Opinion

सब दरबारी: राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार

राज्यसभा की 57 सीटों पर चुनाव होने जा रहे हैं. अपने हिस्से की सीटों के लिए कांग्रेस पार्टी ने भी उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. कांग्रेस अपनी हैसियत से 10 लोगों को राज्यसभा भेज सकती है. इन दस नामों में छत्तीसगढ़ से राजीव शुक्ला (उत्तर प्रदेश), रंजीत रंजन (बिहार), राजस्थान से प्रमोद तिवारी (उत्तर प्रदेश), रणदीप सिंह सुरजेवाला (हरियाणा), मुकुल वासनिक (महाराष्ट्र), महाराष्ट्र से इमरान प्रतापगढ़ी (उत्तर प्रदेश), कर्नाटक से जयराम रमेश (आंध्र प्रदेश), हरियाणा से अजय माकन (दिल्ली), तमिलनाडु से पी चिदंबरम (तमिलनाडु) और मध्य प्रदेश से वहीं के विवेक तन्खा को उम्मीदवार बनाया गया है.

यह पूरी लिस्ट कांग्रेस की पुरानी बीमारी को नए सिरे से हमारे सामने रखती है. 10 उम्मीदवारों में आठ उम्मीदवार ऐसे हैं जिन्हें अलग राज्यों से लाकर दूसरे राज्यों पर थोपा दिया गया है. इससे भी मजेदार बात यह है कि जिस छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस पार्टी सत्ता में है, वहां के पांचों प्रत्याशी दूसरे राज्यों के हैं. इनमें भी तीन उस उत्तर प्रदेश से है जहां पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी और पार्टी को मात्र ढाई फीसदी वोट आए थे. उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस पिछले 32 वर्षों से सत्ता से बाहर है. फिर भी पार्टी ने वहां के दो ब्राह्मणों को उम्मीदवार बनाया है.

यह उतनी बड़ी चिंता नहीं, इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि इस पूरी लिस्ट में सिर्फ एक दलित, एक अल्पसंख्यक, एक जाट और एक सवर्ण महिला को टिकट दिया है जो ओबीसी से ब्याही हैं. अभी तीन महीने पहले संपन्न हुए उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस पार्टी का नारा था ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’, लेकिन राज्यसभा के उम्मीदवारों के चुनाव में महिला को किनारे कर दिया गया. प्राथमिकता ब्राह्मणों को दी गई है जिसका पूरा वोटबैंक मोटे तौर पर बीजेपी के साथ जा चुका है.

राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अगले डेढ़ सालों में विधानसभा चुनाव होने हैं. अगर टिकटों के इस अतार्किक बंटवारे से पार्टी के स्थानीय नेताओं में गुस्सा और भितरघात पैदा होता है तो इसकी भरपाई बहुत मुश्किल होगी. अगर इन दोनों राज्यों से सवर्णों को ही टिकट दिया जाना था तो स्थानीय नेताओं को तवज्जो दी जानी चाहिए थी. कांग्रेस की मजबूरी यह है कि राजीव शुक्ला उसके लिए ‘रिसोर्सफुल’ नेता हैं. उनकी पहुंच उद्योग जगत में हैं. साथ ही वो ठीकठाक फ्लोर मैनेजर भी माने जाते हैं. लेकिन सवाल यह है कि अभी सदन को सुचारू रुप से चलाने की जिम्मेदारी तो बीजेपी की है, फिर राजीव शुक्ला को छत्तीसगढ़ से राज्यसभा में क्यों भेजा जा रहा है?

