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स्वच्छ गंगा निधि: कहां तक पहुंची बात
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट्स में से एक गंगा नदी की सफाई भी है. साल 2014 में सरकार बनते ही ‘नमामि गंगे योजना’ की शुरुआत हुई जिसका उद्देश्य गंगा को स्वच्छ बनाने के साथ ही उसके प्राचीन गौरव को वापस लाना है. इस योजना के तहत गंगा की सफाई के लिए करीब 20 हज़ार करोड़ रुपए का बजट जारी किया गया था.
2014-15 में ही मोदी सरकार ने स्वच्छ गंगा निधि (सीजीएफ) को स्थापित किया, जो एक ट्रस्ट के माध्यम से चलती है. न्यूज़लॉन्ड्री को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मिली जानकारी के मुताबिक, 31 मार्च 2022 तक इस निधि में मिली राशि में से सरकार महज 27 प्रतिशत ही खर्च कर पाई है.
जल शक्ति मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के मुताबिक सीजीएफ को वित्त वर्ष 2014-15 से लेकर 2021-22 तक 595.44 करोड़ रुपए प्राप्त हुए, जिसमें से सरकार अब तक सिर्फ 161.52 करोड़ रुपए खर्च कर पाई है. इस निधि के निर्माण के तीन सालों तक सरकार ने इसमें से कोई खर्च नहीं किया था. वहीं इसके तहत पहली बार किसी परियोजना की स्वीकृति साल 2018 में मिली.
हालांकि न्यूज़लॉन्ड्री ने इसको लेकर राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) के कार्यकारी निदेशक (वित्त) भास्कर दासगुप्ता से इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि इसके तहत अब तक 398.86 करोड़ रुपये लगत की 29 परियोजनाओं की स्वीकृत दी जा चुकी है.
सीजीएफ को 21 जनवरी 2015 को, भारतीय ट्रस्ट अधिनियम 1882 के तहत एक ट्रस्ट के रूप में पंजीकृत किया गया था. इसके निर्माण का मकसद था कि देश के निवासी, एनआरआई और विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के नागरिक, गंगा की सफाई में अपना योगदान दे सकें. साथ ही यह सुनिश्चित किया गया कि सीजीएफ की देखरेख वित्त मंत्री की अध्यक्षता में एक ट्रस्ट द्वारा की जाएगी.
सरकार का जोर था कि एनआरआई और भारतीय मूल के विदेशी नागरिक गंगा की सफाई में सक्रिय होकर मदद करें पर ऐसा हुआ नहीं. इस निधि में बीते आठ सालों में इन्होंने कुल 43 लाख रुपए की मदद राशि दी है. यह कुल प्राप्त राशि का महज 0.07 प्रतिशत है. बीते वित्त वर्ष 2021-22 में तो किसी भी एनआरआई या भारतीय मूल के विदेशी नागरिक ने इस निधि में योगदान नहीं दिया.
वहीं बीते आठ सालों में भारतीय नागरिकों ने सीजीएफ में व्यक्तिगत रूप से 38.44 करोड़ रुपए का योगदान दिया है. यह कुल प्राप्त राशि का 6.38 प्रतिशत है.
अप्रैल 2021 में पीआईबी ने एक प्रेस रिलीज जारी की जिसके मुताबिक गंगा के संरक्षण और कायाकल्प में स्वच्छ गंगा निधि अहम भूमिका निभा रही है. इस प्रेस रिलीज में राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) के कार्यकारी निदेशक (वित्त) रोजी अग्रवाल ने कहा, ‘‘स्वच्छ गंगा निधि की शुरुआत लोगों में गंगा नदी को लेकर उत्साह बढ़ाने, गंगा के करीब लाने और एक स्वामित्व की भावना पैदा करने वाली पहल के तौर पर की गई. यह देखकर खुशी होती है कि कई बड़े संगठन और आम लोग गंगा निधि में योगदान के लिए आगे आ रहे हैं.’’
हालांकि यह हकीकत नहीं है. इस निधि में आम भारतीय नागरिकों या विदेशों में रह रहे भारतीय नागरिकों से प्राप्त हुई राशि बहुत कम है. कुल प्राप्त राशि का 90 प्रतिशत से ज़्यादा सरकारी और निजी कंपनियों ने सीएसआर के तहत दिया है. इसको लेकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण साल 2019 में चिंता जाहिर कर चुकी हैं.
इसको लेकर भास्कर दासगुप्ता कहते हैं, ‘‘8,000 से अधिक व्यक्तिगत दाताओं ने सीजीएफ में योगदान दिया है, जो गंगा को पुनर्जीवित करने के प्रयासों में बड़ी सार्वजनिक भागीदारी को दर्शाता है. लेकिन व्यक्तिगत योगदान स्वाभाविक रूप से बहुत बड़े नहीं होते. इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और कॉरपोरेट्स के योगदान की सीजीएफ में अधिक हिस्सेदारी है.”
