Opinion
देशवासियों के ऊपर जबरन थोपी गई आधार परियोजना
सरकार की तरफ से वित मंत्री द्वारा आधार बिल 2016 को लोकसभा में धन विधेयक कि तरह पेश किया गया जिसे लोकसभा अध्यक्ष ने धन विधेयक का प्रमाण पत्र दे दिया था. इसे राज्यसभा में भी पेश किया गया था. राज्य सभा ने 16 मार्च, 2016 को पांच संशोधनों के साथ इसे वापस लोकसभा भेज दिया था, लेकिन इसे लोकसभा ने अस्वीकार कर दिया और संविधान के तहत आधार एक्ट को 2016 लोकसभा से पारित कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार यूनिक पहचान संख्या यानी विशिष्ट पहचान संख्या इसलिए विशिष्ट एचएआई क्योंकि वह बायोमेट्रिक (उंगलियों और पुतलियों की तस्वीर जैसे) आकड़ों पर आधारित है. यह मान्यता अवैज्ञानिक है क्योंकि मानव शरीर में ऐसा कोई अंग नहीं है जो परिवर्तनशील नहीं है. इसी अवैज्ञानिक मान्यता के आधार पर आधार परियोजना और आधार कानून को देशवासियों के ऊपर थोपा गया है.
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह किया है. जिस तरह से आधार के तहत अंगुलियों के निशान और आंखों की तस्वीरें ली जा रही हैं वे नागरिकों को कैदियों की स्थिति से भी बदतर हालत में खड़ा कर देता है क्योंकि कैदी पहचान कानून के तहत ये प्रावधान है कि कैदी अगर बाइज्जत बरी होता है या सजा काट लेता है तो उसकी अंगुलियों के निशान को नष्ट कर दिया जाता है. आधार के मामले में ये कभी नष्ट नहीं होगा.
वित्तमंत्री ने आधार के जरिये जुटाए जा रहे बायोमेट्रिक आंकड़ों को पूरी तरह सुरक्षित बताया था. मीडिया में हुए खुलासों ने इस दावे के पोल खोल दी है. इन खुलासों से यह स्पष्ट हो गया है कि आंकड़ों वाली कंपनियों और उनके विशेषज्ञों में और अपराध जगत के माफिया तंत्र के बीच मीडिया में परिष्कृत प्रस्तुतिकरण का ही फर्क है. राज्यसभा में उन्होंने कहा, "ये केवल खास मकसद से है और सटीक तरीका भी इसके लिए बनाया गया है.
ये कहना कि इस जानकारी का वैसे इस्तेमाल किया जाएगा जैसे नाजी लोगों को टार्गेट करने के लिए इस्तेमाल करते थे. मुझे ये लगता है कि ये महज एक राजनैतिक बयान है. ये ठीक नहीं है." इन दावों की सच्चाई का पता आधिकारिक तौर पर कोर्ट के कम-से-कम एक जज को चल गया है. दिल्ली हाईकोर्ट के एकल पीठ के सामने में लंबित रक्षा वैज्ञानिक मैथ्यू थॉमस की याचिका की सुनवाई के बाद जनता सहित सभी जज भी उसे जान जाएंगे.
सूचना के अधिकार के तहत जो कॉन्ट्रेक्ट एग्रीमेंट निकाले गए हैं उसमें स्पष्ट लिखा गया है कि ऐक्सेंचर, साफ्रान ग्रुप, अर्नस्ट यंग नाम की ये कंपनियां भारतवासियों के इन संवेदनशील बायोमेट्रिक आंकड़ों को सात साल के लिए अपने पास रखेगी. इसका संज्ञान सुप्रीम कोर्ट के एक जज वाले फैसले में लिया गया है. इसी कारण चार जजों ने भी निजी कंपनियों को आधार सूचना देने पर पाबंदी लगा दी है.
यह परियोजना विदेशी बायोमेट्रिक टेक्नोलॉजी कंपनियों को मुनाफा देने के लिए बनाया गया है. आधार परियोजना में हर एक पंजीकरण पर दो रूपए 75 पैसा खर्च हो रहा है. भारत की आबादी लगभग 140 करोड़ के आस पास है. न सिर्फ पंजीकरण के समय बल्कि जब-जब इसे इस्तेमाल किया जाएगा, डिडुप्लिकेशन के नाम पर इन कंपनियों को ये मुनाफा पहुंचाया जाएगा. इन बायोमेट्रिक टेक्नोलॉजी कंपनियों को मुनाफा पहुंचाने के लिए ये सब किया जा रहा है. ये देशहित में नहीं है और ये मानवाधिकारों का बड़ा उल्लंघन है.
ऐसे संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यूजीसी, सीबीएसई और निफ्ट जैसी संस्थाएं आधार नहीं मांग सकती हैं. साथ ही स्कूल भी आधार नहीं मांग सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अवैध प्रवासियों को आधार न दिया जाए. कोर्ट ने कहा है कि मोबाइल और निजी कंपनी आधार नहीं मांग सकती हैं. कोर्ट ने आधार को मोबाइल से लिंक करने का फैसला भी रद्द कर दिया. कोर्ट ने आधार को बैंक खाते से लिंक करने के फैसले को भी रद्द कर दिया. किसी भी बच्चे को आधार नंबर नहीं होने के कारण लाभ/सुविधाओं से वंचित नहीं किया जा सकता है मगर यह काफी नहीं है.
