Opinion
हे तपस्वी! निष्ठा का तुक विष्ठा से मत मिलाओ
प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ 'मूर्ख' किसानों को तीन कृषि कानूनों का लाभ समझा पाने में अपनी नाकामी के लिए देशवासियों (जिसमें उनके समर्थक कोटि-कोटि किसान भी शामिल हैं) से माफी मांगते हुए तपस्या और दीपक के रूपक का इस्तेमाल किया. उनका यह वचन किसी महान किताब में दबे रह गए कीड़े की तरह अमरत्व प्राप्त करने वाला है. आजाद भारत के इतिहास का सबसे लंबा, जुझारू और अनुशासित किसान आंदोलन ही वह किताब है जिसे मदांध सत्ता और कोरपोरेट की तिकड़मों का विरोध करने वाले साधारण लोग लंबे समय तक प्रेरणा, रणनीति और हौसले के लिए पढ़ते रहेंगे.
इसे इसलिए भी याद रखा जाएगा क्योंकि यह अकेला वाक्य ही मोदी के व्यक्तित्व, राजनीति और करिश्मे की कीमियागिरी या धांधली को समझने के लिए काफी है.
गौर करने लायक है कि मोदी विकल्पहीन पराजय के समय भी इस विराट आंदोलन को धार्मिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं. यह संघी ट्रेनिंग है जहां बिना धर्म का चश्मा लगाए कुछ दिखाई नहीं देता. इसके लिए उन्होंने नानक देव के प्रकाश पर्व का दिन चुना और सिखों से घर लौट जाने की अपील की जैसे कृषि कानूनों पर एतराज सिर्फ उन्हें ही हो.
वे नहीं देखना चाहते कि जब उनकी सरकार, भाजपा और गोदी मीडिया ने सिखों को खालिस्तानी साबित करने का कुचक्र चलाया तब कैसे दूसरी जातियों के किसान और नागरिक ढाल बन कर खड़े हो गए. वे मलेर कोटला के मुसलमानों के लंगर और मुजफ्फरनगर की पंचायत के बाद आंदोलन में मुसलमानों का उमड़ना भी नहीं देखना चाहते. वे पंजाब से इतर दूसरे सूबों की भागीदारी को भी नकारना चाहते हैं इसलिए किसानों ने भी राष्ट्र के नाम संबोधन जैसी चीज पर भी यकीन करने से इनकार कर दिया. वे इन कानूनों के रद्द होने पर संसद की औपचारिक मुहर लगने और एमएसपी (फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य) की गारंटी के बाद ही वापस जाएंगे. प्रधानमंत्री पर किसानों का यह अविश्वास अविस्मरणीय है जिसमें आगामी पांच राज्यों के चुनाव और राजनीति के संकेत छिपे हुए हैं.
प्रधानमंत्री मोदी कौन सी तपस्या की बात कर रहे हैं. दिल्ली की ओर आने वाली सड़कों पर खाई खोदवाने, क्रंकीट और बोल्डर की दीवार खड़ी करने, कंटीले तार और सड़कों पर कीलें बिछाने, बीसियों बार लाठी-आंसू गैस-वाटर कैनन चलाने, किसानों पर हमले कराने, मंत्रियों द्वारा उन्हें साल भर से मोदी और कानूनों की अजेयता का दंभ दिखाने, आंदोलन तोड़ने की तिकड़मों की तपस्या? यह कौन सी साधना है जिसमें लखीमपुर का एक लोकल गुंडा किसानों को लक्जरी गाड़ियों से रौंदवा देता है और उसे गृहमंत्री बनाए रख कर कानून के रखवाले के रूप में देश भर में नुमाइश कराई जाती है.
