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सेंट्रल विस्टा नया भारत है? असलियत में हम पुराने भारत की ओर लौट रहे हैं

सेंट्रल विस्टा की शुरुआत से अंजाम तक पहुंचाने को लेकर सारी समझ के पीछे स्वाधीन भारत में हिंदुओं के अधिकारों की कहानी गढ़ना है. नेहरूवादी सोच वाली सरकारों ने 70 साल तक इसे पनपने नहीं दिया. लोकसभा की 303 सीटें जितने से मिली ताकत ने नए प्रतीक और नए विमर्श जल्द से जल्द गढ़ने की उत्तेजना और वजह पैदा कर दी है.

इससे साफ हो जाता है कि सेंट्रल विस्टा का वास्तुशिल्प, नगरीय योजना या इसको पहचान देने वाली अवाम या मुल्क से इसका कोई लेना-देना नहीं है, और खुद विश्वस्तरीय का तमगा लगा लेने से ये टिकाऊ और लोकतांत्रिक नहीं हो जाएगा. जो आज विश्वस्तरीय कहलाने का एक जरूरी पैमाना माना जाता है.

ये इस ‘न्यू इंडिया’ की ही सोच है, जिसकी बिना पर पुरानी यादों को तबाह कर पद्मश्री श्री कंगना रनौत की बताई “असली” आजादी के बाद का नया इंडिया बनाया जा रहा है.

एक बड़ी बेतुकी बात ये है कि इसी सोच से मकसद हासिल करने की कोशिश में अवाम, कानून और दुनिया के बीच जाकर, लंबे वक्त में मेहनत से बनी छवि को जानबूझ कर गहरा नुकसान पहुंचाया गया है.

अंधाधुंध तेजी से निर्माण, पहले से ही तयशुदा डिजाइन, या टेंडर, ताक पर रखी कानूनी पाबंदियां, जनता के बीच हवा बांधने की कोशिश, पब्लिक की जमीन हड़पने की बेशर्मी, इसका हर नागरिक गवाह है. यहां तक कि कायदे-कानून की धज्जियां उड़ाने, और नियमों कायदों की अनदेखी को छुपाना तक जरूरी नहीं समझा गया. पूरे प्रोजेक्ट में कानून को नजरअंदाज़ करने की ढ़ेर सारी मिसालें देखने को मिलती हैं.

इस सबके पीछे भरोसा ये है कि नेहरू की छाप मिटाने के साथ इस नक्शे में बदलाव कर जब सेंट्रल विस्टा का वर्ल्ड-क्लास रूप दे दिया जाएगा, तब कानून से जुड़े सवाल अपने आप बेमानी हो जाएंगे. (देखिए यहां और यहां)

लेकिन सेंट्रल विस्टा को हो रहे इस दोहरे नुकसान से खुद तमगा लेने के बावजूद वर्ल्ड क्लास की कसौटी पर ये खरा नहीं उतरेगा.

सवाल ये उठता है कि प्रोजेक्ट की मदद के लिए सरकार की सारी ताकत, बेशुमार संसाधन और पूरी नौकरशाही और सत्ता को मिला कर भी, इस इकलौते कीर्तिमान को साकार करने में आखिर क्या दिक्कत है?

सत्ता की अपनी आवाम के लिए पहली ज़िम्मेदारी का ‘विरासत’ के लिए दमन

नासमझी ये रही है कि प्रधानमंत्री के सपनों के प्रोजेक्ट की राह में रोड़ा अटकाने के लिए नियम-कानून को उदारवादियों के संभावित हथियार के रूप में देखा गया. उन जरूरी बातों को भी दरकिनार कर दिया गया, जिनके जरिए आननफानन की जा रही इस कोशिश को दुनिया भर में शोहरत हासिल हो सकती थी.