कांग्रेस पार्टी के टिकट बंटवारे से इसी तरह के कई सवाल पैदा हुए हैं. हाल ही में उदयपुर के चिंतन शिविर में भाषण देते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि क्षेत्रीय पार्टियों की कोई विचारधारा नहीं है इसलिए वे बीजेपी से नहीं लड़ सकती. जिन लोगों को राज्यसभा के लिए नामित किया गया है, उनमें से राजीव शुक्ला, विवेक तन्खा, जयराम रमेश और इमरान प्रतापढ़ी कभी लोकसभा या विधानसभा का चुनाव नहीं जीते हैं. प्रमोद तिवारी, वर्षों से उत्तर प्रदेश विधानसभा जीतते आए थे, बाद में राज्यसभा भी आए. उसी तरह पी चिदंबरम को पिछली बार 2016 में महाराष्ट्र से राज्यसभा भेजा गया था जब 2014 में उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ने से मना कर दिया था.

2014 का वह समय था जब कांग्रेस पार्टी के शीर्ष मंत्रिमंडलीय सहयोगी मोदी की आंधी में सरेंडर कर चुके थे. चुनाव से कुछ महीना पहले हरियाणा से लोकसभा सांसद कुमारी शैलजा ने सबसे पहले चुनाव लड़ने से मना किया था और हरियाणा से राज्यसभा में नामित हो गईं. उसके ठीक बाद चुनाव से कुछ दिन पहले दूसरे मंत्री मनीष तिवारी ने स्वास्थ्य को आधार बनाकर चुनाव लड़ने से मना कर दिया और बाद में पी चिदंबरम ने भी बीच चुनाव में चुनाव न लड़ने का ऐलान कर दिया.

अंदाजा लगाइए कि लोकसभा चुनाव के छह महीने पहले जब तमाम मंत्री चुनाव लड़ने से इंकार करने लगे तो पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल पर क्या असर हुआ होगा, और विरोधी खेमे का मनोबल कितना बढ़ा होगा. कायदे से तो ऐसे तमाम नेताओं को पुरस्कृत करने से बचना चाहिए था. जबकि हुआ इसके विपरीत, ऐसे कई नेताओं को राज्यसभा की सदस्यता दे दी गई.

पिछले साल हरियाणा की एक सीट पर हुए उपचुनाव में रणदीप सिंह सुरजेवाला ने अपनी जमानत तक गंवा दी थी. लेकिन उन्हें राजस्थान से राज्यसभा भेजा जा रहा है. इसी तरह राजस्थान से ही महाराष्ट्र के मुकुल वासनिक को राज्यसभा भेजा जा रहा है. वहीं महाराष्ट्र से भी कांग्रेस पार्टी को एक सीट मिल सकती है.

एक सवाल यह भी है कि आखिर सुरजेवाला और मुकुल वासनिक को उनके अपने राज्यों से क्यों नहीं राज्यसभा भेजा जा रहा है? इसका कारण शायद यह है कि अपने राज्यों में स्थानीय राज्य इकाई के ज्यादातर सदस्य इनका विरोध कर रहे हैं. अगर इस बात में सच्चाई है तो फिर कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को नाराज करके इन नेताओं को इतना महत्व ही क्यों दिया जा रहा है? इसका जबाव यह है कि पार्टी हाई कमान मतलब गांधी परिवार हर हाल में अपने करीबी लोगों को सदन में रखना चाहता है.

पार्टी के भीतर जी-23 नामक बगावती समूह जिसने पार्टी के लोकतांत्रिकरण की बात की थी, उनमें से गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा को टिकट नहीं दिया गया है. ऐसा भी नहीं है कि जिन 23 नेताओं ने खुलेआम चिठ्ठी लिखी थी उनमें से किसी को टिकट नहीं दिया गया. मुकुल वासनिक और विवेक तन्खा टिकट पाने में सफल रहे.

