Opinion

मुक्तिबोध की जाति और जाति-विमर्श की सीमा

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने सप्ताह भर पहले सोशल मीडिया पर लिखा कि मुक्तिबोध कुशवाहा जाति के थे. सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर बहस चल पड़ी कि वह सचमुच कुशवाहा थे या ब्राह्मण थे? बहस की गति पकड़ लेने के बाद दूसरे पत्रकार विश्वदीपक ने स्वर्गीय मुक्तिबोध के बड़े बेटे दिवाकर मुक्तिबोध से फोन पर बातचीत की, जिन्होंने बड़ी शालीनता से अपनी जाति का जिक्र करते हुए बताया कि उनके पूर्वज महाराष्ट्र से आए थे और देशस्थ ब्राह्मण थे. साथ में उन्होंने यह भी जोड़ा कि मेरे पिताजी वामपंथी थे, लेफ्ट थे.

बाद में दिलीप मंडल ने अपने सोशल मीडिया पेज पर लिखा, “कवि मुक्तिबोध को मैंने कभी ब्राह्मण कहकर अपमानित नहीं किया. जिन्होंने किया, उनसे पूछिए. मैंने तो कहा है कि मेहनतकश थे, उत्पादक वर्ग के थे. इसके जवाब में वे उनकी जन्मकुंडली उठा लाए कि मुक्तिबोध देशस्थ ब्राह्मण थे.”

वहां सवाल यह नहीं था कि किसी की जाति के बारे में पता किया जाए, सवाल यह था कि किसी को किसी खास जाति के होने के चलते अपमानित किया जाए (दुर्भाग्य से अधिकांश सवर्ण जातीय आधार पर इसी तरह का भेदभाव सदियों से बहुजनों के साथ करते रहे हैं). इसके साथ ही महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या किसी भी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए अपमानित किया जाना चाहिए क्योंकि वह खास व्यक्ति किसी खास सवर्ण जाति से आता है या आती है? क्या हमें उस लेखक/कवि/रचनाकार/नेता-राजनेता/संस्कृतिकर्मी या फिर किसी इंसान को उनके काम या रचनाकर्म से नहीं आंकना चाहिए? अगर हम ऐसा नहीं करेगें तो वीपी सिंह या फिर अर्जुन सिंह को कहां और किस श्रेणी में रखेंगे?

मुक्तिबोध की जाति जानना और उस पर बहस चलाना पूरी तरह निरर्थक था क्योंकि जैसे दलित-बहुजनों ने ‘नीची’ जाति में पैदा होने के लिए आवेदन नहीं दिया था उसी तरह किसी भी सवर्ण ने भी तथाकथित ‘उंची जाति’ में पैदा होने के लिए आवेदन नहीं दिया था. हां, हम उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर बात करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं और उनकी रचनाओं को हम सभी तरह की कसौटी पर कस सकते हैं.

मुक्तिबोध हमारे समाज के सबसे सचेत संस्कृतिकर्मियों में से एक थे जो अपने शब्दों का चयन काफी बारीकी से करते थे. उनका व्यक्तित्व व रचनाकर्म हर हाल में राजनीतिक था. हम जब मुक्तिबोध पर बात कर रहे हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आजादी के शुरुआती वर्षों में अनेक तथाकथित बड़े-बड़े प्रगतिशील रचनाकार सामाजिक दकियानूसी का पुनर्मुल्यांकन कर रहे थे, मुक्तिबोध ‘मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन का एक पहलू’ लिख रहे थे. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मुक्तिबोध मूलतः मराठी थे जिस समाज पर तात्कालिक रूप से बाल गंगाधर तिलक का ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद प्रभावी था. अगर उन पर ब्राह्मणत्व का असर होता तो वे तिलक के जातीय राष्ट्रवाद के साथ होते न कि मराठा नवजागरण की ज्योतिबा फुले वाली ब्राह्मणवाद विरोधी धारा को आत्मसात करते, जिसकी जड़ें मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन में थी और चारित्रिक रूप से आज भी वह सबसे अधिक मानवीय है.

मुक्तिबोध या मुक्तिबोध जैसों की जाति जानकर उन पर किसी भी तरह के वैचारिक हमले न सिर्फ गैरजरूरी हैं बल्कि वैचारिक शून्यता की तरफ भी इशारा करते हैं. यहां परेशानी यह है कि कई दलित-बहुजन बुद्धिजीवी भी हर इंसान या संस्कृतिकर्मी को उनकी जाति देखकर हमले करते हैं और उससे भी अधिक दुखद यह है कि उनके केन्द्र में सबसे अधिक प्रगतिशील तबका व विचारधारा ही होता है.

