Arsenic Documentary
डॉक्यूमेंट्री: फूड चेन में आर्सेनिक और बिगड़ता सामाजिक तानाबाना
पटना के एएन कॉलेज में भूगोल और जल प्रबंधन विभाग की प्रोफेसर नूपुर बोस कुछ साल पहले अपनी फील्ड रिसर्च के लिए भागलपुर के आर्सेनिक प्रभावित गांवों के दौरे पर थीं. वापस लौटते समय गांव के लोगों ने उन्हें गन्ने का रस पीने को दिया. उसका कुछ हिस्सा वो अपने साथ ले आईं. प्रयोगशाला में उस जूस का टेस्ट किया तो उनका शक सही निकला.
नूपुर कहती हैं, “उस गन्ने के रस में 54 पीपीबी (माइक्रोग्राम प्रति लीटर) आर्सेनिक था. यानी उस गांव का पानी तो हमने नहीं पिया लेकिन जो गन्ने का रस हमें पिलाया गया उसमें सुरक्षित सीमा से साढ़े पांच गुना अधिक आर्सेनिक था.”
सिंचाई में ग्राउंड वाटर का बढ़ता प्रयोग
आर्सेनिक अब भूजल तक सीमित नहीं रहा. वह खाद्य श्रृंखला यानी फूड चेन में प्रवेश कर चुका है और यह चिंताजनक बदलाव भारत के किसी एक राज्य में नहीं बल्कि पूरी गंगा-ब्रह्मपुत्र घाटी में हो रहा है. मानकों के हिसाब से पानी में 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर (10 पीपीबी) से अधिक आर्सेनिक नहीं होना चाहिए लेकिन अब धान, गेहूं, आलू और सब्जि़यों में सुरक्षित सीमा से अधिक आर्सेनिक मिल रहा है.
सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के मुताबिक 21 राज्यों में पीने के पानी में आर्सेनिक सुरक्षित सीमा से अधिक है. जल शक्ति मंत्रालय और राष्ट्रीय ग्रामीण पेय जल मिशन के मुताबिक सवा करोड़ से अधिक लोगों को पानी में आर्सेनिक का खतरा है. ऐसे में खाद्य श्रृंखला में आर्सेनिक का प्रवेश समस्या को और बढ़ा देता है.
पटना स्थित महावीर कैंसर संस्थान और रिसर्च सेंटर के डॉ अशोक कुमार घोष कहते हैं, “फूड चेन में आर्सेनिक डिजीज बर्डन (बीमारियों की मार) को बढ़ाता है. जो पानी आप पी रहे हैं उसमें भी आर्सेनिक है. जो खाना आप खा रहे हैं उसमें भी आर्सेनिक है, तो आपके शरीर में दो स्रोत से आर्सेनिक जा रहा है.”
अनाज और सब्जियों में आर्सेनिक के प्रयोग के पीछे सिंचाई के लिए ट्यूबवेल की बढ़ती संस्कृति जिम्मेदार है. जहां 1960 के दशक में सिंचाई के लिए इस्तेमाल होने वाले पानी में सिर्फ 1% बोरिंग का था वहीं 2006 आते-आते कुल 60% सिंचित क्षेत्र में बोरिंग का पानी इस्तेमाल होने लगा.
सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के मुताबिक भी खेती में सर्फेस वाटर (नदियों, तालाबों जैसे स्रोतों का पानी जो आर्सेनिक मुक्त होता है) का प्रयोग घट रहा है जबकि ग्राउंड वाटर (जिसमें आर्सेनिक का खतरा है) का इस्तेमाल बढ़ रहा है.
मंत्रालय की एक रिपोर्ट कहती है कि जहां 2001-02 में कुल सिंचित क्षेत्र का 41% प्रतिशत भाग ट्यूबवेल के पानी से सींचा जाता था वहीं 2014-15 में यह आंकड़ा 46% हो गया. इसी दौरान नहरों और कुओं द्वारा सिंचित क्षेत्रफल घटा है.
ग्राउंड वाटर मैनेजमेंट विशेषज्ञ और केंद्रीय भूजल बोर्ड में लंबे समय तक काम कर चुके प्रो दीपंकर साहा कहते हैं रिसोर्स के नाम पर तो बहुत सारा पानी कई राज्यों में उपलब्ध है लेकिन उसमें से अधिकांश जल प्रदूषित है. (विश्व जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों में भारत का 120वां नंबर है). साहा सवाल उठाते हैं कि ऐसे पानी को क्या वाटर रिसोर्स कहा भी जा सकता है जो स्वास्थ्य के लिए खतरा हो. साहा के मुताबिक अभी कृषि का पूरा ढांचा ऐसा बन चुका है कि प्रदूषित पानी का सिंचाई के लिए इस्तेमाल मजबूरी हो जाता है.
