Year ender 2021
खुद को खाता हुआ देश और आदमखोर समय में ताली बजाता मीडिया
एक देश खुद को खा रहा है. कई बार मार कर. कई बार जिंदा. कई बार पीट कर. कई बार जलील करता हुआ. जेल में डालता हुआ. ज़मानत नहीं देता हुआ. एक देश अपने खिलाफ ही नफरत का ज़हर उगल रहा है. एक देश अपनी ही मौत को सजा रहा है. एक देश अपने संविधान के चीथड़े उड़ा रहा है. एक लोकतंत्र अपने नागरिकों को सौतेला किए जा रहा है. एक देश अपनी लाशें नहीं गिन रहा है. एक तंत्र अपनी लाठी लोक के सिर पर भांज रहा है. एक देश अपने आपसे झूठ पर झूठ बोले जा रहा है. एक देश है जो अपने सच को छिपाए जा रहा है. एक देश ऐसा होते हुए देख रहा है. एक देश इस सबका चीयरलीडर है. एक और देश है, जो सिर झुका कर उदास बैठा है. एक देश खुद को खा रहा है. आजादी आजादी को खा रही है. संविधान संविधान को. अदालतें इंसाफ को. धर्म इंसानियत को. खा रहा है. कच्चा. और रोज.
द्रोहकाल के इस गिद्धभोज की आप रोज अपने व्हाट्सएप ग्रुप में एक न एक क्लिप देख रहे हैं. ये जकरबर्ग को पता है, और सरकार को भी. खाया हुआ जाता देश खाते हुए जाते देश को देख रहा है. जिसका नंबर अभी आने को है, वह इस बात से खुश है कि आज किसी और का नंबर है. हम उस मेंढक की तरह हैं, जिसे उबलते पानी में फेंका तो नहीं गया, बल्कि धीमी आंच पर रखे पानी में रोज उसका तापमान बीते कल से एक डिग्री ज्यादा बढ़ाया जा रहा है.
चश्मदीद गवाहियां लिखने की जवाबदेही जिनकी तय हुई थी, वे साक्षी द्रोही हो चुके हैं. मुख्यधारा विषयांतर के वाणिज्य में है, ध्यान दिलाने के नहीं. और फिर वे जो खुद को बड़ा मीडिया समूह कहते हैं, वे भी अपना धंधा चलाते रहने के लिए समझौते न सिर्फ कर रहे हैं, पर साफ दिखलाई भी पड़ रहे हैं. अब कोई पर्दा नहीं है. ये पिछले और उससे पहले कुछ और सालों का एक और हासिल है. चाहे सियासत हो, अदालत हो, नौकरशाही हो और मीडिया, अब नंगई लाग-लपेट के लिहाज से मुक्त हो गई है. उसका एक असर ये भी है कि लोगों में इनको लेकर संजीदगी और इज्जत दो धेले की भी नहीं रही है. अगर अटेंशन एक करेंसी है, तो वह कहीं और खर्च हो रही है.
नरेन्द्र मोदी ने कोरोना को भगाने के लिए घंटा और थाली बजाने का जो आह्वान 5 अप्रैल 2020 को किया था, जो एक दिन की बात होनी थी. पर वह घंटा साल भर बाद भी बजना बंद नहीं हो रहा है.
कमरे में सबसे बड़ा हाथी टाइम्स ऑफ इंडिया या दैनिक जागरण समूह नहीं है, फेसबुक है. फेसबुक की दुनिया में सबसे ज्यादा यूज़र सरजमीं ए हिंदुस्तान में हैं और तेजी से बढ़ रहे हैं. एक सर्वे के मुताबिक हर यूजर यानी (मैं और आप) औसतन रोज करीब ढाई घंटे खर्च करते हैं, जो उस समय से काफी ज्यादा है, जो अखबार या टीवी पर खर्च होते हैं. एक साल में देखा जाए तो ये हिसाब करीब 912 घटों का बनता है. यानी साल में 38 दिन चौबीसों घंटे हम सोशल मीडिया और खास तौर पर फेसबुक पर मशगूल पाए जा रहे हैं. हम वहां पर क्या कर रहे हैं.
