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एनसीबी पर सवाल उठ रहे हैं लेकिन इस समस्या का एक पार्ट एनडीपीएस एक्ट भी है
स्वापक नियंत्रण ब्यूरो (एनसीबी) द्वारा अपने मुंबई मंडलीय निदेशक समीर वानखेड़े के खिलाफ गड़बड़ी के आरोपों की सतर्कता जांच के आदेश के बाद, एजेंसी के आचरण पर सवाल उठ रहे हैं.
लेकिन मशहूर हस्तियों से जुड़े मामलों के कारण एनसीबी के सुर्खियों में आने से बहुत पहले, संसद में इस बारे में चिंताएं उठाई गई थीं कि कानून प्रवर्तन एजेंसियां स्वापक औषधि और मन प्रभावी पदार्थ (एनडीपीएस) अधिनियम को किस प्रकार लागू करेंगी.
29 अगस्त 1985 को तत्कालीन राजीव गांधी सरकार में वित्त राज्यमंत्री जनार्दन पुजारी ने राज्यसभा में एनडीपीएस विधेयक पेश किया था.
नारकोटिक ड्रग्स पर संयुक्त राष्ट्र एकल सम्मेलन, 1961 के हस्ताक्षरकर्ता के रूप में, भारत नशीले पदार्थों के निर्माण, आपूर्ति और खपत को नियंत्रित करने तथा चिकित्सा और वैज्ञानिक कार्यों के अलावा किसी भी प्रयोजन के लिए कैनबिस के पारंपरिक उपयोग को बंद करने के लिए मजबूत कानून बनाने के लिए बाध्य था. ऐसा समझौते पर हस्ताक्षर करने के 25 वर्षों के भीतर किया जाना अनिवार्य था और समय समाप्त हो रहा था.
औपनिवेशिक युग के दौरान भारत में नशीले पदार्थों के विरुद्ध बने कानून विकेंद्रीकृत थे.
अफीम अधिनियम 1857; अफीम अधिनियम 1878; और डेंजरस ड्रग्स अधिनियम, 1930 के तहत ब्रिटिश केंद्र सरकार को अफीम और अन्य मादक पदार्थों को नियंत्रित करने का अधिकार था. विभिन्न रूपों में कैनबिस और उसके उप-उत्पादों पर नियंत्रण राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया था, जो अपने खुद के कानून लागू करते थे.
एनडीपीएस विधेयक में नशीली दवाओं संबंधित अपराधों के लिए प्रस्तावित दंड था न्यूनतम 10 साल का कठोर कारावास, जिसे 20 साल तक बढ़ाया जा सकता है और न्यूनतम एक लाख रुपए का जुर्माना जो दो लाख रुपए तक बढ़ाया जा सकता है.
इसमें मादक द्रव्यों का सेवन करने वालों और उनके आदी हो चुके लोगों के साथ अलग-अलग व्यवहार करने का प्रस्ताव था, जिसमें कोकीन, मॉर्फिन या हेरोइन जैसी 'हार्ड ड्रग्स' का सेवन करने या रखने के लिए एक साल की कैद या जुर्माना या दोनों और अन्य मादक और मन प्रभावी पदार्थों से संबंधित अपराधों के लिए छह महीने की कैद या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है.
विधेयक में जजों को यह अधिकार दिया गया था कि वह कम मात्रा में नशीली दवाओं का सेवन करने या रखने के दोषी पाए गए व्यसनी को नशा मुक्ति की प्रक्रिया से गुजरने के लिए प्रोबेशन पर रिहा कर सकते हैं.
संसद में पुजारी ने सांसदों से कहा, "पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अवैध नशीली दवाओं की तस्करी और उनके सेवन में उल्लेखनीय वृद्धि ने मौजूदा कानूनों में कई कमियों को उजागर किया है."
पुजारी ने कहा कि तत्कालीन कानूनों में प्रमुख खामियां थीं मन प्रभावी पदार्थों (उस समय के नए नशीले पदार्थ) पर प्रभावी नियंत्रण की कमी और इन अपराधों के लिए निम्नस्तरीय दंड का प्रावधान.
पश्चिम बंगाल से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सांसद निर्मल चटर्जी ने शिकायत की कि उनकी पार्टी के सांसदों को विधेयक पेश किए जाने की सूचना उस सुबह के अखबारों से ही मिली थी.
