Pakshakarita
'पक्ष'कारिता: हिंदी के बुलडोजर प्रेमी संपादकों का 'कांग्रेसमुक्त' तीर्थ
महाभारत में एक संजय था जो धृतराष्ट्र को युद्ध की कथा सुनाता था. जाहिर है, जैसा यथार्थ आपको सुनाया जाएगा उसी तर्ज पर भविष्य की कल्पना आप करने लगेंगे. हिंदी अखबारों के संपादकों का भी यही हाल है. कोई संजय है जो कथा बांच रहा है. संपादकगण आंख पर पट्टी बांधे सत्ता के अनुकूल भविष्य की मुनादी किए जा रहे हैं.
पक्षकारिता के पिछले अंक में मैंने रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में हिंदी के अखबारों की दूरदर्शिता का जि़क्र किया था, लेकिन 10 दिन के कंटेंट विश्लेषण से पता चला कि युद्ध शुरू होने से पहले ही युद्ध-विरोध का जो राग अखबार अलाप रहे थे वह एक तय एजेंडे का हिस्सा था. यह दूरदर्शिता अखबारों के संपादकों के तार्किक सोच की उपज नहीं थी बल्कि सत्ता द्वारा निर्मित और इच्छित नैरेटिव का परिणाम थी. दिलचस्प है कि 10 मार्च को आए पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद हिंदी के अखबार जैसी खबरों को तरजीह दे रहे हैं, वह भी इसी एजेंडे का हिस्सा है.
इस एजेंडे की शुरुआत होती है 11 मार्च की सुबह आपके घर आए अखबारों से, जिनका पहला पन्ना तरह-तरह की कल्पनाओं से रंगा पड़ा था लेकिन वास्तव में सबका रंग एक था, सबमें निहित संदेश भी एक था. आइए देखें पत्रकारीय रचनात्मकता के कुछ नायाब उदाहरण:
केसरिया होली... आप का सैलाब (अमर उजाला)
योगीरा सा रा रा रा... मान गए मान (दैनिक जागरण)
फूल...झाड़ू ने किया कमाल (नवभारत टाइम्स)
भगवा रंग बरसे, 'आप' बल्ले-बल्ले (पत्रिका)
फिर योगी राज... पंज-आप (जनसत्ता)
महा-राजयोगी (दैनिक भास्कर)
इन सभी लीड खबरों में एक बात समान है- उत्तर प्रदेश में भाजपा और पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत को एक-दूसरे के समानांतर अगल-बगल जगह दी गई है. योगी आदित्यनाथ की तस्वीर के बगल में तीन अखबारों ने भगवंत मान को और दो ने अरविंद केजरीवाल को छापा है. एक ने मोदी और केजरीवाल को अगल-बगल रख दिया है. सबसे रचनात्मक हेडिंग नवभारत टाइम्स की है जिसने फूल और झाड़ू यानी भाजपा और 'आप' के चुनाव चिह्न को मिलाकर फूल-झाड़ू कर दिया है, फिर भी दोनों के बीच एक हाइफन है. इसके राजनीतिक मायने निकाले जा सकते हैं. उसी तरह पत्रिका की हेडिंग को पूरे एक वाक्य की तरह पढ़ें तो अर्थ निकलता है कि भगवा रंग बरसने पर 'आप' की बल्ले-बल्ले हो जाती है. मैं नहीं जानता कि पत्रिका और नभाटा में लीड की हेडिंग बनाने वालों की सोच में कोई राजनीतिक चिंतन भी था या नहीं, लेकिन असल कहानी इन्हीं में छुपी है.