इस काम के लिए वफादारी के आधार पर उन भरोसेमंद कारिंदों को सांस्थानिक सलाहों के बजाय चुना गया, जो जनता की नजरों से छुपाते, जरूरी शहरी कायदे-कानूनों को दरकिनार कर जनतंत्र की उन जीवंत प्रक्रियाओं को दबा दिया गया, जो इस प्रोजेक्ट को सही में विश्व स्तरीय बना सकती थीं.

नियम-कानून से जुड़ी हर बात को एक खतरा समझा गया.

प्रोजेक्ट की अड़चनों को दूर करने की औसत दर्जे की सोच की वजह से, नितांत विध्वंसक तरीकों के लिए जगह बनी और आम प्रशासनिक प्रक्रिया के नियंत्रण के आभाव में ये बेरोकटोक होती चली गईं.

हुकूमत की ताकत दिखा कर योजना तैयार करने का क्या हश्र होता है, इसकी वजहों और अंजाम की एक साफ तस्वीर देखी जा सकती है.

दरसल प्रोजेक्ट को बेहतरीन और उम्दा बनाने के बजाय सुनियोजित तरीके से नेहरू का नामोनिशान मिटाने के संभावी प्रतिरोध के डर से, बाजी पलटने का ये दांव खेला गया. तमाम विमर्श को दरकिनार कर पुराने साथी बिमल पटेल पर भरोसा दिखाया गया.

हालांकि दिखावे के लिए सारी रस्म अदायगी हुई. बड़े-बड़े तमगों वाले नामवर पेशेवर बुलाए गए. हर हाल में हुकुम बजा लाने वाले वफादार बुलाए गए. अहमदाबाद से बारीकी से छानबीन कर अपनी सोच के खास जत्थे को बुलावा भेजा गया.

आंख मूंद कर भरोसा करने की ये तस्वीर देखने में तो बहुत सुकूनदेह मालूम पड़ती है, लेकिन सत्ता की इस भारी गलती का ये अंजाम हुआ कि सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही को नजरअंदाज कर, पटेल को अपनी मनमर्जी का पूरा मौका मिल गया.

कैसे हुआ ये सब?

भयावह गलती

ज्यादातर बड़ी सरकारी योजनाओं के तीन चरण होते हैं:

पहला चरण- दिशा-निर्देश: ग्राहक (सरकार) पूरे आंकलन के बाद जरूरतें तलाशना, पैमाने और पाबंदियां तय करना. प्रोजेक्ट का मकसद पाने के लिए बारीकी और लगन से कसौटी तैयार करना. रूप-स्वरूप, स्थान, क्या बनाना-क्या छोड़ना?

इस पूरी कवायद के बाद ग्राहक वास्तुकार से इन्हीं सीमाओं के भीतर कई संभावित डिजाइन तय करने का निर्देश देता है.

दूसरा चरण- डिजाइन प्रतियोगिता: तय पैमानों और पाबंदियों की जद में डिजाइनर अपनी-अपनी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल कर बेहतर से बेहतर डिजाइन बनाने की चुनौती स्वीकार करते हैं.

तीस साल पहले, आर्किटेक्ट आईएम पे ने फ्रांस के 300 साल पुराने लूव म्यूजियम को नई शक्ल देने के लिए उसे छुए बगैर खाली जगह पर ऐसे एक तहखाने का उस वक्त के हिसाब से एक अलहदा डिजाइन तैयार किया, जिसमें पिरामिडनुमा कांच की छत से कुदरती रोशनी से उजाला हो सके.

रात में शानदार रोशनी
अंदर, विशाल संग्रहालय

सबसे अनोखे डिजाइन के चयन के बाद भी उसे तय किए पैमानों और कायदे-कानून की कसौटियों पर कड़ाई से परखा जाता है. अनोखेपन के माने ये नहीं कि उसे कानून की हद से बाहर जाने की इजाजत हो.

तीसरा चरण- टेंडर: ग्राहक के साथ समझ बनने और मंजूरी के बाद ठेकेदार बकायदा पूरा खाका तैयार करता है.

