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कश्मीरी पंडित पलायन 2.0: 'हम में से कोई भी अगला निशाना हो सकता है लेकिन सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता'
35 वर्षीय महेश को जब यह पता चला कि उसे हत्या के लिए निशाना बनाया गया है, तो वह भागे. और उस समय वह अनजाने में, कश्मीर के पंडित समुदाय में बैठे डर का जीता जागता उदाहरण बन गए और जिस मुद्दे को लेकर वह कई हफ्तों से प्रदर्शन कर रहे थे, उसी से बचने हेतु उन्हें भागना पड़ा.
31 मई को महेश का पलायन एक दुख भरी विडंबना भी था, क्योंकि उन्होंने वह पूरा दिन एक हिंदू टीचर की हत्या के खिलाफ श्रीनगर के बटवारा पार्क में प्रदर्शन करते हुए बिताया था, पर अब खुद की जान बचाने के लिए भाग रहे थे.
अज्ञात बंदूकधारियों ने उस स्कूल टीचर की हत्या 31 मई की सुबह की थी. जम्मू के सांबा जिले से आने वाली डोगरा समुदाय की 36 वर्षीय रजनी बाला, 1 महीने के भीतर हिंदू अल्पसंख्यक समुदाय से हत्या के लिए निशाना बनाए गईं दूसरी व्यक्ति थीं. इसी महीने में पहली हत्या पंडित समुदाय के 35 वर्षीय राहुल भट्ट की हुई थी, जो मध्य कश्मीर के चंडूरा में राजस्व विभाग में कर्मचारी थे. रजनी की हत्या से राहुल की हत्या के बाद शुरू हुए प्रदर्शन और तेज हो गए और पंडितों ने उन्हें घाटी के बहार सुरक्षित जगहों पर न ले जाए जाने की स्थिति में सामूहिक पलायन करने की चेतावनी दी.
इस मांग को करने वाले लोगों में अधिकतर लोग, मनमोहन सिंह सरकार द्वारा शुरू की गई एक पुनर्स्थापना योजना के अंतर्गत वापस लौटने में मदद के लिए भर्ती किए गए सरकारी कर्मचारी थे. ऐसे लगभग 4500 कर्मचारी हैं, जिनमें से महेश भी एक थे,
रजनी और राहुल की हत्याओं के खिलाफ बटवारा प्रदर्शन में महेश आगे बढ़कर सहयोग कर रहे थे. पेयजल वितरण करने के साथ-साथ वह अपने समुदाय की चिंताओं और मांगों को आवाज देने के लिए पत्रकारों से बात भी कर रहे थे. वे मंगलवार को प्रदर्शन से लौटे ही थे जब उन्हें व्हाट्सएप पर घूम रहे एक पोस्टर के बारे में आगाह किया गया. यह पोस्टर, पुलिस के द्वारा आतंक और भय फैलाने की मशीनरी के रूप में आरोपित किए गए एक ब्लॉग कश्मीर फाइट्स के द्वारा कथित तौर पर बनाया गया था. इस पोस्टर में महेश प्रदर्शन स्थल पर दिख रहे थे और उन्हें अगले निशाने के रूप में चिन्हित किया गया था. मतलब साफ था.
वे तुरंत घर से निकल गए. महेश बताते हैं, "यह स्वाभाविक है कि डर और घबराहट ही पहली प्रतिक्रिया होती है. एहतियात के तौर पर, हम प्रदर्शनों में अपना चेहरा ढक रहे थे लेकिन इस बार हमने ऐसा नहीं किया. परिस्थिति इतनी काबू के बाहर हो गई है कि अब चेहरे ढकने से कुछ फर्क नहीं पड़ता."
उनके साथ ही प्रदर्शनकारी अनिल कहते हैं कि महेश को मिली धमकी झूठी भी हो सकती है, लेकिन इसने "भारत सरकार की असफल कश्मीर नीति" के परिणाम स्वरूप पैदा हुए "भय के माहौल" को और बढ़ा दिया है. मोदी सरकार के संदर्भ में कहते हैं, "वह दुनिया को दिखाना चाहते हैं कि सब नॉर्मल है, जबकि परिस्थिति बिल्कुल विपरीत है. और ऐसा करने के लिए कश्मीरी पंडितों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है."
