Sena
दरकते गांवों पर जलवायु परिवर्तन से बढ़ा संकट
जोशीमठ से 30 किलोमीटर दूर बद्रीनाथ के रास्ते पर पड़ने वाले लामबगड़ में 10 साल बाद भी वैसी चहलपहल नहीं लौटी है जिससे वह कभी गुलज़ार रहा करता था. 2013 में आई बाढ़ में यह पूरा गांव बह गया था. आज लामबगड़ में अलकनंदा की गर्जना के अलावा सब कुछ खामोश है.
यहां एक छोटी सी दुकान चलाने वाले भगवत चौहान कहते हैं, “पहले यहां एक अच्छी सड़क थी. करीब 40 दुकानें भी हुआ करती थीं और चहलपहल रहती थी. हमारा कारोबार अच्छा चलता था लेकिन 2013 की बाढ़ में सड़क, दुकानें और गाड़ियां सब बह गईं. तब मेरा करीब 4-5 लाख रुपए का नुकसान हुआ.”
दरकते गांवों की अंतहीन सूची
भगवत चौहान के भतीजे कमलेश जोशीमठ में एक होटल चलाते हैं लेकिन वह भी सूना पड़ा है. कमलेश कहते हैं, “लामबगड़ में करने को कुछ खास नहीं है. हम बद्रीनाथ में छोटा-मोटा कारोबार करते थे. कोरोना महामारी के बाद जब टूरिज़्म ठप्प हुआ तो जोशीमठ में किराए पर होटल शुरू किया लेकिन अब यहां भी बर्बादी के कारण कमाई जीरो हो गई है.”
जोशीमठ जैसी ही तस्वीर लामबगड़ में दिखती है. कमलेश हमें यहां अलग-अलग मकानों में दरारें दिखाते हैं. इसमें उनका घर भी शामिल है. वह कहते हैं, “यहां करीब 40 से 50 घरों में दरारें हैं जो बढ़ रही हैं. कुछ लोगों ने मरम्मत भी कराई है लेकिन उसका कुछ अधिक फायदा नहीं हुआ.”
अलकनंदा के रास्ते में पड़ने वाले गांवों में बर्बादी ही दिखती है. लामबगड़ से पांच किलोमीटर दूर बसे पांडुकेश्वर की ग्राम प्रधान बबीता पंवार को याद है कि किस तरह 2013 के सैलाब में बद्रीनाथ मार्ग पर बसे गांवों की कृषिभूमि और पशुधन भी बह गया. उनका कहना है कि 2013 में विष्णुप्रयाग जलविद्युत परियोजना के बांध से अचानक निकली गाद और पानी से यहां के गांवों का नक्शा ही बदल गया और बहुत सारे लोग उस नुकसान से कभी उबर नहीं पाए. अब जोशीमठ में ताजा संकट के बाद यहां लोगों का डर बढ़ रहा है.
पंवार कहती हैं, “2013 के बाद इस क्षेत्र में संकट बढ़ता गया है और लगातार आपदाएं आ रही हैं. इसकी मुख्य वजह तो यही है कि हमारे पहाड़ों को लगातार छेदा जा रहा है. उस साल (2013 में) जो आपदा आई थी तो मुख्य कारण यही था कि (जेपी कंपनी का) जो बांध है वह पूरा भर गया और वहां से पानी और गाद आई तो हमारा आधा गांव बह गया. बहुत सारे मकान, खेत, दुकानें और गौशालाएं बह गईं. इस पूरे गांव का नक्शा और तस्वीर ही बदल गई. हमें आगे भी आपदाओं का डर है और जिस तरह आज जोशीमठ में भूधंसाव हो रहा है वह यहां कभी भी हो सकता है.”