प्रोजेक्ट का आधार तय करना

सरकार अपने सलाहकारों और विशेषज्ञों को पर्यावरण कानून, जनसांख्यिकी अध्ययन, वास्तुशिल्प और शहरी नियोजन के आधार पर प्रोजेक्ट की रूपरेखा बनाने का निर्देश देती है. इन सरकारी विभागों और विशेषज्ञों की संस्थाओं के अपने-अपने पेशेगत तजुर्बे से जुड़ी जानकारी की बुनियाद पर प्रोजेक्ट की आधाररेखा तय की जाती है.

मिसाल के तौर पर सेंट्रल विस्टा के मामले में ये ध्यान रखना जरूरी है कि संरक्षित इलाके में होने की वजह से इससे जुड़ी पाबंदियों के लिहाज से साफ समझ की बिना पर आधाररेखा तय की जाए.

वहीं संसद के लिए मौजूदा इमारत की ढांचे की मजबूती के आकलन के साथ कई सवालों के जवाब हासिल करके ही आधार तय करने की जरूरत थी. मसलन मजबूती के लिहाज से नई इमारत बनाना जरूरी है या बड़े पैमाने पर मरम्मत भर की जरूरत है? और 15 साल बाद जब आबादी घटने लगेगी तब अमूमन कितने लोगों के बैठने का इंतजाम जरूरी होगा? और अगर नई बिल्डिंग जरूरी भी है तो हम अपनी विरासत और आसपास के पर्यावरण का संरक्षण किस तरह करेंगे?

लोकपथ से जुड़े वास्तुकार माधव रमन का कहना है, “इस स्टेज पर बड़ी तबीयत औ लगन के साथ मुस्तैदी से काम करने की जरूरत है. मुकाबले में शामिल सभी डिजाइनरों को ये आधाररेखा स्पष्ट होनी चाहिए. यही सरकार के अपने काम करने के तरीके में नजर भी आना चाहिए. हाल में बने समर स्मारक की डिजाइन तैयार करने के लिए उसमें स्मारक को सड़क से पांच फीट तक ऊंचा रखने का पैमाना तय किया गया था. सभी चुने गए आवेदनों में पेड़ों के संरक्षण का ध्यान रखा गया था. आधारभूत नियमों के पालन की अनिवार्यता को ध्यान में रख कर ही आवेदन जमा किए गए थे, जो कि बुनियादी शर्त थी.”

सेंट्रल विस्टा के साथ क्या हुआ?

यहां पहले चरण की ही कवायद नहीं हुई. न कोई पाबंदियां ही तय की गईं. न ही कोई आधाररेख तैयार किया गया.

सच्चाई तो ये है कि ये तथाकथित मुकाबला, महज ठेके देने की बड़े पैमाने पर रस्म अदायगी भर थी. “व्यापक स्तर पर वास्तुशिल्प और इंजीनियरिंग योजना” के लिए कंसल्टेंसी सेवा देने के लिए महज एक कागज मांगा गया. (देखें तस्वीर) सब कुछ कामयाब होने वाले के हवाले कर दिया गया.

टेंडर पाने वाले को मोटी-मोटी जानकारी के कागज की बिना पर खुले टेंडर के जरिए पहले चरण से जुड़े सारे फैसले लेने का अख्तियार सौंपने का अजब खेल हुआ. अब सरकार के बजाय उसे ही आधाररेखा तय करने का अधिकार मिल गया.

सरकार ने इस जगह की अहमियत के मद्देनजर, उसकी संप्रभुता की रक्षा करने के लिए समायें तय करने की, जनता के प्रति अपनी अहम जिम्मेदारी से हाथ झाड़ लिए.

रमन कहते हैं, “जिम्मेदारी का इतना भी अहसास नहीं कि ये बेशकीमती विरासत आने वाली नस्लों को सौंपी जानी है. पहले दौर में ही बहुत बारीकी और जतन के साथ पैमाने तय किए जाते हैं, लेकिन यहां सब कुछ टेंडर पाने वाले की समझ पर ही छोड़ दिया गया. और उसने इस विरासत के साथ वही सुलूक किया जो किसी बंद फैक्ट्री की जमीन के साथ होता है. सब कुछ गिरा कर नए सिरे से कहीं भी बनाने की सोच के साथ.”