फूल-झाड़ू का मतलब
इस कहानी पर आने के लिए यह जानना जरूरी है कि पंजाब में सिखों और हिंदुओं के वोट का पैटर्न क्या रहा. सीएसडीएस-लोकनीति ने पंजाब में वोटिंग के जो आंकड़े जारी किए हैं, उन्हें देखकर पता चलता है कि भारतीय जनता पार्टी के सिख और हिंदू वोट दोनों बढ़े हैं जबकि शिरोमणि अकाली दल के सिख वोटों और कांग्रेस के हिंदू वोटों में भारी कमी आई है. यहां इन दोनों को जो नुकसान हुआ है, उसका लाभ आम आदमी पार्टी को मिला है. तस्वीर देखें:
मोटे तौर पर पार्टियों के वोट प्रतिशत की तुलना 2017 से की जाय जो कांग्रेस को 15 प्रतिशत और अकाली को 7 प्रतिशत का नुकसान हुआ है जबकि आम आदमी पार्टी को 19 प्रतिशत का फायदा हुआ है. भाजपा को एक प्रतिशत का फायदा हुआ है. इससे दो बातें समझ में आती हैं. पहली, आम आदमी पार्टी का उभार क्षेत्रीय पार्टी अकाली दल और राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की कीमत पर हुआ है. दूसरे, उसके उभार से भाजपा को कोई नुकसान नहीं हुआ है. इसका अर्थ यह है कि भगवा रंग बरसने और 'आप' की बल्ले-बल्ले के बीच एक अन्योन्याश्रित संबंध है. यह संबंध दिल्ली में हम काफी पहले देख चुके हैं.
चुनाव परिणाम के ठीक बाद दिल्ली में बिलकुल यही खेल नगर निगम चुनावों के संदर्भ में खेला गया है. केंद्र ने एमसीडी चुनाव टालने की कवायद की और आम आदमी पार्टी ने उसके खिलाफ झंडा उठा लिया. पूरी लड़ाई में कांग्रेस को अखबारों ने गायब कर दिया. खबरें देखिए और खुद समझिए कि फूल-झाड़ू दरअसल किस पर चलाई जा रही है.
'कांग्रेसमुक्त भारत' का तीर्थ
चुनाव नतीजों की अगली सुबह से अखबारों ने बहुत सचेतन रूप से भाजपा के घोषित अभियान कांग्रेसमुक्त भारत को चलाना शुरू किया है. इस अभियान के लिए यह जरूरी है कि आम आदमी पार्टी को हर उस राज्य में उभरता हुआ दिखाया जाय जहां मोटे तौर पर केवल दो दल कांग्रेस और भाजपा हैं. संपादकों ने किसी तार्किकता के वशीभूत होकर भाजपा और 'आप' को 11 मार्च के पहले पन्ने पर बराबर नहीं रखा था बल्कि यह सत्ता के एजेंडे के अनुरूप था, यह बात हिंदुस्तान के संपादक शशि शेखर के संपादकीय अग्रलेख से लेकर बाकी संपादकीय पन्नों पर अब खुलकर आ चुकी है.
इस लेख को ऐसे पेश किया गया है गोया मोदी का जादू अपने आप चल रहा हो और 'आप' का उभार भी कोई स्वतंत्र परिघटना हो. संपादकजी चालाक हैं, लेकिन कुछ लेखक इस मामले में अश्लीलता पर उतर आते हैं जब वे कांग्रेस के खत्म होने की निजी इच्छा जाहिर करने लग जाते हैं. नवभारत टाइम्स में छपा यह लेख देखिए.
लेख ही नहीं, खबर की शक्ल में ऐसी सदिच्छाओं को परोसा जाता है.
