Assembly Elections 2022

सीटें चंद, दावेदार अनेक: मणिपुर में बीजेपी झेल रही है जरूरत से ज्यादा उम्मीदवारों की समस्या

यह लगभग एक नियम बन चुका है कि मणिपुर जैसे पूर्वोत्तर के छोटे राज्य आमतौर पर केंद्र की सत्तासीन पार्टी की ओर ही झुकते हैं. अब इसे जो चाहे कहें, एक मिथक या ऐसे मामलों की गूढ़ समझ कि अगर राज्य में और केंद्र में शासन करने वाली पार्टी एक ही है, तो राज्य को केंद्र से मिलने वाली धनराशि और अन्य लाभों में कोई बाधा नहीं आएगी. यही सोच इस नियम या परंपरा के पीछे है जो लोगों के दिमाग के भीतर कहीं छिपी बैठी है.

इसे खुले तौर पर बोले बिना ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 4, जनवरी को मणिपुर की अपनी आधिकारिक यात्रा के दौरान एक मनोवैज्ञानिक खेल खेलते हुए कहा कि एक डबल इंजन की विकास की गाड़ी मणिपुर के लिए सबसे बेहतर विकल्प है. यह राज्य में आगामी दो चरणों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में वापस लाने के लिए एक इशारा था, जिसके लिए 27 फरवरी और 3 मार्च को वोटिंग होनी है.

इस लाभ की स्थिति के बावजूद, पिछले एक पखवाड़े में, यह बात काफी साफ हो गई है कि भाजपा चीजों को हल्के में नहीं ले सकती है. पार्टी की टिकट की चाहत रखने वालों और उनके समर्थकों की बढ़ती अधीरता के बीच बीती 31 जनवरी को भाजपा के अनुमोदित उम्मीदवारों की सूची जारी की गई. यह सूची नामांकन दाखिल करने की समय सीमा से बमुश्किल एक सप्ताह पहले जारी की गई है. जिसमें पहले चरण के तहत आने वाले निर्वाचन क्षेत्रों में 8 फरवरी और दूसरे चरण में आने वाले निर्वाचन क्षेत्रों में 11 फरवरी को चुनाव है.

भाजपा ने यह सूची दूसरी सभी बड़ी पार्टियों की सूची जारी होने के बाद जारी की है. हालांकि दूसरी पार्टियों ने भी सूची में कुछ जगहों को बाद में भरने के लिए खाली छोड़ दिया है, संभवतः भाजपा की सूची में जगह न पाने वालों के लिए.

बीजेपी की बेचैनी

पिछले एक पखवाड़े में, सोशल मीडिया के जरिए भाजपा के उम्मीदवारों की कई सूची लीक हुईं. लेकिन इनमें से हर एक को पार्टी के अधिकारियों ने खारिज कर दिया. क्या ये लीक सूची पार्टी के अंदरूनी हालात का जायजा लेने के लिए जानबूझकर की गई चालबाजियां थीं या फिर पार्टी के भीतर बढ़ती अनुशासनहीनता का एक और संकेत?; यह तो मालूम नहीं. बहरहाल, जो बात तेजी से साफ होती जा रही है वो है पार्टी की बेचैनी. इंफाल में पार्टी का हेडक्वार्टर इन दिनों कड़ी सुरक्षा के घेरे में है. जाहिर तौर पर यह कदम पार्टी द्वारा नजरअंदाज किए गए कथित उम्मीदवारों के वफादारों (जो कि पार्टी-कार्यकर्ताओं के ही एक वर्गो से आते हैं) की हिंसा के डर से उठाया गया है.

जैसा कि अंदाजा था, भाजपा की सूची जारी होने के बाद दिन के खत्म होने तक, सोशल मीडिया पर राज्य के अलग-अलग हिस्सों, खासकर घाटी के जिलों से गुस्से के उबाल की खबर फैल गई. समर्थित उम्मीदवारों के नाम सूची में न मिलने पर कई भाजपा कार्यकर्ता सड़कों पर उतर गए. कई खारिज हो चुके उम्मीदवारों के अन्य दलों में शामिल होने और शपथ लेने की खबरें भी उड़ने लगीं कि वे लड़ाई जारी रखेंगे. ये ठीक उसी तरह के हालात थे जिसकी आशंका भाजपा को थी और इसी कारण उसके उम्मीदवारों की आधिकारिक घोषणा में देरी हुई थी.