हमारे अटेंशन पर अब कब्जा फेसबुक, व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम का है, जो एक ही आदमी मार्क जकरबर्ग के उपक्रम हैं. जकरबर्ग और उनके संस्थान इस समय कई सारे संगीन सवालों से घिरे हुए हैं, वह चाहे इंग्लैंड में 11-13 साल की बच्चियों को बॉडी शेम (बेडौल होने पर शर्मिंदा) करना हो या फिर कोरोना के दौरान अमेरिका में वैक्सीन विरोधी दुष्प्रचार को जानते बूझते चलने देना, या डोनल्ड ट्रम्प के शासनकाल के दौरान वहां के कैपिटल हिल पर हमले को लेकर भावनाओं को हवा देना. अपने यूजर बढ़ाने और इस अटेंशन इकोनॉमी के जरिए अपनी पकड़ और मुनाफा कमाने के लिए फेसबुक उस एल्गोरिदम पर काम करता है, जिसके जरिए लोग उसके साथ चिपके रहें.
यह मोटे तौर पर वही एल्गोरिदम है, जिसके जरिए लम्बे समय से लोगों पर धर्म और सियासत के लोग राज करते आए हैं. मसलन डर, सनसनी, अविश्वास, अंधविश्वास, षड्यंत्र, अफवाहें, भ्रम, झूठ और फरेब. दूसरा ये कि जो जहां सत्ता में है, उनके लिए फेसबुक ने जब जहां चाही, डंडी मार दी है. अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैंड में फेसबुक की जवाबदेही तय करने के लिए कार्रवाइयां शुरू कर दी गई हैं, और अब फेसबुक के लिए भी उन सवालों से मुह चुराना मुश्किल होता जा रहा है, जिसे वह अब तक महज तकनीकी प्लेटफॉर्म होने की दुहाई देकर बचता रहा था.
जकरबर्ग के गुंताड़ों से भारत यानी मैं और आप मुक्त हैं, ऐसा कहना मुश्किल है. पर हमारी सरकार और हमारी अदालतें इस पर कब, कितनी और कैसे कार्रवाई करेंगी, इसका अंदाजा लगाना आसान है. आखिर जवाबदेही को लेकर दोनों का रिश्ता कैसा है, सबको पता है. भारत में हो न हो, आने वाला साल जकरबर्ग साहब के लिए जबरदस्त होने वाला है. वे और उनका संस्थान कई कठघरों में खड़े दिखलाई देंगे, जहां जवाब देना उनके लिए वैसे भी मुश्किल होता जा रहा है.
जकरबर्ग का कठघरे में खड़ा किया जाना और लोकतंत्र में यकीन करने वाली ताकतों का रिक्लेमेशन इस साल की दो बड़ी घटनाएं हैं, जिसका मीडिया के वर्तमान और भविष्य से सीधा वास्ता है. इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार दो जीवट पत्रकारों को दिया गया और ये दोनों लोग अपने अपने देशों में पत्रकारिता का अलख जलाए रखने के लिए संघर्षरत रहे हैं. अच्छी बात ये है कि इस तरह की कई छोटी पहलें भारत में जड़ें जमाती हुई दिखलाई दे रही हैं.
एक तरीका देखने का यह है कि कोरोना के पिछले दो सालों में किन मीडिया समूहों ने पैसे कमाए हैं. उसमें फेसबुक, गूगल सबसे आगे हैं. भारत में भी और बाहर भी. दूसरा भारत में मीडिया की आर्थिक निर्भरता किस पर है, जबकि कोरोना के दौरान कॉरपोरेट विज्ञापन की धाराएं सूखने लगीं और फिर अखबार बांटना भी मुश्किल हो गया.
