Assembly Elections 2022

उत्तर प्रदेश 2022: आखिर क्यों उत्तर प्रदेश में अपने मुख्यमंत्री पद के चेहरे की घोषणा नहीं कर रही कांग्रेस?

बीते गुरुवार को उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर में चुनाव प्रचार के दौरान समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव और कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी के आमना-सामना हो जाने की तस्वीर प्रदेश के सभी प्रमुख अखबारों में छपी. पिछले विधानसभा चुनावों की तरह दोनों पार्टियों में इस बार चुनाव से पहले कोई भी गठबंधन नहीं हुआ है. हालांकि चुनाव के नतीजों के आने बाद अगर सपा के नेतृत्व में सरकार बनने की कोई संभावना बनती है तो चुनाव के बाद होने वाले गठबंधन के कयासों को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता.

अब जबकि अगले कुछ हफ्तों में इस सवाल का जवाब और साफ हो जाएगा, तब हमारे सामने एक पहेली यह है कि आखिर आने वाले चुनावों में कांग्रेस कैसे अपनी छाप छोड़ने वाली है? साथ ही इससे ही जुड़ा एक और सवाल सामने आएगा. इस चुनावी मुकाबले में शामिल गांधी परिवार, मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा करने से क्यों डर रहा है?

जहां दूसरे सभी बड़े दावेदार- भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, और कभी बेहद मजबूत रही बहुजन समाज पार्टी के प्रचार में कई बड़े चेहरे दिखाई दे रहे हैं, लेकिन कांग्रेस ऐसा करने में हिचकिचा रही है. जिस दिन प्रियंका ने अपने बयान में इशारा किया कि "आप हर जगह मेरा चेहरा देख सकते हैं," उसके अगले ही दिन से इस बात को दबाने की भरपूर कोशिश की गई. इस कोशिश में प्रियंका का पार्टी के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा बनने से इंकार करने वाला बयान भी शामिल है. और हुआ भी ऐसा ही. पिछले कुछ दिनों में ये सवाल गायब भी होता नजर आ रहा है. कांग्रेस के मुख्यमंत्री उम्मीदवार से जुड़े सवालों की मीडिया ने झड़ी लगा दी थी जिसका जल्दबाजी में प्रियंका ने यह जवाब दे दिया था लेकिन अब खुद ही उन्होंने अपने इस बयान को काफी हल्का कर दिया है.

वैसे यह अभी भी पूरी तरह साफ नहीं है कि वो खुद को पार्टी का मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर कार्यकर्ताओं के लिए इस चुनावी लड़ाई की अहमियत और ज्यादा बढ़ा रही थीं या फिर एक दिन बाद ही अपने इस फैसले से पीछे हटकर.

यह धारणा दिन ब दिन मजबूत होती जा रही है कि कांग्रेस के यूपी अभियान को सीधे आगे आकर नेतृत्व करने वाले लोगों की जरूरत है. कोई ऐसा जो अपनी छवि ध्वंस का खतरा भी मोल ले सके. यह एक ऐसी भूमिका है जिसमें गांधी परिवार के वंशजों- खासकर प्रियंका गांधी, जिन पर पार्टी ने उत्तर प्रदेश का भार सौंपा है, हाल फिलहाल के दिनों में अपने पांव वापस समेट रही हैं. 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान भी, प्रियंका गांधी की जबरदस्त भागीदारी ने ऐसे कयासों को पूरी हवा दी कि वो खुद भी किसी सीट पर चुनाव लड़ेंगी. इससे भी बढ़कर, पार्टी के जनता की नजरों में बने रहने के एक कारगर कदम के तौर पर, ऐसी उम्मीद भी की जा रही थी कि बहुत संभव है कि वो वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ें.

ऐसे सारे कयासों को झुठलाते हुए प्रियंका ने चुनावी मुकाबले से बाहर रहने का रास्ता ही चुना.

2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने सपा के साथ एक समझौता किया था. इसलिए उस वक्त के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने आप ही गठबंधन के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा बन गए. हालांकि बीजेपी की शानदार जीत ने सपा-कांग्रेस गठबंधन को 54 सीटों पर ही समेट दिया. 114 सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस ने कुल पड़े मतों में सिर्फ 6.25% वोट हासिल करते हुए सिर्फ सात सीटें ही जीतीं.

दो साल बाद जब कांग्रेस लोकसभा चुनावों के लिए सपा-बसपा गठबंधन में शामिल नहीं हुई तब वह पूरे प्रदेश में केवल एक लोकसभा सीट ही जीत पाई. विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अलग-अलग कारक अपनी अलग-अलग भूमिका निभा रहे होते हैं लेकिन यह भी दिलचस्प है कि पिछले लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस के वोट प्रतिशत में कोई बदलाव नहीं आया और उसे इस बार भी 6.41% वोट ही मिले.

इसी सब के बीच कांग्रेस ने अपने बेहद सीमित वोटर बेस में एक नए सामाजिक घटक को शामिल करने के कदम उठाए हैं जो कि कोई खास फायदा देते नहीं दिखाई दे रहे हैं. कल्याणकारी योजनाओं और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक मजबूत पुलिस के वायदे के साथ ही, गैर यादव ओबीसी वोटर बेस (यादव मतदाताओं का बहुत बड़ा हिस्सा सपा से जुड़ा है) के साथ ही गैर दलित वोटर बेस को (जाटव मतदाताओं का बड़ा हिस्सा बसपा से जुड़ा हुआ है) और ज्यादा मजबूत करने की कवायद का भाजपा को प्रदेश में सत्ता दिलाने में काफी अहम किरदार रहा है.