खुद की खड़ी की हुई समस्याएं

इस दुर्दशा का ज्यादातर हिस्सा भाजपा ने खुद रचा है. पिछले पांच सालों से पार्टी राज्य में सत्ता में थी. खुद के ही बनाए कई पैमानों में से एक अहम पैमाना जिस पर भाजपा खुद को खरा साबित होता दिखाती रहती है वो है उसकी इस बात में उपलब्धि कि वह विपक्षी दलों, खास तौर पर कांग्रेस के पदों को कम करने में सफल रही है. इसमें पार्टी के केंद्रीय कमान के परिचित अपरिवर्तनीय नारे, भारत से कांग्रेस पार्टी को पूरी तरह से मिटाने, की गूंज भी सुनाई देती है.

पिछले विधानसभा चुनाव फरवरी 2017 में, संयोग से कांग्रेस 60 सदस्यीय सदन में 28 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. लेकिन सरकार बनाने के लिए सिर्फ 3 विधायकों के समर्थन की जरूरत भर के बावजूद कांग्रेस बहुमत के निशान को नहीं छू पाई. इस काम में तत्कालीन राज्यपाल, नजमा हेपतुल्ला की एक बड़ी भूमिका थी, क्योंकि उन्होंने पुरानी परंपरा को तोड़कर भाजपा को पहले बहुमत सिद्ध करने का मौका दिया. उसी भाजपा को जिसने चुनाव के बाद गठबंधन बनाकर 21 सीटें जीती थीं और भाजपा ने यह बहुमत सिद्ध भी कर दिया.

इसके बाद सत्ता पक्ष ने अलग-अलग दलों के अंदरूनी बनावट में कई बदलाव ला दिए. भाजपा, जो वाकई हार के जबड़े से सत्ता छीन लाई थी, ने एक नया दबदबा हासिल कर लिया था. जबकि कांग्रेस, जो कि गलत तरीके से हरा दी गई थी अब न केवल बेबसी में अपने जख्मों पर मरहम लगाने के लिए छोड़ दी गई थी बल्कि जल्द ही अपने ही विधायकों पर उसकी पकड़ खोने के संकेत भी दिखाई देने लगे थे. कई लोग सत्ता के लालच में पड़ गए और अपनी वफादारी को काफी बेरहमी से भाजपा की तरफ मोड़ दिया. मजेदार यह कि उन्होंने यह सब किया, लेकिन कभी भी 10वीं अनुसूची के तहत दंड के भागीदार नहीं बने. कई बार इस सब ने सुप्रीम कोर्ट तक को इसमें दखल देने के लिए इस कदर मजबूर कर दिया कि वो खुद सदन के अध्यक्ष, युमनाम खेमचंद से कानून के शासन को लागू करवाए और इन दलबदलूओं को अयोग्य घोषित कर दें.

कांग्रेस की नींव का कमजोर होते जाना

अदालती दखल के रहमो-करम के बाद भी, पूरी की पूरी तस्वीर एकतरफा खून-खराबे की थी जिसमें दलबदल के लिए विधानसभा के बदला लेने वाले तंत्र का इस्तेमाल विपक्ष को कुचलने के लिए किया गया, जिसका मोटे तौर पर मतलब था, कांग्रेस को कुचलना. चुनावी अधिसूचना की घोषणा से ठीक पहले हुई पिछली गिनती में, कांग्रेस के पास अपने मूल 28 विधायकों में से केवल 13 ही बचे थे. बाकी को या तो अयोग्य घोषित कर दिया गया था या फिर उन्होंने खुद ही इस्तीफा दे दिया था.