जब उदयपुर के चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने क्षेत्रीय दलों को बिना विचारधारा की जातिवादी ताकत कहकर खारिज किया तब उनकी पार्टी अतीत से कुछ सबक क्यों नहीं ले रही है. दलितों-पिछड़ों के बीच कांग्रेस से ज्यादा प्रतिनिधित्व आज भाजपा दे रही है. कांग्रेस पार्टी सवर्णों की फौज राजसभा में भेजकर शायद ही कुछ हासिल कर पाए. कायदे से चिंतन शिविर की घोषणाओं के मुताबिक पिछड़े व दलित वर्गों के नेताओं को राज्यसभा में भेजना चाहिए था. उत्तर प्रदेश से ही तीन व्यक्तियों को राज्यसभा भेजना था तो अजय कुमार लल्लू एक बेहतर विकल्प हो सकते थे. जिन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में पूरे राज्य में पार्टी को चर्चा में ला दिया था.

उदयपुर के चिंतन शिविर में मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपनी राजनीतिक रिपोर्ट में इस बात को दुहराया भी था कि “संवैधानिक अधिकारों पर आक्रमण का पहला आघात देश के दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं व गरीबों को पहुंचा है” लेकिन दो हफ्ते के भीतर ही कांग्रेस पार्टी अपने पुराने ढर्रे पर लौटती दिख रही है.

कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को लगता है कि सवर्ण ही उसे फिर से सत्ता में वापस ला सकते हैं, जबकि हकीकत यह है कि जाति के सवाल से कांग्रेस हमेशा मुंह छुपाती रही है. पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए बनी काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ पंडित नेहरू खुद खड़े हो गए जिसका गठन उन्होंने ही किया था, मंडल कमीशन की रिपोर्ट को श्रीमती इंदिरा गांधी दबाकर बैठी रहीं और जब उसे वीपी सिंह ने लागू किया तो भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी भी उसके खिलाफ हो गई.

कांग्रेस पार्टी अपने नजरिए और सोच में हमेशा से सवर्णवादी ही रहा है. यह तब से है जब उसका पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक राज था. तब के 22 राज्यों में से 13-14 राज्यों के मुख्यमंत्री सवर्ण ही होते थे और एक समय तो 11 राज्यों के मुख्यमंत्री सिर्फ ब्राह्मण थे. इसमें पूर्वोत्तर के 7 राज्य शामिल नहीं थे.

उदयपुर के चिंतन शिविर में कांग्रेस पार्टी ने अपनी आर्थिक योजना के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें कही थीं. पार्टी ने अपने आर्थिक दस्तावेज में कहा था, “उदारीकरण के 30 वर्षों के बाद तथा घरेलू व वैश्विक परिस्थितियों का संज्ञान लेते हुए स्वाभाविक तौर से आर्थिक नीति में बदलाव की आवश्यकता है. कांग्रेस अगर नई आर्थिक नीति में बदलाव की बात कर रही है तो यह बहुत ही सकारात्मक बात है क्योंकि देश की बदहाली में इस आर्थिक नीति की बहुत ही नकारात्मक भूमिका रही है." लेकिन इसमें सबसे मार्के की बात यह है कि कांग्रेस पार्टी ने इस बात को उन पी चिदंबरम के मुंह से कहलवाया है जो नई आर्थिक नीति की तिकड़ी मनमोहन सिंह व मोंटेक सिंह अहलूवालिया का अहम हिस्सा रहे हैं. फिर उन्हीं पी चिदबंरम को राज्यसभा में किस आधार पर भेजा जा रहा है?

कांग्रेस पार्टी को वैसे लोगों को राज्यसभा में भेजना चाहिए था जिनमें लड़ने का माद्दा हो, जो संसद और संसद के बाहर सरकार के झूठ व फरेब का पोल खोल सकें, लेकिन इन 10 नामों में इमरान प्रतापगढ़ी को छोड़कर एक भी नाम ऐसा नहीं मिलेगा जिन्होंने पिछले आठ वर्षों में आम जनता के बीच जाकर उनसे संवाद स्थापित किया हो. आखिर कांग्रेस उन्हीं सवर्णों व सुविधाभोगी नेताओं के भरोसे लगातार सत्ता वापसी की कोशिश क्यों कर रही है जो उनसे बहुत पहले दूर हो चुका है.

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