Opinion
कृषि कानूनों की वापसी के बीच किसान आंदोलन की चिंताएं
आखिर वह दिन आ ही गया जिसके लिए लाखों किसान पिछले डेढ़ साल से धैर्य और दृढ़ संकल्प के साथ संघर्ष कर रहे थे. उनकी सबसे प्रमुख मांगों को स्वीकार करने की घोषणा खुद प्रधानमंत्री को करनी पड़ी. इस घोषणा को देश के किसानों और सभी मेहनतकश जनता ने अपनी सांस रोककर उनके संघर्ष के प्रति सहानुभूति से सबसे अधिक ध्यान से सुना और लहरों की भावनाओं के बीच जीत और उत्सव के युद्ध के जयकारों से वातावरण गूंज उठा. अपने प्राणों की आहुति देने वालों के चेहरे उनकी आंखों के सामने जिंदा दिखाई दिए. उनकी शहादत को याद किया गया और सम्मान दिया गया. देश के मेहनतकश जनसमुदाय ने अपनी एकता की गर्मजोशी, इस संघर्ष के शिखर का आनंद उठाया, जिसने कई उतार-चढ़ाव देखे.
प्रधानमंत्री द्वारा तीन कानूनों को निरस्त करने के निर्णय की घोषणा करने के लिए अपनाया गया तरीका भी उनके जनविरोधी फासीवादी मानसिक बनावट का एक और सबूत साबित हुआ है. उन्होंने न केवल मंत्रिमंडल की बैठक बुलाने की आवश्यकता महसूस नहीं की बल्कि एकतरफा घोषणा का सहारा लेकर आंदोलन के नेतृत्व की उपेक्षा करने का प्रयास भी किया. सही रास्ता यह होता कि अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर किसान नेतृत्व के साथ बातचीत की जाती, जब इस विशाल जन आंदोलन की सबसे प्रमुख मांग को स्वीकार करने और आम सहमति तक पहुंचने का निर्णय लिया जाता.
इन सभी प्रयासों को करने के बजाय, उन्होंने अपनी ‘मोदी है तो मुमकिन है’ की पहले से बनी छवि को सामने लाने की कोशिश की. यह एक ऐसी छवि है जो दूसरों की राय खो देती है, एक ऐसी छवि जिसके आधार पर मोदी ने हर तरह की असहमति की आवाज को दबा दिया है और लोगों की उचित और वास्तविक मांगों पर ध्यान नहीं दिया है. यह बिल्कुल अलग बात है कि संघर्षशील लोगों के लिए इस उपलब्धि के मायने नहीं बदले जा सकते.
प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में तीन कानूनों के तहत काम कर रहे कृषि के कॉरपोरेटीकरण के जोर को जबरदस्ती जायज ठहराने की कोशिश की है. उन्होंने इन कानूनों के पीछे पूरे देश के किसानों की सार्वभौमिक सहमति और किसानों के व्यापक प्रतिरोध को एक छोटे से वर्ग की अप्रियता के रूप में दावा किया है. उन्होंने अपने संबोधन के माध्यम से, वास्तव में, वैश्विक साम्राज्यवादी कंपनियों और बड़े कॉरपोरेट्स से इन कानूनों पर लोगों को धोखा देने में सफल नहीं होने के लिए माफी मांगी है. साथ ही उन्होंने अपने पहले के पथ पर चलते रहने की अपनी प्रतिबद्धता दोहरायी है. तथाकथित ‘सुधारों’ के हितों के लिए शून्य बजट खेती और फसल विविधीकरण जैसे विचारों को दोहराया गया है.
प्रधानमंत्री के संबोधन के बाद नरेंद्र तोमर ने अपने एक बयान में कृषि में ‘सुधारों’ को आगे बढ़ाने के लिए वैकल्पिक तरीके अपनाने की बात भी कही है. इन सब से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट्स के प्रवेश के लिए मोदी सरकार की प्रतिबद्धता पहले की तरह है और इसके लिए एक वैकल्पिक मार्ग खोजने का प्रयास कर रही है. यहां तक कि एमएसपी के मुद्दे पर प्रस्तावित समिति भी इन रास्तों से बाहर नहीं है. जब कॉरपोरेट्स के हितों के प्रति प्रतिबद्धता इतनी प्रबल होती है, तो ये आसान जीत नहीं हो सकती हैं और पहले से हासिल की गई जीत के धुल जाने का खतरा हमेशा घूमता रहता है.
तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने की घोषणा के साथ ही हमारे खेतों और फसलों के लिए परेशानी कम नहीं हुई है. समय की बात है कि फिर से प्रयास किए जाएंगे. सरकारी खरीद से भागना आंदोलन के दौरान भी उसके एजेंडे में रहा है. कानूनों को निरस्त करने के समय, उस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकी भाषा के गुप्त अर्थ को बारीकी से पढ़ने और पकड़ने की आवश्यकता होगी, ताकि किसानों के हितों को पीछे से मारने की साजिशों से अवगत हो सकें. सरकार की यह मंशा इस बात से स्पष्ट है कि सरकार अभी भी निजी मंडियों की स्थापना कर किसानों को ‘आजादी’ देने के अपने दावों से दूर नहीं हुई है.
अब भी सरकार की ओर से वर्तमान जीत को एक मानकीकृत और व्यापक जीत में बदलने से रोकने की कोशिश होगी, एक ऐसी जीत जो किसानों के हितों को आगे बढ़ाने में मदद करेगी. सरकार की मंशा अन्य मांगों को नजरअंदाज करने, एमएसपी और पीडीएस की कोई गारंटी या आश्वासन देने से बचने और किसान नेताओं और कार्यकर्ताओं को कानूनी मामलों में उलझाए रखने की होगी.
इसलिए समय की मांग है कि सरकार की इन मंशाओं को सतर्क रहकर हरा दिया जाए और बची हुई मांगों को स्वीकार करने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ संघर्ष जारी रखा जाए. जब तक संसद द्वारा तीन कानूनों को निरस्त करने और एमएसपी और पीडीएस पर गारंटी और बिजली बिल, प्रदूषण बिल, मुकदमों की वापसी और मुआवजे से संबंधित अन्य मांगों को स्वीकार नहीं किया जाता है, तब तक संघर्ष का झंडा ऊंचा रहना चाहिए. हमें उन कदमों पर सतर्क रहना चाहिए जो खरीद व्यवसाय में कॉरपोरेट्स के प्रवेश के लिए शुरू किए जा सकते हैं.
ये प्रयास नए कानूनों के नाम पर या कार्यकारी आदेशों द्वारा या किसी अन्य गुप्त दरार के माध्यम से किए जा सकते हैं. तय है कि सरकार इस रास्ते से नहीं हटेगी. इसलिए लोगों को सतर्कता और एकता बनाए रखने के अलावा इन मुद्दों के प्रति जागरूक किया जाए. मांगों पर स्पष्टता के अभाव में सरकारें उन्हें उलझाने या रौंदने में सफल हो जाती हैं. “कानूनों को निरस्त कर दिया गया है” के उत्साही माहौल में उनकी वास्तविक वापसी और अन्य मुद्दों के बारे में चिंताओं को नहीं भूलना चाहिए.
निःसंदेह इस संघर्ष का पहला चरण जीत लिया गया है, लेकिन मंडियों में फसलों को रौंदने से बचाने के लिए और पीडीएस के माध्यम से मेहनतकश जनता के लिए भोजन का अधिकार हासिल करने के लिए एक लंबे संघर्ष की आवश्यकता है. यह संघर्ष अब एक उच्च और दीर्घकालिक एकता की मांग करता है. जरूरत इस बात की है कि संघर्ष के अंगारे को तब तक जलाए रखा जाए जब तक कि जीत की घोषणा हकीकत में तब्दील न हो जाए. वर्तमान समारोहों के बीच, बड़ी चिंताओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.
जोगिंदर सिंह उगराहां, भारतीय किसान यूनियन (उगराहां) के अध्यक्ष हैं.
(साभार- जनपथ)
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