तीन साल में शून्य खर्च
न्यूज़लॉन्ड्री को प्राप्त दस्तावेज के मुताबिक सीजीएफ के गठन के तीन सालों तक किसी भी परियोजना पर कोई खर्च नहीं हुआ. वहीं इस दौरान लगभग 200 करोड़ इस निधि में जमा हुए.
ऐसा नहीं है कि सरकार को सीजीएफ में प्राप्त राशि को खर्च नहीं करने पर किसी ने सवाल नहीं उठाए. द वायर की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिसंबर 2017 में राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) पर नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने एक रिपोर्ट जारी की थी. इस रिपोर्ट में कहा गया कि सीजीएफ में जितनी राशि प्राप्त हुई, उसका बहुत कम हिस्सा खर्च हुआ. गंगा की सफाई के लिए निधि में प्राप्त राशि को खर्च करने की जरूरत है.
लगता है कि कैग की रिपोर्ट के बाद ही शायद केंद्र सरकार की नींद खुली और इस रिपोर्ट के छह महीने बाद सीजीएफ के तहत पहली परियोजना को मंजूरी दी गई.
न्यूज़लॉन्ड्री ने इस निधि के जरिए कराये गए कामों की भी जानकारी प्राप्त की है. इसके तहत अब तक 14 परियोजनाओं पर काम हुआ है. पहली बार किसी परियोजना को मंजूरी जून 2018 में दी गई, यानी सीजीएफ के गठन के करीब चार साल बाद. पहली पांच परियोजनाओं में उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में वनरोपण था. आगे चलकर इस निधि के तहत हर की पौड़ी काम्प्लेक्स का विकास कराया गया साथ ही गंगा जिन राज्यों से गुजरती है, वहां के कुछ घाटों के मरम्मत का काम हुआ.
शुरुआत के सालों में फंड के जरिए कोई काम नहीं किए जाने के सवाल पर भास्कर दासगुप्ता बताते हैं, ‘‘सीजीएफ की स्थापना के ट्रस्ट डीड के अनुसार, फंड का उद्देश्य गंगा की कायाकल्प के लिए चलाये जाने वाले कार्यक्रमों पर पैसे खर्च करना था. चूंकि वित्तीय वर्ष 2014-15 से वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान नमामि गंगे-I कार्यक्रम से पर्याप्त आवंटन उपलब्ध था, इसलिए प्रारंभिक वर्षों के दौरान सीजीएफ से परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिए कोई दबाव महसूस नहीं किया गया था.’’
‘वित्त मंत्री की व्यस्तता की वजह से नहीं होती मीटिंग’
भारत सरकार की वित्त मंत्री के नेतृत्व में चलने वाला ट्रस्ट सीजीएफ की देखरेख करता है. 24 सितंबर 2014 को पीआईबी द्वारा जारी प्रेस रिलीज में सरकार ने बताया कि इस ट्रस्ट में वित्त मंत्री के अलावा सरकार द्वारा नामित एनआरआई सहित अलग-अलग विभागों के 8 सदस्य होंगे.
इनमें सचिव (आर्थिक मामले), सचिव (प्रवासी भारतीय मामले), सचिव (पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन) और सचिव (जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण), राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के सीईओ के साथ साथ ही संबंधित राज्य सरकारों के दो सचिव, बारी-बारी से ट्रस्ट के सदस्य होंगे. इससे इतर सरकार विशेषज्ञों या सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठित व्यक्तियों को विशेषज्ञ आमंत्रित सदस्यों के रूप में नामित कर सकती है.
इस ट्रस्ट की अब तक कितनी मीटिंग हुईं, न्यूज़लॉन्ड्री ने इसकी जानकारी भी आरटीआई के जरिए मांगी थी. प्राप्त जानकारी के मुताबिक आठ सालों में इस ट्रस्ट के सदस्यों ने महज चार मीटिंग की हैं. इनमें से दो मीटिंग्स में बोर्ड ऑफ़ ट्रस्टी ने एक साथ बैठक की, वहीं दो बार सर्कुलेशन के जरिए. सर्कुलेशन यानी योजना से जुड़ी फाइल एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस भेजी जाती है.
जल शक्ति मंत्रालय के एक अधिकारी न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘नियम के मुताबिक तो ट्रस्ट के सदस्यों को साल में दो बार मीटिंग करनी है, लेकिन ट्रस्ट की प्रमुख वित्त मंत्री हैं. वित्त मंत्री को व्यस्तता होती है, जिस कारण मीटिंग नहीं हो पाती. हम अपने स्तर पर बैठक कर योजनाओं पर काम करते रहते हैं.’’
