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हसदेव अरण्य में काटे जा सकते हैं साढ़े चार लाख पेड़, बचाने के लिए आदिवासियों ने जंगल में डाला डेरा
छत्तीसगढ़ सरकार के परसा ब्लॉक में खनन की अनुमति देने के बाद आदिवासी और स्थानीय लोग जंगल में ही डेरा डाले हुए हैं ताकि पेड़ों को कटने से बचाया जा सके.
इस वन क्षेत्र के परसा ईस्ट केते बासन के दूसरे चरण और परसा ब्लॉक में खनन करने की इजाजत करीब 10 दिन के अंतराल में दे दी गई. बताया जा रहा है कि इसके लिए करीब साढ़े चार लाख पेड़ों को काटना होगा.
हसदेव अरण्य जैव विविधता के मामले में काफी संपन्न है और पिछले एक दशक से ज्यादा समय से यहां खनन को लेकर विवाद रहा है. एक दशक पहले केंद्र सरकार ने ही इसे ‘नो गो’ क्षेत्र घोषित किया था.
छत्तीसगढ़ सरकार खनन की छूट देने में इतनी हड़बड़ी में है कि इसने राष्ट्रीय वन्यजीव परिषद और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण से अनिवार्य सहमति लिए बिना खनन की इजाजत दे दी.
देश में चारों तरफ लोगों को यह सलाह दी जा रही है कि जानलेवा धूप है, घर से ना निकालें. छत्तीसगढ़ में भी कई इलाकों में मौसम का पारा 46 डिग्री सेल्सियस के आसपास पहुंच रहा है. ऐसे ही समय छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के साल्ही गांव से लगे हसदेव अरण्य के जंगल में गांव की किसी एक महिला की आवाज आती है- लड़ेंगे!
दूसरी ओर से जंगल में फैले आदिवासी जवाब देते हैं- जीतेंगे! ये आदिवासी न केवल नारे लगा रहे हैं बल्कि कभी पेड़ों से चिपक कर तो कभी उनकी पूजा कर इनके प्रति अपनी श्रद्धा भी जता रहे हैं. इनकी कुल कोशिश यह है कि इन पेड़ों को कटने से बचाया जाए.
ऐसा पिछले पखवाड़े भर से चल रहा है और इसकी शुरुआत तब हुई जब जेसीबी मशीन और पेड़ काटने से संबंधित बड़ी-बड़ी मशीनें हसदेव अरण्य के जंगलों की तरफ बढ़ने लगे. पिछले महीने की 26 तारीख को जब लोग अपने-अपने घरों में सोए हुए थे, तब तड़के मशीनों से 300 से अधिक पेड़ों को काट दिया गया. पेड़ों की कटाई की आवाज सुन कर लोग जंगल की ओर भागे. पेड़ काटने के लिए पुलिस के साथ पहुंचे निजी कंपनी के लोगों से पेड़ों की कटाई की इजाजत से जुड़े कागज मांगे गए और भारी प्रतिरोध के बाद पेड़ काटने वालों को वापस लौटना पड़ा.
तब से आदिवासी अपनी जरूरत का थोड़ा सा सामान और ढेर सारा हौसला ले कर छत्तीसगढ़ के उत्तरी हिस्से के 70 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हसदेव अरण्य के जंगल को बचाने के लिए, सैकड़ों आदिवासियों ने अब जंगल के भीतर ही डेरा डाल दिया है. वे दिन-रात उस जंगल की रखवाली में जुटे हुए हैं, जो उनकी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा है.
ग्राम फतेपुर के आदिवासी नौजवान मुनेश्वर सिंह पोर्ते कहते हैं, “हमारे जंगल और गांव को गैरकानूनी तरीके से कंपनी और सरकार द्वारा उजाड़ने का काम किया जा रहा है, जिसका विरोध हम 10 साल से करते आ रहे हैं. हमारी कोई भी प्रकार की सुनवाई नहीं हो रही है. उसको लेकर हम दो महीने से अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए हैं.”
