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उत्तर प्रदेश की एनकाउंटर संस्कृति और न्यायेतर हत्याएं

न्याय की पूरी प्रक्रिया से गुजरे बिना, केवल पुलिस द्वारा होने वाले एनकाउंटर, गैर-न्यायिक या न्यायेतर हत्याएं कही जाती हैं. भारत में एनकाउंटर कोई हाल के वर्षों की घटनाएं नहीं हैं. पुलिस फायरिंग या अदालत ले जाते समय या किसी और परिस्थिति में पुलिस के हाथों ऐसी हत्याएं होती रही हैं. जिन्हें बाद में एनकाउंटर कहा गया. हालांकि पहले पुलिस फायरिंग से होने वाली ज्यादातर मौतें “अशांत” या संघर्षरत, मसलन देश के पूर्वोत्तर भागों में, जम्मू-कश्मीर या नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों में ही देखी जाती थीं. अब ऐसी घटनाएं देश के कई हिस्सों में नियमित ‘पुलिस अभ्यास’ बन गई हैं. ऐसा ही एक राज्य उत्तर प्रदेश (यूपी) है.

इन मौतों और घटनाक्रमों पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी संज्ञान लिया है. इनकी समीक्षा संयुक्त राष्ट्र के पांच विशेष दूतों (रेपोर्तार) ने की है. इन हत्याओं की निष्पक्ष जांच की मांग करने वाली कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) में लंबित हैं.

9 मई 2018 को, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपने जांच विभाग को उत्तर प्रदेश के 17 मामलों में तथ्य-शोधन से जुड़ी जांच करने का निर्देश देते हुए एक आदेश पारित किया. यह जांच चार सप्ताहों के भीतर की जानी थी. मई 2018 में, जब एनएचआरसी ने अपनी जांच शुरू की तब पाया कि पुलिस फायरिंग में मरने वालों की संख्या 50 थी. तीन साल बाद, इसी तरह से पुलिस द्वारा लगभग 100 और लोग मारे जा चुके हैं. इस बीच, एनएचआरसी की जांच या तो उचित पड़ताल के बिना बंद कर दी गई या तीन साल बाद भी लंबित है.

यह रिपोर्ट उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा कथित एनकाउंटर के 17 मामलों में हुई 18 युवकों की मौत की जांच करती है, जिसकी जांच एनएचआरसी ने की थी. ये हत्याएं पश्चिमी यूपी के 6 जिलों में मार्च 2017 और मार्च 2018 के बीच हुईं. यह रिपोर्ट इन 17 मामलों में की गई जांच और पड़ताल का मूल्यांकन करती है और जांच एजेंसी, कार्यकारी मजिस्ट्रेट, न्यायिक मजिस्ट्रेट और एनएचआरसी की भूमिका की भी जांच करती है कि उन्होंने मौजूदा कानूनी ढांचे का अनुपालन किया है या नहीं.

2014 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देश, (जिनके पास कानून की बाध्यकारी शक्ति है) के साथ एनएचआरसी दिशानिर्देश, भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के मामलों में जांच और मुकद्दमे के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करते हैं.

रिपोर्ट में इन हत्याओं की जांच में जांच-एजेंसी और न्यायिक मजिस्ट्रेटों द्वारा प्रक्रियात्मक और मूल दोनों तरह के कानूनों के घोर उल्लंघन का खुलासा किया गया है. एनएचआरसी जैसे स्वतंत्र निकाय और मजिस्ट्रियल पूछताछ जैसे निगरानी-तंत्र कानून के इन उल्लंघनों को पहचानने में विफल रहे हैं और इन घटनाओं पर पुलिस के कथनों के तथ्यात्मक विरोधाभासों को नजरअंदाज कर दिया. साथ ही, उन्होंने इन जांचों के दौरान पुलिस द्वारा अपनाई गई असंवैधानिक प्रक्रियाओं को नियमित रूप से अनदेखा किया है.

रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं-

1. विश्लेषण किए गए 17 मामलों में से एक भी मामले में हत्या में शामिल पुलिस टीम के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई. बजाय इसके, सभी 17 मामलों में, मृतक पीड़ितों के खिलाफ आईपीसी की धारा 307 और अन्य अपराधों के तहत हत्या के प्रयास के आरोप में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई.

2. 17 मामलों में से प्रत्येक में मृतक पीड़ितों के खिलाफ दर्ज एफआईआर में हत्या की घटनाओं के एक समान क्रम का दावा किया गया है– पुलिस अधिकारियों और कथित अपराधियों के बीच अचानक गोलीबारी का विवरण जिसमें पुलिस पर गोली चलाई जाती है, और फिर (आत्मरक्षा में) पुलिस फायर-बैक करती है, कथित अपराधियों में से एक की मौत हो जाती है जबकि उसका साथी हमेशा भागने में सफल रहता है– यह नियमित पैटर्न इन दावों की सत्यता के बारे में संदेह पैदा करता है.

3. एनएचआरसी और पीयूसीएल में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए, अधिकांश मामलों में, प्रारंभिक जांच उसी पुलिस स्टेशन के एक पुलिस अधिकारी द्वारा कराई गई, जहां की पुलिस-टीम हत्या में शामिल थी. ज्यादातर मामलों में जांच अधिकारी की रैंक “एनकाउंटर” टीम के वरिष्ठ व्यक्ति की रैंक के समररूप पायी गयी. इन सभी मामलों में, सिर्फ पीयूसीएल के दिशानिर्देशों का अनुपालन दिखाने के लिए जांच को बाद में दूसरे पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित कर दिया गया.

4. रिपोर्ट में अध्ययन किए गए सभी मामलों में, एक अलग थाने के ‘स्वतंत्र’ जांच-दल द्वारा की गई जांच अपर्याप्त थी. ये जांच पुलिस के कथनों को स्वीकार करती है कि उन्होंने पीड़ितों को “आत्मरक्षा” के प्रयास में मार डाला, नियम यह है कि हत्या के लिए आत्मरक्षा के औचित्य को न्यायिक परीक्षण के माध्यम से साबित और निर्धारित किया जाना चाहिए. पुलिस के बयान से पुलिस के बचाव का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है या इसके माध्यम से इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती है. बल का प्रयोग आवश्यक और आनुपातिक था या नहीं, इस पर कोई जांच नहीं की गई. तथ्यात्मक विसंगतियों और अंतर्विरोधों की भी अनदेखी की गई. जिनमें –

क. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में घातक बल का प्रयोग साबित हुआ है. 17 पीड़ितों में से 12 के शरीर में धड़, पेट और यहां तक कि सिर पर भी गोलियों के कई घाव दिखे. कुछ शवों में फ्रैक्चर होना भी पाया गया. पांच मृतक पीड़ितों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गोली के घाव के आसपास कालापन और टैटू जैसे निशान थे जो नजदीक से फायरिंग का संकेत देते हैं. यह पुलिस के इस दावे का खंडन करते हैं कि कम से कम बल का प्रयोग किया गया था या कि गोलियों का उद्देश्य पीड़ितों के शरीर के निचले हिस्से को स्थिर करना और उनकी गिरफ्तारी सुनिश्चित करना था.

ख. पुलिस को केवल मामूली चोटें आना– इन 17 पुलिस हत्याओं में शामिल लगभग 280 पुलिसकर्मियों में से केवल 20 पुलिस अधिकारी ही घायल हुए. विश्लेषण किए गए 17 मामलों में से 15 में पुलिस को केवल मामूली चोटें आईं.