इतना ही नहीं, विधायकों के अलावा दूसरे अहम कांग्रेसी नेता भी हैं जो भाजपाई खेमे से जुड़ गए. इसमें वर्तमान विधायक और मणिपुर के कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष गोविंददास कोंथौजम भी शामिल हैं और दो लोकसभा सीटों वाले इस राज्य के 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेसी उम्मीदवार ओइनम नाबाकिशोरे सिंह भी शामिल हैं. ओइनम नाबाकिशोर यह चुनाव हार गए और बीजेपी में शामिल हो गए. दिलचस्प यह कि कोंथौजम और सिंह एक ही विधानसभा क्षेत्र से आते हैं. जहां कोंथौजम बीजेपी की ओर से टिकट हासिल करने में कामयाब हो गए वहीं पूरी संभावना है कि सिंह किसी दूसरी पार्टी से जाकर जुड़े जाएंगे.

अपनी तरफ से, भाजपा ने अपने सभी नए लोगों का स्वागत धूमधाम से किया, जिससे वे मीडिया की सुर्खियां बन गए. दूसरे दलों से पुराने राजनीतिक चेहरों को शामिल करना कुछ हद तक अक्लमंदी का काम था. भाजपा राज्य में अपेक्षाकृत नई है. पिछले चुनावों से पहले तक यह कभी भी सत्ता में नहीं थी. इसलिए भाजपा को राजनीति में और अधिक अर्थपूर्ण या स्थिरता वाली छवि बनाने के लिए राजनीतिक दिग्गजों की जरूरत थी. कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है जो राज्य में सबसे अधिक सालों से सत्ता में है, जिसके पास एक मजबूत समर्थन का आधार है- से जाने-माने राजनैतिक चेहरों का पलायन, सत्ताधारी दल में इस शून्य को भरने के लिए एक आवश्यक रणनीति के रूप में देखा गया था.

टीवी की चर्चाओं के दौरान जब यह तंज किया गया कि मणिपुर भाजपा दरअसल भाजपा नहीं बल्कि पुरानी कांग्रेस ही है जिसने कपड़े भर बदल लिए है, तो भाजपा प्रवक्ताओं ने इसे यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उन्होंने किसी को भी आमंत्रित नहीं किया है, लेकिन पार्टी की विचारधारा से आकर्षित लोगों के लिए पार्टी के दरवाजे हमेशा खुले हैं.

अंधी महत्वाकांक्षाएं

हुब्रिस असल में खुद की खामियों के प्रति अंधा है. शेक्सपियर और उससे पहले के सोफोकल्स हमें इस बारे में बता चुके हैं. एक उदासीन पर्यवेक्षक के लिए भी, यह एक हैरान करने वाली बात होगी कि लोग इस बात पर ध्यान देने से चूक जाएंगे कि जो लोग राजनैतिक दल-बदल करते हैं उनका विचारधारा से कोई खास लेना-देना नहीं होता है. बल्कि उन्हें सत्ताधारी दल की तरफ जाने के लिए प्रेरित करने वाली चीज सत्ता की लालसा ही थी.

वे इस उम्मीद में इधर-उधर भागते हैं कि फलां जगह सत्ता है, इस उम्मीद में कि उन्हें भी सत्ता की कमान दी जाएगी, और चुनाव लड़ने के लिए मिलने वाला पार्टी का टिकट इस महत्वाकांक्षा को हकीकत में बदलने का पहला कदम है. कांग्रेस और दूसरे कुछ दलों से भाजपा में शामिल होने वाले सभी बड़े चेहरे भाजपा के टिकट को हासिल करने की लड़ाई में लगे हुए थे. अब इससे कुछ ऐसे हालात सामने उभर कर आए, जिसमें 60 निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा के प्रत्येक टिकट के लिए कई दावेदार थे.

कांग्रेस पर हावी होने के इरादे पर सवार, उनके विधायकों को मनमाफिक छीनते हुए, भाजपा ने आखिरी वक्त तक उस परेशानी से आंखे मूंदें रखीं, जिसे वह अपने मूल में पनपने दे रही थी. और अब, पार्टी को इस राक्षस का उसके बिल्कुल नग्नतम रूप में सामना करना पड़ रहा है. इससे बचने का कोई आसान रास्ता नहीं है और अगर पार्टी को अपनी सत्ता बरकरार रखने की उम्मीद है, तो उसके सामने पहली बड़ी चुनौती होगी, इस तूफान का सामना करना.