“जब अखबार में पढ़ा कि यह विधेयक लाया जा रहा है तो हम हैरान रह गए. उसके बाद जब पेपर आए तो सुबह के 9 बजे थे. तब से मैंने बिल का एक भी पन्ना नहीं पलटा, यह जानने की उम्मीद में कि खण्डों की संख्या 83 है, जिसे यहां उद्धृत किया गया है,” उन्होंने कहा.
माकपा ने पुजारी से आग्रह किया कि वह अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के सांसद आर रामकृष्णन द्वारा पेश किए गए संशोधन का समर्थन करें, जिसमें विधेयक को विस्तृत अध्ययन और बहस के लिए प्रवर समिति के पास भेजने का प्रस्ताव था.
लोकसभा में जबलपुर से कांग्रेस सांसद अजय मुशरान ने कहा कि 'कम मात्रा' में नशीले पदार्थों से संबंधित धारा 27, विधेयक में एक 'गंभीर कमी' है. एनडीपीएस विधेयक ने यह परिभाषित नहीं किया था कि किसी विशेष मादक पदार्थ की कितनी मात्रा को 'कम मात्रा' कहा जा सकता है.
"आप भ्रष्ट अधिकारियों के लिए भानुमती का पिटारा खोल रहे हैं... 'छोटी मात्रा' की परिभाषा को विधेयक से बाहर नहीं रखा जाना चाहिए,” मुशरान ने चेताया, और कहा कि जब तक सरकार 'छोटी मात्रा' को परिभाषित नहीं करती, कानून के दुरुपयोग की प्रबल संभावना बनी रहेगी.
"आप निवारक दंड का प्रावधान कर रहे हैं, लेकिन 95 प्रतिशत मामलों में केवल 13 या 25 ग्राम नशीले पदार्थ ही पाए गए हैं. आपके लक्ष्य और उद्देश्य उसके अनुरूप नहीं हैं जो 'छोटी मात्रा' की परिभाषा के संदर्भ में कहा गया है, क्योंकि 95 प्रतिशत मामले अधिकारियों की अनुकंपा पर छोड़े जा रहे हैं," उन्होंने कहा.
बिहार के जहानाबाद से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद रामाश्रय प्रसाद सिंह ने भी अपनी बात को साबित करने के लिए एक किस्सा पेश किया.
"मैंने जहानाबाद थाने के परिसर में एक पेड़ देखा. लोगों ने मुझे बताया कि वह गांजे का पेड़ था. अब आप हमें बताएं कि अगर थाने में स्थित पेड़ पर 30 किलो गांजा होगा, तो वहां के पुलिसकर्मी, जिन्हें कानून लागू करना है, उसे कैसे लागू करेंगे? अगर पुलिसकर्मी, जिन्हें अपराधियों को पकड़ना है, इस तरह के कृत्यों में लिप्त हैं, तो दूसरों के बारे में क्या कहा जाए?" सिंह ने कहा.
पुजारी ने सांसदों द्वारा उठाई गई चिंताओं को खारिज कर दिया.
"एक ग्राम (नशीला पदार्थ) रखना भी दंडनीय है, और जहां यह दंडनीय नहीं है वहां यह सिद्ध करने का भार संबंधित व्यक्ति पर है कि (नशीला पदार्थ) न्यूनतम (मात्रा में) रखा गया है," उन्होंने कहा.
विधेयक को प्रवर समिति के पास नहीं भेजा गया और 1985 में संसद के मानसून सत्र के दौरान जल्दबाजी में पारित कर दिया गया.
14 नवंबर 1985 को एनडीपीएस अधिनियम लागू हुआ.
17 मार्च 1986 को सरकार ने एनसीबी की स्थापना की ताकि केंद्र और राज्य के विभिन्न विंगों द्वारा एनडीपीएस अधिनियम के तहत की जाने वाली कार्यवाही का समन्वय किया जाए और यह सुनिश्चित हो कि भारत ने नशीली दवाओं पर अंतरराष्ट्रीय समझौतों के अंतर्गत अपने दायित्वों को पूरा किया और ड्रग्स की अवैध तस्करी पर लगाम लगाई.
जल्दबाजी में बनाए गए कानून की कमियां जल्द ही उजागर हो गईं. 1988 में शीतकालीन सत्र के दौरान अधिनियम में संशोधन के लिए एक विधेयक संसद में पेश किया गया.