जोशीमठ से करीब 20 किलोमीटर दूर चाईं गांव में 2007 से बर्बादी के स्पष्ट निशान दिख रहे हैं. इस रिपोर्टर ने खुद 2021 में चाईं गांव जाकर वहां के हालात पर रिपोर्टिंग की थी. इस गांव के नीचे से विष्णुप्रयाग पावर प्रोजेक्ट की सुरंग जाती है. गांव के लोग कहते हैं कि कंपनी ने सुरंग बनाने के लिए बहुत सारे विस्फोट किए. चाईं गांव कभी रसीले फल और सब्ज़ियों के लिए जाना जाता था लेकिन अब विस्फोटों के कारण यहां खेत सूख गए हैं और फसलें नहीं होती.
“दुर्घटना के लिए लोग स्वयं होंगे जिम्मेदार”
साल 2013 की बाढ़ में उत्तराखंड के कई हिस्सों में भारी तबाही हुई. चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ ज़िलों में कई हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स को भारी क्षति पहुंची और इन हाइड्रो प्रोजेक्ट्स के कारण इन जिलों में कई गांव तबाह हुए. तब सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एक्सपर्ट बॉडी ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा था कि लामबगड़ और उसके निकट बसे पांडुकेश्वर और गोविन्दघाट में हुई तबाही में विष्णु प्रयाग हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की भूमिका थी. यह 400 मेगावॉट का प्रोजेक्ट निजी कंपनी जेपी का है.
एक्सपर्ट बॉडी की बात को सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में दायर शपथपत्र में भी शामिल किया. इसमें कहा गया है कि -
विष्णु प्रयाग (हाइड्रो प्रोजेक्ट के) बांध ने अलकनंदा की सहायक नदी खिरों गंगा से बड़ी मात्रा आए गाद के प्रवाह में बाधा डाली. इससे सरकारी और निजी सम्पत्ति का अत्यधिक नुकसान हुआ.
आज लामबगड़ में बद्रीनाथ मार्ग पर चेतावनी बोर्ड लगे हैं जिन पर लिखा है कि परियोजना के संचालन में “ट्रांसमिशन लाइन या मशीनों में अकस्मात दोष पैदा होने पर कभी भी मशीनों को बंद करना पड़ सकता है.” इस चेतावनी के मुताबिक ऐसी स्थिति में अलकनंदा में जलस्तर अचानक बढ़ सकता है. जिलाधिकारी की ओर से लगाई इन चेतावनियों में साफ कहा गया है कि “लोग नदी तट से दूर रहें और अपने मवेशियों और परिसंपत्तियों की देखभाल सुनिश्चित करें.” चेतावनी कहती है कि किसी भी दुर्घटना के लिए लोग स्वयं जिम्मेदार होंगे.
जलवायु परिवर्तन का बढ़ता असर
उत्तराखंड का कुल क्षेत्रफल करीब 53,000 वर्ग किलोमीटर है और इसमें 90 प्रतिशत से अधिक पहाड़ी इलाका है. इसका करीब 64% वनक्षेत्र है. उत्तरी भाग में ऊंची हिमालयी चोटियों पर ग्लेशियर हैं और निचले पहाड़ों पर घने जंगल. यह अति संवेदनशील भूकंपीय क्षेत्र तो है ही यहां जंगलों में आग, भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं लगातार होती है. जानकार चेतावनी देते हैं कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर को देखते हुए ऐसे संवेदनशील इलाकों में निर्माण के कड़े मापदंड होने चाहिए.
हैदराबाद स्थित भारती इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में रिसर्च डायरेक्टर और आईपीसीसी रिपोर्ट के सहलेखकों में एक डॉ अंजल प्रकाश कहते हैं कि चारधाम यात्रा मार्ग हो या हाइड्रो पावर परियोजनाओं का निर्माण, अगर संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में यह किया जाना है तो नियमों का कड़ाई से पालन करना होगा.