चूंकि मणिपुर की राजनीति को शायद ही विचारधारा से परिभाषित किया जा सकता है, इसलिए अगर ये पुरुष और महिलाएं दूसरे दलों में शामिल होने के लिए भाजपा छोड़ देते हैं, तो वे आसानी से उन्हीं समर्थकों को भी ले जा सकते हैं जो वे अपने साथ भाजपा में लाए थे. जिस तरह यहां के राजनेता कुल मिलाकर विचारधारा से मुक्त हैं, वैसे ही मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के बारे में भी यही कहा जा सकता है.

भाजपा के भीतर मोहभंग की एक और परत है जिसका जवाब पार्टी को देना होगा. पार्टी नई है, लेकिन साधन- संपन्न है और अधिकांश नए लोगों के विपरीत यह पिछले चुनाव में सभी 60 सीटों पर चुनाव लड़ सकती थी. हालांकि अंततः उनमें से केवल 21 ही चुनाव में विजयी हुए थे. फिलहाल तथ्य यह है कि अब सभी 60 निर्वाचन क्षेत्रों में स्थानीय भाजपा नेता हैं. पहली बार अपने चुनावों में अपना भाग्य आजमाने वाले तथ्य के साथ ही ये उम्मीदवार खुद को पार्टी की विरासतों और एहसानों का वैध उत्तराधिकारी भी मानेंगे.

लेकिन बदकिस्मती से उनमें से कई लोग साफ तौर पर ऐसा महसूस करने को मजबूर होंगे कि जिन पदों पर उनका विशेषाधिकार था उससे उन्हें हटाकर कांग्रेस से आने वाले नए लोगों को काबिज कर दिया गया है. अगर इस खामी पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह समस्या भी भाजपा के जनाधार को और ज्यादा कमजोर कर सकती है. भाजपा के उम्मीदवारों की सूची की घोषणा के बाद हुआ हंगामा इस बात की ओर ही इशारा कर रहा है कि यह दूरियां अभी से बनने लगी हैं.

भाड़े की राजनीति का जन्म

असंतोष की दूसरी परतें कुछ पुरानी हैं. यह असंतोष उन हालातों से जुड़ा है, जिनमें 2017 में भाजपा की सरकार बनी थी.

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, तत्कालीन राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला ने इसमें एक बड़ी भूमिका निभाई थी. उन्होंने बहुमत से 10 सदस्यों की दूरी पर खड़ी भाजपा को बहुमत सिद्ध करने का पहला मौका देकर देकर त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति को हल करने की परंपरा को तोड़ दिया. जबकि उन्होंने बहुमत से सिर्फ 3 विधायकों के समर्थन से दूर कांग्रेस के दावे को खारिज कर दिया था. जबकि पुरानी परंपरा के हिसाब से कांग्रेस सदन में मौके की पहली हकदार थी.

ऐसे हालातों में, चुनाव से पहले हुए गठबंधन में बहुमत प्राप्त करने वाली पार्टियों के लिए यह परंपरा है कि उन्हें पहले मौका दिया जाए, फिर सबसे बड़ी पार्टी को, और फिर अगली सबसे बड़ी पार्टी को. यह इस विश्वास के साथ किया जाता है कि राजनीतिक वफादारी की सौदेबाजी को यथासंभव रोकने के अलावा यह सिलसिला सबसे स्थिर सरकार प्रदान करेगा. यह भी एक सामान्य समझदारी की बात है, क्योंकि बहुमत के निशान तक पहुंचने के लिए जितने अधिक दलों की आवश्यकता होती है, राजनैतिक गठन उतना ही अस्थिर होता है, और खरीद-फरोख्त की संभावना भी उतनी ही अधिक होती है.

भाजपा ने अन्य सभी गैर-कांग्रेसी विधायकों का समर्थन करने में कामयाबी हासिल कर ली और विडंबना यह है कि कांग्रेस के एक विधायक के समर्थन का बहुमत के आंकड़े तक पहुंचाने में योगदान रहा लेकिन इसके लिए एक बहुत बड़ी कीमत चुकाई गई. साफ तौर पर इन सभी दलों ने सौदेबाजी की और कैबिनेट में जगह पाने की खातिर यथासंभव जोर आजमाइश की.