वहीं भास्कर दासगुप्ता की माने तो ट्रस्ट की बैठक नहीं होने से इसके काम पर कोई असर नहीं पड़ता है. वे अपने लिखित जवाब में बताते हैं, ‘‘न्यासियों के बोर्ड द्वारा सीजीएफ के सीईओ को न्यास के प्रबंधन को लेकर बोर्ड के ढांचे के अंतर्गत पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं. ऐसे में फंड का संचालन प्रभावित नहीं हुआ है.”
ट्रस्ट के सदस्यों की पहली मीटिंग 29 मई 2015 को हुई. इस बार ट्रस्ट से जुड़े लोगों ने एक साथ बैठकर चर्चा की. इसके बाद दूसरी मीटिंग 31 मई 2018 हुई. यह मीटिंग सर्कुलेशन के जरिए हुई. तीसरी मीटिंग 3 अक्टूबर 2019 को हुई. इस बार ट्रस्ट से जुड़े लोगों ने मिलकर सलाह-मशविरा किया. आखिरी बैठक 24 दिसंबर 2021 को सर्कुलेशन के जरिए हुई है.
मई 2015 में हुई मीटिंग में निधि के विस्तार पर ही चर्चा हुई. जल शक्ति मंत्रालय ने न्यूज़लॉन्ड्री से बोर्ड ऑफ़ ट्रस्टी की पहली और तीसरी बैठक की मिनट्स ऑफ़ मीटिंग साझा किए. पहली बैठक में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली मौजूद थे. इसके ‘मिनट्स ऑफ़ मीटिंग’ के दस्तावेज के मुताबिक पहली बैठक में सात एजेंडों पर बात हुई.
1. स्टेटस रिपोर्ट
2. स्वच्छ गंगा कोष के संचालन संबंधी दिशा-निर्देशों की स्वीकृति.
3. देश के बाहर अन्य देशों में सीजीएफ की सहायक निधि की स्थापना करना. ताकि वहां लोग आसानी से पैसे जमा करा सकें और उस देश में टैक्स छूट का लाभ भी ले सकें.
4. निधि को लोकप्रिय बनाने की योजना की स्वीकृति
5. पैसे के अलावा अन्य रूप में भी लोगों से योगदान लेना. मसलन स्वयंसेवी या उपयोगी सामान.
6. योगदान राशि लेने के लिए स्टेट बैंक के अलावा अन्य बैंकों में भी अकाउंट खुलवाना
7. ट्रस्ट का संगठनात्मक ढांचा
इस मीटिंग में स्वच्छ गंगा निधि से प्राप्त राशि के खर्च पर कोई चर्चा नहीं हुई. जबकि तब तक निधि में लगभग 54 करोड़ रुपए जमा हो चुके थे. 2015 की इस मीटिंग में देश के बाहर सीजीएफ की सहायक निधियों को खुलवाने की बात की गई, लेकिन करीब छह साल बाद भी ऐसा नहीं हो पाया.
जल शक्ति मंत्रालय के अधिकारी इस बारे में कहते हैं, ‘‘हमें दूसरे देशों में भी ट्रस्ट बनाना है. हम लगातार कोशिश कर रहे हैं. वहां के नियम अपने यहां के नियमों से अलग हैं. ट्रस्ट में सदस्य कौन होगा, इसको लेकर जद्दोजहद चल रही है. ब्रिटिश एम्बेसी के साथ पत्राचार भी हुआ, लेकिन हम अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए हैं.’’
ट्रस्टियों की तीसरी मीटिंग 2019 में हुई. इसमें वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण मौजूद रहीं. इसके ‘मिनट्स ऑफ़ मीटिंग’ के मुताबिक इस निधि को आम लोगों से नहीं मिल रहे सहयोग पर निर्मला सीतारमण ने चिंता जाहिर की.
उनके हवाले से लिखा गया, ‘‘प्राप्त दान में से लगभग 94% कॉर्पोरेट्स से आया है. प्रधानमंत्री द्वारा किए गए दान को छोड़कर तो व्यक्तिगत दाताओं द्वारा दिया गया योगदान, कुल प्राप्त दान का केवल 2.08% है. इसमें हमें सुधार करना होगा. गंगा की सफाई की जिम्मेदारी केवल उन राज्यों की नहीं समझनी चाहिए जहां से यह होकर गुजरती है.’’
बता दें कि 2018-19 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12.88 करोड़ रुपए गंगा स्वच्छ निधि में दिए थे. प्रधानमंत्री के अलावा भाजपा नेता विपुल गोयल ने भी इस निधि में दान किया है. साल 2018 में पीआईबी ने प्रेस रिलीज जारी कर बताया कि हरियाणा के तत्कालीन मंत्री विपुल गोयल ने निधि में 1 करोड़ 51 लाख रूपए की मदद की है. जिस पर केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने गोयल के इस नेक कार्य की सराहना करते हुए उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय बताया.
