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जिस ‘स्वराज सीरियल’ की पीएम से लेकर गृहमंत्री कर रहे तारीफ उसका संघ से जुड़े लोगों ने किया शोध
28 अगस्त को ‘मन की बात’ करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आग्रह किया कि देशवासी समय निकालकर दूरदर्शन पर प्रसारित हो रहे सीरियल स्वराज को खुद भी देखें और अपने बच्चों को भी जरूर दिखाएं. ताकि आजादी के महानायकों के प्रति हमारे देश में एक नई जागरूकता पैदा हो.
इससे पहले 17 अगस्त को संसद भवन के बालयोगी सभागार में पीएम मोदी, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय मंत्री और अन्य सांसदों के लिए ‘स्वराज सीरियल’ की विशेष स्क्रीनिंग रखी गई थी. इस विशेष स्क्रीनिंग से पहले 5 अगस्त को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने शो का शुभारंभ किया था.
आजादी के अमृत महोत्सव के बीच शुरू हुए इस शो में 75 एपिसोड हैं. 14 अगस्त से हर रविवार दूरदर्शन पर यह रात में नौ बजे प्रसारित होता है. शो में आज़ादी के गुमनाम नायकों के योगदान के बारे में बताया गया है. हिंदी के अलावा इसे नौ क्षेत्रीय भाषाओं में भी दिखाया जा रहा है. साथ ही इसे हर शनिवार को आकाशवाणी पर भी प्रसारित किया जा रहा है.
आखिर इस शो को इतने बड़े पैमाने पर क्यों प्रमोट किया जा रहा है? इस पर दूरदर्शन के एक वरिष्ठ कर्मचारी कहते हैं, “शो के जरिए आज़ादी की लड़ाई को भाजपा और आरएसएस के नजरिए से स्थापित किया जा रहा है.”
वे कहते हैं, “जब शो का प्रोमो लॉन्च किया गया तब खुद सीईओ ने इसे ग्रुप में शेयर कर सबको इसे शेयर करने के लिए बोला. तो आप समझ सकते हैं कितना प्रेशर है.”
बहरहाल हमने 14 अगस्त, 2022 से शुरू हुए इस सीरियल के कंटेट का एक आकलन किया. इसके प्रोडक्शन और निर्देशन से जुड़े लोगों से बातचीत की. हमने पाया कि प्रसार भारती ने 2019 में इसके लिए एक परामर्श समिति बनाई थी. इस समिति में पांच लोग शामिल थे.
कौन हैं शोध कमेटी के सदस्य?
शोध के लिए प्रसार भारती ने जो कमेटी बनाई, उसके पांच सदस्य हैं वरिष्ठ पत्रकार जवाहर लाल कौल, इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के निदेशक कुलदीप रत्नू, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हीरामन तिवारी, जम्मू कश्मीर स्टडी सेंटर के निदेशक आशुतोष भटनागर और ऑर्गनाइज़र के संपादक प्रफुल्ल केतकर.
अब यह जानबूझकर हुआ या अनजाने में, कमेटी में पांचों सदस्य आरएसएस और उसके सहयोगी संस्थाओं से जुड़े लोग हैं. इससे भी अहम बात यह है कि प्रोफेसर हीरामन तिवारी को छोड़कर बाकी किसी की न तो इतिहास में कोई विशेष दक्षता है न ही इन्होंने आजादी के आंदोलन पर कोई शोध आदि किया है.
सीरियल किस क़दर एक विचारधारा के दबाव में बना है इसका नमूना तब दिखा जब स्वराज सीरियल का पहला प्रोमो सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने 15 जुलाई को जारी किया. दो मिनट 47 सेकेंड के प्रोमो में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का नामो निशान नहीं था. इससे भी ज्यादा अचरज की बात ये कि इस प्रोमो में विनायक सावरकर को जगह दी गई थी. वह सावरकर जिनकी आज़ादी की लडाई में भूमिका संदिग्ध रही, जिनके ऊपर अग्रेजों से माफी और साठगांठ के आरोप हैं, जिनके ऊपर महात्मा गांधी की हत्या का षडयंत्र रचने का केस चला. आज़ादी के और भी कई प्रसिद्ध चेहरों को जगह नहीं मिली.