असल में पिछले 10 सालों से आदिवासियों के लगातार विरोध के बाद भी पिछले साल केंद्र सरकार की मुहर के बाद अब छत्तीसगढ़ सरकार ने हसदेव अरण्य के परसा कोयला खदान को 6 अप्रैल को मंजूरी दे दी है. सरगुजा और सूरजपुर जिले के 1252.447 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले परसा कोयला खदान का 841.538 हेक्टेयर जंगल का इलाका है, जबकि 410.909 हेक्टेयर क्षेत्र जंगल क्षेत्र से बाहर का इलाका है. राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित छत्तीसगढ़ के इस कोयला खदान को राजस्थान की कांग्रेस पार्टी सरकार ने एमडीओ यानी माइन डेवलपर कम ऑपरेटर के आधार पर अनुबंध करते हुए अडानी समूह को सौंप दिया है.
170000 हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य के घने जंगल में राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को पहले ही 2711.034 हेक्टेयर में फैले परसा इस्ट केते बासन का इलाका खनन के लिए आवंटित है, जिसके खनन के खिलाफ कई मामले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं.
इसके बाद इस साल मार्च में इसी कोयला खदान से लगे हुए 1762.839 हेक्टेयर में फैले राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित केते एक्सटेंशन को राज्य सरकार ने अपनी अंतिम मंजूरी दे दी और लगभग 10 दिन बाद राज्य सरकार ने परसा कोयला खदान को भी हरी झंडी दिखा दी.
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला ने कहा, “हमारा अनुमान है कि इन दोनों नए कोयला खदानों में सैकड़ों लोग तो विस्थापित होंगे ही, लगभग साढ़े चार लाख पेड़ भी काटे जाएंगे. इस भयावह त्रासदी के खिलाफ हम जमीन पर भी लड़ रहे हैं और अदालतों में भी.”
दिलचस्प ये है कि अडानी समूह के खिलाफ लगातार विपक्ष पर आरोप लगाने वाली कांग्रेस पार्टी की राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने हसदेव अरण्य की कोयला खदानों का एमडीओ इसी अडानी समूह को दे रखा है और दोनों ही सरकारें किसी भी हालत में खनन प्रक्रिया को तेज करना चाहती हैं. विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी पहले ही हसदेव अरण्य के जंगल में कोयला खनन को मंजूरी देने का पक्षधर रहा है, इसलिए हसदेव अरण्य में ताजा कोयला खदानों के आवंटन पर उसने भी चुप्पी साध रखी है.
किस्सा परसा का
मध्य भारत का फेफड़ा कहे जाने वाले हसदेव अरण्य में 18 चिन्हांकित कोयला खदाने हैं. हसदेव अरण्य के जंगल सैकड़ों हाथियों समेत दूसरे वन्य जीवों का स्थाई घर हैं. इसके अलावा यह इलाका हसदेव बांगो बांध का ‘कैचमेंट एरिया’ भी है, जिससे लगभग तीन लाख हेक्टेयर क्षेत्र में दो फसली सिंचाई होती रही है. हसदेव अरण्य की समृद्ध जैव विविधता और उच्च पारिस्थितिक के कारण कोयला मंत्रालय और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 2010 में एक संयुक्त अध्ययन के बाद, इस इलाके को किसी भी तरह के खनन के लिए प्रतिबंधित करते हुए इसे ‘नो गो एरिया’ घोषित किया था.
लेकिन कम लागत में अधिक से अधिक कोयला निकालने की नीति के कारण साल भर के भीतर ही परसा इस्ट केते बासन कोयला खदान को यह कहते हुए मंजूरी दे दी गई कि भविष्य में हसदेव अरण्य के इलाके में किसी और खदान को मंजूरी नहीं दी जाएगी. बाद में यह मामला अदालत में पहुंचा और अदालत ने इस खदान की स्वीकृतियां रद्द कर दीं. लेकिन सरकार की अपील पर अगले आदेश तक खनन को यह कहते हुए मंजूरी दे दी गई कि हसदेव की पारिस्थितकी और पर्यावरण पर देहरादून की वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया या भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद जैसी किसी संस्था से अध्ययन करवा कर जांच रिपोर्ट सौंपे, इसके बाद अदालत इस पर अंतिम निर्णय लेगी. यह मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
इसके बाद पिछले साल राजस्थान सरकार ने यह कहते हुए केते एक्सटेंशन और परसा कोयला खदान के आवंटन को लेकर राज्य सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया कि उन्हें 2028 तक की जरूरत के लिए आवंटित परसा इस्ट केते बासन का कोयला खत्म हो चुका है.