20 दिसंबर को राज्यसभा में राजस्थान के सांसद कमल मोरारका ने उल्लेख किया कि एनडीपीएस अधिनियम लागू होने के प्रथम तीन वर्षों में कानून के तहत जो 1,800 दोषी पाए गए, उनमें से अधिकांश ऐसे मामले थे जहां पुलिस ने दो ग्राम, पांच ग्राम और 10 ग्राम ड्रग्स जब्त किए थे.
"मैं मंत्री जी से विशेष आश्वासन चाहता हूं कि इस अधिनियम को लागू करते समय ड्रग्स के साथ पाए जाने वाले नशेड़ी और ड्रग्स के साथ पाए जाने वाले तस्कर या डीलर के बीच स्पष्ट अंतर होना चाहिए. अब यह एक बेहद बारीक भेद है, लेकिन मानवीय दृष्टिकोण से बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि पांच ग्राम के साथ पकड़े जाने वाला व्यक्ति नशे का आदी है तो वह एक रोगी है, उसे हमारी सहानुभूति की जरूरत है, उसे बहुत ही विशेष उपचार की आवश्यकता है. उसे जेल में डालने से किसी समस्या का हल नहीं होगा. दुर्भाग्य से, जिस प्रकार आज कानून लागू किया जा रहा है, उससे नशे का आदी वह बेचारा बच्चा जो इस समस्या का दुर्भाग्यपूर्ण शिकार बन गया है, उसे ही पकड़कर जेल में डाला जा रहा है.
वास्तविक बड़े ड्रग तस्कर, सीमा पार से इन पदार्थों का व्यापार करने वाले कार्टेल अभी भी आनंद ले रहे हैं, अपना व्यवसाय बढ़ा रहे हैं, भारत को एक ट्रांजिट पॉइंट की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं और उनका व्यवसाय दिन-प्रतिदिन फल-फूल रहा है,” मोरारका ने कहा.
उन्होंने यह भी चेताया कि नशीली दवाओं के उपभोक्ता और तस्कर के बीच अंतर किए बिना, एजेंसियों द्वारा अधिनियम का व्यापक प्रवर्तन 'बहुत खतरनाक' हो सकता है.
“जब तक स्वापक नियंत्रण ब्यूरो में ऐसे लोग न हों जिनकी सत्यनिष्ठा पर कोई संदेह न किया जा सके, तब तक आपके लिए इस अधिनियम को लागू करना असंभव होगा. मैं मंत्री जी के ध्यान में लाना चाहता हूं कि स्वापक नियंत्रण ब्यूरो का प्रमुख ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो मादक द्रव्यों के सेवन की रोकथाम के लिए समर्पित हो. यह एक प्रकार की राष्ट्रीय प्रतिबद्धता है जो उसके पास होनी चाहिए. यह सोने की तस्करी या घड़ी या ट्रांजिस्टर की तस्करी रोकने जैसा केवल आर्थिक मामला नहीं है. यह एक ऐसी वस्तु है जो न केवल इस पीढ़ी, बल्कि आने वाली कई पीढ़ियों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती है. जब तक आप बेदाग सत्यनिष्ठा वाले अधिकारियों को नहीं रखेंगे, यह अधिनियम आपकी मदद नहीं कर पाएगा,” मोरारका ने कहा.
तत्कालीन वित्त राज्य मंत्री अजीत कुमार पांजा ने कानून प्रवर्तन एजेंसियों का बचाव किया. "मैं सदस्यों से सहमत नहीं हूं कि हमारे अधिकारी भ्रष्ट हैं. उनमें से अधिकांश अच्छे हैं और कड़ी मेहनत करते हैं," उन्होंने कहा, लेकिन फिर यह स्वीकार किया कि 'एक-दो' अधिकारी ऐसे हो सकते हैं जो इस विवरण से मेल नहीं खाते.
संशोधन 1989 में धारा 31 (ए) के साथ पारित किया गया, जिसमें ऐसे दोषियों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान था जो पहले भी अधिनियम के तहत दोषी पाए जा चुके हैं.
अधिनियम में संशोधन के लिए एक दूसरा विधेयक 1998 में संसद में पेश किया गया. 1985 में पारित किए गए मूल कानून के विपरीत, एनडीपीएस अधिनियम में संशोधन करने के लिए 1998 के विधेयक को वित्त संबंधी संसदीय स्थायी समिति को जांच के लिए भेजा गया.