प्राधिकरण द्वारा अब तक 120 करोड़ से अधिक भारतीय निवासियों को आधार संख्या प्रदान किए जा चुके हैं. यह नागरिकता की पहचान नहीं है. यह आधार पंजीकरण से पहले देश में 182 दिन रहने का पहचान प्रदान करता है. कोई बुरुंडी, टिंबकटू, सूडान, चीन, तिब्बेत, पाकिस्तान, होनोलूलू या अन्य देश का नागरिक भी इसे बनवा सकता है. नागरिकों के अधिकार को उनके बराबर करना और इसे बाध्यकारी बनाकर और इस्तेमाल करके उन्हें मूलभूत अधिकारों से वंचित करना तर्कसंगत और न्यायसंगत नहीं है. आधार परियोजना का आपातकाल के दौर के संजय गांधी की बाध्यकारी परिवार नियोजन वाली विचारधारा से कोई रिश्तेदारी है. ऐसी विचारधारा का खामियाजा उन्होंने भोगा था. आधार परियोजना के पैरोकार भी उनके रास्ते ही चल रहे हैं.
धन की परिभाषा में देश के आंकड़े, निजी संवेदनशील सूचना और डिजिटल सूचना शामिल है. भारत सरकार की बायोमेट्रिक्स समिति की रिपोर्ट बायोमेट्रिक्स डिजाइन स्टैंडर्ड फॉर यूआईडी एप्लिकेशंस की अनुशंसा में कहा है कि बायोमेट्रिक्स आंकड़े राष्ट्रीय संपत्ति हैं और उन्हें अपने मूल विशिष्ट लक्षण में संरक्षित रखना चाहिए. इलेक्ट्रॉनिक आंकड़े भी राष्ट्रीय संपत्ति हैं अन्यथा अमेरिका और उसके सहयोगी देश अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठन की वार्ता में मुफ्त में ऐसी सूचना पर अधिकार क्यों मांगते? कोई राष्ट्र या कंपनी या इन दोनों का कोई समूह अपनी राजनीतिक शक्ति का विस्तार आंकड़े को अपने वश में करके अन्य राष्ट्रों पर नियंत्रण कर सकता है. एक देश या एक कंपनी किसी अन्य देश के संसाधनों को अपने हित में शोषण कर सकता है. आंकड़ों के गणितीय मॉडल और डिजिटल तकनीक के गठजोड़ से गैरबराबरी और गरीबी बढ़ सकती है और लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है.
संवेदनशील सूचना के साइबर बादल (कंप्यूटिंग क्लाउड) क्षेत्र में उपलब्ध होने से देशवासियों, देश की संप्रभुता व सुरक्षा पर खतरा बढ़ गया है. किसी भी डिजिटल पहल के द्वारा अपने भौगोलिक क्षेत्र के लोगों के ऊपर किसी दूसरे भौगोलिक क्षेत्र के तत्वों के द्वारा उपनिवेश स्थापित करने देना और यह कहना कि यह अच्छा काम है, देश हित में नहीं हो सकता है. उपनिवेशवाद के प्रवर्तकों की तरह ही साइबरवाद व डिजिटल इंडिया के पैरोकार खुद को मसीहा के तौर पर पेश कर रहे हैं और बराबरी, लोकतंत्र एवं मूलभूत अधिकार के जुमलों का मंत्रोचारण कर रहे हैं. ऐसा कर वे अपने मुनाफे के मूल मकसद को छुपा रहे हैं.
दूसरे कई देशों ने आधार जैसी परियोजनाओं पर जो कदम उठाए उनके अनुभवों को दरकिनार करके आधार पर चार जजों का अधूरा फैसला प्रतीत होता है. इसने आकड़ों के राष्ट्रवाद की विचारधारा को नकार दिया है. इस विचारधारा के तहत यूरोप में जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन के अलावा अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में इस तरह की परियोजनाओं को रोक दिया गया है. अब तो यह स्पष्ट है कि आधार परियोजना और आधार कानून राष्ट्रवाद का लिटमस टेस्ट बन गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने अभी यह तय नहीं किया है कि यदि आधार परियोजना और विदेशी कंपनियों के ठेका और संविधान में द्वंद्व हो तो संविधान प्रभावी होगा या ठेका. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने फैसले स्पष्ट किया है कि संविधान प्रभावी होगा. बाकी के चार जजों ने इस मामले में चुप्पी साध ली है. उनकी खामोशी चीख रही है और उनको कठघरे में खड़ा कर रही है.
ठेका-राज से निजात पाने के लिए विशिष्ट पहचान/आधार संख्या जैसे उपकरणों द्वारा नागरिकों पर सतत नजर रखने और उनके जैवमापक रिकार्ड तैयार करने पर आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत करने वाले व्यक्तियों, जनसंगठनों, जन आंदोलनों, संस्थाओं के अभियान का समर्थन करना एक तार्किक मजबूरी है. फिलहाल देशवासियों के पास अपनी संप्रभुता को बचाने के लिए आधार परियोजना का बहिष्कार ही एक मात्र रास्ता है. आधार परियोजना और विदेशी कंपनियों के ठेके का एक मामला दिल्ली हाई कोर्ट में लंबित है. सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की पीठ को अभी तय करना है कि आधार कानून संविधान सम्मत है या नहीं.
अगले चुनाव से पहले एक ऐसे भरोसेमंद विपक्ष की जरूरत है जो यह लिखित वादा करे कि सत्ता में आने पर ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, रूस और अन्य देशों कि तरह भारत भी अपने वर्तमान और भविष्य के देशवासियों को बायोमेट्रिक आधार आधारित देशी व विदेशी खुफिया निगरानी से आजाद करेगी.
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लेखक 2010 से आधार संख्या-NPR-वोटर आईडी परियोजना व गुमनाम चंदा विषय पर शोध कर रहे हैं. इस संबंध में संसदीय समिति के समक्ष भी पेश हुए.
(साभार- जनपथ)
तीन हिस्सों की सीरीज का यह तीसरा पार्ट है. पहला पार्ट और दूसरा पार्ट यहां पढ़ें.
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