Opinion

अमीर देशों को एलएनजी भेजने का मतलब है भारत जैसे देशों को कोयले के जाल से बाहर निकलना मुश्किल

मैं ह्यूस्टन, टेक्सास में आयोजित ऊर्जा व्यवसाय के दिग्गजों और विशेषज्ञों की वार्षिक बैठक में हूं. शायद इस तरह के सभी आयोजनों में सबसे महत्वपूर्ण. केयर वीक जैसा कि इसे कहा जाता है, इस साल कोविड-19 के कारण दो साल के अंतराल के बाद आयोजित किया गया है.

यह सबसे बुरा समय है, रूस-यूक्रेन युद्ध अभी छिड़ा हुआ है. प्रतिबंध लगाए गए हैं और ऊर्जा की कीमतें नियंत्रण से बाहर हो रही हैं. जब मैं बैठकर तेल और गैस उत्पादकों को सुनती हूं, तो मुझे एहसास होता है कि मैं वैश्विक ऊर्जा शतरंज की बिसात में एक महत्वपूर्ण बदलाव देख रही हूं.

दरअसल युद्ध से पहले और उसके दौरान ऊर्जा की कीमतों में बढ़ोतरी ने पारंपरिक तेल और गैस कंपनियों की भूमिका पर ध्यान केंद्रित किया है. वे युद्ध के बाद के ऊर्जा परिदृश्य में अपनी भूमिका के बारे में उत्साहित हैं, चाहे अधिक तेल और गैस के लिए ड्रिलिंग और पंपिंग हो या फिर यूरोप में आकर्षक नए बाजारों में उनकी भूमिका.

मैंने पिछले पखवाड़े इस बारे में फैलाए जा रहे झूठे आख्यान के बारे में लिखा था कि यह मूल्य वृद्धि और व्यवधान जीवाश्म ईंधन से हरित ऊर्जा में परिवर्तन के प्रयासों के कारण है. इस बार मैं प्राकृतिक गैस के मुद्दे पर चर्चा करना चाहती हूं.

रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक ऊर्जा वायदा में तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) की भूमिका पर प्रकाश डाला है. एलएनजी वहां काम करता है जहां पाइपलाइन नहीं पहुंच सकती, मतलब, वैसी जगहें जहां प्रमुख गैस उत्पादक, कतर और संयुक्त राज्य अमेरिका आपूर्ति नहीं कर सकते. उन्होंने गैस को पहले तरलीकृत करने के विकल्प विकसित किए हैं ताकि इसे कंटेनर जहाजों द्वारा ले जाया जा सके और फिर बिजली संयंत्रों या वाहनों या घरों में ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए उपयोग के लिए गैसीकृत किया जा सके.

युद्ध का मतलब है कि एलएनजी अधिक मांग में है. उदाहरण के लिए अमेरिका के पास इसका प्रचुर भंडार है. इसलिए केयर वीक में बातचीत का विषय यह था कि अमेरिका इस “स्वच्छतर” जीवाश्म ईंधन के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए अपने सहयोगियों के साथ कैसे काम कर सकता है. प्राकृतिक गैस कोयले की तुलना में लगभग 50 प्रतिशत कम कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करती है.

लेकिन इसमें मीथेन उत्सर्जन की अतिरिक्त समस्या भी है, मुख्य रूप से आग भड़कने और परिवहन और वितरण के दौरान रिसाव से. मीथेन एक अत्यंत शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है. वातावरण में इसका जीवनकाल तुलनात्मक रूप से कम होता है लेकिन तापमान को बढ़ने के लिए “मजबूर” करने में इसका योगदान कार्बन डाइऑक्साइड से कहीं ज्यादा होता है.

लेकिन बड़े तेल और गैस उद्योगों के लिए यह एक खुशगवार अवसर है. यह उद्योग ऊर्जा संकट के इस अवसर को भुनाना चाहता है और इसलिए इस प्रकार का प्रचार किया जा रहा है. उनका कहना है कि यह “स्वच्छ गैस क्रांति” जिम्मेदारी से की जाएगी. उद्योग मीथेन की मात्रा कम करने की दिशा में निवेश करेंगे. सीओटू उत्सर्जन का उपयोग किया जाएगा या उसे संग्रहीत किया जाएगा. “स्वच्छ” हाइड्रोजन के निर्माण में इस गैस का उपयोग किए जाने की बातें भी हो रही हैं.