कुल मिला कर सरकार ने एक काबिल पेशेवर को कथित मुकाबले के जरिए बगैर किसी रोक-टोक के सारे अख्तियार दे दिए.

इसीलिए पटेल ने फैसला लिया कि-

(अ) योजना के लिए पहले के मुकाबले चार गुना बड़ी जगह की जरूरत होगी

(ब) विरासत और पर्यावरण सरंक्षण या फ्लोर एरिया रेश्यो से जुड़े नियम इस पर लागू नहीं होंगे

(स) सबसे बेहतरीन जमीन, मसलन पब्लिक की तफरीह के लिए छोड़ी गई जमीन का भी इस्तेमाल होगा.

उन्होंने वही किया, जो कोई भी डिजाइनर मौके का फायदा उठाने के लिए करता, क्योंकि कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था.

इसके पीछे उनकी सोच क्या थी? रमन इसे अपने नजरिए से कहते हैं-

वह कहते हैं, “बिमल पटेल कम समय में योजना पूरी करने और इमारतों के संरक्षण या ढहाने के नफे-नुकसान के साथ, क्या संरक्षित किया जाए और क्या नहीं, कुछ इस तरह बयान करते हैं मानों ये सब सरकारी फैसले हैं.”

“लेकिन असलियत ये है कि चार लाख वर्ग मीटर की इमारतें गिराने या नई संसद के निर्माण का विचार सरकार का नहीं था- ये सब उन्हीं के ख्यालों की उपज है. सारे अधिकार देने वाला खुला बहुउद्देश्यीय ठेके या कथित डिजाइन प्रतियोगिता के कागजात से, उन्हें ध्वंस और निर्माण संबंधी सारे फैसले करने की मंजूरी हासिल हो गईं.

यही वजह है कि पटेल ने संसद की मौजूदा इमारत की जांच-पड़ताल की, जबकि ये जिम्मेदारी सरकार की थी. उन्होंने अपनी मर्जी के मुताबिक ही यह फैसला कर लिया कि उनके नाम और डिजाइन वाली नई इमारत ही बेहतर रहेगी. जबकि अपनी इमारतों के लिए बेहतरीन डिजाइन का चुनाव, सरकार गहरी छानबीन और पेशेवर लोगों की सलाह के बाद करती है.

भूकंप या संरचना संबंधी उनके फैसलों को जायज ठहराने के लिए पीछे ठोस अध्ययन नहीं है. (पटेल अकसर अध्ययनों को खारिज करते हैं और दोहराते हैं कि फैसले लेने के लिए गूगल अर्थ ही काफी है)

“तो हम जल्द ही इस नतीजे पर पहुंच गए कि ये (संसद) एक बेशकीमती और भारत के जीवंत लोकतंत्र का प्रतीक है- लेकिन हम एक और इमारत चाहते हैं.” अपनी हालिया बैठक को याद करते हुए वे बताते हैं “हमारा शुरुआत में ही लगाया गया अंदाजा बहुत जल्द ही सही साबित हो गया.”

लेकिन इस फैसले में भारी विरोधाभास है. ये संभव नहीं है कि पटेल की बेहतरीन पेशेवर योग्यताएं सरकार को सही सलाह देने में कोई भूमिका निभा सकती हैं, खासकर जब उन्हें बेहिसाब फायदा उठाने की भूमिका में रखा गया है.

देश की संसद के निर्माण से मिलने वाली शोहरत न सिर्फ तारीख में दर्ज होगी बल्कि निजी और माली लिहाज से भी ऊंचाइयां छूने का मौका भी है. पटेल ने मौके का फायदा उठाने में कतई झिझक नहीं दिखाई.