जवाहर लाल कौल
वरिष्ठ पत्रकार जवाहर लाल कौल ने पत्रकारिता की शुरुआत संघ के करीबी रहे मीडिया संस्थान हिंदुस्थान समाचार से की थी. बाद में वह दिनमान और जनसत्ता में भी रहे. साल 2016 में उन्हें साहित्य के लिए पद्मश्री दिया गया. जम्मू कश्मीर को लेकर लिखी उनकी किताब ‘द वुंडेड पैराडाइज़’ का सितंबर 2021 में जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने विमोचन किया. कौल वर्तमान में ‘प्रज्ञा’ संस्था के अध्यक्ष हैं. इस संस्था ने ही अप्रैल महीने में दिल्ली में अयोध्या पर्व का आयोजन किया था.
कुलदीप रत्नू
आरएसएस के सबसे बड़े थिंक टैंक माने जाने वाले इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन (आईपीएफ) के निदेशक पद पर मई 2019 में कुलदीप रत्नू की नियुक्ति हुई. उन्हें आरएसएस विचारक और वर्तमान में सासंद राकेश सिन्हा की जगह निदेशक बनाया गया. जब उन्हें यह पद सौंपा गया, उस मौके पर खुद संघ के शीर्ष पदाधिकारी सुरेश सोनी और दत्तात्रेय होसबाले मौजूद थे.
रत्नू स्वदेशी जागरण मंच के मुखपत्र ‘स्वदेशी पत्रिका’ के संपादक रह चुके हैं. न्यूज़18 की एक खबर के मुताबिक, संघ के नीतिगत निर्णयों में इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन की भूमिका हमेशा अहम होती है. रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि, कट्टर हिंदूवादी विषयों से लेकर वनवासियों को दक्षिणपंथी विचारधारा से जोड़ने, मुस्लिम आबादी से जुड़े विषयों, दलित चिंतन, सच्चर कमेटी और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट तक, हर विषय पर संघ, फाउंडेशन से सलाह लेता है.
आईपीएफ की वेबसाइट पर रत्नू के इतिहासविद होने के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती. इसके बावजूद उन्हें उस कमेटी का सदस्य बनया गया जिसे भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास का शोध करना था.
आशुतोष भटनागर
आशुतोष भटनागर भी आरएसएस से जुड़े एक थिंक टैंक जम्मू कश्मीर स्टडी सेंटर (जेकेएससी) के निदेशक हैं. इस सेंटर की स्थापना साल 2011 में संघ के तत्कालीन अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख अरूण कुमार ने की थी. वह वर्तमान में संघ के सरकार्यवाह हैं और उन्हें बीजेपी-संघ के बीच समन्वय की जिम्मेदारी सौंपी गई है.
भटनागर संघ की विचारधारा से प्रभावित हिंदुस्थान समाचार के संपादक भी रह चुके हैं. कई साल पत्रकारिता में काम करने के बाद वह रिसर्च क्षेत्र में काम करने लगे. भटनागर जम्मू कश्मीर के विषय पर होने वाले कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के लिए देश के अलग-अलग हिस्से में जाते रहते हैं. आरएसएस के स्कूली शिक्षा कार्यक्रम से जुड़े एक सदस्य कहते हैं, “जम्मू कश्मीर स्टडी सेंटर के रिसर्च ने अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35-ए को हटाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है.”
जेकेएससी की मीडिया निदेशक आभा खन्ना ने कहा था कि हमारे द्वारा किए गए शोध ने इस धारणा को खत्म कर दिया कि अनुच्छेद 370 को खत्म नहीं किया जा सकता. हालांकि पत्रिका अखबार से बात करते हुए आशुतोष भटनागर इस बात से इंकार करते हैं कि जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने में संस्था की कोई भूमिका है.