निर्भरता सरकारी विज्ञापनों पर आ टिकी और इस चक्कर में सरकारी सूचना तंत्र से ज्यादा सगे निजी मीडिया उपक्रम दिखलाई देने लगे. न सिर्फ ये बल्कि टीवी के प्राइम टाइम मजमेबाज अब वह सब दिखलाने लगे, जिनका सरोकार न सच से रहा, न समाज से. वे सत्ता के पिट्ठू बनकर यूं उछले कि उनके ट्विटर हैंडल भी एक ही तरह के ख्याल, वाक्य, कुतर्क और बेहूदगियां प्रकाशित कर अपनी नौकरियां और उपक्रमों को इस संक्रांत में और से बचाते रहे. लोग खबरों के लिए डिजिटल की तरफ बढ़े. अपने-अपने मोबाइल फोन पर. वहां फेसबुक और व्हाट्सएप तो था ही.
इस देश का हर वह वर्ग, जिससे सरकार को परेशानी थी, वह इन मजमेबाजों के लिए खलनायक हो गया. चाहे जमात के लोग हों, या शाहीन बाग़ की बुजुर्ग औरतें, जामिया और जेएनयू के छात्र, धरने पर बैठे किसान हों या फिर पूर्वोत्तर में, चाहे कोरोना काल का कुप्रबंध हो या फिर आर्थिक स्तर पर. ये साल न्यूज़रूम की स्वायत्तता के पूर्ण तिरोहण का साल रहा. एक तरफ इसे हम साफ बेईमानी कहकर खारिज तो कर सकते हैं, पर इसी के साथ उन मजबूरियों को भी देखना चाहिए कि ऐसा हो क्यों रहा था. मीडिया उपक्रमों की आर्थिक निर्भरता के साथ-साथ उनके दूसरे व्यवसायों पर सरकारी लगाम कसने का डर हावी रहा. जब भी किसी ने थोड़ी पत्रकारिता करने का थोड़ा मोड़ा साहस दिखाया, उन पर सरकार ने अपने गुर्गे भेज कर छापा डलवा के संदेश साफ कर दिया.
खुद को खाते हुए देश से मुंह चुराने वाला मीडिया भी खुद को कुतर रहा है, खा रहा है, हर रोज पहले से कहीं ज्यादा, पहले से कहीं तेजी से. कोरोना से पहले करीब 10 लाख पत्रकारों के पास रोजगार था, अब ढाई लाख लोगों के पास बचा है. मीडिया इंडस्ट्री खुद को बचाए रखने के लिए पत्रकारिता को गिरवी रखने के लिए तैयार काफी समय से थी, पर अब उन्हें नाव से बाहर फेंकने का वक्त आ गया था. वह भी बिना लाइफ जैकेट के. उनके सामने अस्तित्व का सवाल है. वे अपनी दुकान बचाएं, या अपने कर्मचारियों को. बचे हुए ढाई लाख लोग जिस तरह की पत्रकारिता कर रहे होंगे, वह भी एक दिलचस्प सवाल है, जिसके बारे में चिंता की जानी चाहिए.
हर तरह की दुर्दशा से गुजर रहे (आर्थिक, लोकतांत्रिक, संवैधानिक, न्यायिक, कूटनीतिक, रणनीतिक) देश को देखने, पढ़ने, सवाल करने जब कम हो जाएंगे, तो बहुत से लोगों को ये उम्मीद है कि लोग जिस सच को अपनी हड्डियों तक महसूस कर रहे हैं, वह झूठा और नकली लगने लगेगा. परसेप्शन (अवधारणा) आजकल प्रचलन में ज्यादा है, सरकार, सत्ता, राजनीति, चुनावी रणनीतियों के चलते. मुख्यधारा का मीडिया इस अवधारणा- निर्माण की कठपुतली बनकर खुश है. उन्हें अभी भी लग रहा है कि लोग उनको पढ़ और सुन रहे हैं, अपना वक्त उनपर खर्च कर रहे हैं, उन्हें संजीदगी और सम्मान के साथ ले रहे हैं. जो अवमूल्यन और क्षरण लोकतंत्र के बाकी स्तंभों का हाल में हुआ है, मीडिया उनमें सबसे भुरभुरा साबित हो रहा है. इतिहास का पहला मसविदा, जल्दबाजी में लिखा गया साहित्य कभी कहा जाता रहा होगा, पर पत्रकारिता का पहला काम सवाल करने का साहस दिखलाना था. पर ऐसा होता हुआ दिखा नहीं.