वह कांग्रेस विधायक जो शुरू से ही भाजपा में शामिल हुए थें, उन्हें फ्लोर क्रॉस करने के लिए अयोग्य नहीं ठहराया गया और बजाय इसके उन्हें कैबिनेट की सीट से नवाजा गया. नेशनल पीपुल्स पार्टी, जिसने चार सीटें जीती थीं, अपने सभी चार विधायकों के लिए कैबिनेट सीट दिलाने में सफल रही. नगा पीपुल्स फ्रंट, ने भी चार सीटें जीतीं और उसको दो मंत्री पद दिए गए. लोक जनशक्ति पार्टी से सिर्फ एक ही विधायक थे, और उन्हें भी कैबिनेट की सीट मिली.

इससे भाजपा के लिए मुख्यमंत्री सहित सिर्फ चार कैबिनेट सीटें ही बची रह गई थी, क्योंकि 10वीं अनुसूची के तहत मणिपुर जैसे छोटे राज्यों के लिए 12 सीलिंग की कैबिनेट ही निर्धारित है.

भाजपा के लिए यह खुशकिस्मती की बात थी कि उसके कई विधायक युवा थे और चुनावों में पहली बार अपनी किस्मत आजमा रहे थे और सिर्फ जीतने वाली टीम का हिस्सा बनकर ही खुश थे. हालांकि, ऐसे हालातों में पहले ही भविष्यवाणी कर दी गई थी कि जीत के शुरुआती उत्साह के बाद, कई नई परेशानियां जन्म लेंगी. उस वक्त यहां ऐसे विधायक थे जो भाजपा के टिकट पर जीते थे और एक सामान्य विधायक के पद से ज्यादा कुछ भी नहीं चाहते थें, जबकि अन्य दलों के सदस्य उनकी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री थे.

इस असंतोष ने आगे तक भाजपा सरकार के लिए कई परेशानियां खड़ी की. जून, 2020 में तो इसने सरकार को लगभग गिरा ही दिया. पार्टी को केवल 10वीं अनुसूची के विधानसभा अध्यक्ष के बेहद कम फासले के पक्षपातपूर्ण आवेदन और इसके अयोग्यता प्रावधानों द्वारा बचाया जा सका था.

अधर में रह गए भाजपा विधायकों को शामिल और खुश करने के लिए कैबिनेट रैंक के 12 संसदीय सचिव पद भी बनाने पड़े. लेकिन इस कार्रवाई ने विपक्ष की तरफ से "लाभ के पद" के मामले में अयोग्यता चुनौतियों को भी निमंत्रण दिया, जिसका लगभग पूरे पांच सालों के कार्यकाल तक कोई निष्कर्ष नहीं निकला. क्योंकि एक बार फिर से राज्यपाल हेपतुल्ला इस मामले पर अपनी राय देने के बजाय मामले की फाइल पर बैठी रहीं.

नजमा हेपतुल्ला की विरासत

राज्यपाल हेपतुल्ला के फैसले का एक और दीर्घकालिक परिणाम है. उन्होंने जाहिर तौर पर मणिपुर के राजनीतिक क्षेत्र में नए-नए आने वाले युवाओं के लिए एक गलत मिसाल पेश की है. इस कारण नए आने वाले इन युवाओं को त्रिशंकु विधानसभा की उम्मीद में एक छोटी पार्टी से सिर्फ एक सीट जीतना ही एक बेहतर विकल्प दिखाई दे रहा है.

यदि एक नए राजनेता को स्थापित पार्टियों में से एक से अपनी सीट जीतनी होगी, तो उनकी कैबिनेट सीट हासिल करने की संभावना कम होगी क्योंकि उनके आगे कतार में कई दलों के दिग्गज होंगे. हालांकि, जैसा कि 2017 ने प्रदर्शित किया है, त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में, छोटे दल जो अपने दम पर बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं, वे अभी भी किंग-मेकर्स की भूमिका निभा सकते हैं और उस गठबंधन में शामिल हो सकते हैं जहां उन्हें अपेक्षाकृत मनचाही कीमत मिले.

