Opinion
मुफ्त की रेवड़ियों पर मुफ्त की सलाह
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने युवाओं को उन राजनीतिक दलों (संकेतात्मक रूप से उनकी खुद की भारतीय जनता पार्टी के अपवाद को छोड़कर) से सावधान रहने का आह्वान किया जो मुफ्त की रेवड़ियां बांटकर उनका वोट हासिल कर रही हैं. उनका यह बयान इस तथ्य को मान्यता देता है कि इस तरह के उपायों अथवा हथकंड़ों से चुनाव जीते जाते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी ने यह बयान उस समय दिया जब वह उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे का उद्घाटन कर रहे थे. उनके बयान का संदर्भ क्या था, इसकी स्पष्टता नहीं थी, इसलिए वह बहस का मुद्दा बन गई.
उत्तर प्रदेश सहित हालिया विधानसभा चुनावों में बीजेपी सहित अन्य राजनीतिक दलों ने अपना चुनावी अभियान मुख्य रूप से इन्हीं मुफ्त की रेवड़ियों के इर्दगिर्द तक सीमित रखा था. सभी हालिया चुनावी अभियानों में मोदी सरकार ने अपना पूरा ध्यान “गरीब कल्याण” पर केंद्रित रखा था. गरीब कल्याण के लिए हर उपाय को इस प्रकार बेचा गया कि वह या तो ऐतिहासिक बन गया या दुनिया में “सबसे बड़ा.”
मई में जब सरकार के आठ साल पूरे हो गए, तब मोदी ने एक “गरीब कल्याण सम्मेलन” में इस पर बात की और एक के बाद एक कल्याणकारी योजनाएं गिनाईं, जो निश्चित रूप से मुफ्त की रेवड़ी की श्रेणी में आती हैं. उनकी सरकार पहले इस शब्दावली का न के बराबर इस्तेमाल करती थी.
अपने पहले कार्यकाल (2014-19) के दौरान मोदी ने “बदलाव” की राजनीति की बात की थी. उन्होंने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम (मनरेगा) की जमकर आलोचना की थी. इसकी आलोचना में उन्होंने कहा था कि भारत के नागरिक गड्ढा खोदने में अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं. उनके लंबे चौड़े भाषणों में “गरीब” और “गरीबी” शब्द मुश्किल से जगह बना पाते थे. लेकिन बाद में हर राज्य में विधानसभा चुनावों और 2019 में आम चुनावों से पहले उन्होंने एलपीजी में सब्सिडी और किसानों के लिए नगद भुगतान के लिए योजना की घोषणा कर दी.
महामारी के दौरान उन्होंने मुफ्त राशन की योजना लागू की और कोविड-19 के टीकाकरण को मुख्य कल्याणकारी कदम बताया और इसे विश्व के सबसे बड़े मुफ्त टीकाकरण अभियान की संज्ञा दी. मोदी को कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए धन्यवाद देने के लिए केंद्र सरकार ने कई कार्यक्रम भी चलाए.
वास्तविकता यह है कि बीजेपी और मोदी उन दूसरे दलों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं जिन्हें चुनावी हथकंड़ों के रूप में कल्याणकारी वादों में महारथ हासिल है. राजनीतिक दल अपने वादों की रीपैकेजिंग कर रहे हैं जिससे वे अलग दिखें और मतदाताओं पर प्रभाव डाल सकें.
सभी अपने वादों और उपायों से यह दिखाने की कोशिशों में हैं कि वही मतदाताओं के रोजमर्रा की जरूरतों का ख्याल रख सकते हैं. जो इस पर खरा उतरेगा, वही राजनीतिक लाभ लेगा. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी बीजेपी की वापसी इसलिए हुई क्योंकि उसने यह कहकर मतदाताओं को रिझा लिया कि उसने विकास के वादों को पूरा किया है, खासकर मुफ्त राशन और सस्ते घरों का वादा पूरा करके.
मोदी के हालिया भाषण के बाद मीडिया ने रिपोर्ट किया कि जीएसटी काउंसिल की बैठक में वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने मुफ्तखोरी (फ्रीबीज) पर चिंता जताई है. उनकी दलील थी कि इससे राज्यों की अर्थव्यवस्था गिर रही है, खासकर उन राज्यों में जो गैर बीजेपी शासित हैं. मीडिया में ऐसे बयानों के बाद कुछ राज्यों में विरोध प्रदर्शन भी हुए.
सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों प्रधानमंत्री ने मुफ्तखोरी से सावधान किया है, खासकर तब जब ये मूलभूत जरूरतों से जुड़ी हैं और इन्हें पूरा करने का दायित्व सरकार का होना चाहिए. दरअसल लोकलुभावनवाद (पॉपुलिजम) का चुनावी लोकतंत्र से चोली-दामन का साथ रहा है.
मोदी के बयान के दो निहितार्थ हो सकते हैं. पहला, वह मान चुके हैं कि मुफ्तखोरी चुनाव जीतने की पक्का हथकंडा है. दूसरा, वह चिंतित हैं कि अधिकांश राजनीतिक दल इस हथकंड़े को आजमा रहे हैं.
ऐसे में उनकी सरकार में कोई नयापन नहीं रहेगा. हो सकता है कि उन्होंने महसूस किया हो कि बीजेपी का बेहद ध्रुवीकृत चुनावी अभियान भी अन्य दलों के मुफ्तखोरी के वादों के आगे उतना असरदार न रहे.
मोदी मुफ्तखोरी को मतदाताओं के सबसे बड़े समूह यानी युवाओं को दी जाने वाली रिश्वत कह रहे हैं जबकि अपने वादों को बदलाव की राजनीति का हिस्सा मान रहे हैं जो अगली पीढ़ी को गौरवान्वित भारतीय बनाएगी.
बहरहाल, मुफ्तखोरी पर आधारित योजनाओं के अभियानों के बीच इस पर उनका बोलना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मूलभूत जरूरतों के महत्व को दर्शाता है.
(डाउन टू अर्थ से साभार)
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