वह कहते हैं “इस वक्त पूरे देश में कम से कम 23 मिलियन (2.3 करोड़) ट्यूबवेल (जिसमें मोटर से बोरिंग भी शामिल है) सिंचाई के काम में इस्तेमाल हो रहे हैं और इनमें से ज्यादातर शैलो एक्युफर (कम गहराई के जलस्रोत) से पानी ले रहे हैं. क्या इन्हें बंद किया जा सकता है?”
पटना के बख्तियारपुर में किसान अशोक कुमार इस बात को बड़े दिलचस्प तरीके से बताते हैं. उनके मुताबिक, “पहले पानी चांपाकल (हैंडपंप) से हमारे गिलास में आया. अब वो ट्यूबवेल से खेतों और फिर फसल के जरिए हमारे भोजन थाल में आ गया है.”
अनाज तक ही सीमित नहीं है आर्सेनिक
पिछले साल (2021) मार्च में लोकसभा में सरकार से पूछा गया कि कि प्रदूषित जल से फूड चेन में आर्सेनिक का खतरा हो रहा है. तो सरकार ने इसके जवाब में कहा, “इस पर कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है. हालांकि ये कहा जा चुका है कि बीआईएस सीमा से अधिक संदूषक वाले जल को पीने से कुछ गंभीर स्वास्थ्य प्रभाव देखे जा सकते हैं.”
इससे पहले सरकार ने अप्रैल 2015 में संसद में यह माना था कि गंगा बेसिन में उगने वाली धान की फसल में आर्सेनिक मिला है लेकिन वह सुरक्षित सीमा में है और उसे खाने से स्वास्थ्य पर कुप्रभाव का खतरा नहीं है. लेकिन आर्सेनिक विशेषज्ञ और जाधवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंवायरमेंटल स्टडीज में पढ़ा रहे प्रोफेसर तड़ित रॉय चौधरी के इससे सहमत नहीं हैं. वो कहते हैं कि न केवल सब्जियों और फसलों में आर्सेनिक की मात्रा बहुत अधिक है बल्कि वह हानिकारक प्रकृति का है.
रॉय चौधरी के मुताबिक, “समस्या ये है कि फूड चेन में अकार्बनिक आर्सेनिक प्रवेश कर रहा है जो सबसे अधिक खतरनाक और कैंसर करने वाला हो सकता है. आपकी जानकारी के लिए मैं बता दूं कि आर्सेनिक दो अलग-अलग रूपों में हो सकता है. एक अकार्बनिक है जो कि जहरीला और कैंसर कारक होता है दूसरा कार्बनिक रूप में जो कि अधिकतर समुद्री वातावरण में होता है. जब हम प्रतिदिन सी-फूड जैसे झींगा मछली और केकड़ों का सेवन करते हैं तो यह बड़ी मात्रा में हमारे शरीर में जाता है लेकिन यह कार्बनिक आर्सेनिक हमारे लिए नुकसानदेह नहीं होता लेकिन अकार्बनिक आर्सेनिक के बड़े ख़तरे हैं.”
जाधवपुर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने गाय और भैंस जैसे जानवरों के गोबर में भी आर्सेनिक की पुष्टि की है और चेताया है कि खाना पकाने के लिए गांवों में उपलों के इस्तेमाल से आर्सेनिक का खतरा है. शोध बताता है कि ऐसे धुएं में मौजूद आर्सेनिक का करीब 25% तक सांस के जरिए महिलाओं के शरीर में प्रवेश कर रहा है जिससे कैंसर का ख़तरा होता है.
प्रो रॉय चौधरी मवेशियों के गोबर में आर्सेनिक की मौजूदगी को समझाने के लिए उनके द्वारा पिए जा रहे पानी की मात्रा पर ध्यान देने को कहते हैं. उनके मुताबिक, “एक इंसान दिन में दो या चार लीटर ही पानी पीता है लेकिन गाय या भैंस जैसा जानवर 40 से 50 लीटर तक पी सकते हैं. अगर पानी में आर्सेनिक की मात्रा सुरक्षित सीमा से ऊपर है तो इसके खतरे समझे जा सकते हैं. उनके दूध और गोबर में आर्सेनिक के अंश आना तय है.”
फूड चेन में इस जहर के आने का मतलब ये भी है कि आर्सेनिक मुक्त इलाकों में भी लोग इसके खतरे से बाहर नहीं रह जाते.