एक बात पर और ध्यान देने की जरूरत है कि आजादी के बाद से प्रगतिशीलों, उदारवादियों पर सबसे अधिक हमले आरएसएस ने किए हैं. उसके हमले की जद में वे कांग्रेसी नहीं रहे जो हिन्दुवादी थे या हर हाल में कट्टर धार्मिक थे, वे उन कांग्रेसियों के प्रति हमलावर थे जिनकी सोच प्रगतिशील थी. आरएसएस इस बात को बहुत अच्छी तरह जानता है कि समाज में अगर सांस्कृतिक रूप से कुछ भी सकारात्मक हो रहा है तो उसमें प्रगतिशील खेमे की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है, इसलिए उसके द्वारा जानबूझ कर उन पर हमले किए जाते रहे. और आज तो हालात ऐसे बना दिए गए हैं कि प्रगतिशील नाम लिए जाने के बाद समाज में सबसे अधिक हंसी उन्हीं तबको की उड़ाई जाती है. संघ को पता है कि उसके अज्ञानता और जातीय श्रेष्ठता के विचार को सबसे अधिक चुनौती यही विवेकशील, प्रगतिशील तबका दे सकता है.

इसलिए बहुजन बौद्धिकों द्वारा प्रगतिशील तबकों और उन विचारों पर इस तरह के हमले चौंकाते हैं. आखिर वे क्या सोचकर उन पर इस तरह के हमले करते हैं? आरएसएस वाले प्रगतिशीलों के ऊपर हमले करते हैं यह बात तो समझ में आती है, परन्तु बहुजन विचारकों द्वारा प्रगतिशील समुदाय के ऊपर इस तरह के हमले किसकी तरफ इशारा करता है?

गलत ही सही, संघ की अपनी वैचारिकी है और उसी आधार पर वह अपना समाज बनाना चाहता है जिसमें पुरातनपंथ की प्रतिष्ठा और सवर्ण श्रेष्ठता को स्थापित करने की लालसा है. लेकिन बहुजनों के पास तो कोई वैकल्पिक ‘विजन’ ही नहीं है? समाजवादियों के सबसे बड़े राजनैतिक व सांस्कृतिक पुरोधा डॉ. राम मनोहर लोहिया सांस्कृतिक रूप से राम की ओर बहने वाले इंसान थे जिन्होंने राम और रामायण मेला लगाकर भारतीय संस्कृति में अधिक भारतीयता को समाहित करने का प्रयास किया.

उत्तर भारत के पिछड़ों में त्रिवेणी व अर्जक संघ को छोड़कर कोई वैकल्पिक सांस्कृतिक विरासत खड़ा करने की कोशिश नहीं हुई और मोटे तौर पर लगभग सत्तर साल का इतिहास बिना किसी सांस्कृतिक बहस के सिर्फ राजनीतिक जोड़-तोड़ पर चलाया जा रहा है. फिर इस तरह से प्रगतिशील सांस्कृतिक व्यक्ति व विरासत पर हमलावर होना किस चीज का परिचय देता है? तीन दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने वरिष्ठ वकील सौरभ किरपाल को हाईकोर्ट में जज नियुक्त करने की अनुशंसा की गई जिसे सरकार ने मान लिया. सौरभ किरपाल देश एलजीबीटी समुदाय से आने वाले देश के पहले हाईकोर्ट जज होंगे. हां, सौरभ किरपाल भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस बीएन किरपाल के बेटे हैं. यह भी सही है कि कॉलेजियम सिस्टम की अपनी निहित दिक्कतें हैं. फिर भी एलजीबीटी समुदाय के किसी सदस्य को जज बनाया जाना बेहद प्रगतिशील और महत्वपूर्ण फैसला है. इस पर बात न करके, बहस उस पर चलाई जाने लगी कि कैसे किसी खास आदमी के बेटे को यह ‘सुविधा मुहैया’ करा दी गई है!

कई बार बहुजन बौद्धिकों का जातीय विमर्श या बहस, खुद को ‘अंधेरे में’ ले जाने वाली बहस बन जाती है. इसमें क्षणिक सनसनी के अलावा कोई दूरगामी लक्ष्य या विचार नहीं होता, समाज का कोई हित नहीं होता. कभी-कभी तो लगता है कि इस तर्कपद्धति से ये लोग कभी अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाहों का भी विरोध न शुरु कर दें. जो कि सामाजिक परिवर्तन के सबसे सार्थक कदम है. बौद्धिकों का सबसे सार्थक कदम यह होना चाहिए कि वो समाज को दो क़दम आगे की तरफ ले जाएं न कि उसे पीछे की तरफ धकेलें. दुखद यह है कि हड़बड़ी में वे अक्सर ऐसा कुछ कर देते हैं जिससे आगे बढ़ना तो दूर बल्कि रास्ता भी भटक जाते हैं!

इसका सबसे दुखद पहलू यह भी है कि लोहिया, अंबेडकर, कांशीराम की विरासत की बात करने वाली ताकतें (खासकर समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी) जब पूरी तरह ब्राह्मणों को पूज्य और ब्राह्मण सम्मेलन करने के साथ-साथ परशुराम का मंदिर बनाने की बात करती हैं तब ये बौद्धिक पूरी तरह चुप्पी साध लेते हैं!

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