प्रो हीरामन तिवारी
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हीरामन तिवारी वर्तमान में सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज (सीएचएस) के चेयरपर्सन हैं. उनकी नियुक्ति अगस्त 2021 में उमेश कदम का तीन साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद हुई.
एक मात्र व्यक्ति जिनका इतिहास से संबंध है वह तिवारी ही हैं. लेकिन उनकी स्वतंत्रता के इतिहास में कोई विशेषज्ञता नहीं है. तिवारी का स्पेशलाइजेशन वैदिक टेक्स्ट में है और उनका ज्यादातर काम प्राचीन भारत पर है. साथ ही वह संस्कृति भाषा के विद्वान हैं.
हमने उनसे इस सीरियल के शोध के सिलसिले में बात करने के लिए फोन किया. प्रो हीरामन ने कहा, “हमारे विचार न्यूज़लॉन्ड्री से नहीं मिलते, इसलिए हम बात नहीं करेंगे.”
जेएनयू के हिस्ट्री डिपार्टमेंट के एक छात्र कहते हैं, “इनका राजनीतिक झुकाव शुरू से ही दक्षिणपंथी रहा है. पहले ट्विटर पर वह खुलकर बीजेपी-आरएसएस के बारे में लिखते थे, चेयरपर्सन बनने के बाद थोड़ा कम कर दिया है.”
प्रो हीरामन का ट्विटर टाइमलाइन पत्रकारों को ट्रोल करने और कांग्रेस और विपक्ष पर हमलों से भरा पड़ा है. अक्सर वो बीजेपी आईटी सेल और बीजेपी-संघ से जुड़े लोगों के ट्वीट रीट्वीट करते रहते हैं.
प्रफुल्ल केतकर
आखिरी सदस्य जो इस शोध कमेटी में शामिल हैं वह हैं, संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र के संपादक प्रफुल्ल केतकर. साल 2013 में वह ऑर्गनाइज़र के एडिटर बने थे. ऑर्गनाइज़र मैगजीन की वेबसाइट के मुताबिक, उन्हें पत्रकारिता, रिसर्च और अकादमिक क्षेत्र में 20 साल से ज्यादा का अनुभव है.
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की दिलचस्पी
जवाहर लाल कौल न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में कहते हैं, “शो पर रिसर्च करने के लिए हमें कुछ रिसर्चर्स भी मुहैया कराए गए थे. जिन्हें सीधे मंत्रालय से पेमेंट हुआ.”
दूरदर्शन के कर्मचारी कहते हैं, “भारत एक खोज सीरियल पहले से ही था, जिसमें प्राचीन भारत से लेकर भारत की आजादी के आंदोलन तक का किस्सा दर्ज है. लेकिन एक नया सीरियल बनाकर नया इतिहास बताने की कोशिश की जा रही है.”
‘भारत एक खोज’ सीरियल का आधार देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ थी.
गौरतलब है कि लॉकडाउन में जब कई सारे पुराने सीरियल दूरदर्शन पर दोबारा से दिखाए जा रहे थे, उस समय कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह ने तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावेड़कर को पत्र लिखकर ‘भारत एक खोज’ सीरियल को भी दिखाने की मांग की थी. लेकिन उसे नहीं दिखाया गया.
डीडी के एक अन्य कर्मचारी कहते हैं, “सब कुछ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से निर्धारित होता है कि कौन सा सीरियल बनाना है और कब बनाना है. प्रसार भारती सिर्फ एक रबर स्टांप की तरह उपयोग हो रहा है.”
प्रसार भारती के कर्मचारी बताते हैं, “ठाकुर (अनुराग) के मंत्री बनने के बाद कुछ खास बदलाव नहीं आया है. एक ही आदमी को तीन पद दिए गए तो आप समझ सकते हैं कि मंशा क्या है. ऐसा नहीं है कि प्रसार भारती में लोग नहीं हैं.”