हालांकि गोयल पर अरावली रेंज जमीन कब्जाने का आरोप है. न्यूज़लॉन्ड्री ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि जब गोयल प्रदेश में मंत्री थे, तब अरावली के प्रतिबंधित क्षेत्र में फार्म हाउस बनवा रहे थे. जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद तोड़ दिया गया.
इस मीटिंग में निर्मला सीतारमण ने सुझाव दिया कि दक्षिण भारत के राज्यों द्वारा इस निधि में योगदान जुटाने की संभावना है. इसके अलावा वित्त मंत्री ने एनआरआई और दूसरे लोगों से कैसे योगदान लिया जाए इसका सुझाव भी दिया.
इस मीटिंग में भी ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोप के देशों में रह रहे भारतीयों से मदद लेने के लिए चैरिटी खोलने पर चर्चा हुई. ऐसा करने से बाहर रहने वाले लोगों को दान देते समय टैक्स की बचत हो सकती है. हालांकि जैसा कि जल शक्ति मंत्रालय के अधिकारी ने बताया कि अभी तक इस संदर्भ में कुछ नहीं हुआ है.
इस बैठक में कुछ योजनाओं पर काम करने का फैसला भी हुआ. इसी में हर की पौड़ी कॉप्लेक्स के डेवलपमेंट पर काम करने का फैसला लिया गया. इसके लिए 34 करोड़ बजट तय हुआ था जिसे भारत सरकार की ही एक कंपनी ने सीएसआर के तौर पर दिया है.
राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) के कार्यकारी निदेशक (वित्त) भास्कर दासगुप्ता ने भी अपने जवाब में विदेश में रहने वाले भारतीयों से ज्यादा सहयोग न मिलने का कारण वहां टैक्स में छूट नहीं मिलने को बताया. उन्होंने कहा कि जिन देशों में भारतीय मूल के नागरिक बड़ी संख्या में है वहां विकल्प तलाशे जा रहे हैं. फण्ड में भारतीय नागरिकों के दान पर हमने उनके उत्तर का पहले उल्लेख किया जिसमें उन्होंने बताया कि 8,000 लोगों में अपना सहयोग दिया है.
गंगा को लेकर सरकार की गंभीरता
गंगा नदी की सफाई को लेकर सरकार थोड़े-थोड़े दिनों के अंतराल पर एक नई योजना लेकर आती रही है. मीडिया रिपोर्ट्स में कुछ दिन पहले ही पीएम मोदी की महत्वाकांक्षी योजना “अर्ध गंगा मॉडल” का जिक्र किया.
इसके इतर जब भी लोकसभा या राज्यसभा में गंगा की सफाई को लेकर सवाल किया गया तो सरकार का रटा रटाया जवाब होता है, नदी की सफाई सतत प्रक्रिया है. 2 दिसंबर को नमामि गंगे योजना को लेकर दिए गए एक जवाब में जल शक्ति राज्य मंत्री विशेश्वर टुडू ने बताया कि नमामि गंगे योजना के अंतर्गत अब तक 30,458 करोड़ की अनुमािनत लागत के साथ कुल 353 परियोजनाओं को स्वीकृत किया गया है, जिसमें से 178 परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं.
एक तरफ जहां केंद्र सरकार लोकसभा में हर सवाल के जवाब में नमामि गंगे योजना पर खर्च राशि की जानकारी देती है, लेकिन उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट को नमामि गंगे के तहत खर्च किए गए बजट की जानकारी सरकार नहीं दे रही है. इस पर कोर्ट ने भी नाराजगी जाहिर की है और कई प्रोजेक्ट्स को आंखों में धूल झोंकने वाला करार दिया है.
केंद्र सरकार एक तरफ करोड़ों रुपए खर्च कर गंगा को साफ करने का दावा कर रही है, वहीं दूसरी ओर 30 जनवरी 2021 को उत्तर प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इलाहाबाद हाईकोर्ट को बताया कि गंगा नदी का पानी पीने लायक नहीं है. 2020 के दिसंबर में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि हरिद्वार की विश्व प्रसिद्ध हर की पौड़ी पर गंगाजल पीने के लायक नहीं है. आज भी गंगा में बिना किसी उपचार के 60 फीसदी सीवेज की निकासी जारी है.
गंगा नदी को लेकर भारत सरकार की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय गंगा परिषद की बीते छह सालों में केवल एक बैठक हुई है, जबकि नियमानुसार इसे हर साल में एक बार होना चाहिए था.
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