कश्मीर में अनेकों जगहों पर होने वाले प्रदर्शनों में हर जगह यही बात कही जा रही है कि उनके मुद्दों के लिए लड़ने का दावा करने वाली मोदी सरकार ने उनकी मदद के लिए असल में कुछ नहीं किया है.
प्रदर्शनकारी, भाजपा सरकार पर उनके समुदाय का इस्तेमाल कश्मीर में अपने राजनीतिक हितों को बढ़ाने का आरोप लगा रहे हैं, और "कश्मीरी पंडित बलि के बकरे नहीं बनेंगे" के नारे लगा रहे हैं.
बटवारा पर प्रदर्शन कर रहे शिव कहते हैं, "यह बड़े दुख की बात है कि हमें इसका (पलायन) सहारा लेना पड़ रहा है. हम राहुल की हत्या से ही प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन सरकार हमारी मांगे नहीं सुन रही. अब हमारी एक और जान चली गई."
राहुल की हत्या के दो दिन बाद 14 मई को, लौटे हुए पंडित सरकारी कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करने वाली ऑल पीएम पैकेज एंप्लॉईज फोरम ने प्रधानमंत्री और गृह मंत्रालय को "सुरक्षित तरीके से किसी सुरक्षित जगह" सामान्यतः जम्मू, भेजे जाने की मांग करते हुए ज्ञापन दिया. उन्होंने अपनी मांगे 24 घंटे के भीतर न माने जाने पर विस्थापन की धमकी दी.
इससे एक दिन पहले लगभग 350 पंडित कर्मचारियों ने, चुनी हुई सरकार के अभाव में प्रशासनिक प्रमुख उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को अपने त्यागपत्र भेज दिए थे. उन्होंने ऐसा अपने शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस के लाठीचार्ज और आंसू गैस छोड़े जाने के बाद किया, जिसमें वह उपराज्यपाल से राहुल के निवास स्थान बडगाम की शेखपोरा प्रवासी कॉलोनी में जाकर, वहां के बाशिंदों को सुरक्षा का दिलासा देने की मांग कर रहे थे.
उपराज्यपाल सिन्हा 11 दिन बाद आए, और वहां उन्होंने राहुल की पत्नी को सरकारी नौकरी, उनकी बेटी की पढ़ाई की व्यवस्था और मुआवजे के तौर पर परिवार को पांच लाख रुपए देने का वादा किया. परिवार ने इस पेशकश को ठुकरा दिया. उनकी पत्नी मीनाक्षी भट्ट ने कहा कि उन्होंने और राहुल के पिता व रिटायर्ड पुलिस अफसर बिट्टा भट्ट ने जिला प्रशासन से उनके पति का तबादला किसी सुरक्षित जगह पर करने की मिन्नतें की थीं, लेकिन कुछ नहीं हुआ. संग्रामपुरा हत्याकांड के भुक्तभोगी रहे राहुल एक लंबे समय से तबादले की कोशिश कर रहे थे क्योंकि वे अपनी पोस्टिंग की जगह पर सुरक्षित महसूस नहीं करते थे.
मनमोहन सिंह की 2008 की योजना के अंतर्गत भर्ती किए गए अधिकतर पंडित कर्मचारी, स्थानीय मुस्लिम बस्तियों से अलग खास तौर पर उनके लिए बनाए गई बस्तियों में रहते हैं, जिन्हें आमतौर पर "प्रवासी कॉलोनियों" के रूप में जाना जाता है. कश्मीर में ऐसी सात कॉलोनी हैं जो, शेखपोरा, बडगाम; मट्टन, अनंतनाग; नुतनुस्सा, कुपवाड़ा; वेस्सू, कुलगाम; तुलमुला, गंदरबल; वीरवन, बारामुला और हाल, पुलवामा में हैं.