बीते हफ्ते हिंदी के अखबारों में अचानक आम आदमी पार्टी के राजनीतिक फैलाव से जुड़ी खबरों का अचानक छपने लग जाना इसी सदिच्छा का परिणाम या अक्स है. अलग-अलग अखबारों को अगर आप ध्यान से पढ़ें तो कहीं कोने-अंतरे में 'आप' से जुड़ी खबर जरूर मिल जाएगी. पंजाब के पड़ोस में हरियाणा पर तो 'आप' की जीत का स्वाभाविक असर पड़ना है, लेकिन झारखंड और बंगाल तक इस पार्टी से जुड़ी खबरों का पहुंच जाना यह बताता है कि अखबारों ने बहुत सतर्कता से गैर-भाजपाई सत्ता वाले राज्यों को टारगेट करने का काम किया है. गुजरात जैसा राज्य, जहां पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आने से बाल-बाल रह गई थी, वहां अखबारों ने उसे 'आप' से रिप्लेस करने की पूरी कमर कस ली है.
नीचे कुछेक उदाहरण देखें कि कैसे चुन-चुन कर आम आदमी पार्टी को हरेक राज्य के संदर्भ में स्पेस दी जा रही है और पाठक की धारणा में उसे कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों का संभावित स्थानापन्न बनाया जा रहा है.
इसकी कोई ऐसे भी व्याख्या कर सकता है कि ये तमाम खबरें महज पार्टी के भावी कदमों की रिपोर्टिंग हैं और इसमें कहीं भी कोई प्रचार का तत्व नजर नहीं आता. यदि वाकई ऐसा ही है, तो क्या 10 मार्च को पंजाब का चुनाव जीतने के तुरंत बाद पार्टी ने आधा दर्जन राज्यों में पैर फैलाने का फैसला कर लिया या यह प्रक्रिया लंबे समय से चल रही थी. हम जानते हैं कि गुजरात और मध्य प्रदेश के निगम चुनावों में आम आदमी पार्टी ने काफी पहले से अपनी जोर आजमाइश शुरू कर दी थी और उसे कई सफलताएं भी मिली हैं. हिंदी के राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों में इससे पहले उसकी चुनावी कामयाबी की खबरें देखने को क्यों नहीं मिली?
राजनीतिक बाइनरी या नूराकुश्ती?
ये जो अचानक बंगाल से लेकर गुजरात वाया हिमाचल 'आप' को भाजपा के बरअक्स खड़ा कर के एक नई राजनीतिक बाइनरी बनाने की कोशिश की जा रही है, इसे लेकर सार्वजनिक चर्चा कम ही हुई है. परंपरागत राजनीतिक दलों से परेशान हो चुके मतदाता आम तौर से 'आप' को एक वैकल्पिक ताकत मान बैठते हैं. पंजाब में भी लोगों ने 'आप' को विकल्प मानकर ही चुना है. दिल्ली इस विकल्प का तिहराव कर चुकी है. यह विकल्प वास्तव में कितना सच्चा है और कितना गढ़ा हुआ, इसे समझने के लिए यह देखना जरूरी है कि आखिर किन जगहों पर 10 साल पुरानी हो चुकी इस पार्टी को विकल्प बताया जा रहा है. ये सभी वही राज्य हैं जहां कांग्रेस अब भी ठीकठाक बच रही है या सत्ता में है. जाहिर है, 'आप' को कांग्रेस का विकल्प बताना और किसी को नहीं, भाजपा को लाभ देता है. यह कोई संयोग नहीं, एक सुनियोजित पटकथा है.
हिंदुस्तान के पूर्व पत्रकार हरजिंदर ने बहुत खुलकर तो नहीं, लेकिन चलाचली के लहजे में इस बात को एक लेख में समझाने की कोशिश की है. हिंदुस्तान में 14 मार्च को छपे इस लेख का शीर्षक है 'भाजपा के ही नक्शेकदम पर आप'. इसे पढ़ा जाना चाहिए.
इस लेख के अंत में हरजिंदर लिखते हैं, ''जब आप का जन्म हुआ तकरीबन तभी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई भाजपा का पुनर्जन्म हुआ... दोनों ने कांग्रेस के कमजोर होते आधार से खाली हुई जमीन पर पूरी आक्रामकता से अपने पैर पसारे हैं... भाजपा जिस तरह की राजनीति कर रही है वहां उसी तरह की दूसरी स्पर्धी आम आदमी पार्टी ही है.''