यहां जिस आदमी की ओर इशार कर रहे हैं वो प्रसार भारती के सीईओ मयंक अग्रवाल हैं. अग्रवाल सीईओ के साथ ही, प्रसार भारती के चेयरमैन का भी अतिरिक्त काम देख रहे हैं और वह डीडी के डीजी भी हैं.
हमने शो और शोध कमेटी की नियुक्ति से जुड़े कुछ सवाल मयंक अग्रवाल को भेजे हैं. अभी तक उनका जवाब नहीं मिला है.
इतिहास बदलने की कोशिश
'स्वराज - भारत के स्वतंत्रता संग्राम की समग्र गाथा' सीरियल में 1498 से लेकर 1947 तक का समयकाल लिया गया है. सरकार का कहना है कि यह सीरियल स्वतंत्रता सेनानियों और स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों के योगदान के बारे में बताएगा. 1498 वह समय था जब वास्को-डि-गामा भारत आया. उस समय वह भारत में व्यापार करने आए थे. तब भारत अंग्रेजों का गुलाम नहीं था. पूरा भारत छोटे-बड़े राजवाड़ों में बंटा हुआ था.
शो में रानी अब्बक्का, बख्शी जगबंधु, तिरोट सिंग, सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू, शिवप्पा नायक, कान्होजी आंग्रे, रानी गैदिनल्यू, तिलका मांझी, रानी लक्ष्मीबाई, महाराज शिवाजी, तात्या टोपे, मैडम भीकाजी कामा आदि नायकों के बारे में बताया जाएगा.
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिस्ट्री के प्रोफेसर सौरभ बाजपेयी कहते हैं, “यह जो नाम है वह गुमनाम नायक नहीं हैं. अगर अभी तक यह गुमनाम थे तो इनके नाम कैसे लोग जानते हैं? यह असल में हिस्ट्री से नामों को हटाना चाहते हैं. सरकार का प्रोजेक्ट नेहरू, कांग्रेस और गांधी विरोधी है. सब जानते हैं कि सरकार की मंशा क्या है.”
वह आगे कहते हैं, “1757 में प्लासी का युद्ध हुआ. उसमें पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल के नवाब को हरा दिया. राष्ट्रवाद की कोई भावना उस समय तक लोगों में नहीं थी. 1857 के बाद के समय को असल में स्वतंत्रता की लड़ाई का समय माना जाता है. जब लोगों में अंग्रेजों से आज़ादी का विचार आया.
‘डिक्शनरी ऑफ मार्टर्स’ जिसे भारत सरकार ने आज़ादी की लड़ाई में शहीद हुए लोगों के नाम दर्ज करने के लिए बनाया था, उसका भी समय 1857 से 1947 तक रखा गया है. यानी की भारत सरकार भी खुद देश की लड़ाई को 1857 से ही मानती है. बता दें कि इस लिस्ट में करीब 15 हजार से ज्यादा शहीदों के नाम हैं. इस डिक्शनरी के आखिरी खंड को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल 11 अगस्त को लॉन्च किया था.
बाजपेयी आगे कहते हैं, “जब तक भारत गुलाम नहीं हो गया तब तक अंग्रेज, पुर्तगाली, फ्रेंच भारत में अलग-अलग व्यापारिक ताकत के रूप में काम करते थे. 1498 से आज़ादी की लड़ाई को मापने का कोई मतलब ही नहीं है.”
“पुर्तगाली से जो लड़ रहा है वह देश की आजादी के लिए लड़ रहा, यह ऐसी बात हो गई कि देश है नहीं और देश की आजादी की लड़ाई चल रही है,” बाजपेयी कहते हैं.
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय आधुनिक इतिहास की प्रोफेसर और ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ किताब की को-ऑथर सुचेता महाजन कहती हैं, “देश की स्वतंत्रता की लड़ाई को 1857 के बाद माना जाता है. उससे पहले जो लड़ाइयां हुईं वह स्वतंत्रता की विचारधारा से प्रेरित नहीं थी. राष्ट्रवाद की विचारधारा बाद में विकसित हुई."