इससे उनकी हर कथित पेशेवर पसंद को लेकर संदेह पैदा होता है.

चार लाख स्क्वेयरमीटर की 18 मजबूत इमारतों को जमींदोज करना, सांस्कृतिक महत्व की संस्थाओं को ध्वस्त करना, विस्टा से हुकूमत और आवाम की साझी पहचान मिटाना और ऐसी संस्थाओं को विस्टा से बाहर कर देना, छह हजार पेड़ काटना, इस संवेदनशील विरासत वाले क्षेत्र में एक्सप्रेसवे की तरह यातायात का बंदोबस्त, स्थानीय प्रशासन की अनुमति लिए बगैर अपने हिसाब से फ्लोर एरिया रेश्यो तय करना, राजपथ लॉन में फर्श वाले रास्ते, और प्राकृतिक जल प्रवाह अवरुद्ध करने जैसे काम उनकी पसंद में शुमार हैं, वो भी ग्रेड वन हेरिटेज जोन में.

एक नागरिक की नजर से देखा जाए तो सरकार ने पटेल को संस्थाओं, नगर निकायों और शहरी कानून को अपने निजी फायदे में इस्तेमाल करने की ताकत देने के लिए क्या नहीं किया.

अगर दूसरे नजरिए से देखें तो इन संस्थाओं, स्थानीय निकायों और शहरी कानूनों के प्रति सरकार ने अपनी जिम्मेदारी कतई नहीं निभाई.

मगरूर और सब तबाह कर देने वाला यही नजरिया ही प्रोजेक्ट को विश्वस्तरीय बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है.

बुद्धिजीवियों का विरोध सरकार की नीति है या ‘पेशेवरों पर अविश्वास’

वही खौफ जिसकी वजह से पटेल को खुली छूट दी गई है, उसी ने तबाही रोकने के लिए जानकारों के मशविरा देने पर पाबंदी लग गई है.

बंद सोच के साथ कान बंद कर सरकार ने संबंधित संस्थाओं की सलाह-नसीहतों को बेरुखी से ठुकरा दिया (यहां और यहां देखें)

दरसल इस संस्थागत नाकामी की असली वजह पेशावर लोगों पर शक है, जिनको लेकर लगता है कि वे वैचारिक ‘सपनों’ की राह में अड़चन बन सकते हैं. हालांकि इस सोच की झलक पहले “हॉवर्ड और हॉर्ड वर्क” को लेकर की गई टिप्पणी में दिखाई पड़ती है लेकिन अब तो सब पानी की तरह साफ हो गया है.

न्यू इंडिया की शब्दावली भले ही आधुनिक हो, लेकिन व्यवसायिक नजरिए में आधुनिकता को जानबूझ कर दरकिनार रखा है. सामंती सोच वाले इस न्यू इंडिया के नजरिए में मध्यम स्तर के नौकरशाहों का बोलबाला है जो सुर में सुर मिला कर बहुमत से कानून को धता बताते हुए, अवैध फैसलों के लिए संस्थागत तरीके से रास्ता तैयार करते हैं.

असल में इस भयावह नुकसान की असली वजह यही है.

हुनर से दुश्मनी की कीमत

संस्थाओं को इरादतन तरीके से खत्म किया जा रहा है

स्थानीय निकाय से रजामंदी की पहली शर्त पूरी किए बगैर शहरी नियोजन की संस्था अगर अनुमति दे सकती है, हेरिटेज कमेटी के लिए विरासत कानून को ही माफ कर सकती है, या पर्यावरण से जुड़ी संस्था खुलेआम अवैध फ्लोर एरिया रेश्यो को मंजूरी देती है, तो यह सिर्फ पैसे की ताकत के सिवा कुछ नहीं.

वैचारिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए इतने दबाव और खतरों के बीच मोहरों की तरह इस्तेमाल हो रही संस्थाएं पेशेवराना पैमाने या क्वालिटी के लिए बाहर की दुनिया से जानकारी हासिल करने में यकीन नहीं रखती. क्योंकि ये संस्थाओं के प्रति भरोसा टूटने जैसा है.