डॉ अंजल प्रकाश के मुताबिक, “जलविद्युत जो कि एक नवीकरणीय और साफ ऊर्जा का स्रोत माना जाता है उसका प्रभाव पर्यावरण पर नकारात्मक रहा है. यह नदी के पूरी पारिस्थितिक तंत्र और विशेष रूप से जलीय जैव विविधता और जलछट के प्रभाव को बदल रहा है. बड़े-बड़े बांधों में कार्बनिक पदार्थों के अपघटन से मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन में योगदान कर रहा है. सड़क या विशाल जलविद्युत योजनाओं की कागज पर प्लानिंग अगर सही तरीके से हो भी जाए तो उनका क्रियान्वयन नियमों को ताक पर रखकर होता है. कुशल इंजीनियरों के बजाय सारा निर्माण उन ठेकेदारों के हवाले कर दिया जाता है जो न तो विज्ञान को समझते हैं और न इस क्षेत्र के भूगोल को.”
हिमनदीय क्षेत्रों में तापमान वृद्धि औसत वॉर्मिंग से अधिक हो रही है और हिमनदीय झीलें फट रही हैं. डॉ अंजल बताते हैं, “जोशीमठ हो या कोई भी हिमालयी कस्बा वहां जनसंख्या का संसाधनों पर भारी दबाव है. असामान्य अतिवृष्टि के कारण भूस्खलन बढ़ रहे हैं और इन हिमालयी क्षेत्रों में मिट्टी को बांध रखने और पानी की निकासी का कोई उचित प्रबंध नहीं है.”
साल 2015 में भूगर्भ विज्ञानी वाईपी सुंदरियाल समेत सात जानकारों के शोध में साफ लिखा गया कि "हिमालयी क्षेत्र और खासतौर से उत्तराखंड में मौजूदा विकास नीति और नदियों पर विराट जलविद्युत की क्षमता के दोहन का पुनर्मूल्यांकन की जरूरत है.”
भूविज्ञानी नवीन जुयाल (सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एक्सपर्ट कमेटियों में रहे चुके हैं) ने केदारनाथ आपदा के वक्त अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी नदियों के जलस्तर में अचानक वृद्धि और उसके प्रभाव का अध्ययन किया था. वह 2021 में ऋषिगंगा नदी में आई बाढ़ (जिसके बाद एनटीपीसी के पावर प्लांट में 200 लोगों की मौत हुई थी) को याद करते हुए कहते हैं कि नीति निर्माता “जलवायु परिवर्तन से जुड़ी वास्तविकता और नदियों के स्वभाव” को समझने में नाकाम रहे हैं.
जुयाल ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “लोग यह नहीं समझ रहे हैं कि नदियां अपने साथ केवल पानी नहीं लाती. वह बहुत सारी मिट्टी और गाद भी बहाकर लाती हैं. यह सारी मिट्टी और गाद उन ग्लेशियरों की होती है जो पिघल कर पीछे हट गए हैं. फलस्वरूप नदियों में गाद की मात्रा बढ़ रही है और उनकी विनाशक क्षमता भी.”
उत्तराखंड के कई हिस्से ऐसे ही पैरा ग्लेशियल इलाकों में हैं जहां हिमनद पिघल कर पीछे हट चुके हैं. जुयाल कहते हैं, “इस क्षेत्र में कोई भी चरम मौसमी घटना स्थिति को और अधिक खराब करेगी. इसलिए क्लाइमेट चेंज को ध्यान में रखते हुए इस क्षेत्र में बड़ी परियोजनाएं नहीं लाई जानी चाहिए.”
Also Read: जोशीमठ आपदा और विकास योजनाओं की फेहरिस्त
Also Read
-
NDA claims vs Bihar women’s reality: Away from capital, many still wait for toilet, college, and a chance
-
We already have ‘Make in India’. Do we need ‘Design in India’?
-
Skills, doles, poll promises, and representation: What matters to women voters in Bihar?
-
Not just freebies. It was Zohran Mamdani’s moral pull that made the young campaign for him
-
‘Not everyone can afford air purifiers’: Delhi protest seeks answers on air crisis