इलाके के आदिवासी पहले ही इस खदान के खिलाफ महीनों तक धरना प्रदर्शन कर चुके थे. उनका कहना था कि जिस इलाके में परसा कोयला खदान है, वह पांचवीं अनुसूची का इलाका है, जहां इस तरह के खनन के लिए ग्रामसभा की अनुमति आवश्यक है. ग्रामीणों का आरोप था कि जरूरी स्वीकृतियां हासिल करने के लिए राजस्थान सरकार ने फर्जी ग्रामसभा के दस्तावेज का उपयोग किया है. ग्रामीणों का यह भी कहना था कि जमीन का अधिग्रहण के लिए कोल बेयरिंग एक्ट का उपयोग किया गया है, जबकि इसके लिए भूमि अधिग्रहण कानून का उपयोग किया जाना चाहिए था.
दूसरी ओर जब राजस्थान सरकार ने कोयले की कमी का हवाला देकर परसा कोयला खदान के आवंटन को लेकर दबाव बनाना शुरू किया तो परसा कोयला खदान के आवंटन को रद्द करने की मांग को लेकर सैकड़ों आदिवासियों ने मदनपुर से रायपुर तक की लगभग 300 किलोमीटर की पैदल यात्रा की और मुख्यमंत्री व राज्यपाल से मुलाकात कर इस खदान की भू अधिग्रहण की प्रक्रिया को ही रद्द करने की मांग की. आदिवासियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी से भी मुलाकात की और उन्हें चुनाव पूर्व, हसदेव अरण्य के इलाके में ही उनका दिया भाषण याद दिलाया, जिसमें उन्होंने आदिवासियों को भरोसा दिया था कि वे आदिवासियों को उजड़ने नहीं देंगे. चुनाव पूर्व भाषण में राहुल गांधी ने कहा था कि जंगल हैं तो आदिवासी हैं और ऐसा विकास नहीं चाहिए, जिसमें आदिवासियों को उजड़ना पड़े.
यह वही दौर था, जब सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 2 जनवरी 2018 को छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आदेशित भारतीय वन्यजीव संस्थान व भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद द्वारा हसदेव पर किए गए अध्ययन की रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई.
इस रिपोर्ट में बताया गया था कि देश के केवल 1 फीसदी हाथी छत्तीसगढ़ में हैं लेकिन देश में मानव-हाथी संघर्ष की 15 फीसदी से अधिक घटनाएं यहां दर्ज की गई हैं. ऐसे में अगर नए कोयला खदान को मंजूरी दी गई तो हाथी-मानव संघर्ष की स्थिति को संभालना असंभव होगा. रिपोर्ट में इस इलाके में पक्षियों की 406 में से कई गंभीर संकटग्रस्त और लुप्तप्राय पक्षियों की प्रजातियों के मिलने का भी उल्लेख किया गया था और कहा गया था कि इस इलाके में बाघों की भी उपस्थिति है. रिपोर्ट में कहा गया कि यह दुर्लभ और संकटग्रस्त जीवों का इलाका है. इसके अलावा यह इलाका भोरमदेव वन्यजीव अभयारण्य, अचानकमार टाइगर रिजर्व और कान्हा टाइगर रिजर्व से जुड़ा हुआ है.
लेकिन इन आंदोलनों और रिपोर्ट के बीच ही 21 अक्टूबर 2021 को वन एवं पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने परसा की अंतिम वन स्वीकृति भी जारी कर दी. इसके बाद पिछले महीने राज्य सरकार ने भी तमाम विरोधों के बीच इसे मंजूरी दे दी.
विरोध के स्वर
पिछले महीने परसा कोयला खदान की मंजूरी के बाद अडानी समूह के लोगों ने वन विभाग के सहयोग से पेड़ों की कटाई की शुरुआत कर दी. लेकिन ग्रामीण इन पेड़ों से चिपक गए. ग्रामीणों के व्यापक विरोध के बाद पेड़ कटाई की प्रक्रिया को रोकना पड़ा. इस मामले में कुछ ग्रामीणों के खिलाफ गंभीर धाराओं में मुकदमे भी दर्ज किए गए हैं लेकिन इन मुकदमों की परवाह किए बिना सैकड़ों स्त्री, पुरुष और बच्चे, अभी भी जंगल के इलाके में पेड़ों की कटाई के खिलाफ डंटे हुए हैं.