वह आगे कहती हैं कि वास्को-डि-गामा के आने से पहले से ही विदेशी भारत से व्यापार कर रहे थे. पुर्तगाली, फ्रेंच व्यापारी जो देश में आए उन्होंने देशी रजवाड़ों के मामलों में दखल दिया. यह भी सच है कि भारत उस समय यूरोप और पश्चिमी देशों से कहीं ज्यादा संपन्न देश था.
सीरियल में जो कहा गया है की पुर्तगाली और स्पेनिश व्यापारी ईसाई धर्म के प्रचार के लिए भेजे गए उस पर महाजन कहती हैं, “वह समय धर्म के प्रचार-प्रसार का नहीं मुख्यतौर से व्यापार का समय था. जो ईसाई धर्म को लेकर शो में दिखाया जा रहा है उससे दर्शकों को कुछ और ही संदेश देने की कोशिश हो रही है.”
जेएनयू में पढ़ाने के साथ-साथ कई महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों के सदस्य रह चुके एक शख्स नाम नहीं छापने की शर्त पर सीरियल के लिए बनी कमेटी के सदस्यों के बारे में कहते हैं, “हिंदू राष्ट्रवालों की बहुत पुरानी समझ है कि गुलामी जो है वह अंग्रेजों से नहीं बल्कि उससे पहले से शुरू होती है. यह लोग अपने तरह से हिस्ट्री को लिख रहे है.”
रिसर्च और कंटेंट
शोध कमेटी के सदस्य जवाहर लाल कौल कहते हैं, “हमने इस शो में उन सभी नायकों को दिखाया है जिन्होंने देश की आजादी में योगदान दिया है. फिर चाहे वह वीर सावरकर हों, हिंदू महासभा के लोग हों या जवाहर लाल नेहरू.”
वे कहते हैं, “यह सीरियल उन नायकों के बारे में भी है जिनके बारे में लोगों ने सुना है लेकिन ज्यादा जानकारी नहीं है. इसलिए हम शो में ऐसे नायकों के बारे में बताएंगे जिन्होंने अपने-अपने स्तर पर देश के लिए लड़ाई लड़ी.”
सीरियल के शोध में कमेटी के साथ बतौर रिसर्चर काम करने वाली अंकिता कुमार नायकों की कहानियों के चयन के पैमाने को लेकर कहती हैं, “हमने हर नायक को लेकर गहन शोध किया. हमने कोशिश की, कि देश के हर कोने से ऐसे नायकों के बारे में बताया जाए जिन्होंने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी.”
कौल कहते हैं, “कमेटी ने ही तय किया कि किन नायकों की कहानियां हमें दिखानी हैं और यह सब प्रोडक्शन कंपनी, प्रसार भारती और मंत्रालय की साझा बैठक में निर्धारित किया गया.”
वह बताते हैं कि हमारी टीम शोध करके देती है. प्रोडक्शन कंपनी के रिसर्चर और कंटेंट राइटर फिर स्क्रिप्ट लिखते हैं. जिसे वह जांच के लिए प्रसार भारती को भेजते हैं. फिर वह स्क्रिप्ट हम देखते हैं ताकि शो में कोई गलती ना जाए.
प्रोडक्शन हाउस के मालिक और शो के निर्माता अभिमन्यु सिंह कहते हैं, “इस शो के प्रोडक्शन का काम फरवरी 2020 में शुरू किया था. अभी इसे बनाने में एक साल और लगेगा. हम शो पर लगातार काम कर रहे हैं.”
शो के कंटेंट और शोध पर वह कहते हैं, “हम जो भी काम करते हैं वह प्रसार भारती के साथ सलाह-मशविरे के बाद ही करते हैं. बाकी आप ज्यादा जानकारी के लिए प्रसार भारती के सीईओ से बात करें.”
अभिमन्यु की कॉन्टिलो प्रोडक्शन कंपनी रानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, अशोक सम्राट और भी कई ऐतिहासिक नायकों पर शो बना चुकी है. शो से जुड़े कुछ और सवाल करने पर अभिमन्यु ने हमें प्रसार भारती से बात करने को कहा.
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