अक्षय ऊर्जा का उपयोग करके निर्मित हरित हाइड्रोजन के विपरीत, यह हाइड्रोजन “नीला” होगा क्योंकि इसे प्राकृतिक गैस का उपयोग करके उत्पादित किया जाएगा और फिर उत्सर्जन को नियंत्रित और कम किया जाएगा. ऊर्जा की तंगी से जूझ रही सरकारों के लिए यह योजना किसी बच्चे की लोरी से कम नहीं है.

इस परिदृश्य में, जलवायु परिवर्तन को ऊर्जा का भविष्य बदले बिना नियंत्रित किया जा सकता है और जो कंपनियां इस व्यवसाय को अच्छे से जानती हैं, वे दुनिया को चलाना जारी रखेंगी.

इस तथ्य को भूल जाइए कि अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने कहा है कि अगर दुनिया को 2050 में नेट-जीरो के ट्रैक पर बने रहने की जरूरत है तो 2020 के बाद तेल और गैस में नया निवेश नहीं हो सकता है. इससे पहले कि मैं आगे बढ़ूं, मैं भी अपने सारे पत्ते खोल देना चाहती हूं.

मेरा मानना है कि दुनिया के हमारे हिस्से के लिए गैस एक महत्वपूर्ण स्वच्छ ईंधन है. हमारे यहां कोयले से दहन से हुए उत्सर्जन के कारण वायु प्रदूषण की एक बड़ी चुनौती है. 1998 में, हमने सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) में वाहनों में डीजल के उपयोग को बंद करने के लिए कंप्रेसड प्राकृतिक गैस (सीएनजी) लाने की वकालत की थी. ऐसा हुआ और इससे हवा की गुणवत्ता में सुधार हुआ.

अब, हमारे पास देश भर में औद्योगिक बॉयलरों में कोयले का उपयोग किया जा रहा है, जिससे खराब हवा के कारण स्वास्थ्य संबंधी बड़ी समस्याएं पैदा हो रही हैं. विकल्प यह है कि स्वच्छ प्राकृतिक गैस का उपयोग किया जाए या बॉयलरों में बायोमास का उपयोग किया जाए, जिसमें हमारे प्रदूषणकारी कोयला ताप विद्युत संयंत्र भी शामिल हैं.

हमें स्वच्छ ईंधन की आवश्यकता है ताकि हम अपने ऊर्जा परिवर्तन को चलाने के लिए स्वच्छ बिजली प्राप्त कर सकें. स्थानीय वायु को साफ करने के लिए बायोमास, नवीकरणीय और प्राकृतिक गैस हमारे सर्वश्रेष्ठ विकल्प है. लेकिन सवाल यह है कि क्या पहले से ही औद्योगिक देशों को इस जीवाश्म ईंधन के उपयोग का “लाभ” मिलना चाहिए? सच्चाई तो यह है कि कार्बन बजट पहले ही कुछ देशों द्वारा अपने विकास के लिए विनियोजित किया जा चुका है.

इन देशों को गहरे डीकार्बोनाइजेशन की आवश्यकता है, जिसका अर्थ है नवीकरणीय ऊर्जा और अन्य गैर-जीवाश्म ऊर्जा स्रोतों में परिवर्तन. वे जीवाश्म ईंधन में फिर से निवेश करके इसे स्वच्छ और हरा-भरा नहीं कह सकते हैं.

समस्या सिर्फ यह नहीं है कि ये देश जीवाश्म ईंधन के निरंतर उपयोग के कारण कार्बन बजट का अधिक हिस्सा लेंगे. इसका मतलब यह भी है कि ऊर्जा परिवर्तन की कीमत बढ़ जाएगी. पहले से ही एलएनजी को यूरोप जैसे अमीर स्थानों को भेजा जा रहा है. इसका मतलब यह होगा कि भारत जैसे देशों को कोयले के जाल से बाहर निकलना मुश्किल होगा.

यह सस्ता ईंधन है चाहे कितना भी गंदा क्यों न हो और क्योंकि यह हमारी जमीन के नीचे है. ऊर्जा सुरक्षा विशेषज्ञों के लिए इसका महत्व और बढ़ जाता है. यह हमें पीछे ले जाता है और पूरी दुनिया को असुरक्षित बनाता है. स्पष्ट है कि यह वह जगह है जहां से असली काम शुरू होता है.

(डाउन टू अर्थ से साभार)

Also Read: जल्दी बंद करें जीवाश्म ईंधन का उपयोग, नहीं तो होगा विनाश: आईपीसीसी

Also Read: आईपीसीसी की रिपोर्ट धरती को बचाने की अंतिम चेतावनी है