छोटे दलों के प्रसार ने अपेक्षित रूप से एक दुष्चक्र का निर्माण किया है. ये पार्टियां त्रिशंकु स्थिति का फायदा उठाने के लिए मैदान में आती हैं और बदले में उनके प्रसार ने त्रिशंकु स्थिति की संभावना को भी बढ़ा दिया है. ऐसा होने पर यह एक अत्यंत खंडित राजनीतिक क्षेत्र जिसमें राजनीतिक वफादारी एक चुनाव के अंत में बिक्री भर के लिए होती है. यह पहले से ही लगभग संस्थागत हो चुका है और शायद इससे छुटकारा पाने में दशकों लग जाएंगे.

इस तरह, आगामी मणिपुर विधानसभा चुनाव में भाड़े की राजनीति के जो बीज राज्यपाल हेपतुल्ला द्वारा बोए गए थे, उनके पूरी तरह से खिलने की संभावना है. कई छोटे दल भाजपा के उम्मीदवारों के भंडार से प्रवासियों की फसल काट रहे हैं. इन प्रवासियों के बिना भी उनमें से कई, नए आने वाले और जीतने योग्य उम्मीदवारों को आकर्षित कर रहे थे.

हालांकि किसी भी चुनाव के परिणामों की पूरी तरह से भविष्यवाणी करना संभव नहीं है, ऐसे में मणिपुर के बारे में बहुत व्यापक मानकों का उपयोग करते हुए कहा जा सकता है कि भाजपा को राज्य और केंद्र दोनों जगहों पर शासन करने वाली पार्टी के रूप में एक लाभदायी स्थिति के साथ शुरुआत करनी चाहिए. लेकिन अभी तक कोई भी कांग्रेस को खारिज नहीं कर पाया है. पार्टी के अपने दिग्गज हैं, साथ ही एक मजबूत समर्थन आधार भी है जिस पर वह निर्भर रह सकती है. चुनाव की पूर्व संध्या पर, पार्टी संयम और आत्मविश्वास का एक दुर्लभ प्रदर्शन करते हुए, अपने उम्मीदवारों की सूची के साथ पहली बार सामने आई थी. इसने अब तक भाजपा से वापस पार्टी में लौट कर आने वाले पुराने सदस्यों को भी प्रवेश से वंचित किया हुआ है.

भाजपा में हो रही मौजूदा उथल-पुथल को देखते हुए और अगर भाजपा इस ज्वार को रोकने में असमर्थ रहती है, तो इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि जीत कांग्रेस के पाले में भी जा सकती है.

इसके अलावा, कांग्रेस ने वाम दलों के साथ एक चुनाव पूर्व गठबंधन भी बनाया है. मणिपुर में वाम मोर्चे का आधार हिजाम इराबोट की विरासत पर बनाया गया है, जो आजादी से पहले के युग के एक व्यापक रूप से सम्मानित कम्युनिस्ट नेता थे.

हालिया सालों में, वामपंथी पार्टियां सीटें नहीं जीत पाई हैं, लेकिन उनके वोट बैंक सम्मानजनक बने हुए हैं और सही तरह से लामबंदी देखने को मिली तो उनका आगे भी विस्तार हो सकता है.

लेकिन अगर न तो भाजपा और न ही कांग्रेस कोई भी एक दल बहुमत हासिल करने में सक्षम नहीं होता है, तो पक्के तौर पर सबसे संभावित परिदृश्य 2017 की तरह फिर से राजनीतिक नीलामी का ही होगा.

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यह शो हमारे चुनाव कवरेज का एक हिस्सा है, जो एनएल सेना सीरीज का पार्ट है. हमारे एनएल सेना प्रोजेक्ट को सहयोग दें.