अगर यह तपस्या थी तो सात सौ किसानों की जान कैसे चली गई? उनके परिजनों की बगल में खड़े होकर देखें तो दिखाई देगा कि यह एक ऐसा अंधविश्वासी तांत्रिक अनुष्ठान जरूर था जिसमें कोरपोरेट के महाप्रभुओं को प्रसन्न करके एक बहुत बड़ा वरदान पाना था जिसके लिए सैकड़ो किसानों की बलि चढ़ा दी गई.
इससे बड़ा अंधविश्वास क्या होगा कि जिस कानून को जनता, कोरपोरेट कंपनियों की गुलामी का जाल समझते हुए काटने के लिए लड़ रही है वह प्रधानमंत्री को दीये के प्रकाश जैसा सत्य लग रहा है. उसमें उन्हें आध्यात्मिक आभा और ईश्वर का रूप दिखाई दे रहा है. ये कानून लोकतंत्र, जिसने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है उसका सम्मान करते हुए नहीं, कुछ किसान भाईयों की मूर्खता के कारण वापस लिए जा रहे हैं. कोई नया दांव चलने का समय मिले इसके लिए मूर्खों के आगे झुकने की उनकी महानता की कद्र की जानी चाहिए. ऐसी नजर किसी डिजाइनर तपस्वी की ही हो सकती है जो निराली पोशाकों में कैमरों के आगे ध्यान लगाने का लती हो. कैमरे और अपने बीच धोखे से आ पड़ने वाले मुख्यमंत्रियों से भी सरकारी प्राइमरी स्कूल के बच्चों जैसा सलूक करता हो.
मोदी को धर्म और संस्कृति के प्रतीकों के दुरूपयोग में महारत हासिल है. यही संघ-भाजपा की खास राजनीतिक शैली है जो पिछले सात साल के हिंदुत्व राज में लगातार उग्र और घमंडी होती गई है. इसके मूल में हिंदू धर्म का कोई उदात्त और कल्याणकारी भाव नहीं सिर्फ मुसलमानों से चुनावी अवसरानुकूल घृणा है इसलिए हासिल हमेशा विरोधियों के त्रास और भय के रूप में सामने आता है. जनता भी प्रतिक्रिया में इसी मुहावरे में सोचने की अभ्यस्त हो चली है. इन दिनों कोई यह बात नहीं कर रहा है कि इन कानूनों की वापसी से खेती पर क्या असर पड़ेगा बल्कि इसे मोदी के घमंड के टूटने और मजबूरी में झुकने की दुर्लभ परिघटना के रूप में देखा जा रहा है.
धार्मिक प्रतीकों के साथ एक खास बात है कि उनका असर बाध्यकारी होता है. उनके दुरूपयोग और पाखंड को देख पाने वाले लोगों को भी भीड़ के कोप के आगे सिर झुकाना पड़ता है. ऐसे लोगों के आखेट के लिए ही मोदी सरकार के चारो ओर गोदी मीडिया, भक्तों और ट्रोल आर्मी का घेरा बनाया गया है. दूसरी ओर उनके साथ खिलवाड़ की आसान कामयाबी ऐसी जगह पहुंचा देती है जहां से खिलाड़ी की वापसी संभव नहीं होती. दीये के प्रतीक के दुरूपयोग का ऐसा ही एक नमूना कोरोना की पहली लहर के समय दिखाई दिया था. तब मोदी ने कोरोना भगाने के लिए दीये जलाकर ताली बजाने के लिए कहा था. दीये जले, ताली और थाली गगनभेदी बजी लेकिन जब लोग पटापट मरने और शहरों से भागने लगे तो विश्वसनीयता के खात्मे की शुरूआत भी हो गई.
हे डिजाइनर तपस्वी! व्याकरण की नाक पर रूमाल लपेट कर निष्ठा का तुक विष्ठा से मत मिलाओ. एक बार फिर आत्मनिरीक्षण का अवसर आया है. तुम जिसे दीया कहते हो, वह तुम्हें व्यक्तिगत प्रकाश देता होगा लेकिन देश का तो दुर्भाग्य है.
शीर्षक धूमिल की एक कविता से लिया गया है
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