Report
'भगवान पर भरोसा है, सरकार पर नहीं': मणिपुर से जान बचाकर दिल्ली पहुंचे लोगों का दर्द
"मैं एक शरणार्थी हूं," मणिपुर के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने उनके पेशे के बारे में पूछे जाने पर कहा. चालीस वर्षीय यह व्यक्ति कूकी-चिन-मिज़ो जनजाति के उन 28 लोगों में से है, जिन्होंने दिल्ली में इवेंजेलिकल फ़ेलोशिप ऑफ़ इंडिया और कुछ अन्य व्यक्तियों द्वारा चलाए जा रहे एक राहत शिविर में शरण ली है. इनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे हैं.
मणिपुर में जातीय हिंसा में 70 से अधिक लोग मारे गए हैं, 230 घायल हुए हैं, 1,700 घर नष्ट हो गए हैं और लगभग 35,000 लोग विस्थापित हुए हैं. जिनमें से कई लोग वहां से बाहर निकलने का रास्ता खोज रहे हैं.
हिंसा की शुरुआत तब हुई जब मई महीने के पहले हफ्ते (3 मई) में ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर ने चूड़ाचांदपुर जिले में एक रैली निकाली. मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के लिए उच्च न्यायालय की मंजूरी के खिलाफ इस रैली का आयोजन हुआ था. इस रैली के बाद प्रदेश में हिंसा शुरू हो गई. 4 मई को हिंसा बढ़ती देख केंद्र सरकार को अनुच्छेद 355 लागू किया, जिसका मतलब यहां आपातकाल की घोषणा थी. साथ ही शूट एट साइट के आदेश भी जारी हुए. जब स्थिति बिगड़ी तो सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और संकेत दिया कि वह उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगा सकती है. साथ ही कहा कि वह "सुनिश्चित करेंगे कि सरकार राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति को नजरअंदाज़ न करे."
वहीं दिल्ली के शिविर में शरणार्थियों के बच्चे चित्रकारी करके समय बिता रहे हैं. युवा मणिपुर की ख़बरों के लिए सोशल मीडिया देखते रहते हैं और बुजुर्ग लोग चर्चा करते हैं कि अब आगे क्या होगा. शरणार्थियों के एक हॉल में लगभग 30 बिस्तर हैं और दिल्ली की गर्मी से निपटने के लिए नए एसी लगाए गए हैं. एक मेज पर कुछ बिस्किट के पैकेट, साबुन और पानी की बोतल के साथ बाइबल की प्रतियां रखी हुई थीं. कुछ बक्सों में पुराने कपड़े भी भरे हुए थे, जबकि दिल्ली में रहने वाले इस समुदाय के लोग घर की खबरें जानने के लिए शिविर में आते रहते हैं.
अपने घरों और कॉलेज-हॉस्टलों से भागकर राष्ट्रीय राजधानी पहुंचे इन लोगों ने न्यूज़लॉन्ड्री को अपने बच निकलने की कहानी बताई, लेकिन कहा कि वह अपने नाम नहीं बताना चाहते क्योंकि उन्हें डर है कि घर लौटने पर उन्हें निशाना बनाया जा सकता है.
शिविर के समन्वयक मांग नगैह्ते ने बताया कि "उन्हें रात में चार और लोगों के शिविर में पहुंचने की उम्मीद है."
अपने माता-पिता और दो भाई-बहनों के साथ शिविर में आए मणिपुर विश्वविद्यालय के एक छात्र ने बताया कि उसे और कुछ अन्य आदिवासी छात्रों को कॉलेज के हॉस्टल के स्टोर रूम में एक समूह ने बंधक बना लिया था.
“समूह को लोगों ने कहा कि हम (आदिवासी समुदाय के) लोगों ने चूड़ाचांदपुर में किसी की हत्या की है और हमें उसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए … फिर वे आदिवासी छात्रों की पहचान करने के लिए अन्य छात्रावासों में भी गए,” उस छात्र ने बताया, और कहा कि समूह के लोगों के हाथों में लाठियां थीं.
उसने कहा कि कुछ मैतेई छात्रों ने उसकी और अन्य छात्रों की छात्रावास से भागने में मदद की. "हम एक गली में तब तक छिपे रहे जब तक कि सेना ने आकर हमें बचा नहीं लिया." उसने कहा.
मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में आदिवासी समुदाय का दबदबा है, जबकि इंफाल के घाटी इलाके में मैतेई बहुसंख्यक हैं.
11 मई को अपने परिवार के साथ दिल्ली आने से पहले एक छात्र, जिसके पिता एक पुलिसकर्मी हैं, कुछ दिनों के लिए उच्च न्यायालय के पास एक सैन्य शिविर में रहा था. उसने बताया, "शिविर में 7,000 लोग थे. हमें मुश्किल से दिन में एक बार खाना मिलता था."