सेंट्रल विस्टा का ताकतवर संदेश एकदम साफ है. संस्थाएं बेमानी हैं और कानूनी तौर-तरीकों के न्यू इंडिया में बहुत मायने नहीं हैं.

प्रतिभा की कमी से स्तर में गिरावट आती है

योजना में प्रतिभाओं की कमी का असर बढ़ता नजर आ रहा है. दुनिया में नए इजाद हो रहे खयालात से आइडिया लेने के बजाय नौसिखिए खानसामें से घरेलू फालूदा बनवाया जा रहा है. जहिर है पर्यावरण, विरासत, यातायात, पानी वगैरह को लेकर बेतुके फैसले लिए जा रहे हैं.

“सरकार का काम हेरिटेज, प्रदूषण, इंजीनियरिंग, वास्तुकला, संस्कृति,परिवहन से जुड़े विभागों के बीच जटिल मुद्दे के समाधान निकालने के लिए तालमेल बिठाना है, न कि मुगलिया सल्तनत की तरह इकतरफा फरमान जारी करना.” स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर के पूर्व डीन केशव कपाड़िया कहते हैं- “एक शहर बनाने के लिए बहुत संजीदा नजरिए की जरूरत होती है.” वे आगे कहते हैं, “तर्कों को नजरअंदाज करना तजुर्बे को ठुकरना है- यहीं से शहर बिखरना शुरू हो जाता है.”

यही बेरतरतीबी पूरे प्रशासनिक व्यवस्था को औसत दर्जे की बना देती है. यानी सब कुछ जायज मान लिया जाता है.

इसी वजह से दो हजार पेड़ों से तैयार किए जंगल को काटने के पाप से सरकारी महकमों तक में खलबली पैदा हो गई थी, लेकिन इसे विकास के लिए बलि मान कर स्वीकार कर लिया गया. जानकारों की सलाह के एकदम अलग बेअक्ल और बेहुदा “विकास” मंजूर है.

जाहिलियत से भरे बेतुके फैसले

इस योजना के लिए एकदम उलट तरीके से फैसले लिए जा रहे हैं. पहले खाका तैयार किया गया, फिर पड़ताल की गई. इसी वजह से बगैर तैयारी बनाई इमारत की मंजूरी के लिए बेतुके उपाय तलाशने पड़ते हैं.

वहीं, इन इमारतों की वजह से खड़ी होने वाली भारी यातायात समस्या को दूर करने के लिए लुटियन दिल्ली के बीचो बीच सड़कों को चौड़ा करने का चौंकाने वाला फैसला लिया गया.

यातायात संबंधी पड़ताल से दिल्ली की इस विरासत को बचा कर भी आसानी से टिकाऊ रास्ता तलाशा जा सकता था. आवाजाही को तो कम ज्यादा या बदलाव किया जा सकता है लेकिन विरासत नहीं बदली जाती. इसके बजाय एक सदी पुरानी सड़कों के किनारे तरतीब से लगे पेड़ों की जगह आठ लेन का कॉरीडोर,चौराहों पर गोलचक्कर और एलेवेटेड सड़कें बनाकर विरासत को तहस नहस करने का फैसला लिया गया है.

Source: Hindustan Times.

कपाड़िया कहते हैं, “ये ताजमहल के चबूतरे को मेट्रो स्टेशन में बदलने को यहां पहुंचने का दुनिया की बेहतरीन इंतजाम बताने की तरह है.”

फिर भी इस भोंडेपन को आसानी से पचा लिया गया और बगैर किसी बहस जांच कमेटी ने हरी झंड़ी भी दिखा दी (नीचे देखें तस्वीर.)