डॉ अशोक कुमार घोष कहते हैं कि कई जगह ये देखा गया है कि पानी में आर्सेनिक की मात्रा कम और अनाज में अधिक है. उन्होंने इस रिपोर्टर को बताया, “अमूमन ये होता है कि पानी में आर्सेनिक अधिक और अनाज में कम होता है लेकिन कई जगह अनाज में आर्सेनिक अधिक पाया गया. इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि जरूरी नहीं कि जहां फसल उगाई जा रही हो वहीं पर उसकी खपत भी हो.”
नुपूर बोस बताती हैं कि पटना के कुछ इलाकों में जहां लोग गहरी बोरिंग का फिल्टर किया हुआ पानी, जिसमें कोई आर्सेनिक नहीं होता, पीते हैं वहां भी उनके बालों और नाखूनों में आर्सेनिक के अंश मिले हैं. वह कहती हैं यह तभी संभव है जब आर्सेनिक पानी के अलावा अन्य स्रोतों से भी शरीर में जा रहा हो.
मां के दूध से नवजात शिशु को खतरा?
शोध यह भी बताते हैं कि आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में मां के दूध में सुरक्षित सीमा से अधिक आर्सेनिक मिला है जिससे नवजात शिशु को खतरा है. दुनिया के अन्य देशों में भी मां के दूध से शिशुओं पर आर्सेनिक संकट को लेकर रिसर्च हो रही है.
नुपूर बोस कहती हैं, “यह शोधकर्ताओं के लिए एक जांच का विषय है कि भारी मात्रा में आर्सेनिक वाले इलाकों में जहां युवतियों को चूल्हे से लेकर, पेय जल और भोजन में आर्सेनिक मिल रहा हो वहां नवजात शिशु को उस मां के दूध में पहुंच गए आर्सेनिक से कितना ख़तरा है.”
आज वैज्ञानिक इस समस्या से निपटने के लिए आर्सेनिक प्रतिरोधी प्रजातियों को खोजने से लेकर मिट्टी में आर्सेनिक के प्रभाव को कम करने के उपाय ईजाद कर रहे हैं. गंगा पट्टी के राज्यों में धान प्रमुख फसल है और इसमें आर्सेनिक का प्रवेश बड़ी आबादी को संकट में डालता है. पश्चिम बंगाल में वैज्ञानिकों ने 2000 के दशक में ही धान की ऐसी प्रजाति विकसित करने की कोशिश शुरू की जिसमें आर्सेनिक का प्रभाव चावल के दाने तक न पहुंचे. पिछले 10 सालों में ऐसी प्रजातियां विकसित की गई हैं जिनमें आर्सेनिक का प्रभाव नहीं होता या बहुत कम है.
आज धान के अलावा बाकी फसलों की भी ऐसी प्रजातियां खोजी जा रही या तैयार की जा रही हैं जो आर्सेनिक प्रतिरोधी है. खासकर गेहूं के लेकर जिसमें दक्षिण पूर्व एशिया के देशों और बांग्लादेश में इस पर काफी शोध हो रहा है.
खाद्य श्रृंखला में आर्सेनिक का प्रवेश कैसे रुके इस पर काफी रिसर्च हो रही है. पिछले साल साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित इस शोध के मुताबिक खाद के रूप में पोटेशियम ह्यूमेट का इस्तेमाल पानी और मिट्टी में मौजूद आर्सेनिक को फसल में जाने से रोकता है, अंकुरण को बेहतर करता है और फसल की पैदावार बढ़ती है. इस रिसर्च के शोधकर्ताओं में से एक तड़ित रॉय चौधरी कहते हैं कि इस तरह की खाद का इस्तेमाल मानव स्वास्थ्य को हो रहे संकट को कम करने में मददगार होगा.
लेकिन एक दूसरा खतरा भी है. कई मामलों में आर्सेनिक फसलों के उन हिस्सों में जमा हो जाता है जो इंसान तो नहीं पर जानवर खाते हैं. जैसे धान के दाने में आर्सेनिक नहीं जाता पर इसके तने में यह जमा होता है जिसे चारे के रूप में गाय-भैंसों और बकरियों को दिया जाता है.
रॉय चौधरी कहते हैं, “जिस तरह का चारा जानवरों को दिया जा रहा है वह आर्सेनिक से भरा है. अलग-अलग तरीके का चारा मुख्य रूप से फसलों की डंठल जैसी धान के तने, वो तो बहुत अधिक प्रदूषित हैं. ऐसे जानवरों के दूध के जरिए फिर से आर्सेनिक फूड चेन में प्रवेश कर जाता है.”