यह कहानी एनएल सेना सीरीज का हिस्सा है जिसमें हमारे पाठकों ने योगदान दिया है. यह हाबिल सजयकुमार, देवकी खन्ना, सुभ्रजीत चक्रवर्ती, सोमोक गुप्ता रॉय, सत्य, शुभंकर मंडल, सौरव अग्रवाल, कार्तिक, सुदर्शन मुखोपाध्याय, उमा राजगोपालन, एचएस कहलों, श्रेया सेतुरमन, विनोद गुब्बाला, अनिर्बान भट्टाचार्जी, राहुल गुप्ता, राजन, अभिषेक ठाकुर, रथींद्रनाथ दास, फरजाना हसन, अनिमेष नारायण, एजे, निधि मनचंदा, राहुल भारद्वाज, कीर्ति मिश्रा, सचिन तोमर, राघव नायक, रूपा बनर्जी, आकाश मिश्रा, सचिन चौधरी, उदयन आनंद, करण मुजू, गौरव एस दत्ता, जयंत बसु, अभिज्ञान झा, आशुतोष मित्तल, साहित्य कोगंती, अंकुर, सिंधु कासुकुर्ती, मानस, अक्षय शर्मा, मंगेश शर्मा, विवेक मान, संदीप कुमार, रूपा मुकुंदन, पी आनंद, नीलकंठ कुमार, नूर मोहम्मद, शशि घोष, विजेश चंदेरा, राहुल कोहली, जान्हवी जी, डॉ प्रखर कुमार, आशुतोष सिंह, सैकत गोस्वामी, शेष साई टीवी, श्रीकांत शुक्ला, अभिषेक ठाकुर, नागार्जुन रेड्डी, जिजो जॉर्ज, अभिजीत, राहुल दीक्षित, प्रवीण सुरेंद्र, माधव कौशिश, वर्षा चिदंबरम, पंकज, मैन दीप कौर समरा, दिब्येंदु तपदार, हितेश वेकारिया, अक्षित कुमार, देववर्त पोद्दार, अमित यादव, हर्षित राज, लक्ष्मी श्रीनिवासन, अतिदरपाल सिंह, जया मित्रा, राज परब, अशरफ जमाल, आसिफ खान, मनीष कुमार यादव, सौम्य पाराशर, नवीन कुमार प्रभाकर , लेज़ो, संजय डे, अहमद जमान, मोहसिन जाबिर, सबीना, सुरेश उप्पलापति, भास्कर दासगुप्ता, प्रद्युत कुमार, साई सिंधुजा, स्वप्निल डे, सूरज, अपराजित वर्की, ब्रेंडन जोसेफ डिसूजा, ज़ैनब जाबरी, तनय अरोड़ा, ज्योति सिंह, एम मित्रा, आश्रय आगूर, इमरान, डॉ. आनंद कुलकर्णी, सागर कुमार, संदीप बानिक, मोहम्मद सलमान, साक्षी, नवांशु वाधवानी, अरविंद भानुमूर्ति, धीरेन माहेश्वरी, संजीव मेनन, अंजलि दांडेकर, फ़रीना अली कुरबरवाला, अबीरा दुबे, रमेश झा, नम्रता, प्रणव कुमार, अमर नाथ, आंचल, साहिबा लाल, जुगराज सिंह, नागेश हेब्बर, आशुतोष महापने, साई कृष्णा, दीपम गुप्ता, अंजू चौहान, सिद्धार्थ जैन, अवनीश दुरेहा, वरुण सिंघल, अक्षय, साईनाथ जाधव, श्रेयस सिंह, रंजीत समद, विनी नायर, वत्सल मिश्रा, आदित्य चौधरी, जसवीन, प्रदीप, नीलेश वैरागड़े, मनोहर राज, तान्या धीर, शालीन कुमार शर्मा, प्रशांत कल्वापल्ले, आशुतोष झा, आरोन डिसूजा, शक्ति वर्मा, संयुक्ता, पंत, अश्विनी, फिरदौस कुरैशी, सोहम जोशी, अंकिता बॉस्को, अर्जुन कालूरी, रोहित शर्मा, बेट्टी राचेल मैथ्यू, सुशांत टुडू, प्रदीप कुमार पुनिया, दिलीप कुमार यादव, नेहा खान, ओमकार, वंदना भल्ला, सुरेंद्र कुमार, संजय चाको, अब्दुल्ला, आयुष गर्ग, मुकर्रम सुल्तान, अभिषेक भाटिया, ताजुद्दीन खान, विश्वास देशपांडे, मोहम्मद अशरफ , जयति सूद, आदित्य गर्ग, नितिन जोशी, पार्थ पटाशनी, एंटोन विनी, सागर राउत, विवेक चांडक, दीप चुडासमा, खुशबू मटवानी, वीरेंद्र बग्गा और एनएल सेना के अन्य सदस्यों ने संभव बनाया है.

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