ग. अपर्याप्त सबूत कि मृतक या उसके साथी के पास हथियार थे या पुलिस पर गोली चलाई गई थी– सात मामलों में, मृतक की उंगलियों के निशान अपराध स्थल से बरामद हथियारों पर नहीं पाए गए थे. इसलिए, पुलिस का दावा कि पीड़ितों ने उन पर गोली चलाने के लिए हथियारों का इस्तेमाल किया. यह पुलिस के दावों व रिकॉर्ड के विपरीत है.

घ. यह साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है कि पुलिस द्वारा जवाबी फायरिंग जरूरी थी– जवाबी फायरिंग की जरूरत के सबूत के तौर पर बुलेट प्रूफ जैकेट को गोलियों के साथ पेश किया गया. कम से कम 16 बुलेट प्रूफ जैकेट में गोलियां दिखाई गईं. हालांकि, इन गोलियों का उन हथियारों से कोई संबंध नहीं है जिनके बारे में दावा किया गया है कि ये मृतक के पास से बरामद किए गए हैं. यह भी निर्णायक रूप से नहीं दिखाया गया है कि ये बुलेट प्रूफ जैकेट वास्तव में कथित “मुठभेड़” में इस्तेमाल किए गए थे. कुछ मामलों में, पुलिस को लगी गोली की चोटों का मृतक द्वारा कथित रूप से इस्तेमाल किए गए हथियारों से कोई संबंध नहीं है.

5. विश्लेषण किए गए 17 मामलों में से 16 में जांच-अधिकारी ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष अदालत में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करके जांच को बंद कर दिया. सबूतों से उभरने वाले तथ्यात्मक विरोधाभासों को देखते हुए, सभी 16 मामलों में क्लोज़र-रिपोर्ट पुलिस के कथनों की पुष्टि करती है कि फायरिंग आत्मरक्षा में की गई थी. सभी मामलों को इस आधार पर बंद कर दिया गया कि पीड़ित– जिन्हें “आरोपी” के रूप में नामित किया गया था– मर चुके थे, और पुलिस को उस साथी के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली जो अपराध स्थल से भाग गया था. इस प्रक्रिया को अन्य मामलों में उच्च न्यायालयों और एनएचआरसी द्वारा असंवैधानिक ठहराया गया है.

6. 16 में से 11 मामलों में जहां पुलिस द्वारा क्लोजर रिपोर्ट दर्ज की गई थी, ऐसा प्रतीत होता है कि मजिस्ट्रेट ने इन मामलों में मृतक को “आरोपी” के रूप में नामित करके, मामले को बंद करने से पहले पीड़ित परिवार को नोटिस जारी करने की न्यायालय की इस आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया. मजिस्ट्रेट ने प्राथमिकी में शिकायतकर्ता पुलिस अधिकारी को नोटिस जारी किया, जो जांच को बंद करने के लिए “अनापत्ति” पत्र देता है. इस प्रक्रिया के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट जांच को बंद कर देते हैं.

7. कानून (सीआरपीसी की धारा 176 (1-ए)) के मुताबिक मौत के कारणों की जांच न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा की जानी चाहिए, हालांकि कम से कम आठ मामलों में, यह जांच कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा की गई थी जो सीआरपीसी के प्रावधानों का उल्लंघन है. यह उल्लंघन यह भी दर्शाता है कि जवाबदेही से बचने के लिए पीयूसीएल दिशानिर्देशों में स्पष्टता की कमी का फायदा उठाया जा रहा है. कार्यकारी मजिस्ट्रेटों ने पुलिस हत्याओं को “वास्तविक” माना, जो उनकी शक्तियों और अधिकार क्षेत्र से परे है. उनका काम केवल मृत्यु के कारण को निर्धारित करना है ना कि यह तय करना है कि कोई अपराध किया गया है या नहीं. कार्यकारी मजिस्ट्रेट के निष्कर्ष और रिपोर्ट पुलिस कथनों पर आधारित हैं, और अधिकांश रिपोर्ट फॉरेंसिक या बैलिस्टिक साक्ष्य पर विचार तक नहीं करती. परिवार के सदस्यों के बयान या तो दर्ज नहीं किए गए हैं और यदि किए हैं तो सही तरीके से नहीं.