इस बीच इलाके के स्थानीय आदिवासियों ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करते हुए पेड़ों की कटाई रोकने और कोयला खदान के आवंटन को रद्द करने की मांग की. अदालत ने भी इतनी हड़बड़ी में पेड़ों की कटाई को लेकर सवाल किए कि अगर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया रद्द हो जाएगी तो क्या काटे गए पेड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है? हाईकोर्ट ने इस संबंध में राज्य सरकार को नोटिस जारी करते हुए जवाब तलब किया है.
दूसरी ओर स्थानीय आदिवासियों की एक चिट्ठी के आधार पर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने राष्ट्रीय वन्यजीव परिषद और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण से अनिवार्य सहमति लिए बिना खनन और पेड़ों की कटाई को लेकर राज्य सरकार से तत्काल कार्यवाही करने और तथ्यात्मक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कहा है.
अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ इलाके की कांग्रेस पार्टी की सांसद ज्योत्सना महंत ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री अश्वनी चौबे को एक पत्र सौंप कर परसा कोयला खदान की अनुमति रद्द करने की मांग की है. देश के कई पर्यावरणविदों ने भी हसदेव में नए कोयला खदान को लेकर चिंता जाहिर की है. लेकिन हसदेव में कोयला खनन और पेड़ों की कटाई के खिलाफ कबीरपंथ के गुरु प्रकाशमुनी नाम साहब के सामने आने से राज्य सरकार की चिंता बढ़ गई है. छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ के अनुयाइयों की संख्या लाखों में हैं.
कई विधायक, मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष तक इसी समाज के हैं. प्रकाशमुनी नाम साहब ने अपने एक संदेश में कहा, “मैं समस्त कबीरपंथ समाज की ओर से हसदेव के जंगलों की कटाई का सख्ती पूर्वक विरोध करता हूं. साथ ही समस्त कबीरपंथ समाज से इस अनैतिक कार्य को रोके जाने हेतु आवाज उठाने के लिए निवेदन करता हूं, क्योंकि जंगलों में एक वृक्ष का काटा जाना 100 प्राणियों की हत्या के बराबर पाप है.”
परसा कोयला खदान की जद में आने वाले हरीहरपुर, घाटबर्रा, साल्ही जैसे गांवों के आदिवासी भी किसी भी हालत में अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. साल्ही में धरना दे कर पिछले दो महीनों से भी अधिक समय से बैठीं एक प्रौढ़ महिला कहती हैं, “जंगल से ही हम हैं. हमारी पूरी आजीविका इसी पर निर्भर है. यह जंगल उजड़ गया तो सदियों से इस इलाके में रहते आए आदिवासी भी अपनी जड़ों से उखड़ जाएंगे. ऐसे में भले हमारी जान चली जाए, हम तो यहां कोयला खनन तो नहीं होने देंगे.”
हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक और पतुरियाडांड गांव के सरपंच उमेश्वर सिंह आर्मो कहते हैं कि हसदेव अरण्य बेहद समृद्ध जंगल है और बड़ी संख्या में बाघ, तेंदुआ, हिरण जैसे जंगली जानवर यहां पाए जाते हैं. हाथियों का बड़ा झुंड स्थाई रूप से इस इलाके में रहता है.
उमेश्वर कहते हैं, “इसी जंगल में हमारे देवताओं के स्थाई निवास हैं. हमारी संस्कृति इसी हसदेव में रचती-बसती है. इसके अलावा हसदेव अरण्य के जंगल ने ही मध्यभारत के पर्यावरण को बचा कर रखा है. यह समझने वाली बात है कि हसदेव बचेगा तो देश बचेगा.”
हसदेव अरण्य में खनन और पेड़ों की कटाई रुकेगी या हसदेव का यह जंगल इतिहास में दर्ज हो कर रह जाएगा, अभी इस पर कुछ भी कहना मुश्किल है. लेकिन कोयला खनन को लेकर सरकार की हड़बड़ी बताती है कि कम से कम सरकार को इस जंगल की परवाह नहीं है.
(साभार- Mongabay हिंदी)
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