इसी तरह सपा भी इस सामाजिक समीकरण को बेअसर करने में जुटी हुई है. वो भी गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों के साथ ही साथ मुस्लिम मतदाताओं के गढ़ में भी अपनी पहुंच बना रही है. बसपा के चुनावी राजनीति में लगातार कमजोर होते चले जाने के कारण जाटव वोटों के किले की सुरक्षा दीवार ध्वस्त हो चुकी है, और इसलिए सपा इसे जाटव वोटरों के बीच अपना आधार बढ़ाने के मौके के तौर पर देख रही है.

इन सब कारणों से उत्तर प्रदेश का 2022 का चुनाव दो सामाजिक गठबंधनों के बीच का एक मुकाबला बन गया है.

असल में, यूपी में जिस एक खास सामाजिक धड़े पर प्रियंका की नजर है, वह है महिला मतदाता. यह शायद दो क्षेत्रीय पार्टियों की कामयाबी से ली गई सीख है- एक ओर बिहार में नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड और दूसरी ओर बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस- महिला मतदाताओं के बीच अच्छा खासा समर्थन हासिल करने में सफल रही थी. हालांकि, एक बड़ा अंतर यह है कि जदयू और टीएमसी दोनों सत्ता में थे और उन्हें उनकी कल्याणकारी योजनाओं और नीतियों के बदले में समर्थन मिला था. इन दोनों दलों की नीतियों और योजनाओं से महिला वोटर्स के एक बड़े हिस्से को फायदा मिला था.

यूपी में 30 सालों से भी अधिक समय से सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस के लिए मामला काफी अलग है. वैसे भी औरतों को एक वोट बैंक में बदलने का बीड़ा कोई आसान काम नहीं है. इसका कारण यह है कि लिंग आधारित राजनीति की बनावट बहुत जटिल है और फिलहाल यह इस कदर अस्थिर है कि अकेले एक बड़े चुनावी हलचल के लिए उत्तरदायी प्रेरक शक्ति नहीं बन सकती है.

अब चूंकि मुकाबले में आमने-सामने खड़े भाजपा और सपा की अगुवाई वाले गठबंधनों के साथ सामाजिक धड़ों के चुनावी राजनीतिकरण को और ज्यादा मजबूत करने के लिए लकीरें खींची जा रही हैं तो ऐसे में कांग्रेस को इससे परे एक खासी बड़ी राजनीतिक पटकथा लिखने की जरूरत है. इस पटकथा को आगे आकर सामने से नेतृत्व करने वाले एक चुनावी अभियान के इर्द-गिर्द ही बुना जा सकता है. पटकथा को मंच पर सफल बनाने के लिए दो कारकों, पहला- एक शख्सियत को बहुत बड़ा बनाकर उसकी छवि को भुनाने, और दूसरा स्थानीय लोगों और उनके मुद्दों को राष्ट्रीय पटल पर लाकर, उन पर काम करने की ज़रूरत है.

एक तरह से, प्रियंका को मुख्यमंत्री पद के चेहरे के तौर पर पेश करना इसी तरह की पटकथा का मामला हो सकता था. भले ही एक बड़ी तस्वीर के तौर पर ऐसा लगे कि इसने प्रदेश में पार्टी के लिए वोटों की गिनती के मामले में कोई बदलाव न किया हो, लेकिन इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि इसकी वजह से पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी ऊंचा हुआ है. एक तरह से इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि इसकी वजह से पार्टी उस चुनावी अभियान में जहां उसे पहले ही हाशिए की पार्टी करार दे दिया गया है, वहां पर भी बहुत हद तक लोगों की नजरों और जुबान पर बनी हुई है. बिल्कुल हाल-फिलहाल में तो यही कहा जा सकता है कि इसने मुकाबले में शामिल दूसरी पार्टियों को भी कांग्रेस को एक दावेदार मानने का मौका दे दिया है. और बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस मौके को तुरंत लपकते हुए वोटरों से कह दिया है कि वो अपना वोट इस चुनाव को गैर संजीदगी से लेने वाली कांग्रेस जैसी पार्टियों को देकर खराब न करें.

राजनैतिक दांव पर लगी चीजों, उनकी कीमत को एक बड़े फलक पर समझने की कोशिश करने पर हम पाएंगे कि प्रियंका को एक अनिश्चित चुनावी मुकाबले से अपनी राजनीति की शुरुआत करने देने और उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने के खतरे से बचाने के काफी सारे वाजिब कारण कांग्रेस पार्टी के पास हैं.

हालांकि मुकाबले में सामने खड़े दूसरे गठबंधनों से जुड़े अलग-अलग सामाजिक धड़ों में अपनी जगह को मजबूत करने में नाकाम रहने वाली कांग्रेस के हालातों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस अपने ओहदे और अपनी छवि में काफी सुधार ला सकती है. यहां तक कि बेहद धुंधले हालातों में भी भरोसे की यह छलांग, लोगों के दिलो-दिमाग से दूर होती जाती पार्टी को कुछ हद तक उसको पहले के दौर में मिलने वाली तवज्जो को वापस दिलवाने के साथ ही, प्रदेश के चुनाव में उसे पहली कतार का स्थानीय योद्धा बना सकती है, वो भी राष्ट्रीय पटल पर.

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