Opinion
मिथक तोड़ती यह कहानी, जंगल का कानून वैसा नहीं जो इंसानों ने बताया
टीवी, अखबार और सोशल मीडिया पर अराजकता और कानून-व्यवस्था की नाकामी का आरोप लगाने के लिए जिस एक शब्द का बड़ी आसानी से बार-बार प्रयोग होता है वह है– जंगलराज. राजनीतिक विरोधी एक-दूसरे पर, तो टीवी एंकर स्टूडियो में इस जुमले का इस्तेमाल अक्सर करते हैं. उनके मुताबिक कानून का राज खत्म होते ही जंगलराज कायम हो जाता है जिसमें किसी जान की कीमत नहीं और कोई भी सुरक्षित नहीं. सच यह है कि जंगल इंसानी बस्तियों से कहीं बेहतर और सुव्यवस्थित हो सकते हैं. वहां क्रूरतम और सबसे कमजोर, हिंसक और निरीह, विशाल और सूक्ष्म के सहअस्तित्व की अपार संभावनाएं होती हैं.
जिम कॉर्बेट की कहानी “द लॉ ऑफ जंगल” (जंगल का कानून) दो गरीब पहाड़ी मजदूरों हरकुआ और कुंती के दो बच्चों की है. इस दलित दंपति का तीन साल का बेटा पुनवा और उसकी दो साल की बहन पुतली शुक्रवार दोपहर को जंगल में खो जाते हैं. रोजगार के लिए भटकते इस युवा जोड़े ने कुमाऊं के कालाढूंगी में जंगल के बाहर अपना झोपड़ा बसाया. हर रोज वह बच्चों को घर पर छोड़ कर काम पर निकल जाया करते लेकिन एक दिन घर पहुंचने पर देखा कि पुनवा और पुतली गायब थे. बच्चों के न मिलने पर उनकी लंबी तलाश शुरू हुई जिसका रोमांचक वर्णन शुरू करने से पहले कॉर्बेट पाठकों को बताते हैं कि कई सालों तक वह पूरा जंगली इलाका उनका “प्रिय शिकार स्थल” रहा, जहां हिंसक जंगली जानवरों की कमी न थी. उनके मुताबिक पांच बाघ, आठ तेंदुए, चार रीछों का परिवार तो उस वन क्षेत्र में था ही, लकड़बग्घों, जंगली कुत्तों और सियारों की भी कोई कमी न थी.
शुक्रवार दोपहर को गायब हुए नन्हे बच्चे जब ढाई दिन की अथक तलाश के बाद नहीं मिलते तो मां-बाप सारी आस छोड़ देते हैं. लेकिन सोमवार की दोपहर जंगल में गए चरवाहों को पुनवा और पुतली नींद में एक दूसरे से लिपटे मिलते हैं. भूख-प्यास से निढाल लेकिन बिल्कुल सुरक्षित. कॉर्बेट बताते हैं कि यह कतई संभव नहीं कि जो 77 घंटे बच्चों ने उस घने बियाबान में बिताए उस दौरान किसी जंगली पशु या पक्षियों ने उन्हें देखा न हो “लेकिन जब चरवाहों ने उन्हें माता-पिता की गोद में सौंपा तो उनके शरीर में किसी दांत या पंजे का निशान नहीं था.”
रक्त पिपासु और हिंसक भाषा से लबरेज संचार माध्यमों के बीच आज इंसानी बस्तियों को सभ्य और जंगल को दुर्दांत साबित करने की होड़ है और जंगलराज इसी अभिव्यक्ति का मिथ्यानाम है. कॉर्बेट की यह कहानी इस मिथक को तोड़ती है और बताती है कि जंगल का कानून वैसा नहीं होता जो इंसानी बस्तियों में इंसानों द्वारा चित्रित किया जाता है. वहां हवा-पानी अधिक साफ और वातावरण सहज होता है और सभी जीव कहीं अधिक समावेशी और सुकून भरी जिंदगी जीते हैं.
पुनवा और पुतली की दास्तान 1952 में प्रकाशित हुई कॉर्बेट की पुस्तक “माइ इंडिया” की एक कहानी है. तब यह पुस्तक बाजार में आते ही कॉर्बेट की विश्व चर्चित “द मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं” जैसी ही लोकप्रिय बन गई. घटना के कई साल बाद तक इसके प्रकाशक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस को दुनिया भर से पाठकों के खत आते रहे. उनमें ऐसे खत भी थे जिनमें लोग पुनवा और पुतली को ढूंढना और मिलना चाहते थे. इसके पीछे जंगल के कानून की ताकत थी जिसने विपरीत परिस्थितियों में दो मासूम बच्चों को जीवित रखा.
पिछले कई दशकों में जंगल में इंसानों के प्रवेश ने वहां की शांति और संतुलन को भंग किया है. आज जंगल खतरे में हैं तो पूरा विश्व डोल रहा है. ये जंगल ही हैं जो नदियों, झरनों और मिट्टी को बचाए हैं जबकि इंसान समाज और जंगल दोनों जगह लगने वाली आग का जिम्मेदार है. जंगलराज की बात करने वाले शहरी सभ्य जंगल की फितरत और जंगलवासियों के स्वभाव को कभी नहीं समझ पाएंगे.
Also Read
-
Hafta 483: Prajwal Revanna controversy, Modi’s speeches, Bihar politics
-
Can Amit Shah win with a margin of 10 lakh votes in Gandhinagar?
-
Know Your Turncoats, Part 10: Kin of MP who died by suicide, Sanskrit activist
-
In Assam, a battered road leads to border Gorkha village with little to survive on
-
Amid Lingayat ire, BJP invokes Neha murder case, ‘love jihad’ in Karnataka’s Dharwad