इसीलिए ये जो न्यू इंडिया है.. यहां नएपन या नफासत के लिए कोई जगह नहीं है. इसके पीछे सिर्फ अपनी हसरत पूरी करने की मोटी समझ भर है और मकसद हासिल करने का सही रास्ता तलाशने की आजादी भी नहीं है. बेहतरीन कानून भी बेमानी है, अगर सरकार के इरादे ही उनकी मुखालिफत करते हों.

परिस्थिति को बदलने का समय अभी भी है

अब भी आम लोगों से लेकर सरकार तक, सबके लिए नुकसादेह और नासमझी भरी राह से लौटने के रास्ते बाकी हैं.

अगर सरकार बातचीत के दरवाजे खोलती हैं तो आधुनिक और संरक्षण के साथ बीच का रास्ता निकल सकता है. दोनों के लिए किसी इंकलाब की जरूरत नहीं है, बस कानून पर अमल जरूरी है.

सबसे पहले सार्वजनिक, अर्धसरकारी और सैर-सपाटे की जगह, उसकी मालिक यानी जनता को वापिस सौंप दिया जाए- इसका मतलब जनपथ के पूर्व का ये पूरा इलाका अवाम को लौटा दिया जाए जो 60 के दशक से इसकी मालिक है.

इसका अर्थ है कि जनपथ और राजपथ के उस चौराहे जो पहले जैसा कर दिया जाए जहां सरकार और जनता के सरोकार एक दूसरे में घुलमिल जाया करते थे, जैसा दुनिया के बेहतरीन शहरों में होता भी है और जहां सरकार जनता की इन जगहों का संरक्षण करती है.

इसके मायने यह भी हैं कि इन सांस्कृतिक संस्थानों राष्ट्रीय संग्रहालय, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय संस्कृति और कला केंद्र और राष्ट्रीय अभिलेखागार की कार्यकारी संप्रभुता लौटाई जाए, इसके बाद ही इनके आधुनिकीकरण और विस्तार पर बैठकर बहस की जा सकती है.

इसका ये भी मतलब है कि अवाम को पहले की तरह उसकी तफरीह के लिए उसकी अमानत सौंपी जाए, यानी संग्रहालय, पार्क, मौज-मस्ती की जगह- जो जनतंत्र की असल पहचान हैं.

आखिर में, इसका मतलब यह भी है कि जनपथ के पश्चिम ( चौराहे और जनपथ के दो प्लॉट छोड़ कर) सरकार के संरक्षण वाला इलाका आधुनिक और नई तकनीक की सचिवालय की इमारतों के लिए काफी है.

इस जगह आरामदेह तरीके से प्रति व्यक्ति 11 स्क्वेयर मीटर के अनुपात से 55 हजार कर्मचारी काम करते हैं, यानी हजारों पेड़ों के साथ यातायात के लिए भी ये जगह पर्याप्त है.

नए सचिवालय में भी कर्मचारियों की तादाद में बदलाव नहीं है.

कपाड़िया कहते हैं, “अगर कर्मचारियों की तादाद पहले जैसी है, पहले की तरह उसी अनुपात में इलाके को आधुनिक क्यों नहीं बनाया जा सकता? फिर चार गुनी जगह में हजारों पेड़ों को काट कर, संग्रहालयों को गिरा कर और सड़कों को तहसनहस कर निर्माण की जरूरत क्या है? लेकिन इसके लिए, जनता के लिए बनाई गई दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक लुटियन दिल्ली के लिए नम्रता के साथ शालीन और संजीदा नजरिए की जरूरत है.”

दूसरा कदम कानून के लिए इज्जत बहाल करना है.

इसके लिए 200 फ्लोर एरिया रेश्यो की पाबंदी लागू करना जरूरी है, जो सेंट्रल विस्टा के जोन डी के लिए तय की गई है. इसका मतलब ये होगा कि इमारतों की ऊंचाई, पर्यावरण और विरासत से जुड़े कानूनों पर अमल, पेड़ों के साथ-साथ विरासत और स्काईलाइन की हिफाजत. जाहिर है कि इसके लिए स्थानीय निकायों की मंजूरी जरूरी होगी, जैसा हर नागरिक को लेनी होती है.