मुख्यधारा का मीडिया इस जुर्म में शरीक है. सोशल मीडिया भी. सरकारी मीडिया. प्रायोजित मीडिया. हांका लगाता हुआ. सच से अपने दर्शकों, पाठकों, श्रोताओं की निगाहें हटाने की कोशिश करता हुआ. जहां शोर, सनसनी, चौंध तो बहुत है, पर रौशनी तेजी से गायब होती जा रही है. मीडिया का भारत अलग है. शहर से गांव लौटता, अस्पताल में बिस्तर और इलाज के लिए तरसता, बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई से जूझता भारत अलग. महामारी के वक्त सूचना तंत्र की भूमिका वैसे ही हो जाती है, जैसे किसी जंग या किसी दूसरे विश्व संकट के दौर में. हर ऐसे हालात में हमारे असली रंग सामने आ जाते हैं. हालांकि महामारियों की मुश्किलें युद्ध से कहीं ज्यादा है. युद्ध के मोर्चे कहीं ज्यादा परिभाषित होते हैं, उनके लिये तैयारियां रहती हैं. महामारी का मोर्चा हर मनुष्य है. इसलिए सूचना तंत्र की भूमिका और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है. क्या हम ऐसा कर सके?
मसलन एक नीम हकीम बहुत सारे मीडिया समूहों के प्रमुख विज्ञापनदाताओं में से एक है. वह जब देखो तब अपनी ऊट-पटांग बातों को लेकर प्राइमटाइम और बाकी जगह अपना अधकचरा ज्ञान भी बखेरता रहा है. कोरोना फैला तो ये नीम हकीम पता नहीं कौन से चूरण की गोली लेकर आ गया, और नरेन्द्र मोदी सरकार के दो शीर्ष मंत्रियों के साथ उस गोली के साथ फोटो भी खिंचवा लिए. अब इस गोली की वैज्ञानिक जांच-परख न तो पुष्टि हुई, बल्कि मेडिकल संस्थाओं ने उस पर सवाल जरूर खड़े किए. पत्रकारिता को क्या करना चाहिए था? और मीडिया इंडस्ट्री ने क्या किया. किसी और समय या लोकतांत्रिक देश में महामारी के वक्त इस तरह की घटना के पीछे लिप्त लोगों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चला दिया जाता. पर भाई का जलवा पूरी तरह गालिब रहा.
उपलब्ध डेटा के मुताबिक दुनिया भर में 26 करोड़ लोग संक्रमित हुए. दुनिया भर में अब तक 51.7 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई. 23.50 करोड़ लोग कोरोना से बच कर बाहर निकल गए. भारत में ये आंकड़ा 3.48 करोड़ लोगों को संक्रमित होने का है. मौत का आंकड़ा 4.8 लाख है. पौने चार करोड़ लोग कितने होते हैं, इसका क्या अंदाजा है? पौने पांच लाख कितने? कितने चेहरे, कितने नाम, कितने वोटर कार्ड, कितने परिवार, कितने फुटबॉल मैदान चाहिए होंगे इतने सारे लोगों को खड़ा करने के लिए, कितने बैंक अकाउंट, कितने आधार कार्ड, कितनी नौकरियां, कितनी जिम्मेदारियां. हम कैसे देखते हैं.
आप सोच पा रहे हैं इस संख्या को? महसूस कर पा रहे हैं? मैं नहीं लगा पाता. वह असंख्य के करीब लगता है. आपमें से कितने लोगों को लगता है, कि ये संख्या सच्ची और ईमानदार है? मुझे अंदाजा नहीं है पहले दी गई संख्या के वास्तविक आकार प्रकार का. दूसरा मैं जानता हूं, आप भी- बहुत सारा झूठ बोला गया, बहुत सारे आंकड़े छुपाए गए हैं इसलिए जीवन- मौत से जूझ रही एक आबादी के साथ न सच बोला गया, न ईमानदारी बरती गई. चूरण की गोली जरूर बेच ली गई.