आखिरी वाक्य में 'स्पर्धी' की अपनी-अपनी व्याख्याएं हो सकती हैं, लेकिन 'आप' को तब तक स्पर्धी नहीं माना जाना चाहिए जब तक वह किसी राज्य में भाजपा को सीधी टक्कर देकर रिप्लेस न कर ले. फिलहाल यह सूरत कहीं नहीं दिखती. यह 'स्पर्धा' नूराकुश्ती ही जान पड़ती है. शशि शेखर सीधे-सीधे पूछते हैं, ''क्या अगले पांच साल में हम नरेंद्र मोदी बनाम अरविंद केजरीवाल की लड़ाई देखने जा रहे हैं?" यहां भी 'लड़ाई' के असल मायने हमें समझने होंगे.
विधानसभा चुनावों के दौरान हिंदी में अनुज्ञा बुक्स से प्रकाशित इस लेखक की पुस्तक 'आम आदमी के नाम पर' में इन सवालों के जवाब बहुत तफ़सील से दिए जा चुके हैं. शशि शेखर का सवाल सही है, लेकिन उसका परिप्रेक्ष्य गड़बड़ है क्योंकि उसमें एक एजेंडा और सदिच्छा शामिल है कि ऐसा ही हो. हरजिंदर उस परिप्रेक्ष्य को पीछे अन्ना आंदोलन तक जाकर थोड़ा स्पष्ट करते हैं. नरेंद्र मोदी की भाजपा और केजरीवाल दोनों एक ही परिघटना की पैदाइश हैं- दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं- बात को यहां से शुरू करेंगे तब जाकर अखबारों की मौजूदा कारस्तानी आपको समझ में आएगी. किताब न भी प़ढ़ें तो आने वाले नौ महीने में पंजाब और गुजरात-हिमाचल के चुनाव बहुत कुछ स्पष्ट कर देंगे कि भगवा बरसने पर 'आप' की बल्ले-बल्ले क्यों होती है.
फिलहाल तो यूपी में योगी की जीत पर सारे अखबार ऐसे लहालोट हैं कि लोकतंत्र और संविधान को कुचलने के प्रतीक बुलडोजर को दिल से लगा बैठे हैं. नीचे दी हुई दैनिक जागरण में छपी खबर से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हिंदी अखबारों को 'कुचलने' वाली सत्ता कितनी पसंद है. यह संयोग नहीं है कि शशि शेखर अपने अग्रलेख में (13 मार्च, हिंदुस्तान) लिखते हैं, ''इन चुनावों का संदेश स्पष्ट है कि मोदी और योगी ने जातियों के मायाजाल को 'बुल्डोज' कर दिया है.''
आज 2022 में हिंदी के एक संपादक के लिए जाति 'मायाजाल' है और 'बुलडोजर' माया को तोड़ने वाला यथार्थ. ऐसे संपादक इस देश की आने वाली पीढि़यों को संविधान-विरोधी बनाने के लिए हमेशा याद रखे जाएंगे, जो अपने हाथ पर अब प्रेमिका का नाम या भगवान की तस्वीर नहीं, 'बुलडोजर बाबा' गोदवाती है.
यह तस्वीर अमर उजाला में छपी है, बनारस से है. यह तस्वीर हमारे वक्त में लोकतंत्र और संविधान पर एक गंभीर टिप्पणी है, बशर्ते इसे हास्य में न लिया जाय.
Also Read
-
TV Newsance 320: Bihar elections turn into a meme fest
-
We already have ‘Make in India’. Do we need ‘Design in India’?
-
Not just freebies. It was Zohran Mamdani’s moral pull that made the young campaign for him
-
“कोई मर्यादा न लांघे” R K Singh के बाग़ी तेवर
-
South Central 50: Kerala ends extreme poverty, Zohran Mamdani’s win