मट्टन में, पुलिस ने कॉलोनी को हर तरफ से बैरिकेड कर दिया है जिससे कि निवासी अपनी सामूहिक पलायन की धमकी पर अमल न कर सकें. हालांकि कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के सदस्य संजय टीकू के अनुसार पिछले तीन दिनों में करीब 400 लोग लौट गए हैं. यह संघर्ष समिति एक सामाजिक संस्था है जो मुख्य रूप से घाटी को छोड़कर न जाने वाले पंडितों का प्रतिनिधित्व करती है. और भी लोग छोड़कर जाएंगे इसकी पूरी संभावना है क्योंकि इतने सब होने के बावजूद भी, हत्याएं जारी हैं जिनसे भय का माहौल और ज्यादा गहराता जा रहा है.
इतना ही नहीं मट्टन कॉलोनी के कुछ परिवारों ने तो जाने के लिए अपना सामान भी पैक कर लिया था, लेकिन उन्हें पुलिस ने रोक दिया.
वहां के एक निवासी ओंकार कहते हैं, "हम अपनी जान बचाने के लिए जम्मू जाना चाहते थे. डेप्युटी कमिश्नर हमसे मिलने आए थे और हमने उन्हें कहा था कि अगर वह हमें सुरक्षा नहीं दे सकते तो हम चले जाएंगे. हमें जाने नहीं दिया जा रहा. सुरक्षा का मतलब यह नहीं कि आप हमें बंदी बना लें. हमारा एक सामाजिक जीवन है, हमें रोजमर्रा की जरूरी चीजों को लाने के लिए भी बाहर जाना पड़ता है. कॉलोनी में हमारी जिंदगी वैसे भी बदतर ही है."
मट्टन में प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे रंजन कहते हैं, "अगर तीन हत्याओं और हफ्तों के प्रदर्शन के बाद भी सरकार हमें जम्मू स्थानांतरित करने की कोई मंशा नहीं दिखा रही, तो यह स्वाभाविक है कि हम खुद ही रास्ते ढूंढेंगे."
तीसरी हत्या 2 जून को हुई, जिसमें राजस्थान के हनुमानगढ़ से आने वाले बैंक मैनेजर विजय कुमार को, कुलगाम में एक संदिग्ध आतंकी ने गोली मार दी थी.
रंजन पूछते हैं, "सरकार असल में क्या दिखाना चाहती है? शांति और चैन? अगर हमें वह मिली होती तो हम इस तरह से जाने के लिए मजबूर ही नहीं होते."
पुलिस ने मट्टन कॉलोनी को एक करने की बात से इंकार किया. स्थानीय पुलिस थाने के इंचार्ज वसीम शाह ने कहा, "हमें वहां सुरक्षा देने के लिए तैनात किया गया है. वे परिवार अभी भी वहीं हैं. सब ठीक है."
पर क्या "सुरक्षा के लिए तैनात* पुलिस, निवासियों को जाने से रोक रही है? इस पर शाह ने फोन काट दिया.
अनंतनाग के जिला कमिश्नर पीयूष सिंगला ने यह कहकर न्यूज़लॉन्ड्री के सवालों का जवाब नहीं दिया कि उन्हें एक बहुत "जरूरी कॉल" लेनी है. उन्होंने हमारे द्वारा संदेश के जरिए भेजे गए प्रश्नों का भी जवाब नहीं दिया.
ओंकार कहते हैं, "इस बात पर सहमति है कि सरकार हमें इन टारगेटेड हत्याओं से बचाने में सक्षम नहीं है. सुरक्षा की कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती. प्रशासन के साथ हमारी बातचीत पूरी तरह से असफल रही है. कश्मीर में एक भी सुरक्षित इलाका नहीं है."
शेखपोरा की प्रवासी कॉलोनी में प्रदर्शन चौथे हफ्ते में पहुंच गया है. कॉलोनी में रहने वाले सरकारी कर्मचारी हत्या के बाद से काम पर नहीं गए हैं. उनकी कॉलोनी अब एक सेना की जगह जैसी लगती है जिसके चारों तरफ कंक्रीट की ऊंची दीवारें हैं, जिनके ऊपर कंटीले तार लगे हैं और बंदूकधारी सुरक्षा में खड़े हुए हैं.