महामारी के दौरान पूरी दुनिया के सूचना तंत्र को देखना भी उस पैटर्न को देखना समझना है, जिस तरह से हम और हमारी सरकारें बदल रही हैं. खास तौर पर दक्षिणपंथी सरकारें. सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि इसी तरह के रवैये अमेरिका, ब्रिटेन, ब्राजील में भी देखे गए. जहां लिबरल मॉडरेट सरकार में थे, उनका रवैया बिल्कुल उलट था. जैसे हमारे यहां लोग कोरोनिल और गोबर से कोरोना का इलाज करने की बात कर रहे थे, वैसे ही अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ब्लीच खाने की वकालत कर रहे थे. उसके उलट कनाडा और न्यूजीलैंड जैसे देशों में लोगों के प्रति सरकार के रवैये कहीं ज्यादा सहानुभूतिपूर्ण थे.
चाहे लॉकडाउन लगवाना हो, या फिर उससे प्रभावित लोगों को मदद पहुंचाना. उन देशों में कोरोना का असर भी सीमित रहा. अमेरिका और इंग्लैंड में महामारी के कारण प्रभावित लोगों को मदद देने तक खासी देर हुई. अमेरिका में वैज्ञानिकों की राय आती तो रही, पर सरकारें बार-बार उन पर सवाल खड़ा करती रहीं. ट्रम्प के हारने के पीछे एक महत्वपूर्ण वजह कोरोना की बदइंतजामी, उसके बारे में दुष्प्रचार, और भ्रम फैलाने वाली बातें हैं.
कोरोना के सामने जो सबसे ज्यादा बेबस और अप्रभावी साबित हुए, वह हैं हमारे ज्योतिषी और हमारे ईश्वर. पर अगर अपने मीडिया को देखें तो दोनों की महिमा पहले से कम नहीं हुई हैं. ऐसा भी नहीं हुआ कि हमारा साझा यकीन विज्ञान पर बढ़ा हो. जबकि ये एक ऐसा समय था, जब पूरे देश और दुनिया को एक साथ होकर इससे लड़ना चाहिए था. ये काम मीडिया का होना चाहिए था, पर उसे चीयरलीडर होने से फुरसत नहीं थी.
सूचना पहुंचाने, सवाल करने, और इस समय को ठीक से दर्ज करने की जो कोशिशें हुईं वह ज्यादातर नौजवानों ने मोबाइल पत्रकारिता के ज़रिये कीं. चुनौतियों के इस दौर की सबसे आश्वस्त करने वाली बात यही है, कि छोटे और ज्यादातर डिजिटल संस्थानों के जरिए और कई तो खुद ही अपने प्रकाशक बन कर खबरें और मुद्दों को लोगों तक पहुंचाते रहे. भले ही ये बहुत टिकाऊ तरीका नहीं हो, पर इसके जरिए पत्रकारिता मीडिया इंडस्ट्री के कारण नहीं, बल्कि बावजूद जिंदा रह गई है. उनमें से बहुत से हैं जो चंदा मांगकर अपना काम चला रहे हैं. कुछ ने अपना सब्सक्रिप्शन मॉडल बनाया है. पत्रकारिता को बचाने का तरीका अब शायद यही है, जब तक विज्ञापन, सरकारों और बड़े डिजिटल संस्थानों के एल्गोरिदम से सूचना तंत्र मुफ्त या सबसिडाइज्ड रहेंगे, उनसे निष्पक्ष और सटीक पत्रकारिता की उम्मीद करना मुश्किल है. अब पहले से कहीं ज्यादा.
आगे के रास्ते विकास संवाद जैसी सजग और ईमानदार पहलों से निकलते हैं. जिनके जरिए हम पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों की तरफ लौटते हैं. किसी भी स्वस्थ और जागरूक समाज के लिए सवाल करना वह पहली शर्त हैं, ताकि हम समस्याओं से निकल कर समाधानों की तरफ पहुंच सकें. उसमें तथ्यों की रौशनी की तरफ लौटना जरूरी है, उनकी पुष्टि करना और उसमें सर्व हित की तरफ ले जाना भी. और इस फिक्र के साथ कि हम जो भी कर रहे हैं, उसमें कतार के आखिरी की फिक्र भी रहे.
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