इसे कैसे आंका जाएगा? विरासत का नजरिया

अगर सरकार अपने तयशुदा खाके पर ही काम करने का फैसला करती है, तो इसके लिए एक बड़ी कुर्बानी देनी पड़ेगी

विरासत, जो सेंट्रल विस्टा मुख्य उद्देश्य है.

क्या इसे ‘ताकतवर’ और दोबारा उठ खड़े होने वाले भारत की नायकीय पहचान के तौर पर देखा जाएगा?

या फिर वास्तुकला और पर्यावरण की उपेक्षा कर, हुकूमत के इशारे पर हो रही इस बड़े पैमाने की तबाही (चार लाख स्क्वेयर मीटर में बनी मजबूत ढांचे वाली इमारतों को गिराने, और इसके लिए हजारों पेड़ों की बलि) दुनिया भर में जनता के लिए बनाए गए सबसे हसीन इलाकों में से एक में सरकारी दफ्तर बनाने के लिए होगी?

अपने वक्त से अलग सेंट्रल विस्टा, विश्वस्तरीय तो छोड़िए, अच्छे आर्किटेक्चर के लिहाज से भी दुनिया भर में तय पैमाने से दूर दिखाई देता है. जाहिर है कि ये इस सोच को नए नजरिए की मिसाल के तौर पर नहीं देखा जा सकता. ऐसी पुरानी सोच से एक धरोहर को संजोया नहीं जा सकता जिसको दुनिया भर में रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है.

साथ ही, अब नए विचारों का समय आ चुका है- मसलन, जलवायु परिवर्तन, स्थायित्व, अविध्वंसक और आवाम की पहुंच- ऐसे में महज प्रचार के जरिए जानकारों और पेशेवर लोगों के बीच सेंट्रल विस्टा वर्ल्ड क्लास नहीं हो जाएगा. पर्यावरण को तबाह कर विजय के प्रतीक के तौर पर इमारतें बनाने की वास्तुकला से निकल कर शहरी विकास बहुत आगे आ चुका है.

वहीं, किसी भी योजना को गूगल अर्थ के इस दौर में राज बना कर नहीं रखा जा सकता. इसको आने वाले वक्त में आंका जाएगा, जिसमें मिट्टी के विश्लेषण से लेकर भूजल प्रवाह, प्रदूषण, इमारतों के नक्शे तक कुछ भी छिपा नहीं रहेगा.

इस विरासत को सिर्फ खूबसूरती और इसके पीछे विचारधारा के आधार पर ही नहीं आंका जाएगा, बल्कि जानबूझ कर संस्थाओं के दमन और क्रूर विध्वंस के लिए भी याद रखा जाएगा. नए निर्माण की खूबसूरती से भी इसकी लोकतंत्र विरोधी छवि नहीं बदल पाएगी. ये जन विरोधी विचारधारा उस जनता की सोच के एकदम खिलाफ है, जिसकी नुमाइंदगी का दावा किया जाता है. इसकी आधुनिकता का हो-हल्ला असलियत उजागर न होने देने, और इस विरोधाभास को ढंकने की एक कोशिश है.

विचाराधाराओं की दुनिया में कट्टरपंथी विचारों का यही विरोधाभास है, जो तेजी से बह रही सूचनाओं की डिजिटल दुनिया में हर मिनट विचारधाराएं खारिज होने से पैदा हो रहा है. किसी भी जिरह-बहस या पेशेवर सलाह को खारिज करने वाली पुरानी सोच से, आने वाली नस्लों के भविष्य से जुड़े फैसले नहीं लिए जा सकते.

सेंट्रल विस्टा की धरोहर इसी से तय होगी.

सेंट्रल विस्टा के चार अंकों की श्रृंखला का यह अंतिम लेख है, पढ़िए, पहला, दूसरा, और तीसरा अंक.

(अनुवाद- अंशुमान त्रिपाठी)

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