एक प्रदर्शनकारी कहते हैं, "अधिकारियों ने हमें प्रदर्शन खत्म करके काम पर वापस लौटने के लिए बोला है. जब तक हमें यहां से जम्मू में ले जाकर नहीं बसाया जाता हम काम शुरू नहीं करेंगे. हमारी इकलौती मांग यही है कि अगर वह हमारी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकते तो हमें कम से कम स्थानांतरित कर दें."
इस मांग के मद्देनजर, बुधवार को जम्मू कश्मीर प्रशासन ने एक घोषणा में कहा कि पुनर्वास योजना के अंतर्गत जितने भी पंडितों को नौकरी मिली है, उन्हें 6 जून तक "सुरक्षित जगहों" पर भेज दिया जाएगा. एक अनाम शीर्ष के सरकारी अफसर ने न्यूज़ एजेंसी केएनओ को बताया कि करीब 500 कर्मचारियों को, उनकी पसंद की जगहों पर स्थानांतरित किया भी जा चुका है.
लेकिन प्रदर्शनकारी इससे प्रभावित नहीं थे. शेखपोरा कॉलोनी में प्रदर्शन कर रहे देव ने कहा, "वह हमारे गले में फिर वही पुरानी लॉलीपॉप डाल रहे हैं. उन्होंने हमें जिला मुख्यालयों में स्थानांतरित करने का वादा किया है जैसे कि हमें मारने का इरादा रखने वाले वहां हम तक नहीं पहुंच सकेंगे. जबकि इस पूरे समय हमारी मांग रही है कि हमें घाटी के बाहर स्थानांतरित किया जाए. यह सब बकवास है."
प्रदर्शनकारियों ने प्रशासन के द्वारा कश्मीर में अल्पसंख्यक समुदायों के लिए एक शिकायत निवारण सेल स्थापित करने के निर्णय को भी "दिखावटी, एक छलावा" बताकर खारिज कर दिया. उन्होंने यह भी याद दिलाया कि यह सेल उनके रोजगार से जुड़ी शिकायतों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी. मट्टन में प्रदर्शन कर रहे आशुतोष कहते हैं, "इस बार हमारी परेशानी हमारी जिंदगियों को खतरा है. जान जाने का खतरा केवल एक शिकायत नहीं है. यह हेडलाइन मैनेजमेंट की एक और कोशिश है."
पंडितों के बीच अपनी सुरक्षा को लेकर चिंता हाल में हुई इन हत्याओं से पहले की है, लेकिन अब वह वाजिब कारणों की वजह से बहुत ज्यादा बढ़ गई है. पिछले चार हफ्तों में, अज्ञात बंदूकधारियों, और पुलिस के अनुसार संदिग्ध आतंकियों ने एक पंडित, एक कश्मीरी सिख और तीन कश्मीरी हिंदुओं की हत्या कर दी है. इसी दौरान, संदिग्ध आतंकियों और सुरक्षाबलों ने कम से कम दो कश्मीरी मुसलमानों को मारा है.
प्रदर्शनकारी कहते हैं कि पिछले साल अक्टूबर में हुई दो हिंदू शिक्षकों और केमिस्ट की हत्या के बाद शुरू की गई जांच का भी, "प्रतिक्रिया के अभाव और नौकरशाही की लिप्तता" की वजह से कोई नतीजा नहीं निकला, जिससे उनमें "निराशा घर कर गई है."
शेखपोरा कॉलोनी पर प्रदर्शन कर रहे पूरन कहते हैं, "हमारे लिए कश्मीर में काम करना और ज्यादा मुश्किल होता जा रहा है. राहुल की हत्या से पहले हुई दो हत्याओं को हमने नजरअंदाज करने की कोशिश की, इस उम्मीद से कि सरकार कुछ करेगी. पर वो हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. अब हमारी एक सीधी और साफ मांग है: हमें स्थानांतरित किया जाए."
बटवारा से शिव कहते हैं, "हम में से कोई भी अगला निशाना हो सकता है. सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. वह हमारे नाम पर वोट जुटाने में मशगूल हैं."
पहचान छुपाने के लिए कुछ नाम बदल दिए गए हैं.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
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