बिगड़ता सामाजिक तानाबाना
गाजीपुर जिले के करकटपुर गांव की सीमादेवी को शादी के कुछ साल बाद ही त्वचा की बीमारियों ने घेरना शुरू किया. करकटपुर गांव आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्र है और सीमादेवी के शरीर पर आर्सेनिकोसिस के लक्षण दिख रहे हैं.
वह कहती हैं, “शादी से पहले जब मैं मायके में थी तो वहां मेरे शरीर में ऐसे दाग नहीं थे. सारी समस्या यहां (ससुराल में) आकर हुई. यहां का पानी बहुत खराब है.”
बलिया के तारकेश्वर तिवारी जो खुद आर्सेनिकोसिस से पीड़ित हैं. वह कहते हैं, “हमारे गांव में कम से कम 25-30 महिलाओं की मौत हुई है जिसके पीछे पानी का प्रदूषण वजह रहा है. यहां कोई भी व्यक्ति अपनी बेटी की शादी करने से मना कर देता है क्योंकि विवाह के कुछ ही सालों में त्वचा से लिवर की बीमारी या बच्चेदानी में कैंसर जैसे रोग हो जाते हैं.”
सीमादेवी कहती भी कहती हैं कि उनके गांव में लड़की देने से पहले लोग सोचते हैं.
वह पूछती हैं, “आप भी सोचेंगे कि इनके घर का पानी कौन पीएगा ये लोग तो ऐसे ही हैं. पहले बीमारी हमारे सास ससुर को हुई. फिर हमें हो रही है. फिर हमारे बच्चों को होगी. फिर बच्चों के बच्चों को होगी. तो बताइए कोई अपनी लड़की की शादी यहां करने के लिए राजी होगा?”
स्वास्थ्य की दृष्टि से महिलाओं पर आर्सेनिक की सबसे क्रूर चोट हुई. इस बीमारी का पहला लक्षण त्वचा पर दाग के रूप में दिखता है. कई मामलों में जांघों, छाती और पीठ पर होने वाले इन दागों से महिलाएं परेशान थीं लेकिन सामाजिक बेड़ियों के कारण उन्होंने इसे छुपा कर रखा.
नुपूर बोस कहती हैं, “यूपी-बिहार के कई गांवों में महिलाएं अब भी परदे में रहती हैं लेकिन 30-40 साल पहले तो स्थिति और भी खराब थी. अगर उनकी त्वचा में किसी तरह का लक्षण दिखता तो वह अपने पति से कहतीं और फिर उनके परिवार के पुरुष सदस्य डॉक्टर को बताकर दवा लाते. ये सिलसिला कई सालों तक चला और महिलाओं की पूरी एक पीढ़ी ने बिना बताए इसे सहा और आर्सेनिक का शिकार बनीं.”
हालांकि शिक्षा के प्रसार से अब हालात बदले हैं और परिवार की महिला को इस बीमारी के लक्षण पता होना बीमारी से लड़ने में मददगार हो रहा है लेकिन साफ पानी की उपलब्धता बड़ी समस्या है. कई महिलाएं जिनकी शादी आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में होती है वह डर से अपने माता-पिता के पास लौट आती हैं.
इनर वॉइस फाउंडेशन के सौरभ सिंह कहते हैं, “कई लोगों की जान लेने के अलावा इस बीमारी ने सामाजिक तानेबाने पर चोट की है. सरकार को चाहिए कि साफ पानी इन गांवों तक पहुंचाए और लोगों में भरोसा जगे लेकिन साफ पानी पहुंचाने की बड़ी-बड़ी घोषणाओं और दावों के बाद भी जमीनी हकीकत बहुत अलग है.”
अगली कड़ी में – आर्सेनिक से बने विधवा गांव और सरकारी दावों की सच्चाई
(आर्सेनिक पर ग्राउंड रिपोर्ट्स की यह सीरीज ठाकुर फैमिली फाउंडेशन के सहयोग से की गई है. ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस रिपोर्ट/ सीरीज में किसी तरह का संपादकीय दखल नहीं किया है.)
सीरीज का पहला पार्ट यहां पढ़ें.
Also Read
-
TV Newsance 310: Who let the dogs out on primetime news?
-
If your food is policed, housing denied, identity questioned, is it freedom?
-
The swagger’s gone: What the last two decades taught me about India’s fading growth dream
-
Inside Dharali’s disaster zone: The full story of destruction, ‘100 missing’, and official apathy
-
August 15: The day we perform freedom and pack it away