इसी बीच सरकार ने ड्रग्स की मात्रा को छोटी, व्यावसायिक और दोनों के बीच की मात्रा के रूप में वर्गीकृत करके 'पीड़ितों' और उनके 'उत्पीड़कों' के बीच अंतर करने का प्रयास किया.
लेकिन लंबे इंतज़ार के बाद जब नवंबर 2000 में वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने संसद में विधेयक पेश किया तो सदस्यों ने फिर से ड्रग्स की मात्रा के वर्गीकरण की अस्पष्टता पर चिंता जताई.
पश्चिम बंगाल से राज्यसभा सांसद भारती रे ने 'छोटी मात्रा से अधिक लेकिन व्यावसायिक मात्रा से कम' की शब्दावली की अस्पष्टता की ओर इशारा किया. उन्होंने कहा कि यह अस्पष्टता ड्रग माफिया के लिए सहायक होगी और इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा.
उन्होंने एक और दोष का भी उल्लेख किया. 'उपयोगकर्ता' शब्द को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है. इसका उल्लेख नहीं किया गया है कि उपयोगकर्ता व्यक्तिगत उपयोग करने वाला है, दूसरों को देने वाला है या लाभ कमाने वाला है. इसलिए यह विधेयक ड्रग्स का उत्पादन या बिक्री कर जानबूझकर नियम तोड़ने वालों और ड्रग्स का उपयोग करने वालों को एक साथ मिलाकर देखता है," रे ने कहा.
कानून को ईमानदारी से लागू करने के सवाल पर भी सिन्हा अधिक भरोसा नहीं दिला सके. "कोई भी सरकार शक्ति के दुरुपयोग की संभावना से इंकार नहीं कर सकती है," उन्होंने स्वीकार किया.
उन्होंने कहा कि इस संशोधन के ज़रिये सरकार उस व्यवस्था को सुधरने का प्रयास कर रही है जहां अभियोगाधीन कैदी न्यायिक देरी के कारण वर्षों जेल में रहते हैं. "मुझे नहीं लगता कि यह कोई ऐसा विषय है जिस पर किसी भी लोकतंत्र को वास्तव में गर्व हो सकता है, कि हमारे पास एक ऐसी प्रणाली है जहां न्यायिक देरी होती है; जहां अदालतें विभिन्न कारणों से मामलों का निपटारा करने में सक्षम नहीं हैं, जिसके लिए हम भी कुछ हद तक जिम्मेदार हो सकते हैं," उन्होंने कहा.
इस अधिनियम को 2001 में संशोधित किया गया और किसी नशीली दवा की छोटी मात्रा रखने के दोषी व्यक्ति को व्यावसायिक मात्रा रखने के दोषी व्यक्ति से अलग दंड का प्रावधान किया गया.
2014 में अधिनियम में तीसरी बार संशोधन किया गया. सरकार ने पूर्व दोषियों को मृत्युदंड देने पर अपना रुख नरम किया और मौत की सजा को वैकल्पिक बना दिया.
सरकार द्वारा अधिनियम में किए जाने वाले नवीनतम परिवर्तनों में व्यक्तिगत उपभोग के लिए कम मात्रा में नशीली दवाएं रखने को अपराध की श्रेणी से बाहर किया जा सकता है.
एनडीपीएस अधिनियम के तहत यह सिद्ध करने का दायित्व प्रतिवादी पर होता है कि उसके पास उपलब्ध ड्रग्स की छोटी मात्रा उसके व्यक्तिगत उपभोग के लिए है. इस महीने सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने सिफारिश की कि धारा 27 के तहत नशीली दवाओं के सेवन की सजा को एक साल के कारावास या 20 हजार रुपए के जुर्माने या दोनों और 30 दिनों के अनिवार्य पुनर्वास और परामर्श में बदला जाए.
पिछले एक साल के दो हाई-प्रोफाइल मामलों में एनसीबी ने अभिनेता रिया चक्रवर्ती और अभिनेता शाहरुख खान के 23 वर्षीय बेटे आर्यन खान पर धारा 27 के तहत मामला दर्ज किया था जबकि उनके पास कोई ड्रग्स नहीं मिले थे. भले ही मंत्रालय की सिफारिशें कानून बन जाएं, लेकिन यह बदलाव पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं किए जा सकते.
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