनाए गए हैं लेकिन मानव-हाथी संघर्ष में कहीं कोई कमी नहीं आई.
छत्तीसगढ़ में 36 वनमंडल हैं और आज की तारीख़ में इनमें से 22 वनमंडल हाथी प्रभावित हैं.
उदाहरण के लिए कोरबा ज़िले में 2000-01 में हाथियों द्वारा फसल नुकसान के 21 मामले दर्ज़ किए गए थे. 2005-06 में यह आंकड़ा 1490 पहुंच गया. 2015-16 में कोरबा में फसल हानि के 4045 मामले दर्ज़ किए गए.
पड़ोसी ज़िले रायगढ़ में 2000-01 में हाथियों के हमले में एक व्यक्ति की मौत हुई थी. 2005-06 में यह आंकड़ा चार हो गया. 2015-16 में रायगढ़ ज़िले में हाथियों के हमले में 12 लोग मारे गये और 2019-20 में अकेले रायगढ़ ज़िले में हाथियों के हमले में मारे जाने वालों की संख्या 18 पहुंच गई.
2000-01 में पूरे राज्य में हाथियों के हमले में दो लोग मारे गए थे. 2006-07 में यह आंकड़ा 23 और 2015-16 में 53 पहुंच गया. 2022-23 में हाथियों के हमले में मारे जाने वाले लोगों की संख्या 74 जा पहुंची.
इसी तरह राज्य बनने के बाद 2001-02 में पहली बार रायगढ़ के बलभद्रपुर में 18 नवंबर को एक हाथी को लोगों ने मार डाला था. सरकारी दस्तावेज़ों में पूरे साल भर एक ही हाथी की मौत का मामला सामने आया. 2005-06 में हाथियों की मौत के दो मामले दर्ज़ हुए, वहीं 2010-11 में यह आंकड़ा 13 तक जा पहुंचा. 2016-17 में राज्य में 16 हाथियों की मौत हुई. इस साल यानी 2022-23 में राज्य में 19 हाथियों की मौत के मामले सामने आए हैं. इनमें से सात हाथियों को तो हाई वोल्टेज़ करंट से मार डाला गया.
2001-02 से 2010-11 तक राज्य में कुल 42 हाथियों की मौत हुई थी. लेकिन उसके बाद यह आंकड़ा तेज़ी से बढ़ा. 2011-12 से 2022-23 तक राज्य में 157 हाथी मारे गए.
कोयला खनन का दुष्प्रभाव
भारत सरकार की एक विस्तृत रिपोर्ट बताती है कि कैसे विकास कार्यों के कारण मानव-हाथी संघर्ष की घटनाएं तेज़ी से बढ़ीं. इस रिपोर्ट के अनुसार खनन, विशेषकर झारखंड और ओडिशा की खुली खदानों के कारण छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में मानव-हाथी द्वन्द में बढ़ोत्तरी हुई.
यही स्थिति छत्तीसगढ़ में बनी और एक के बाद एक खुलते कोयला खदानों के कारण हाथियों का रहवास बुरी तरह से प्रभावित हुआ. भारत में उपलब्ध 32649.563 करोड़ टन कोयला भंडार में से 5990.776 करोड़ टन कोयला यानी लगभग 18.34 फ़ीसदी छत्तीसगढ़ में है. यहां सर्वाधिक कोयले का उत्पादन होता है. पुराने कोयला खदानों का विस्तार या नये कोयला खदानों की शुरुआत उन्हीं इलाकों में हुई, जहां बरसों से हाथी रह रहे थे, जिनमें कोरबा, रायगढ़ और सरगुजा ज़िले शामिल हैं.
आंकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में साल दर साल कोयला खदानों की संख्या और कोयला खनन की मात्रा बढ़ती चली गई. 2011-12 में छत्तीसगढ़ में 113.958 मिलियन टन कोयला का उत्पादन होता था. अगले साल इसमें 3.40 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई और वार्षिक उत्पादन 117.830 प्रतिशत जा पहुंचा. 2013-14 में उत्पादन में 7.86 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई और उत्पादन 127.095 मिलियन टन हो गया. यह बढ़ोत्तरी जारी रही. 2018-19 में वार्षिक बढ़ोत्तरी 13.57 प्रतिशत के साथ 161.893 मिलियन टन हो गई. हालत ये है कि छत्तीसगढ़ की गेवरा कोयला खदान आज की तारीख में देश में सर्वाधिक उत्पादन वाली कोयला खदान बन चुकी है. इसे अब एशिया की सर्वाधिक उत्पादन वाली खदान बनाने की तैयारी है. 2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा देश की 204 कोयला खदानों के आवंटन रद्द किए जाने के बाद से छत्तीसगढ़ में एक के बाद एक कई खदान आवंटित की गईं या उनकी बोली लगाई गई. आज की तारीख में कोल इंडिया की खदानों के अतिरिक्त ऐसी कोयला खदानों की संख्या 23 है.