8. एनएचआरसी द्वारा इस रिपोर्ट में विस्तृत 17 मामलों की जांच के निर्देश के तीन साल बाद, 14 मामलों का फैसला किया गया है, जिस में दो मामले अब भी लंबित हैं और एक मामले की स्थिति सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है. एनएचआरसी द्वारा तय किए गए 14 मामलों में से 12 मामलों को बंद कर दिया गया, पुलिस की ओर से कोई गड़बड़ी नहीं पाई गई, और एक मामला उत्तर प्रदेश राज्य मानवाधिकार आयोग को स्थानांतरित कर दिया गया. केवल एक मामले में, एनएचआरसी ने माना कि मृतक पुलिस द्वारा ‘फर्जी मुठभेड़’ में मारा गया था. सिर्फ यही नहीं एनएचआरसी द्वारा की गई अन्य पूछताछ में पुलिस की कहानी में तथ्यात्मक विरोधाभासों और विसंगतियों की अनदेखी की गई है. यह प्रक्रियात्मक और मूल रूप से कानून के उल्लंघन पर भी आंखें मूंद लेता है, उदाहरण के लिए, मृतक पीड़ितों के खिलाफ सभी प्राथमिकी दर्ज करना और पुलिस के खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं करना; आत्मरक्षा के पुलिस के कथन के आधार पर जांच को बंद करना, आत्मरक्षा के औचित्य का कोई न्यायिक निर्धारण न होना, अपराध की जगह से सबूत इकट्ठा करने और उसे सहेजने में उल्लंघन करना, अक्सर उसी पुलिस स्टेशन से सम्बंधित पुलिस अधिकारियों द्वारा जांच करना जहां कि पुलिस हत्याओं में शामिल थी.

9. जांच और जवाबदेही सुनिश्चित करने का भार पूरी तरह पीड़ित परिवारों पर पड़ता है. परिवारों को झूठे और मनगढ़ंत आपराधिक मामलों के जरिए डराया धमकाया जाता है और उनका उत्पीड़न किया जाता है. राज्य और गैर-राज्य अभिकर्ता द्वारा पीड़ित परिवारों और कानूनी-सहायता प्रदान करने वाले मानवाधिकार रक्षकों के उत्पीड़न के बारे में एनएचआरसी को कम से कम 13 पत्र दिए गए. एनएचआरसी ने पीड़ितों के परिवारों के उत्पीड़न से संबंधित पत्रों का न तो कोई जवाब दिया और न ही रिकॉर्ड में लिया. मानवाधिकार रक्षकों के उत्पीड़न के मामलों में जांच का निर्देश दिया लेकिन उन पूछताछों को भी बंद कर दिया.

10. यह रिपोर्ट पुलिस हत्याओं के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने में आपराधिक न्याय प्रणाली की घोर विफलता को उजागर करती है. यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे न्याय-प्रणाली मौत का कारण बनने वाले, बल के उपयोग के लिए पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही तय करने में असमर्थ है. यह पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों में अस्पष्टता और अंतर को उजागर करती है जो प्रभावी रूप से हत्याओं के लिए दण्ड मुक्ति की बात करते हैं. इनमें पुलिस के खिलाफ दर्ज की जाने वाली प्राथमिकी पर अनिश्चितता और अस्पष्टता का परिचय देना शामिल है ताकि जांच के स्तर पर ही आत्मरक्षा की दलील का दुरुपयोग किया जा सके. इनमें पुलिस हत्याओं में न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा अनिवार्य जांच के सम्बंध में अस्पष्टता भी शामिल है. अंततः यह भी असंभव है कि राज्य पुलिस विभाग द्वारा अपने ही सहयोगियों द्वारा किए गए अपराधों की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच की जाए.

(साभार- जनपथ)

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