शिविर में एक सरकारी कर्मचारी ने कहा कि उन्हें आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदायों की मिश्रित आबादी वाले क्षेत्र में स्थित अपने आवास को छोड़कर अपने बच्चों के साथ भागना पड़ा. "हम घर छोड़ने के लिए मजबूर थे ... और केवल कुछ दस्तावेज अपने ला सके. हमारे घर में तोड़फोड़ की गई,” उन्होंने बताया.
उन्होंने दावा किया कि हिंसा से कुछ महीने पहले, "सरकारी अधिकारी लगातार दौरा" करके पहचान पत्रों की जांच करते थे और आदिवासी समुदाय के घरों को कथित तौर पर "लाल घेरे या डॉट्स" से चिह्नित करते थे. उन्हें अब अपने बच्चों की पढ़ाई की चिंता सता रही है. "हर मां मेरी हालत समझ सकती है."
न्यूज़लॉन्ड्री इन दावों की सत्यता की पुष्टि नहीं कर सकता है.
ऊपर जिन सामाजिक कार्यकर्ता का उल्लेख किया गया है उन्होंने कहा कि उनके गांव को नागरिकों के एक समूह और "उग्रवादी जैसे दिखने वाले" कुछ लोगों ने जलाकर राख कर दिया. उनकी पत्नी और बच्चे चूड़ाचांदपुर में एक रिश्तेदार के घर में रह रहे हैं, जबकि वह "परिवार के लिए कुछ कमाने" दिल्ली आए हैं.
उन्होंने कहा, "हमारे लिए अपने साथ कोई सामान लाना संभव नहीं था, क्योंकि लोग यहां-वहां एक-दूसरे की हत्या करने लग गए थे," और आरोप लगाया कि सुरक्षा बल "तटस्थ नहीं थे".
'भगवान पर भरोसा है, सरकार पर नहीं'
हालांकि मणिपुर में स्थिति धीरे-धीरे सामान्य हो रही है, लेकिन शिविर में मौजूद लोग फिलहाल घर लौटने में डर रहे हैं और राज्य सरकार पर संदेह कर रहे हैं.
मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने पिछले सप्ताह केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की और उन्हें स्थिति के बारे में जानकारी दी. इससे पहले आदिवासी समुदाय के 10 विधायकों ने राज्य और केंद्र सरकार को पत्र लिखकर, कूकी-मिज़ो-चिन जनजाति के प्रति "घृणा" के कारण राज्य में "अलग प्रशासन" की मांग की थी.
"सरकार का कहना है कि स्थिति सामान्य है लेकिन मैं अभी घर लौटने के बारे में नहीं सोच रहा हूं," मणिपुर विश्विद्यालय के एक छात्र ने कहा.
वहीं उन महिला सरकारी कर्मचारी का कहना था कि उन्हें "सरकार पर नहीं बल्कि भगवान पर विश्वास है".
यह पूछे जाने पर कि राज्य सरकार ने स्थिति को कैसे संभाला, इस सामाजिक कार्यकर्ता ने जोर देकर कहा कि सरकार का काम "उम्मीद के मुताबिक नहीं था".
'दिल्ली नहीं थी पहली पसंद'
महीने के पहले सप्ताह में जब मणिपुर जल रहा था, तो हिंसा में बचे लोगों ने इम्फाल हवाई अड्डे के रास्ते बच निकलने की कोशिश की, क्योंकि वे राज्य में सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे थे.
शिविर के समन्वयक मांग नगैह्ते ने कहा कि लोग दूसरे पूर्वोत्तर राज्यों में जाना चाहते थे. "चूंकि कोहिमा, गुवाहाटी और अन्य पड़ोसी राज्यों की उड़ानें पहले से बुक थीं, लोगों को दिल्ली का टिकट लेना पड़ा, भले ही यह मणिपुर से बहुत दूर है," उन्होंने कहा.
उस समय हवाई जहाज़ का किराया आसमान छू रहा था और टिकटों की क़ीमत सामान्य दरों से दोगुनी-तिगुनी थी. अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित लोग प्रस्थान से दो या तीन दिन पहले हवाईअड्डे पर पहुंच गए थे क्योंकि वहां सुरक्षा बलों का पहरा था.
शांति के सवाल पर मांग के पास कोई जवाब नहीं था, लेकिन उन्होंने 10 आदिवासी विधायकों की मांग के आधार पर एक अलग प्रशासन का समर्थन किया.
इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर में जान-माल के नुकसान पर चिंता व्यक्त की थी और राज्य और केंद्र सरकारों से राहत प्रयासों और सुरक्षा उपायों को बढ़ाने के लिए कहा था.
देखिए ये वीडियो.
Also Read
-
On Constitution Day, a good time to remember what journalism can do
-
‘Not a Maoist, just a tribal student’: Who is the protester in the viral India Gate photo?
-
The Constitution we celebrate isn’t the one we live under
-
Malankara Society’s rise and its deepening financial ties with Boby Chemmanur’s firms
-
130 kmph tracks, 55 kmph speed: Why are Indian trains still this slow despite Mission Raftaar?