नई या विस्तारित कोयला खदानों के कारण हाथियों का रहवास भी प्रभावित हुआ और उनके आवागमन के रास्ते भी. हाथियों का द्वन्द इन इलाकों में तो बढ़ा ही, हाथी रहवास प्रभावित होने के कारण दूसरे इलाकों में भी प्रवास करने लगे. डेढ़ साल पहले आई, भारतीय वन्यजीव संस्थान की एक रिपोर्ट बताती है कि छत्तीसगढ़ में हाथियों का ‘होम रेंज’ यानी रहवास दायरा किस हद तक प्रभावित हुआ है.
छत्तीसगढ़ में सेटेलाइट कॉलर आईडी लगे हुए हाथियों के झुंड के ‘होम रेंज’ के आंकड़े बताते हैं कि बहादेव नामक हाथी का ‘होम रेंज’ 1416.00 वर्ग किलोमीटर, गौतमी नामक हथिनी का ‘होम रेंज’ 2562.00 वर्ग किलोमीटर और ‘प्यारे’ नामक हाथी का ‘होम रेंज’ 1711.99 वर्ग किलोमीटर था. इसी दौर में दक्षिण भारत के नीलगिरी इलाके में हाथियों का ‘होम रेंज’ 650 वर्ग किलोमीटर तो राजाजी अभयारण्य में ‘होम रेंज’ 280 वर्ग किलोमीटर रहा.
वन्यजीव विशेषज्ञ और कई सालों तक सरकार की वाइल्ड लाइफ बोर्ड की सदस्य रह चुकीं मीतू गुप्ता का मानना है कि हाथियों की संख्या बढ़ी तो उनके सामने भोजन, पानी और आवास का संकट भी गहराया लेकिन मानव-हाथी संघर्ष के बढ़ने के पीछे सबसे बड़ा कारण कोयला खदाने हैं. खनन परियोजनाओं में वन और वन्यजीवों की कहीं कोई परवाह ही नहीं की गई. राज्य के जिन सरगुजा, कोरबा, रायगढ़ और जशपुर के इलाकों में हाथियों का प्राकृतिक रहवास था, वहां एक के बाद एक कई कोयला खदानों की शुरुआत हुई. इसने हाथियों का प्राकृतिक रहवास भी छीन लिया और उनके आवागमन के रास्ते भी बर्बाद हो गए.
मीतू गुप्ता कहती हैं, “भोजन, पानी और सुरक्षित आवास की तलाश में हाथियों ने आबादी की ओर रुख किया. जहां मानव आबादी के प्रतिरोध का सामना हाथियों को करना पड़ा. कभी उन्हें मशाल से भगाने की कोशिश में घायल किया गया तो कहीं उन पर पारंपरिक हथियारों से वार किए गए. हाथी भी इन व्यवहारों से आक्रमक हुए.”
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राज्य के घने जंगलों वाले हसदेव अरण्य के इलाके में वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट द्वारा किए गए अध्ययन का हवाला देते हुए बताते हैं कि इस अध्ययन में हसदेव में एक भी नए कोयला खदान खोलने पर मानव-हाथी संघर्ष के इस तरह विकराल होने का दावा किया गया है, जिसे रोक पाना लगभग असंभव होगा. इसके बाद भी इस इलाके में कोयला खदानों के आवंटन का सिलसिला जारी है.
वे कहते हैं कि राज्य में पहले से कोयला खदान तो थे ही, 2014 के बाद आवंटित खदानों के दुष्प्रभाव आने वाले दिनों में और भयावह तरीक़े से नज़र आएंगे.
आलोक शुक्ला कहते हैं, “पिछले साल जुलाई में विधानसभा में सर्वसम्मति से हसदेव अरण्य में सभी कोयला खदानों को रद्द करने का प्रस्ताव पारित किया गया. लेकिन आज तक इस दिशा में कुछ भी नहीं हुआ. राज्य या केंद्र की सरकारों ने न वन या पर्यावरण की स्वीकृति रद्द की और ना ही भूमि अधिग्रहण की स्वीकृति. इसके उलट राज्य सरकार ने जिस लेमरु इलाके में एलिफेंट रिज़र्व की बनाने की अधिसूचना जारी की है, उसी इलाके में नई बिजली परियोजना का काम शुरु कर रही है.”
हालांकि विधायक और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मोहन मरकाम का कहना है कि मानव-हाथी संघर्ष को लेकर सरकार लगातार ज़रूरी कदम उठा रही है. मरकाम के अनुसार, “हाथी समस्या को लेकर सरकार गंभीर है. जो भी घटनाएं हो रही हैं, सरकार उनका संज्ञान भी ले रही है. ऐसी घटनाएं न घटें, उसके लिए सरकार ने कई नीतिगत निर्णय लिए हैं. घटनाएं कम हों, उसे लेकर सरकार गंभीर है.”
मरकाम के दावे अपनी जगह हैं लेकिन यह सच है कि अभी छत्तीसगढ़ में मानव-हाथी संघर्ष को रोकना एक बड़ी चुनौती है और अभी तो कम से कम संघर्ष के आंकड़े कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं.
(साभार- MONGABAY हिंदी)
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